उत्सव के बाद की भोर: सारिका साहू








उत्सव के बाद की भोर

कल जितनी चहल पहल थी

आज उतनी ही खामोशी है 

त्यौहार क्या दिन विशेष ही रहते 

उसके बाद फिर वही सब शेष रहते 


         उत्साह था उमंग थी मन मलंग था

         जाने अनजाने  वो सब संग था

        वो गहरी काली अमावस्या वाली रात थी

        आज  चुप्पी वाली सहर  में वो बात न थी



रंगीन आतिशबाजी से अम्बर भी नारंगी  हो गया था

विभिन्न रिवाज़ो से वसुंधरा भी  हरी भरी थी

दीपों के उजालों से सड़के सजाई गई थी

और आज सब वादियां मौन हो गई थी



           मंगल मंगल करते आरती संजोए गई थी

           मिठाइयों की मीठी महक से रसोई बनाई गई थी 

           आज जैसे मन में फूलझड़ी स्वयं  बुझा दी गई थी

           और अपने उर में सब समेटकर दीवाली पूरी हो गई थी

Comments

  1. बहुत बहुत आभार आपका कविता को प्रस्तुत करने हेतु

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