इंतज़ार : प्रीति

 तेरा इंतज़ार

एक गोधुलि सी शाम 

वो भोर की धूप सी निकली

उजली चमकीली चांदनी सी

केशर घुले दूध सी रंगत वाली

गुलाब की पंखुड़ियों से होठ

काली घटाओं से केश

ऐसा लगे जैसे बादल के बिच

खिला हो कोई चंद्र कमल

हाथों में ताम्र घट लिए 

वो उतर रही थी गंगा में 

जैसे आकाश गंगा समा रहा हो

साफ नीले पानी में 

देखता निहारता रहा मैं 

और वो लौटने भी लगी

घट भर गंगा जल भरकर 

भींगे नंगे पांव में पैंजनी 

टुन टुन कर चढ़ रही थी

गंगा घाट की सीढ़ियां 

वो सुकोमल पांव ना जाने कैसे

उठा रहे थे इतना बोझ

सुंदर घट में पानी का

और चेहरे के पानी का भी

आंखो में समा गईं थीं मेरी

उसका कोमल रूप श्रृंगार 

बहुत भारी से हो रहे थे नयन मेरे 

मैं खाली होना चाहता था

मैं उसको छूना चाहता था

मैं मुट्ठी में भर लेना चाहता उसका रूप

आलिंगन कर भर लेना चाहता था

उसका कोमल देह खुद में 

पर सहसा सहम गया मैं खुद ही

कैसे कसूं मैं इतना कोमल तन

अपने पाषाण बाजुओं में 

कहीं टूट ना जाए वो फूल मनोहर

कहीं बिखर ना जाए पंखुड़ियां 

मैं सोचता रहा निहारता रहा

कि ना जाने कब उड़ गई 

वो रूपसी सोन तितली बन

मेरी आंखें खोजती रहीं 

उसे ऊंचे आकाश तक

छुप गई वो ना जाने कहां 

पश्चिम का धूप था कड़ा

धुंधला गई मेरी आंखें 

मैं अंधेरे तक भरा रहा

फिर झरने लगा चांदनी संग

बिखर गया वहीं गंगा घाट पर

जी चाहा पूकारु जोर से

उस रूपसी को

बस चुप चाप चीखता रहा 

उम्र भर 

आज तक

(प्रीति) 



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