उच्च-मध्य्वार्गीय जीवन की विसंगतिपूर्ण संवेदन का आख्यान : अंतिम अरण्य

मध्यवर्गीय जीवन के बिडम्बनाओ के अंकन की दृष्टि से निर्मल वर्मा का साहित्य विशिष्ट है। निर्मल वर्मा के अधिकांश साहित्य उच्च मध्यवर्गीय जीवन को आधार बनाकर लिखे गये हैं। आपके द्वारा रचित 'अन्तिम अरण्य' उपन्यास इस परम्परा का एक विशिष्ट उपन्यास है। यह उपन्यास संवेदना एवं शिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसे रेखांकित करते हुए गोपाल राय ने लिखा है कि "निर्मल वर्मा का अन्तिम अरण्य भी संवेदना की दृष्टि से उनके अन्य उपन्यासों से भिन्न नहीं है। इसका परिवेश भी बहादुरगंज नामक कोई पहाड़ी जगह है, जिसका नाम तक नक्शे में नहीं आता। 'नरेटर के अनुसार इस जगह का नाम नक्शे में नही है, वह एक खोया हुआ शहर है, जिसमें उसने अपने को खोजा था। 

   एक खोये हुए शहर में स्वयं को खोजना अपने आप में एक खोज है जिसे हम मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक स्तर पर देख एवं समझ सकते है। इस उपन्यास या यह कह लें कि इस खोये हुए शहर का मुख्य पात्र मिस्टर मेहरा है। मिस्टर मेहरा एक सम्भ्रान्त बृद्ध व्यक्ति हैं, इनके अतिरिक्त मिस्टर मेहरा की पत्नी और पुत्री को लिया, एक जर्मन औरत अन्ना, निरंजन बाबू और घरों की देखभाल करने वाले नौकर चाकर, क्लब के बेयरा आदि हैं। उपन्यास की कथावस्तु का अधिकांश विकास घर के भीतर का सीमित संसार है। संवेदना के स्तर पर इस उपन्यास में एक युवा बेरोजगार एवं बृद्ध व्यक्ति के अन्तिम क्षणों का अंकन देखने को मिलता है। आज के समय में बेरोजगारी एवं अकेलापन दोनों मनःस्थितियाँ समाज में व्यापक स्तर पर देखने को मिल रहीं हैं। मृत्यु और जीवन की प्रतीक्षा कर रहे दो पीढ़ियों की मनःस्थिति का अंकन निर्मल वर्मा ने बहुत ही यथार्थपरक रूप में किया है। वैसे भी इसमें मृत्यु एवं जीवन के जटिल दार्शनिक पहलुओं पर विचार देखने को मिलता है। दार्शनिक चिन्तन से अधिक संवेदना से उत्पन्न दार्शनिकता देखने को मिलती है। एक अजीब तरह की उदासी एवं वीरागत की अनुगूँज इस उपन्यास में सुनाई देती है।

 

“कभी–कभी मैं सोचता हूँ कि जिसे हम अपनी जिन्दगी, अपना विगत और अपना अतीत कहते हैं, वह चाहे कितना भी यातनापूर्ण क्यों न रहा हो, उससे हमें शान्ति मिलती है। चाहे कितना ऊबड़खाबड़ क्यों न रहा हो, हम उसमें एक संगति देखते हैं। जीवन के तमामा अनुभव एक महीन धागे में बिंधे जान पड़ते हैं। यह धागा न हो, तो कहीं कोई सिलसिला नहीं दिखाई देता, सारी जमापूंजी इसी धागे की गाँठ से बंधी होती है, जिसके टूटने पर सबकुछ धूल में मिल जाता है।

 

