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सौन्दर्य और जीवन

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 सौन्दर्य में बासी को ताजा करने की अद्भूत क्षमता होती है। जीवन को उत्साह और उल्लास से भरने में उत्सवों और सौन्दर्य की भूमिका बहुत ही विशिष्ट होती है। इसी कारण भारतीय परम्परा में हर दिवस किसी न किसी त्यौहार के रुप में मनाया जाता है। प्रथमा तिथि से लेकर अमावस्या एवं पूर्णिमा तक उत्सव की धूम बनी रहती है। सुहागन महिलाएँ विशेष रुप से व्रतों और उत्सवों का पालन बहुत ही हर्षोल्लास के साथ करतीं हैं। सोलह श्रृंगार करके अपने आस-पास के समग्र परिवेश को खुशनुमा कर देतीं हैं। भारतीय परम्परा ऋंगार और सौन्दर्य का विशेष महत्व है।  हमारे यहाँ मनाये जाने उत्सवों का मूल उद्देश्य ही यही है कि जीवन की एकरसता को दूर कर नवीन ऊर्जा और ऊष्मा का संचार किया जाये। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में जीवन नित्य नवीन बनाने जो कला है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलती।  आज के समय में जिस तरह से लोगों के बीच निराशा और तनाव बढ रहा है ऐसे समय में उस भाव बोध की महती आवश्यकता है जो हमारी परम्परा में अनादि काल से चली आ रही है। इसी भाव बोध पूरित कविता आपके समक्ष प्रस्तुत है - तुम एक पूरी कायनात हो  तन से ही नहीं, मन से भी  तू बेहद खुबसूर

संवेदना एवं भाषा की नव्यता के कवि : नरेश सक्सेना

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  संवेदनाओं से रिक्त होते समय में कविता का दायित्व अत्यन्त गुरुत्तर होता जा रहा है । आज के समय में जब मानवता और संवेदना के समक्ष गहराते संकट के बीच कविताओं के माध्यम से समाज को में संवेदना संरक्षित करने की दिशा में नरेश सक्सेना का महत्वपूर्ण स्थान है । नरेश सक्सेना की कविताओं में भाषा, संवेदना और तकनीकी का समन्वय तो है ही साथ ही साथ भावी पीढ़ी के लिए सन्देश भी है । विज्ञान और तकनीकी की पढाई और पेशे से अभियन्ता होने कारण आपकी कविताओं में एक नए किस्म की भाषाई चेतना देखने को मिलती है। आपकी की ख्याति खामोश कलाकार एवं रचनाकार के रूप में है । कविता के अलावा उनकी रचनात्मक सक्रियता के अन्य क्षेत्रों में भी है । आपने फिल्म, टेलीविज़न और रंगमंच के लिए लेखन किया है। नरेश सक्सेना जी ने भाव और भाषा के प्राथमिक स्तर से लेकर शीर्ष तक की संभावना पर विचार करते हुए कविता की रचना की है उनकी यही खासियत उन्हें समकालीन कवियों अलग पहचान दिलाती । आपकी ‘शिशु’ शीर्षक कविता में जीवन के आरम्भिक संगीत का अद्भुत अंकन देखने को मिलता है – शिशु लोरी के शब्द नहीं संगीत समझता है , बाद में सीखेगा भाषा अभी व

