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सूरदास के पद

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उर में माखन-चोर गड़े। अब कैसेहू निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जु अड़े॥ जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छँड़े। वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े। को वसुदेव, देवकी है को, ना जानै औ बूझैं। सूर स्यामसुंदर बिनु देखे और न कोऊ सूझैं।  सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी भक्ति काव्य परम्परा के सगुण काव्य धारा के कृष्ण भक्त कवि सूरदास के सूरसागर के भ्रमरगीत प्रसंग से ली गई ं हैं।  प्रसंग - उपरोक्त पंक्तियों में जब उद्धव गोपियों को निर्गुण ज्ञान का उपदेश देते हैं तो गोपियाँ बडे़ ही सहज भाव से कहतीं हैं कि हे उद्धव हमारे ह्दय में तो कृष्ण का माखन चोर रुप गडा हुआ है, जो किसी भी तरह से निकल नहीं सकता। आगे वो कहतीं हैं कि- व्याख्या - हे उद्धव, हमारे हृदय में मक्खन चोर का त्रिभंगी रूप ऐसा गड़ गया है, जो निकालने पर किसी भी प्रकार नहीं निकल पा रहा है। आशय यह है कि वे टेढ़े ढंग से हृदय में अड़ गए हैं। सरल हृदय में त्रिभंगी मूर्ति ऐसी अड़ गई है कि उसे कैसे निकाला जाए? आपके कथनानुसार वे यशोदा के पुत्र और अहीर हैं फिर भी हमारा उनसे ऐसा प्रेम है कि उन्हें छोड़ते नहीं बनता। मथुरा में जाकर वे ...