मनुष्य का पूरा जीवन ही अतीत की स्मृतियों से स्पंदित होता रहता है, और उस धागे से जुड़कर ही हमारा भविष्य बनता एवं बिगड़‌ता चलता हैं। अतीत वर्तमान और भविष्य को अलग करके नहीं देखा जा सकता है हमारे अतीत की यात्रा निरंतर हमारे साथ चलती है। उसी को आलोक से हमारे जीवन का पथ प्रकाशित होता रहता है। अन्तिम अरण्य उपन्यास जीवन के आखिरी क्षणों की कहानी होने के साथ-साथ हमारे अन्त: मन के स्पंदन की व्यथा कथा की है। मिस्टर मेहता का अकेलापन धीरे-धीरे एक खास किस्म के एकान्त में बदल जाता है, और वो अपने एकान्त के पल को स्वयं में जीना चाहते हैं- "उनके चेहरे पर एक अजीब निराशा का भाव आया, मकान, घर, कमरे वे काफ़ी दूर-दूर तक फैले थे और वह उन्हें पार करके मेरे पास नहीं आना चाहते थे। यह सिर्फ उम्र का ही तकाजा नहीं था। यह एक-दूसरे किस्म का तकाजा था, जिसे लाँघकर मुझे हमेशा उनके पास आना पड़ता था। उन्हें यह अच्छा भी नहीं लगता था। वह नहीं चाहते थे कि मैं हमेशा उनके साथ रहूँ। कोई हमेशा उनके पास रहे आस-पास भले ही मँडराता रहे...लेकिन उनसे चिपका न रहे। यह बात सब पर लागू होती थी……वह उनकी बेटी हो, या मेहमान, या नौकर…..इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता था।“

 

कभी-कभी व्यक्ति इस मनोदशा में पहुँच जाता है कि उसे कुछ भी और कोई भी अच्छा नहीं लगता। मिस्टर मेहता की निर्मित और नियत्ति में मानवीय संबंधों के बन्द होते दरवाजों की विशेष भूमिका है। 'द‌रवाजा बन्द होते ही बाहर की दुनिया पीछे सरक जाती थी। मिस्टर मेहता के जीवन में जो निरसता, ऊब और अकेलापन देखने को मिलता है, वह आज के समय में और भी जटिल होते जा रहा है। जिन्दगी भर परिवार और समाज के लिए जीवन यापन करने वालों की जिन्दगी के अन्तिम क्षणों में कुछ भी शेष नहीं रहता। निर्मल वर्मा उच्च मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का अंकन बहुत ही यथार्थपरक रूप में करते हैं। निर्मल वर्मा अकेलेपन एवं उदासी से उभरे परिवेश का अंकन इस रूप में करते हैं कि पाठक को उनके कथा यात्रा से गुजरना कठिन प्रतीत होता है। इसे रेखांकित करते हुए डाँ० सूरज पालीवाल लिखते हैं कि - "निर्मल वर्मा को पढ़ा नहीं जा सकता। उनको पढ़ना और केवल पढ़ना दुष्कर कार्य है। इस दुष्कर कार्य को करने से पहले हजार बार सोचना जरूरी है। वे जिस अन्धेरे, उदासी और अकेलेपन में ले जाते हैं, वहाँ से किताब समाप्त करके नहीं निकला जा सकता। वे पाठक के सामने शब्द-चित्र नहीं बनाते, बल्कि चाक्षुष संसार खड़ा करते हैं। ऐसा संसार जिससे बचकर आप निकल नहीं सकते। ------ वह संसार जिस उदासी में जी रहा होता है उसमें आप किसी के साथ रहते हुए भी अकेले ही रहेंगे। ऐसे विचित्र संसार निर्मल वर्मा ही रचा सकते हैं।

 

