उपन्यास का अर्थ एवं कथा साहित्य का विकास

 उपन्यास का अर्थ एवं कथा साहित्य का विकास

उपन्यास विशद् गद्य कथा है। यह कथा साधारण जीवन जैसी, पर प्रकृति में संवेदना एवं प्रभावकारिणी होती हैं इसके पात्र मनुष्य सरीखें होते हुए भी विलक्षण होते हैं। साधारण जीवन में वैविध्य व बिखराव है और कार्य-कारण सम्बन्ध अस्पष्ट सा होता है, उपन्यास में व्यक्त जीवन अनुभूत ओर विश्लेषित होता है। हर उपन्यासकार अपने निजी अनुभव को विस्तृत सामाजिक परिदृश्य देना चाहता है जहाँ निजी अनुभव को वह ऐतिहासिक सामाजिक परिस्थिति से जोड़ने की जरूरत होती है।

मनुष्य जीवन जीता है अकेला नहीं दूसरों के साथ, कभी वह दूसरों के साथ सहयोग करता है और कभी असहयोग, कभी उसकी संगति समाज से वही बैठती है, और कभी मन से इन उलझनों से उसके जीवन में गतिरोध उत्पन्न होता है। गतिरोध को दूर करने के लिए उसे विशेष गतिशील होना पड़ता है। उपन्यास मुख्यतः जीवन के ऐसे पक्ष या ऐसे गतिमय जीवन को उभारता है, जो उपन्यास में जीवन के उलझनों को चुनौती और पत्रों के पुरूषार्थ को गति देता हैं। ऐसा जीवन ही उपन्यास में काल के आयाम में फैलकर कथा बनता है, और पात्रों का चरित्र उद्घाटित करता है।

उपन्यास साधारण जीवन के समान्तर चलने का पूरा प्रयत्न करता है इसीलिए यह शिल्प के अनुशासन को अन्य साहित्यिक विधाओं की भाँति अधिक स्वीकार नहीं करता इसमें कथा के प्रसार की छूट है, इसमें वर्णन चित्रण की निश्चित परिपाटी नहीं और पात्रों तथा परिच्छेदों की संख्या या आकार-प्रकार पर किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं है, यह जीवन की जिस समस्या को चुनता है उसके अनुरुप अपने आपको ढाल लेता है, उसके अनुसार ही इसके आकार तथा तत्वों का विकास होता हे, इसका शिल्प लचीला होता है और अपने लचीलेंपन के कारण ही यह जीवन को सही और अधिकतम व्यक्त करने के लिए आवश्यकतानुसार समय-समय पर अन्य अनेक सहयोगी विधाओं के गुणों को अपनाता है।

उपन्यासकार को जीवन जैसा दिखता और अनुभव होता है वह उसे वैसा ही ब्यौरेवार मिश्रित करने का प्रयत्न करता है। वह जीवन के बनावटी श्रृंगार की अपेक्षा उसके निरीक्षण और विस्तार पर अधिक बल देता है उसका निरन्तर यत्न रहता है कि प्रस्तुत किया गया जीवन अधिक से अधिक विश्वसनीय बन पड़े, यहाँ मनुष्य (पात्र) अच्छा या बुरा है यह बताने की अपेक्षा यह मालूम करने पर अधिक बल देता है कि वह वस्तुतः है क्या? जैसा वह दिखता है क्या भीतर से मन से वैसा है? फिर उसके मन में है वह भी क्यों है? कैसे है? इन प्रश्नों की गहराई में जाने पर उपन्यासकार मनुष्य पर कोई टिप्पणी देने की अपेक्षा उसकी रचना और विकास प्रक्रिया के अध्ययन में ज्यादा रूचि लेता है।

उपन्यास वर्तमान हिन्दी साहित्य की सर्वप्रिय और सशक्त विधा है। कारण यह है कि साथ ही जीवन की बहुमुखी छबि को व्यक्त करेन की क्षमता भी होती है।

उपन्यास का शाब्दिक अर्थ है- ‘‘सामने रखना’’ इसमें ‘‘प्रसादन’’ अर्थात ‘‘प्रसन्न करने का भाव भी निहित है’’। इस प्रकार किसी घटना को इस प्रकार सामने रखने कि दूसरों को प्रसन्नता हो, उपन्यास कहा जायेगा। उपन्यास का स्वरुप इतना शक्तिशाली है कि उसमें साहित्य की सभी विधाओं को सन्निहित करने की क्षमता है, उपन्यास में कथा तो है ही साथ ही अवसर आने पर काव्य किसी भावुकता और संवेदना जगाकर पाठको को तल्लीन करता है, दूसरे अर्थ में उपन्यास का मूल तत्व ‘‘उप$न्यस्त’ अर्थात जीवन के निकट की भी अभिव्यक्ति करने की चेष्ठा होती है। उपन्यास की परिभाषा के लिए विद्वानों ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैः-

1. मैथ्यू आर्नाल्ड ने इसे ‘‘जीवन की आलोचना’’ कहा है।

2. हेनरी जैम्स ने उपन्यास की सार्थकता ‘‘जीवन की अभिव्यक्ति’’ मे देखी है।

3. राल्फ फास्क ने ‘‘मानव जीवन का गद्य’’ कहा है।

4. ग्रांट ओवर्टन ने उपन्यास में मानव के अन्तजीवन की अभिव्यक्ति को प्रमुखता दी है।

