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निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल (डॉ बसुन्धरा उपाध्याय,सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, लक्ष्मण सिंह महर परिसर पिथौरागढ़ उत्तराखंड)

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भारतवर्ष बहुभाषी देश है।भाषा की दृष्टि से भारत बहुत समृद्ध देश माना जाता है।भाषा किसी भी राष्ट्र और समाज की आवाज नहीं होती बल्कि यह तो उस देश की संस्कृति को जीवित रखती है।यहाँ हिंदी के अलावा और तमाम भाषाएं हैं।कोई भी भाषा स्वतंत्र होकर आगे बढ़ ही नहीं सकती।हिंदी का मूल संस्कृत है। कोई भी भाषा जब विस्तार कर लेती है और उस विस्तार करने के सहयोग के क्रम  में अपने साथ अपनी सहयोगी बोलियों (कटुम्ब) को भी साथ लेकर चलती है। आज के समय में किसी भी भाषा के लिये साहित्य आवश्यक नहीँ है। अगर उस भाषा को जीवित रखना है तो उस भाषा को रोजगार परख बनाइये। नहीं तो वह धीरे धीरे सिमट जाएगी। किसी भाषा को हम कई कारणों से सीखते हैं-सबसे बड़ा कारण है कि जीविकोपार्जन का। अतः हिंदी में भी रोजगार के अवसर हों। आज हिंदी भाषा को वैश्विक रूप प्राप्त हो गया है। सरकार पहल भी कर रही है।हिंदी में आज कई तरह के रोजगार मिल रहे हैं।जहाँ पहले कभी अंग्रेजी में ही कार्य होते थे आज वहाँ हिंदी में भी कार्य किये जाते हैं।सरकारी दफ्तरों में  हिंदी में कामकाज करना अब अनिवार्य कर दिया गया है।आदेश, नियम ,अधिसूचना, प्रति...

युद्ध और हम

तुमने पूछा था, तो कहती हूँ, हाँ मैं गई थी, कोलोन में जहाँ मेरे माता-पिता रहते थे..... वे तब भी जीवित थे.... लेकिन हमारा घर, वह कहीं नहीं था.... पडोस के सारे मकान लड़ाई में ढह गए थे..... और तब मुझे पहली बार पता चला कि जिन स्थानों हम रहते हैं, अगर वे न रहें.... तो उनमें रहनेवाले प्राणी, वह तुम्हारे माँ- बाप ही क्यों न हों.....बेगाने हो जाते हैं...जैसे उनकी पहचान भी ईंटों के मलबे में दब जाती हो...." कैसे दीखते होंगे वे शहर,  जिन्हें युद्ध के सनकी तानाशाहों ने  अपने सनक में बर्बाद कर दिया  कुछ बम- बारुद की गंध  उजड़े मकान  इन्सानियत के मलबे में  कराहती मानवता  और चारो ओर बिखरी  हुई होंगी  निशानी - कुछ बचपन की, कुछ यौवन की  और हसरतों के धुएं में  सुलगता हुआ शहर  जहाँ कभी  स्कूलों और अस्पतालों में  जीवन सजता था। 

मैं वह धनु हूँ

मैं वह धनु हूँ,  जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। कथाकार ,कवि एवं गम्भीर चिन्तक अज्ञेय मेरे भाव जगत के बहुत निकट हैं। कारण तो मेरे अन्तर्यामी ही जानते होंगे। फिर भी बहुत कुछ हमारे जीवन का हमारे प्रारब्ध और ना जाने कितने जन्मों का संचित कर्म होता है, शायद मेरी इस बात से कम लोग ही इतेफाक रखते हों ,लेकिन मैं व्यक्तिगत रुप से यही मानता हूँ। हम अपने जीवन काल में बहुत से लोगों से मिलते जुलते हैं,लेकिन कुछ लोगों हम पहली दूसरी मुलाकात में ही जान जाते हैं कि इस व्यक्ति के साथ हमारी अच्छी निभेगी। ऐसी ही हमारी अज्ञेय जी के रचना संसार के साथ निभ रहा है। ना जाने क्यूँ अज्ञेय मुझे कुछ ज्यादा ही खींचते हैं अपनी ओर ।  स्खलित हुआ है बाण , यद्यपि ध्वनि, दिगदिगन्त में फूट गयी है-- मैं वह धनु हूँ की ये पंक्ति हमें जीवन में सब कुछ समय पर छोड देने की सूझ देता है। प्रत्यंचा का टूटना और बाण का स्खलित होना और फिर ध्वनि का  दिगदिगन्त में गूंजायमान होना अपने आप में अलग ध्वन्यार्थ प्रस्तुत करता है । जिसे कवि आगे की पंक्तियों में हमारे सम्मुख रखता है - प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराज...