निर्मल वर्मा सच्चे अर्थों में विचित्र संसार नहीं रच रहे होते हैं, वरन् वह एक ऐसा संसार रच रहे थे, जिससे या तो हम अन्जान है, या वह संसार हमारी कल्पना से परे है। लेकिन आज के महानगरीय जीवन में ऐसी बिसंगती की संगति का संसार तेजी से बन रहा और हमें बिगाड़ रहा है। समाजिक ताने बाने में परिवर्तन होने के साथ हमारी मानसिक स्थिति पर जो प्रभाव पर पड़ है उसको हम निर्मल वर्मा के कथा-साहित्य में देख सकते हैं। कभी एकदम चुप और कभी-कभी बोलती बतियाती खामोशियाँ अन्तिम अरण्य का सच है। जिसे हम निम्नलिखित पंक्तियों में देख सकते हैं, "उन्हें देखते हुए मुझे अजीब सा भ्रम होता, जैसे उनका शरीर सिर्फ वह नहीं है, जो बिस्तर पर लेटा दिखाई देता है, बल्कि वह भी है, जैसा वह बचपन में और जवानी में था ----जैसे सारी अवस्थाएँ सिनेमा के स्लाइड्स पर अंकित हैं। जो कभी पहले जी चुके हैं, अब उसे परदे पर देख रहे हैं, हू-ब-हू वैसा नहीं जैसा भोगा था, बल्कि यह भी जो जीने की हड़बड़ी में हाशिए पर छूट गया था, वह अब लौटकर गोंद की चिंप्पी में उसके साथ जुड़ गया है, जिसे वह मुझे लिखाते थे, दूसरी जिन्दगी के नीचे चिपकी एक तीसरी जिन्दगी, जो अब तक किसी तलवार के अंधेरे में कुलबुलाती थी... ।“ 

 

मिस्टर मेहता की अपनी मनोदशा है, जिससे न तो बाहर आना चाहते हैं और ना ही किसी को उसके भीतर आने देना चाहते हैं। उनके भीतर में एक दुनिया है, जिसमें वह एक समय व्यतीत कर चुके थे। यह निर्मल वर्मा द्वारा रचित अन्तिम उपन्यास है। इस उपन्यास के मुख्य चरित्र मिस्टर मेहता का अन्तिम समय, सदी का अन्तिम समय और स्वयं लेखक भी अपने जीवन के अन्तिम दौर में जी रहा था। इन सभी स्थितियों की प्रतिछाया इस उपन्यास में देखा जा सकता है। 'अन्तिम अरण्य' वास्तव में उस मनोदशा का प्रतिबिम्बन है, जिस मनोदशा में आधुनिक समय के वृद्ध जीवन जी रहे हैं। "वैसे भी वृद्धावस्था में आदमी अपने अतीत को देखता है और भविष्य के सूरज से आँखें चुराकर अपना सामान बटोरता है, अपनी स्मृत्तियाँ भी बटोरता है और उन्हें ऐसे संग्रह करता है, जिससे उसे अपने जीवन की सार्थकता दिखाई दे। वह अकेला होते हुए भी अकेला अनुभव नहीं करना चाहता, वह व्यक्तिवादी भी ऐसा प्रदर्शन नहीं करना चाहता है कि समाज के सामने उसकी छवि दूसरी ही उभरे।

मध्यवर्गीय जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि उनकी छवि के बारे में बाहर की दुनिया के लोग क्या जानते एवं सोचते हैं। यही चिंता इस उपन्यास में देखा जा सकता है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों ओर इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक समय में व्यक्तिवादी सोच का तेजी से प्रसार हुआ है। और इसी व्यक्तिवादी सोच के कारण अजनबीपन और कुष्ठा का तेजी से प्रसार हो रहा है। संबंधों में एक अजीब तरह की नीरसता एवं नीरवता बढ़ती जा रही है। यह स्थिति सिर्फ मिस्टर मेहता की नहीं है, वरन उनके पुत्री में भी यही नीरसता देखने को मिलती है। संबंधों की भाव प्रवणता और नीरसता को हम निम्नलिखित पंक्तियों में देख सकते हैं ---

 

"कब जाना ठीक होगा? "मेहरा साहब के स्वर एक अजीब सा उत्साह छलक रहा था जैसे अपनी बीमारी को धोखा देकर फिर अपनी पुरानी, खुली दुनिया में लौट पाने को आतुर थे --

"तुम बताओ" अन्ना ने तिया को देखा, जो अबतक चुपचाप सबकी बातें सुन रही थी। अन्ना जी ने कुछ हैरानी से पूछा, "क्या बात है?"