5. प्रेमचन्द ने मानव-चरित्र के रहस्य उद्घाटन को उपन्यास का मूल तत्व कहा है।

तात्पर्य  यह है कि उपन्यास रचना का मूलाधार मानव जीवन है और इसका लक्ष्य मानव जीवन से सम्बन्धित सभी क्षेत्रो को सामने रखना है। हिन्दी उपन्यास के उद्भव और विकास के बीच सम्यक् धारणा बनाने के जिए प्रारम्भ से आज तक के विकास को तीन काल खण्डों में विभाजित करके देखना उचित होगा-

हिन्दी उपन्यास का साहित्य इतिहास-

1. प्रेमचन्द पूर्व युग

2. प्रेमचन्द युग

3. ¬प्रेमचन्दोŸार युग

1. प्रेमचन्द पूर्व युग-

आधुनिक काल में भारतेन्दु युग के साथ ही हिन्दी गद्य साहित्य में उपन्यास नामक विधा का जन्म हुआ। प्रेमचन्द पूर्व युगीन उपन्यास साहित्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। हिन्दी उपन्यास साहित्य की मर्यादा सन् 1877 ई0 से 1918 तक मान्य हो सकती है। सन् 1877 ई0 में श्रद्धाराम कुल्लौरी ने ‘भाग्यवती’ नामक सामाजिक उपन्यास लिखा था। यह अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास चाहे न हो; किन्तु विषय-वस्तु की निरन्तरता की दृष्टि से उसे हिन्दी का प्रथम आधुनिक उपन्यास कहा जा सकता है। इसके सदानन्द मिश्र और शंभुनाथ मिश्र द्वारा संपादित जिस मनोहर उपन्यास’’ (1871) का उल्लेख   डॉ0 माता प्रसाद गुप्त किया है।

सन् 1981 ई0 में प्रेमचन्द का ‘‘सेवासदन’’ उपन्यास प्रकाशित हुआ है। यह हिन्दी उपन्यासों के विकास क्रम में निश्चित रुप से नये युग के सूत्रफल का द्योतक है। अतः प्रेमचन्द पूर्व युग के अन्तर्गत सन् 1877 ई0 से 1918 ई0 तक के प्रकाशित उपन्यासों का अध्ययन भी समीचीन होगा।

(क) भारतेन्दु - युगः

हिन्दी गद्य साहित्य में उपन्यास का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से माना जाता है। भारतेन्दु युग में लेखकों को उपन्यास रचने की प्रेरणा बंगला और अंग्रेजी के उपन्यासों से प्राप्त हुई। भारतेन्दु युगीन उपन्यासों पर विचार करते हुए आचार्य पं0 रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- ‘‘नाटकों और निबन्धों की ओर विशेष झुकाव रहने पर भी बंग भाषा की देखा-देखी नये ढंग के उपन्यास की ओर ध्यान जा चुका था।

आधुनिक गद्य विधा का विकास भारतेन्दु से हुआ और तभी से कथा साहित्य का श्री गणेश माना जाता है। भारतेन्दु के पहले हिन्दी साहित्य प्रायः पद्यात्मक था। भारतेन्दु और उनके मण्डल के साहित्कारों ने गद्य की नींव डाली, यद्यपि उनमें पहले की छिटपुट गद्य का प्रारुप था। ऐयारी, रहस्य रोमांच, जादू, किस्सागोई के प्रकरण वस्तुतः विभिन्न साहित्यकारों द्वारा प्रस्तुत किए जाते रहे। भारतेन्दु के व्यक्तित्व में आलोचकों द्वारा कई प्रकार का द्वैत परिलक्षित किया गया है। पुर्नजागरण की अनिवार्य प्रक्रिया ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ जहाँ कुछ सुना पड़ा है वहीं फाँक नगर आयेगी। यही फाँक भारतेन्दु में कई रूपों में दिखता है पर द्वैत की चर्चा के पूर्व भारतेन्दु में व्यक्तित्व की संश्लिष्टता का विवेचन उपयुक्त होगा। स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार का प्रतिज्ञा-पत्र भारतेन्दु ने 23 मार्च 1847 की ‘विवेचन सुधा’ में प्रकाशित हुआ था। आज यह पत्रिका कुछ अटपट सी लगती है, पर वह पुर्नजागरण की मूल संश्लिष्ट प्रकृति के अनुकूल है।

‘‘भारतेन्दु ने संस्कृत, बंगला तथा अंग्रेजी तीनों स्रोतो से नाटक के अनुवाद किए। भारतेन्दु युग में संस्कृत के प्रति आ-विकर्षण भाव की चर्चा कई बार होती है, स्वयं भारतेन्दु का इस प्रसंग में 


दृष्टिकोण इन दो पंक्ति में आ जाते  है-

अंग्रेज राज सुख साज सजै सब भारी।

पैथन विदेश चलि जाती है अति ख्वारी।।

भारतेन्दु अंग्रेजी शासन की अंधेर गर्दी का जैसे खुल कर वर्णन करते है, वैसे ही आत्मियता के साथ महारानी विक्टोरिया  कल्याण  कामना करते है-

कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जल बल नासी।

जिन भय सिर न हिताय सकत कहुँ भारतवासी।।

‘‘परीक्षा गुरू’’ (1892) को हिन्दी का पहला उपन्यास स्वीकार किया गया है। हिन्दी में प्रथम उपन्यास को लेकर भी विवाद उठता है। ‘‘परीक्षा गुरू’’ (1892) से पूर्व लिखे गए सभी शिक्षा विषयक ग्रन्थों को भी कुछ लोगों ने उपन्यास के खाते में डाल दिया है, ‘‘देवरानी जेठानी की कहानी’’ (1870), ‘‘बामशिक्षक’’ (1882) तथा ‘‘भाग्यवती’’ (1877) ऐसी ही पुस्तकें है।