रिक्त स्थानों को भरें

 बचपन में प्रायः परीक्षाओं रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिये जैसे प्रश्न आते थे और हम अक्सर उस रिक्त स्थान को भर लेते थे, लेकिन अब वही रिक्त स्थान खाली ही रह जा रहे हैं, और हम इस खालीपन से भरते जा रहे हैं। अपना शहर छूटा,संगी - साथी छूटे,प्रेम छूटा, माँ-बाप छूटे और बहुत कुछ छूटा । और हम खाली होते चले गये। अब तो खालीपन ही भर गया है। जीवन में कभी-कभी हम ऐसे मोड़ पर पहुंच जाते हैं इस जहां से लौटना मुश्किल कि नहीं नामुमकिन होता है ऐसे समय का खालीपन हम किसी भी हाल में भर सकने में सक्षम नहीं होती हैं और यह खालीपन  धीरे हमारे जीवन में इस कदर भर जाता है किउसमें किसी और की गुंजाइश बचती ही नहीं, यह हमारे मानव जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है कि हम हमेशा से अपने मनपसंद जगह को अपने मनपसंद लोगों को और अपनी मनपसंद आबोहवा को छोड़कर नई मंजिल तलाशते हैं .और उस मंजिल में जो जीत सकता भर आती है वह बड़ी ही पीड़ादायक होती है जिसे हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं किसी के समक्ष अभिव्यक्त नहीं कर सकते। 

सहजता और सम्पूर्णता के संत: रैदास( डॉ.अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव)

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भारतीय समाज में आध्यामिकता और भक्ति की चेतना का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है । भारतीय  समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग या समुदाय जिसमें आध्यात्म और भक्ति की चेतना देखने को ना मिलती हो । विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में प्रमुख और जीवन्त भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से दो अवधारणाओं का अस्तित्व निरंतर बना रहा है । एक भौतिकवादी है जो जड़ पदार्थ से सृष्टि की उत्पत्ति मानती है और दूसरी धारा यह मानती है कि ज्ञान या चेतना पहले पैदा हुआ । इसका मूल वेदों में देखने को मिलता है । हमारे देश की संस्कृति में आध्यात्मिकता का विशेष प्रभाव देखने को मिलता है । भारत में यह चेतना अनादि काल से समाज को पुनर्नावित करने की दिशा में प्रयास करती रही है । इसी पुनर्नवन की परम्परा में भारत के सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से समाज के जागरण में अपनी-अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है । भारतीय समाज की ऐसी संचरना है कि समाज के सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी मान्यताओं को जाना एवं माना है । हमारे यहाँ जितने मत-मतान्तर देखने को मिलते हैं , उतने शायद...

काव्य दोष

    काव्य में दोष की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन है। काव्य का दोष रहित होना आवश्य माना गया है। आचार्य मम्मट' ने काव्य की परिभाषा करते हुए 'तददोषो' पहले  ही कहा है .काव्य-दोषों के सम्बन्ध में 'वामन' ने बहुत स्पष्ट कहा है कि जिन तत्वों से काव्य-सौन्दर्य की हानि होती है, उन्हें दोष समझना चाहिए। आचार्य 'मम्मट' के अनुसार जिससे मुख्य अर्थ अपकर्ष हो, उसे दोष कहते है। मुख्य अर्थ है- 'रस' .इसलिए जिससे रस का अपकर्ष हो,वही दोष है। हिन्दी में चिन्तामणि ,कुलपति मिश्र, सूरति मिश्र, श्रीपति, सोमनाथ, भिखारीक आदि आचार्यों ने काव्य-दोषों पर विचार किया है। इनमें अधिकांश का आधार 'मम्मट' का 'काव्य-प्रकाश' है। आचार्य मम्मट ने दोषों के मुख्य रूप से तीन भेद किये हैं - 1. शब्द दोष  2. अर्थ दोष  3. रस दोष       1. शब्द दोष - शब्द दोष के अंतर्गत शब्दांश ,शब्द और वाक्य तीनों की गणना की जाती है .     श्रुति- कटुत्व दोष :- जहाँ सुनने में कठोर लगने वाले शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाता है ,वहाँ श्रुति-कटुत्व दोष माना जाता है .       उदहारण -' ...

पुल पार करने से :नरेश सक्सेना

  पुल पार करने से पुल पार होता है नदी पार नहीं होती नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना नदी में धँसे बिना पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता नदी में धँसे बिना पुल पार करने से पुल पार नहीं होता सिर्फ़ लोहा-लंगड़ पार होता है कुछ भी नहीं होता पार नदी में धँसे बिना न पुल पार होता है न नदी पार होती है। (नरेश सक्सेना)