"इस बार मुझे माफ करे अन्ना जी मुझे जल्दी लौटना है मेरी छुट्टी के दिन तो कब के खत्म हो गए। आप लोग क्यों नहीं चले जाते। अन्ना जी का चेहरा बुझ गया।

"तुम भी खूब हो...यह सब हम तुम्हारे आने की खुशी में ही तो कर रहे थें...हम तो यहाँ बारह महीने रहते हैं।

    "फिर तुम्हें नहीं आना चाहिए था"

मेहरा साहब सोफा से उठ खड़े हुए। उनका चेहरा एकदम भावहीन था.... जैसे कुछ देर पहले का उत्साह अचानक एक लपट में जलकर राख हो गया हो ।

तिया ने उठना चाहा, पर वह उठीं नहीं, दर‌वाजे को देखती रही, जहाँ अन्ना जी पत्थर की चौकी पर बैठीं थीं ।“

 

संवाद, संवेदना एवं असंगता उपरोक्त पंक्तियों में देखी जा सकती है। बदलते परिवेश में अगर सबसे ज्यादा कुछ प्रभावित हुआ है वो है हमारा परम्परागत सामाजिक परिवेश एवं परिवार ।

अन्तिम अरण्य के लगभग सभी पात्र असंगता के शिकार हैं। हम किसी के साथ रहते हुए भी उसके साथ नहीं जी रहे होते है। तिया, अन्ना जी, मेहरा साहब, मुरलीधर, नरेटर या अन्य और भी पात्र हों सब एक साथ रहते हुए भी अलग-अलग दुनिया में जी रहे हैं। इस असंगता के हम निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से बखूबी समझ सकते हैं-

 

"आप जब माँ की बात करती है, तो मुझे हमेशा दीवा जी की याद आती है….. मुझे विश्वास नहीं होता कि उनके अलावा किसी और का आपसे रिश्ता था।" उन्होंने कभी इस बारे में नहीं कहा। वह कुछ देर चुप रहीं। फिर उड़ती हुई धुंध को देखते हुए कहा, रिश्ते होते नहीं, बनते हैं.. जब तक टीस नहीं उठती पता नहीं चलता, वे कितने पक गए हैं... इतने बरस बीत गए, मुझे मालूम भी नहीं, वह कहाँ हैं? 'आपने उनकी कोई खबर नहीं ली?"    

मैं तब बहुत छोटी थी, जब वह मुझे यहाँ छोड़ गई थीं। कुछ भी बताकर नहीं गई वह कहाँ जा रही हैं।"

 

विस्थापित होती संवेदना के बीच जीवन जीने की नियति को कथाकार ने बखूबी उकेरा है। निर्मल वर्मा के उपन्यासों में अकेलापन और उच्च मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं देखा जा सकता है। अब इक्कसवीं सदी के द्वितीय दशक में हमारे सामाजिक ताने-बाने और सोच में जिस तरह से परिवर्तन हो रहा उससे परिवार नामक संस्था के समक्ष संकट गहराता जा रहा है।

    परिवार के समक्ष इस गहराते संकट का दंश आज हम देख एवं भोग रहे हैं। संयुक्त परिवार तो दूर की कौड़ी हो चुका है,एकल परिवार भी तेजी से टूट रहे हैं। इसके साथ-साथ जिस घर को घर बनाने और बच्चों की परवरिश में माँ-बाप टूट जाते हैं उसी घर में उनकी परवरिश एवं परवाह करने वाला कोई नहीं रह जाता और वे स्वयं उसी घर में टूटते बिखरते जा रहे होते हैं। अरण्य का अन्तिम अरण्य बनना और बिखरना आज हमारी नियति है। रिश्तो के अजनबीपन में जीना मिस्टर मेहता की ही नहीं हम सबको नियति है।


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