भाग्यवती की रचना के पूर्व बंगला में सामाजिक और ऐतिहासिक प्रकार के अनेक उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे हिन्दी में मौलिक उपन्यास की रचना आरम्भ होने के पूर्व बंगला उपन्यासों के अनुवादों को लोकप्रियता मिल चुकी थी, हिन्दी के भारतेन्दु युगीन मौलिक उपन्यासों पर संस्कृत के कथा साहित्य एवं परवर्ती नाटक साहित्य के प्रभाव के साथ ही बंगला उपन्यास की छाप भी लक्षित की जा सकती है। ल, 219 पृष्ठ संख्या 5 भवानीचरण बान्धोपाध्याय का ‘‘नवबाबू निवास’’(1825), टेकचन्द ठाकुर (1814-38 ई0) का ‘‘आललेर सारे दुलार’’ (1875 ई0) बंगला में बहुत ही लोकप्रिय हुए थे। बंकिमबाबू के तीन उपन्यास ‘दुर्गेश नन्दिनी’ (1865), ‘मृगालिनी’ (1869), ‘बुगलागुरीय’ (1874) क्रमशः बंगला हिन्दी में अनुदित हुए थे।

प्रमुख उपन्यासकारः

इस युग के प्रमुख उपन्यासकारों में ‘लाला श्री निवास दास’ ( 1851-1857), ‘किशोरी लाल’ (1865-1932), ‘बालकृष्ण भट्ट (1844-1914), ‘ठाकुर जगमोहन सिंह’(1857-1899), ‘राधाकृष्ण दास’ (6571907), ‘लज्जाराम शर्मा’ (1863-1931), ‘देवकी नन्दन खत्री’ उल्लेखनीय है।




उपन्यासः

भारतेन्दु युग में निम्नलिखित प्रकार के उपन्यास लिखेे गये है-

1. सामाजिक उपन्यास

2. ऐतिहासिक उपन्यास

3. तिलस्मी ऐयारी उपन्यास

4. जासूसी उपन्यास

सामाजिक उपन्यास-

प्रेमचन्द पूर्व सामाजिक उपन्यासकारों में पं0 श्रद्धाराम फुल्लौरी (1837-1881 ई0), लाला श्री निवास दास (1851-1857ई0), श्री बालकृष्ण भट्ट (1844-1914 ई0), श्री अयोध्या दास उपाध्याय (1865-1941), श्री वृजनन्दन सहाय (1874-ज0) तथा श्री मन्नन द्विवेदी (1884-1921 ई0) प्रमुख है। बालकृष्ण भट्ट जी के ‘नूतन ब्रह्मचारी’ और ‘सौ अजान एक सुजान’ (1892 ई0) प्रसिद्ध है- ठाकुर जगमोहन सिंह का ‘श्यामा स्वप्न’ (1888 ई0) श्यामा और (ब्राह्मण कुमार) और श्यामा सुन्दर और (क्षत्रीय कुमार) की प्रथम कथा का एक काल्पनिक चित्र है। पं0 लज्जाराम मेहत के ‘धूर्त रसिकलाल’(1889), ‘स्वतंत्र रमा और परमतंत्र लक्ष्मी’ (1899), ‘आदर्श दम्पŸिा’ (1904), ‘बिगड़े का सुधार अथवा सती सुखदेई’ (1907) तथा आदर्श हिन्दू (1914) आदि कई उपन्यास प्रसिद्ध है। किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘त्रिवेणी व सौर्भाग्य श्रेणी’ (1890) विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा ‘लीलावती वा आदशग्वती स्वर्गीय कुसुम, राजकुमारी, चपला व नव्य समाज पुर्नजन्म व सौतियाडाह, माधवी वा मदमोहिनी, अंगूइी का नगीना आदि। अयोध्या सिंह उपाध्याय ठेठ हिन्दी का ठाठ या ‘देवबाला’, ‘अधाखिला फूल’ एवं श्री ब्रजनन्दन सहाय ने वंगीय कथा-साहित्य से प्रभावित होकर ‘सौन्दर्योपासक’ (1912) और राधाकान्त (1918) इन सभी उपन्यासों का लक्ष्य समाज की कुारीतियों को सामने लाकर उनका विरोध करना और आदर्श परिवार एवं समाज की रचना का संदेश देना है, ये सभी उपनयास सोद्देश्य लिये गये है और लेखकों ने प्रायः प्रारम्भ में ही अपना उद्देश्य स्पष्ट कर दिया है।

ऐतिहासिक उपन्यासः

समाजिक उपन्यास की तुलना में भारतेन्दु युग (आलोच्य युग) में ऐतिहासिक उपन्यास बहुत कम लिखे गये हैं, इस क्षेत्र में किशोरी लाल गोस्वामी का नाम ही उल्लेख योग्य है, ‘किशोरी लाल गोस्वामी’ ने (1890) में ‘लवंगलŸाा’ उपन्यास की रचना की, किन्तु उनके लवंगलŸाा उपन्यास को ऐतिहासिक उपन्यास की मर्यादा देना उचित नहीं है। वस्तुतः इस युग में ऐतिहासों की आकाँक्षा की पूर्ति ‘बंकिम चन्द’ के ऐतिहासिक उपन्यासों के अनुवाद से हुई है।