करवा चौथ

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*करवा चौथ व्रत का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व होता है. करवाचौथ शब्द दो शब्दों* करवा चौथ का इतिहास बहुत-सी प्राचीन कथाओं के अनुसार करवा चौथ की परंपरा देवताओं के समय से चली आ रही है. माना जाता है कि एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध शुरू हो गया और उस युद्ध में देवताओं की हार हो रही थी. ऐसे में देवता ब्रह्मदेव के पास गए और रक्षा की प्रार्थना की. ब्रह्मदेव ने कहा कि इस संकट से बचने के लिए सभी देवताओं की पत्नियों को अपने-अपने पतियों के लिए व्रत रखना चाहिए और सच्चे दिल से उनकी विजय के लिए प्रार्थना करनी चाहिए. ब्रह्मदेव ने यह वचन दिया कि ऐसा करने पर निश्चित ही इस युद्ध में देवताओं की जीत होगी. ब्रह्मदेव के इस सुझाव को सभी देवताओं और उनकी पत्नियों ने खुशी-खुशी स्वीकार किया. ब्रह्मदेव के कहे अनुसार कार्तिक माह की चतुर्थी के दिन सभी देवताओं की पत्नियों ने व्रत रखा और अपने पतियों यानी देवताओं की विजय के लिए प्रार्थना की. उनकी यह प्रार्थना स्वीकार हुई और युद्ध में देवताओं की जीत हुई. इस खुशखबरी को सुन कर सभी देव पत्नियों ने अपना व्रत खोला और खाना खाया. उस समय आकाश में चांद भी निकल आया था. माना ज

नदी के द्वीप

हिन्दी कथा साहित्य अपने आरम्भिक काल से ही व्यापक जनसरोकारों से जुड़ा रहा है। आधुनिक काल में गद्य लेखन का आरम्भ होने के साथ-साथ ही खड़ी बोली हिन्दी में कहानी एवं उपन्यास लिखा जाने लगा। परीक्षा गुरु से आरम्भ हुई हिन्दी उपन्यासों की माला को प्रेमचन्द्र ने न सिर्फ विस्तार प्रदान किया वरन आम जन की भाषा में रचना करके लोग के बीच में प्रतिष्ठित करने का भी कार्य किया। प्रेमचन्द व्यक्तित्व एवं कृतिव के सहायता के आचार्य के रूप में जाने जाते हैं। प्रेमचन्द्र ने जीवन जगत के व्यापक यथार्थ को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। हिन्दी कथा साहित्य में जीवन जगत के बाह्य यथार्थ के अंकन मनो जगत के यथार्थ के अंकल की दृष्टि से जैनेन्द्र, अज्ञेय एवं इलाचन्द्र जोशी का योगदान विशिष्ट है। सिर्फ एक नई कथा दृष्टि दी, वदन भाषा साथ-साथ शब्दों की भांगला पर भी विशेष बल दिया। जैनेंद्र ने जिस भाषा परम्परा को आरम्भ किया, उसे अज्ञेय ने आगे बढ़ाने का कार्य किया। अज्ञेय हिन्दी साहित्य के विशिष्ट रचनाकार हैं, प्रयोगवाद के प्रवर्तन के माध्यम से जहाँ अज्ञेय ने कविता के क्षेत्र में नयी भाषा, भंगिमा और प्रयोगों पर बल दिया, वही हिन्दी

स्मृतियों में तुम

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 एक समय था जब मैं बहुत खुश रहता था और हंसता भी खूब था। मेरे आस-पास के लोगों मैं खूब हंसता था। फिर जिन्दगी में एक ऐसा दौर आया कि मैं से मैं कब हम में बदल गया मालूम ही नहीं हुआ। उस हमने ना जाने कब मुझे फिर से मैं पर छोड़ दिया। अब ना तो मैं हूँ और ना ही हम।       एक अर्सा बीत गया बात और मुलाकात हुए। बात का तो याद नहीं लेकिन हमारी आखिरी मुलाकात 15 मार्च 2020 को हुई थी। उस दिन मुझे यह कतई अन्दाज नहीं था कि यह हमारी आखिरी भेंट है। काश! फिर मिल पाते उनसे एक बार अजनबी की तरह.......।       अजनबी होना कितना अच्छा होता है। स्मृतियों में जीना सुखद लगता है। समय का पता ही नहीं चलता। कभी-कभी जिन्दगी में ऐसा मोड आता है कि व्यक्ति का पूरा व्यक्ति ही विलोम हो जाता है । हमेशा एकांत से दूर भागने वाला एकांत को अंगीकार कर लेता है, और एकांतवासी होकर उस आनंद को तलाश लेता है जो उसे दुनिया और दुनियादारी से कदापि नहीं मिल सकती। अक्सर अकेले में घेर लेतीं हैं  साथ बिताये क्षणों की स्मृतियाँ  वह तुम्हारा सुवर्ण रक्तिम चेहरा तुम्हारी मुख से आने वाली ध्वनि  का वह संगीत जो भी मन में  गुंजित होता रहता है।  वो खुशबू और

