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लिपि की उपयोगिता

भाषा का सम्बन्ध ध्वनियों से हैं। ध्वन्यात्मक भाषावता के मुख ने निकालতা श्रोता के कान तक पहुँचकर अपना प्रभाव प्रकट करती हैं। यह वाचिक भाषा है। वहा ह मुख से निकलने के कुछ क्षों बाद इसका स्वरूप नष्ट हो जाता है। मानव की प्रवृति है कि वह अपने कार्यों और विचारों को स्थायित्व प्रदान करना चाहता है। इसके लिए वाह ऐसे साधनों का उपयोग करता है, जिससे उसके विचार आगे की पीढ़ी तक पहुँच सकें। इन्हीं गूढ़ विचारों ने लिपि को जन्म दिया। इसका प्रारम्भिका रूप क्या था, यह आज बताना संभव नहीं है, परन्तु अनुमान है कि अपने भाों को स्थायित्या प्रदान करने का लिाए सर्वप्रथम चित्रात्मक लिपि का प्रयोग हुआ, तत्पश्वात् भावलिपि और अन्ततः ध्वनिलिपि। भाषा और लिपि की अपूर्णता यह अनुभव-सिद्ध है कि मानव के संवेदनात्मक भावों को भाषा पूर्णतया अभिव्यक्त नहीं कर पाती है। हर्ष, शोक, मिठास, कड़वापन आदि भाव भावा से पूर्णतया व्यक्त नहीं हो पाते हैं। लिपि भागा कर ही स्कूल रूप है। लिपि भी मनोभावों को व्यक्त करने में असमर्थ है। भाषा और लिपि में मुख्य अन्तर यह है कि (१) भाषा सूक्ष्म है, लिपि स्थूल है। (२) भाषा की व्यनियों में अस्थायित्व

सूरदास के पद

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उर में माखन-चोर गड़े। अब कैसेहू निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जु अड़े॥ जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छँड़े। वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े। को वसुदेव, देवकी है को, ना जानै औ बूझैं। सूर स्यामसुंदर बिनु देखे और न कोऊ सूझैं।  सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी भक्ति काव्य परम्परा के सगुण काव्य धारा के कृष्ण भक्त कवि सूरदास के सूरसागर के भ्रमरगीत प्रसंग से ली गई ं हैं।  प्रसंग - उपरोक्त पंक्तियों में जब उद्धव गोपियों को निर्गुण ज्ञान का उपदेश देते हैं तो गोपियाँ बडे़ ही सहज भाव से कहतीं हैं कि हे उद्धव हमारे ह्दय में तो कृष्ण का माखन चोर रुप गडा हुआ है, जो किसी भी तरह से निकल नहीं सकता। आगे वो कहतीं हैं कि- व्याख्या - हे उद्धव, हमारे हृदय में मक्खन चोर का त्रिभंगी रूप ऐसा गड़ गया है, जो निकालने पर किसी भी प्रकार नहीं निकल पा रहा है। आशय यह है कि वे टेढ़े ढंग से हृदय में अड़ गए हैं। सरल हृदय में त्रिभंगी मूर्ति ऐसी अड़ गई है कि उसे कैसे निकाला जाए? आपके कथनानुसार वे यशोदा के पुत्र और अहीर हैं फिर भी हमारा उनसे ऐसा प्रेम है कि उन्हें छोड़ते नहीं बनता। मथुरा में जाकर वे भले ही महान यद

प्रेम दानव : प्रीति श्रीवास्तव

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 तूने देखा एक  चहकती फुदकती चिड़ीया तुम उसे देख मगन हो गए देखते ही रहे उसे फिर उससे प्रेम कर बैठे एक दिन उसे पुकार कर कहा तूने सुन ये सुन्दर चिड़िया मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूॅं बार बार कहते रहे उससे बस एक ही बात मैं तुमसे प्रेम करता हूॅं एक दिन वो मान गई तुम्हारी बात कि तुम उससे प्रेम करते हो तुम ले आए उसे अपने घर प्रेम से फिर बंद कर दिया उसे एक पिंजरे में तुम्हारा पिंजरा छोटा था वो उड़ ना सकी उसमें तूने उसके पर कतर दिए अब वो उड़ती नही बस चहकती रहती थी तुम उब गए उसके चहकने से फिर तूने उसके जीभ काटे अब भी वो निहारती रहती तुम्हे दिन रात अपलक क्योंकि वो मानती थी अब भी कि तुम उससे प्रेम करते हो उसने दिए दो अंडे उसमें से निकले दो बच्चे वो चिड़िया के जैसे नही दिखे तुम उनसे चिढ़ गए चीखने चिल्लाने लगे और खोल दिया चिड़िया का पिंजरा अब भी उड़ी नहीं वो  क्योंकि वो मानती थी कि तुम उससे प्रेम करते हो मौत सी आई एक बिल्ली मार गई चिड़िया को  उड़ गए दोनो बच्चे  जो तुम्हारे जैसे दिखते थे क्योंकि तुम चिड़िया से प्रेम करते थे। (प्रेम दानव)