हिन्दी गद्य का साहित्यः

गंगा प्रसाद गुप्त ने कई ऐतिहासिक उपन्यास लिखे- ‘नूर जहाँ’ (1902), ‘बीर पलि’, ‘कुमार सिंह सेनापति’ (1903), ‘हम्मीर’ (1903) प्रमुख है। ‘जयराम दास गुप्त’ ने ‘काश्मीर पतन’, मायारानी, नवाबी पाकिस्तान वा वाजिद अलीशाह (1903), कलावती तथा मक्का चाँदबीबी तथा मधुरा प्रसाद शर्मा का ‘नूर जहाँ बेगम व जहाँगीर’ (1905) प्रसिद्ध है।

तिलस्मी, ऐय्यारी उपन्यासः

तिलस्मी, शब्द यूनानी ‘टेलेस्मा’ और ‘अरबी’ तिलस्मा’ का हिन्दी संस्करण है। तिलस्मी-ऐय्यारी उपन्यासों में ‘दवेकी नन्दन खत्री’ कृत चन्द्रकान्ता (1882), चन्द्रकान्ता संतति, चौबीस भाग (1896), ‘नरेन्द्र मोहनी’ (1893), ‘बीरेन्द्र बीर’ (1885), ‘कुसुम कुमारी, (1893) तथा ‘हरे कृष्ण जौहर’ कृत ‘कुसुमलता’ (1899) उल्लेखनीय है।

तिलस्मी-ऐय्यारी उपन्यास सामान्य जनता में खूब लोकप्रिय हुए थे, इसमें रहस्य-रोमांचप्रिय सस्ती कल्पना को पुष्टि मिलती थी। बाबू देवकीनन्दन खत्री के अधूरे उपन्यास ‘भूतनाथ’ को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूर्ण किया प्रायः कोई सुन्दर राजकुमारी किसी रहस्यमयी तिलस्मी इमारत में कैद हो जाती थी उसका प्रेमी राजकुमार अपने हरफनमौला ऐयार की सहायता से तिलस्म तोड़कर उसका उद्धार करता था, तिलस्मी उपन्यासों में ‘चन्द्रकान्ता संतति’ की ऐसी धूम मची कि इसको पढ़ने के लिए न जाने कितने अहिन्दी भाषियों में हिन्दी सीखी।

जासूसी उपन्यासः

इस युग के जासूसी उपन्यास में गोपालराम गहमरी कृत ‘अद्भुत लाश’ (1896) उल्लेखनीय है, गोपालराम गहमरी जी ने भारतेन्दु युग के अन्तिम चरण में लिखना प्रारम्भ किया और लगभग 200 जासूसी उपन्यास लिखें, किन्तु उनके बहुसंख्यक उपन्यास द्विवेदी युग की सीमा में लिखे गये हैं, किन्तु उन्हें अधिक से अधिक विश्वसनीय बनाने की चेष्टा की जाती थी। अन्ततः जासूसी की बुद्धि धैर्य, साहस और कौशल से घटना का रहस्य उद्घाटित होता है। श्री रामलाल वर्मा ने चोर, जासूस के घर खून, जासूसी कुŸाा, अस्सी हजार की चोरी, आदि कई उपन्यास लिखकर जासूसी उपन्यासों की परम्परा को जीवित रखा।

रोमानी उपन्यासः

रोमानी उपन्यास में जगमोहन सिंह का ‘श्यामा स्वप्न’ (1888) उल्लेखनीय है। इसमें प्रेम कथा का स्वछंद शैंली में चित्रण हुआ हैं।

उपर्युक्त उपन्यासों में सबसे महत्वपूर्ण सशक्त धारा उन सामाजिक उपन्यासों की है जिसका श्री गणेश ‘परीक्षा गुरु’ से हुआ था। अन्य उपन्यासों का महत्व इतना ही है कि उनसे सामान्य जनता में हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ी, इस युग के सर्वप्रधान उपन्यास लेखक ‘किशोरी लाल गोस्वामी’ माने गये हैं, ‘गोस्वामी जी’ ने मानवीय प्रेम के बिबिध पक्षों के उद्घाटन में ही अपनी शक्ति को व्यय किया है।

वस्तुतः जीवन के यथार्थ को कला में ढ़ालने वाले उपन्यासों की रचना का वातावरण अभी नहीं बन पाया था, इस शेली का आरम्भ आगे चलकर द्विवेदी युग में हुआ।

(ख) द्विवेदी युगः

आलोच्य काल साहित्य की दृष्टि से अपेक्षा कृत समृद्ध हैं, किन्तु इस क्षेत्र में लेखकों और पाठको की प्रकृति कौतूहल, रहस्य और रोमांच के माध्यम से मनोरंजन करने में अधिक रही, सामाजिक जीवन की यथार्थ समस्याओं को लेकर गम्भीर उपन्यासों की रचना इस युग में कम हुईं रहस्यमयी, अद्भुत घटनाओं को श्रृंखलाबद्ध करके एक अपरिचित संसार में पाठाकों को भटकाते रहना लेखकों का प्रधान लक्ष्य प्रतीत होता है।

भाषा शैली के अलावा इस युग में गद्य की विविध विधाओं के विकास में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारतेन्दु युग के नाटक, उपन्यास, समालोचना तथा निबन्ध की जो विधाएं अस्तित्व में आई थीं, द्विवेदी युग में उनका परिष्कार और विकास हुआ। ‘भारतेन्दु मण्डल’ आत्मियकता के भाव पर बना था, ‘द्विवेदी मण्डल’ अनुशासन के जबकि भारतेन्दु अपने वृŸा के निश्चय ही सबसे बड़े रचनाकार थे और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनात्मक स्तर पर अपने ‘शिष्यो मैथलीशरण गुप्त’ तथा प्रेमचन्द से छोटे थे। भारतेन्दु के व्यक्तित्व में बंगाल की कोमलता और भावुकता थी, आचार्य द्विवेदी के व्यक्तित्व में महाराष्ट्र की कठोरता और वस्तुन्मुररवता। प्रकृति भेद के आधार पर द्विवेदी के युगीन उपन्यासों को पाँच वर्गो में रखा जा सकता हैं।