कवि मन जनी मन

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  आदिवासी समाज अपनी जमीन और जमीर को बचाने के लिए कृत संकल्प है । अपने संघर्ष एवं सृजन दोनों स्तरों पर यह समाज लड़ाई लड़ रहा है । वर्तमान समय में जो हमारी चिन्तायें मुखर हो रहीं हैं , उन्हीं को लेकर आदिवासी समाज वर्षों से संघर्षरत है । आदिवासियों ने अपने जंगल ,पहाड़ और जमीन को बचाये रखने के लिए ना सिर्फ संघर्ष किया वरन आज भी अपनी चिंताओं को लेकर बहुत ही सजग हैं । इस सजगता को आदिवासी रचनाकारों द्वारा रचित साहित्य में भी देखा जा सकता है । आदिवासी साहित्य को हम अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन स्तरों पर देख सकते हैं, यह आधार भाषा का ही है – “पहला अंग्रेजी भाषा में ,दूसरा हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओँ और तीसरा आदिवासी भाषाओँ में लिखे जा रहे हैं।”   इन सब में आदिवासी जन की संवेदना को बहुत ही मुखर रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है । आदिवासी कवियत्री वन्दना टेटे ने बहुत ही गंभीर तैयारी के साथ आदिवासी कवियत्रियों की कविताओं को संकलित कर एक काव्य संग्रह संपादित किया है । जिसका शीर्षक है “कवि जनी मन” ( आदिवासी स्त्री कविताएँ ) । इस संग्रह में ग्यारह कवियत्रियों की कविताओं में आज के वैश्विक समय की

उच्च-मध्य्वार्गीय जीवन की विसंगतिपूर्ण संवेदन का आख्यान : अंतिम अरण्य

मध्यवर्गीय जीवन के बिडम्बनाओ के अंकन की दृष्टि से निर्मल वर्मा का साहित्य विशिष्ट है। निर्मल वर्मा के अधिकांश साहित्य उच्च मध्यवर्गीय जीवन को आधार बनाकर लिखे गये हैं। आपके द्वारा रचित 'अन्तिम अरण्य' उपन्यास इस परम्परा का एक विशिष्ट उपन्यास है। यह उपन्यास संवेदना एवं शिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसे रेखांकित करते हुए गोपाल राय ने लिखा है कि "निर्मल वर्मा का अन्तिम अरण्य भी संवेदना की दृष्टि से उनके अन्य उपन्यासों से भिन्न नहीं है। इसका परिवेश भी बहादुरगंज नामक कोई पहाड़ी जगह है, जिसका नाम तक नक्शे में नहीं आता। 'नरेटर के अनुसार इस जगह का नाम नक्शे में नही है, वह एक खोया हुआ शहर है, जिसमें उसने अपने को खोजा था।      एक खोये हुए शहर में स्वयं को खोजना अपने आप में एक खोज है जिसे हम मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक स्तर पर देख एवं समझ सकते है। इस उपन्यास या यह कह लें कि इस खोये हुए शहर का मुख्य पात्र मिस्टर मेहरा है। मिस्टर मेहरा एक सम्भ्रान्त बृद्ध व्यक्ति हैं, इनके अतिरिक्त मिस्टर मेहरा की पत्नी और पुत्री को लिया, एक जर्मन औरत अन्ना, निरंजन बाबू और घरों की देख