अंतिम अभिहार: सारिका साहू

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 हमारी  वो अंतिम अभिहार थी । दोनों के हृदय में कितनी मनुहार थी ।। विरह की अकल्पनीय कठोर अंतिम वृष्टि  थी। अपने अनुभवों से भरी चमचमाती अद्भुत दृष्टि थी ।। जब तक सफ़र में रहें ये कितनी सुंदर अभिव्यक्ति थी। दोनों को ही परस्पर ,एक दूसरे  के सानिध्य की आसक्ति थी।। आपको वह अंतिम भेंट कहां सहजता से स्वीकार थी । हमारा मन  में भी भयभित होती चित्कार थी।। मुझे आश्वासन देती ,आपकी जिह्वा भी लड़खड़ाई थी। अपना हृदय कठोर कर हमे दी ,अंतिम विदाई थी।। परंतु डबडबाई आंखें वेदना  अभिव्यक्त कर गई थी । हृदय भीतर उठती यह दावानल बुझा दी गई थी ।। संस्कारों के नाम पर प्रणय गाथा की बलि दी गई थी । अपनी अन्तिम भेंट के साथ  वह विरह बेला आई थी ।। हमारी वो अंतिम अभिहार थी।

एक मुलाकात: सारिका साहू

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  एक मुलाकात  उसने चंद सवाल कर, सब कुछ जान लिया । हमारी पसंद को, खुद की इच्छा मान लिया।। देकर मान सम्मान हमको अपना लिया।। हमने भी अपना अनकहा अंदाज बयां किया।। धीर थामे ये बातों का सिलसिला शुरू किया। बातों ही बातों में एक दूसरे को पहचान लिया।। मन की आंखों से तुमको अपना मान लिया। एक नवीन रिशते का स्तंभ स्थापित किया।। कदम दर कदम साथ चलने का वादा किया। मंजिल तक साथ पहुंचने का आश्वासन दिया।। दुखों के बादल छांट, काली घटा को मिटा दिया। सुखों के सुमन से मेरा दामन सराबोर कर दिया।। जीवन के तम को सदा के लिए अंत कर दिया। हिय भीतर नवल प्रभात का आगमन कर दिया।। जीवन में पुनः मुस्कुराहट का इंद्रधनुष गड़ दिया।  वंचित रही उन खुशियों से भी  अधिक दे दिया।।

अच्छा लगता है, मुझे : सारिका साहू

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  अच्छा लगता है, मुझे वक्त बेवक्त तुमसे बातें साझा करना तुम्हें अपने हिस्से के वक्त में शामिल करना अपनी खुशियों में , दुःख में,तुम्हारा सहभागी होना ।। अच्छा लगता है, मुझे तुमको अकारण परेशान करना तुम्हारे साथ खूब खिलखिलाकर हंसना तुम्हारे कांधे पर सिर रखकर तुम्हें अपना कहना ।। अच्छा लगता है, मुझे तुम्हारे मुख से मेरा नाम पुकारना तुम्हारा बड़े हक़ से , मेरी गलतियों पर डांटना तुम्हारा मेरे करीब आने की जिद्दोजहद करना ।। अच्छा लगता है, मुझे तुम्हारे हाथ में मेरा हाथ होना भोर में सूर्य किरण का पान करना ढलती संध्या पहर तक तुम्हारा साथ होना ।। अच्छा लगता है, मुझे तुम्हारा मेरे दुःख संताप में संबल दे जाना तुम्हारा यूं मेरे किए गए कार्य पर प्रशंसा करना मेरी आंखों की अनकही बातों को पढ़ जाना ।। अच्छा लगता है, मुझे तुम्हारा झूठ-मूठ रूठ जाना मेरे मनाने पर जल्दी मान जाना मेरी नादानियों को. यूं अनदेखा कर जाना ।।