1. तिलस्मी ऐय्यारी उपन्न्यास

2. जासूसी उपन्यास

3. अद्भुत घटना प्रधान उपन्यास

4. ऐतिहासिक उपन्यास

5. समाजिक उपन्यास

तिलस्मी ऐय्यारी उपन्यासः

तिलस्मी ऐय्यारी उपन्यासों की परम्परा देवकीनन्दन खत्री द्वारा भारतेन्दु युग में आरम्भ की गयी आलोच्य युग में यह परम्परा जीवित रहीं। खत्री जी के ‘काजर की कोठरी’ (1902), ‘अनूठी बेगम’ (1905), ‘गुप्त गोदन’ (1906), ‘भूतनाथ’ (प्रथम 5 भाग 1906) आदि उपन्यास इसी युग में प्रकाशित हुए खत्री की परम्परा का निर्वाह हरे कृष्ण जाहर ने ‘कमल कुमारी’ (1902), ‘निराला नकाबपोश’ (1902), ‘भयानक खून’ (1903) आदि तिलस्मी उपन्यासों  की रचना द्वारा किया गया। किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘तिलस्मी शीशमहल’ (1905) और राम लाल वर्मा कृत ‘पुतली महल’ (1908) भी इसी वर्ग की रचनाएँ है।

इन उपन्यासों को रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य कोटि में नही रखा है। डॉ0 माता प्रसाद गुप्त। के अनुसार अति प्राकृत भावना के आधार पर लिखे गये इन उपन्यासों की लोकप्रियता के लिए मध्य युगीन विकृत रूचि ही उŸारदायी है। कुछ भी हो हिन्दी के प्रचार-प्रसार में जितना योग इन तिलस्मी उपन्यासों का है, उतना अन्य किसी गद्य-विधा का नहीं। और अब तो सामाजिक रूपान्तरण में साहित्य की भूमिका का गम्भीरता पूर्वक विचार करते हुए यह लक्षित किया जा रहा है कि खत्री जी ने केवल मनोरंजन के लिए असंभव कल्पना लोक की सृष्टि नही की है उनकी कल्पना के पीछे तत्वकालीन प्रौद्योगिकी का यथार्थ है। इतिहास दृष्टि की यह यात्रा यद्यपि भौगोलिक आधारों और पुरातात्विक सामाग्री से प्रारम्भ हुई थी लेकिन समाप्त राजनीतिक सामन्तवाद के पतनशील प्रभामण्डल के आन्तरिक विघटन और नवजागरण की लहरों पर निरन्तर टकराव से उत्पन्न प्रभावों पर हुई थी।

जासूसी उपन्यासः

जासूसी उपन्यास का प्रवर्तन गोपाल गहमरी (1866-1946 ई0)  ने किया था। गहमरी जी अंग्रेजी के प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार ‘आर्थर कानन डायल’ (1856-1930) से प्रभावित थे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘ए स्टडी इन स्कारलेट’ (1887) को उन्होनंें ‘गोविन्द राम’ (1905), शीर्षक से हिन्दी में रूपान्तरित भी किया। गहमरी जी के जासूसी उपन्यास अत्यन्त लोकप्रिय हुए, ‘सरकटी लाश’ (1900), ‘चक्कर दार चोरी, (1901), जासूस की भूल (1901), जासूस पर जासूसी’ (1904), ‘जासूस चक्कर में’ (1906), ‘इन्द्रजालिक जासूस’ (1910), ‘गुप्त भेंद’ ऐय्यारी (1914) आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास है। गहमरी जी के अतिरिक्त रामलाल वर्मा, किशोरी लाल गोस्वामी, और जयरामदास गुप्त ने भी इस क्षेत्र में कुछ प्रयोग किये, किन्तु सर्वाधिक ख्याति गहमरी जी को ही प्राप्त हुई।

अद्भुत घटना प्रधान उपन्यासः

अद्भुत घटनाप्रधान उपन्यास की रचना घटनाप्रधान उपन्यासों की रचना तिलस्मी और जासूसी उपन्यासों से भिन्न तकनीक पर की जाती थीं इनमें इसी लोक के किसी रहस्यमय कोने का उद्घाटन किया जाता था इनकी प्रेणना ‘रेनाल्डर्स’ कृत मिस्ट्रीज आफ दा कोर्ट ऑफ लन्दन के अनुवाद ‘लन्दन रहस्य’ से प्राप्त हुई थी। ये उपन्यास तिलस्मी-ऐय्यारी और जासूसी उपन्यासों से भिन्न होते हुए भी मनोरंजन में उनसे किसी प्रकार भी कम नही होते थे। इस प्रकार के उपन्यास भारतेन्दु युग से ही लिखें जाने लगे थे।

अम्बिकादŸा ब्यास जी ने घटनाओं की कल्पना में अद्भुत मेधा का परिचय दिया हैं जिस प्रकार उस समय के पुरात्वविद प्राचीन भारत की ऐन्द्रजलिक समृद्धि की पर्तो को सामने लाकर चकित कर रहे थे, वैसे ही ब्यास जी ने इन्द्रजाल बुनकर पाठकों को चकित कर दिया हैं। ‘त्रिट्ठलदास नागर’ कृत किस्मत का खेल’ (1905), ‘बाकेलाल चतुर्वेदी’ का ‘खौफनाक खून’ (1912), ‘निहाल चन्द वर्मा’, ‘प्रेम का फल या मिस जौहरा (1913), प्रेम विलस वर्मा का ‘प्रेम माधुरी या अनंग कान्ता’ (1915), दुर्गा प्रसाद खत्री का अद्भुत भूत, (1916) इस शैली के मुख्य उपन्यास है। खत्री जी के उपन्यासों में ‘रहस्य के साथ ही राष्ट्रीयता एवं शसक्त क्रान्ति की भावना का भी सन्निवेश किया गया है।’

ऐतिहासिक उपन्यासः

ऐतिहासिक उपन्यास प्रायः मुगल काल के इतिहास से तथ्य की कमी है, लेखको ने इतिहास की ऐसी घटनाओं का चयन किया है, जो पाठाकों के कौतूहल एवं रहसय रोमांच वृŸिा को पुष्ट कर सके, किशोरी लाल गोस्वामी, गंगा प्रसाद गुप्त, जयराम गुप्त, और मथुरा प्रसाद शर्मा इस काल के उल्लेखनीय ऐतिहासिक उपन्यासकार है, ‘किशोरी लाल गोस्वामी कृता ‘तारा व छात्रकुल कमलिनी (1902), ‘सुल्ताना रजिया बेगम’ व रंग महल में हलाहल (1904), मल्लिका देवा व बंग सरोजनी (1905) और ‘लखनऊ  की कब्र व शाहीमहल महल सरा’ (1917) इस युग के चर्चित ऐतिहासिक उपन्यास है।

गंगा प्रसाद गुप्त के ऐतिहासिक उपन्यासों में ‘नूरजहाँ (1902) कुमार सिंह सेनापति’ (1903), ‘हमीर’ (1903) उल्लेखनीय है। जयरामदास गुप्त कृत ‘काश्मीर पतन’ (1907) ‘नबावी पाकिस्तान व बाजिद अलीशाह’ (1909) आदि उपन्यास किशोरी लाल गोस्वामी में रखे जा सकते है, इनमें भी इतिहास कम और रहस्य सृष्टि करने वाली कल्पना अधिक है, मथुरा प्रसाद शर्मा कृत ‘नूरजहाँ बेगम व जहाँगीर’ (1905) में इतिहास को सुरक्षित रखने की चेष्टा की गई है।

वस्तुतः इस युग में श्रेष्ठ कलात्मक उपन्यासों की सृष्टि संभ्भव ही नही थी, उस समय तक हिन्दी भाषी जनता का मानसिक उन्नयन एवं परिष्कार नही हुआ था, इस युग के सबसे शसक्त उपन्यासकार किशोरी लाल गोस्वामी (1865-1932) हैं, उपन्यास रचना में इसका उद्देश्य प्रेम का विज्ञान प्रस्तुत करना था इसलिए इनके द्वारा रचित ऐतिहासिक उपन्यासों के कथानक भी प्रेम की विविधता एवं रहस्यमयता के इर्द-गिर्द घूमते रहते है, इसके ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास संभ्भव सामाजिक एवं राजनीतिक संास्कृतिक स्थितियों का चित्रण नही हुआ है, तथा अनेकों स्थलों पर काल दोष भी गया है। लेखकों की प्रवृति इतिहास की ओर से हटकर प्रणय-कथाओं विलास लीलाओं, रहस्यमय प्रसंगो तथा कुतूहलवर्धक घटना चक्रो की कल्पना चक्रो की कल्पना में लीन हो जाती है। वे कल्पना से अधिक कार्य लेते है, ऐतिहासिक छान-बीन कम करते है। अतीत उनकी मुक्त कल्पना की उड़ान के लिए सुविधा प्रस्तुत करता है और वे इतिहास की चिन्ता छोड़कर पाठकों की चिŸा का रंजन करने वाली कथाधारा में वह बह जाते है। इसी लिए द्विवेदी युग में उŸाम कोटि के ऐतिहासिक उपन्यास बहुत कम लिखे गये।

सामाजिक उपन्यासः

द्विवेदी युग के सामाजिक उपन्यासों में सुधारवादी जीवन-दृष्टि ही प्रधान है, किशोरी लाल गोस्वामी, लज्जाराम शर्मा और गंगा प्रसाद गुप्त सनातन धर्म क समर्थक थे। आर्य समाज के नवीन सुधारवादी आंदोलन के विरुद्ध होते हुए भी ये लेखक नैतिक जीवन दृष्टि की प्रतिष्ठा चाहते थे, गोस्वामी जी ने सती-साध्वी देवियों के आदर्श प्रेम के साथ ही अवैध विधवाओं के व्याभिचार वैश्याओं के कुत्सित जीवन और देवदासियों की विलास लीला का भी चित्रण किया है। उनका उद्देश्य नारकीय कुत्सित जीवन के दुष्परिणाम दिखाकर लोगों को उच्चनेतिक जीवन में प्रकट करना था। लज्जाराम शर्मा के आदर्श दम्पŸिा (1904) बिगड़े का सुधार अथवा सती सुख देवी (1907) और आदर्श हिन्दू (1914) उपन्यासों का विशेष महत्व है, किशोरी लाल गोस्वामी के लीलावती व आदर्श सती (1901) चपला मनुष्य समाज (1903-1907) पुर्नजन्म व सौतिया डाह (1907) माधवी माधव व मदमोहनी (1903-1910) अयोध्या सिंह उपाध्याय के उपन्यासों अधखिला फूल (1907) ठेठ हिन्दी का ठाठ (1899) है, ब्रजनन्दन सहाय के सौन्दर्योपासक (1911) और राधाकान्त (1912) ये दो उपन्यास अधिक प्रसिद्ध हुए इस युग की अन्य रचनाओं में मनन द्विवेदी कृत रामलाल (1917) में ग्रामीण जीवन का सजीव और यथार्थ चित्रण मिलता है तथा राधिका रमण प्रसाद सिंह का नवजीवन व प्रेमलहरी (1916) प्रेमाकुलतार्पूा भावात्मक उपन्यास है। पृष्ठ संख्या 15।

अनूदित उपन्यासः

भारतेन्दु के समय से ही हिन्दी में उपन्यासों के अनुवाद की परम्परा प्रारम्भ हो गयी थी। मराठी, गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू से कुछ अनुवाद हुए। बंगला अनुवादों से हिन्दी-उपन्यास साहित्य का स्तर थोड़ा ऊँचा हुआ। उŸारभारत में नवीन सामाजिक जागरण वंग-प्रदेश से ही हुआ था। अतः उपन्यास के अनुवाद के माध्यम से उस नवीन जागृति का विस्तार हिन्दी प्रदेश में भी हुआ। 14वीं शतीं के उŸारार्द्ध में बंगला साहित्य में बंकिमचन्द चटर्जी (1838-1909) रमेशचन्द्र दŸा (1848-1909) तारकनााि गांगुली (1845-91) दामोदर मुकर्जी (1853-1907) तथा स्वर्ण कुमारी देवी (1855-1932) के उपन्यास बहुत लोकप्रिय हुए थे।

इस युग में अंग्रेजी और बंगला से बहुत से उपन्यास अनुदित हुए। गंगा प्रसाद गुप्त ने रेनाल्ड के लब्ज आफ द हेयर का रंगमहल (1904) का नाम ‘जनार्दन प्रसाद झा द्विज’ डिफो के ‘राबिन्सन क्रेसो’ का इसी नाम से ‘दुर्गा प्रसाद खत्री’ ने विक्टर ह्यूगो के लाम मिजरेबुल का अभागे का भाग्य (1914-1915) नाम से महावीर प्रसाद पोद्दार ने स्टो के अंकल ‘टाम्स केबिल’ का ‘टाम काका की चन्द्र लाल’ (1916) नाम से और लाला चन्द्रलाल ने स्काट के ‘दे एवट’ का ‘रानी मेरी’ (1916) नाम से अनुवाद किया। बंगला भाषा से अधिक अनुवाद हुए ईश्वरीय प्रसाद शर्मा ने दामोदर मुखोपाध्याय के किशोरी लाल गोस्वामी ने वंकिमचन्द्र के गोपालराम गहमरी ने वंचक चौड़ी डे के तथा जर्नादन प्रसाद झा द्विज ने रविन्द्रनाथ ठाकुर और रमेश चन्द्र दŸा के कई उपन्यासों के अनुवाद प्रस्तुत किये। कुछ अनुवादों को छोड़कर प्रायः सभी अनुवाद कौतुक रहस्य, रोमांच प्रधान उपन्यासों के ही हुए है अंग्रेजी के गम्भीर समस्या प्रधान उपन्यास के अनुवाद नही किये गये इससे तत्वकालीन लोकरूचि का अनुमान लगाया जा सकता है।

मराठी से ‘चन्द्रप्रभा पूर्ण प्रकाश’ का अनुवाद श्रीमती मल्लिका देवी ने ‘भारतेन्दु’ से प्रेरित होकर किया था। उर्दू से अनुवाद करने वालो में बाबू रामकृष्ण वर्मा एवं श्री गंगा प्रसाद गुप्त उल्लेखनीय है। वर्मा जी ने कुछ अद्भुत घटना प्रधान उपन्यासों- ‘अमला वृतान्त मालाः कांस्टेबुल वृतान्त माला, आदि का अनुवाद उर्दू से किया।

अनूदित उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान स्वीकार्य है। इन अनुवादों के माध्यम से हिन्दी लेखकों का मानसिक क्षितिज विस्तृत हुआ और उन्होंने हिन्दी-उपन्यास साहित्य को अधिक यथार्थ परक, प्रेरणादायक और कलात्मक बनाने की चेष्टा की।

द्विवेदी युगीन उपन्यासों की महत्वपूण्र परम्परा जिसके आगे चलकर प्रेमचन्द की, सामाजिक उपन्यासों की ही है, सामाजिक उपन्यास का लक्ष्य समाज सुधार था, प्रेमचन्द भी इसी उद्देश्य से प्रेरित थे, उनका ‘प्रेमा’ (1907) और ‘सेवा  सदन’ (1918) इसी युग में प्रकाशित हुआ इन तीनों में समाज सुधार की प्रकृति प्रधान है। हिन्दी प्रदेश में सामाजिक चेतना को जनसाधारण तक पहुँचाने का श्रेय ‘आर्यसमाज’ (1878 ई0) आन्दोलन को है। ‘आर्यसमाज’ आन्दोलन के प्रतिक्रिया स्वरुप सनातन धर्म ने भी नयी शक्ति ग्रहण करने की चेष्टा की।

प्रेमचन्द अपने ‘उपन्यास का विषय’ शीर्षक निबन्ध में लिखा है। ‘‘मगर आज कल कुकर्म, हत्या, चोरी, डाके से भरे कुछ उपन्यासों की जैसे बाढ़ सी आ गयी है। समय नही था, जब ऐसे कुरुचिपूर्ण उपन्यासों की इतनी भरमार रही हो’’ कहना न होगा कि प्रेमचन्द का इशारा ‘तिलस्मी’, जासूसी उपन्यासों की ओर है। इसी निबन्ध में आगे चलकर आपने कहा- ‘‘ जिन्हें जगत् गति नही व्यापती वे जासूसी तिलस्मी चीजें लिखा करते हैं।’’

प्रेमचन्द-पूर्व उपन्यास साहित्य की प्रेरक शसक्त और स्फूर्ति दायिनी परम्परा सामाजिक जागृति के वाहक उपन्यासों की ही मानी जा सकती है। इन्हीं उपन्यासों ने ‘सेवासदन’ की रचना की पृष्ठभूमि प्रस्तुत की ओर प्रेमचन्द के आगमन के साथ ही हिन्दी-उपन्यास साहित्य में एक नये युग का आरम्भ हुआ। प्रेमचन्द इस युग-चेतना क अग्रदूत थे।

प्रेमचन्द का महत्व इसी दृष्टि से है कि रहस्य-केलि के चटकीले चित्रों के स्थान पर सुरुचिपूर्ण प्रसंगो की उद्भावना पर बल दिया, उन्होनें घटना के स्थान पर चरित्र को उभारने की चेष्टा की जीवन की वास्तविक समस्याओं को मध्य वर्ग के तत्वकालीन जीवन-प्रभाव के साथ जोड़ दिया।

छायावाद युगः

हिन्दी उपन्यासों के विकास क्रम में प्रेमचन्द युग का विशेष महत्व है। प्रेमचन्द युग की मर्यादा 1918 ई0 से 1936 ई0 तक मान्य है- हिन्दी साहित्य में यह युग ‘छायावाद युग’ के नाम से प्रसिद्ध है। छायावाद-युग अपनी समस्त दुर्बलताओं के बावजूद नव-जागरण का युग था। भावावेग, आदर्शप्रियता, राष्ट्रीय भावना, स्वच्छन्दता आदि प्रकृतियाँ जन-जागरण की ही सूचना देने वाली हैं। व्यवहारिक जीवन में प्रेमचन्द जी ने गाँधी जी के रचनात्मक कार्यो को पूर्णतः स्वीकार किया था। प्रेमचन्द युग के गतिशील जीवन दृष्टि के निमार्ण में आर्यसमाज, तिलक और गाँधी के विचार धाराओं का ही योग था। उन्होनें साम्प्रादायिक एकता अस्पृष्यता-निवारण, नशाखोरी दूर करना, ग्राम सुधार, स्त्रियों की उन्नति, प्रौढ़ और बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य और सफाई की भावना का प्रचार, राष्ट्र-भक्ति-राष्ट्र-भाषा और निज-भाषा प्रेम किसानों-मजदूरों के सहानुभूति तथा छात्र-संगठन के रचनात्मक कार्यो पर बल दिया।

प्रेमचन्द ‘मानवतावाद’ से प्रभावित थे उन्होनें ‘जीवन में साहित्य का स्थान’ पर विचार करते हुए लिखा है-आदिकाल से मनुष्य के लिए सबसे समीप मनुष्य है। हम जिसके सुख-दुःख, हँसने-रोने का मर्म समझ सकते है, उसी से हमारी आत्मा का अधिक मेल होता है। हमारी मानवता जैसे विशाल विराट होकर समस्त मानव जाति पर अधिकार पा जाती है।

उपन्यास अपने आरम्भ से ही मध्यगत रुप में सामाजिक यथार्थ-चित्रण से जुड़ा हुआ है, प्रायः हर साहित्य में तिलस्मी, ऐय्यारी, रहस्य और चमत्कार प्रधान किस्सों से अलग होकर उपन्यास जब अपने पूर्ण रुप ‘रोमांस’ से भिन्न एक स्वतंत्र कला रुप के तीरे पर स्थिर होता है, तो उसका प्रधान उपजीवन, समाज की विविध विषमताऐं और समस्याऐं ही बनती है। हिन्दी का प्रथम मौलिक उपन्यास लाला श्री निवास दास कृत ‘परीक्ष गुरु’ 1882 सांस्कृतिक और जातीय संघर्ष की कथा वस्तु को उठाता है।

प्रेमचन्द 1880-1936 के साहित्य जगत में प्रवेश के साथ ही हिन्दी उपन्यास में एक नया मोड़ आता है अभी तक हिन्दी के पाठक  जासूस का चमत्कार और तिलस्मी के आश्चर्यजनक करिश्में देख रहे थे, ऐतिहासिक तथा रोमांचों की स्थिति भी इससे भिन्न नही थी, उनमें सनातन धर्मी, प्रतिक्रियावादी मनोवृŸिायाँ-पर्दा प्रथा का समर्थन, पतिब्रत्य को अनुमोदन, सह-शिक्षा तथ विधवा विवाह का विरोध स्पष्ट दिखाई पड़ता है। प्रेमचन्द ने इस भूलभूलैया और प्रतिक्रियावादी स्त्रियों से बाहर निकालकर हिन्दी उपन्यासों को वास्तविकता की जमीन पर खड़ा किया।

प्रेमचन्द के लेखन की शुरुआत उर्दू-उपन्यास कहानियों के लेखन से हुई ‘असरारे मआविद’ अर्थात ‘देवस्थान रहस्य’ (1903-1905) हमखुर्मा-ओ हम सबब (हिन्दी अनुवाद प्रेमी) ‘किसान’ रुठी रानी’ (1907) तिलस्मी चमत्कार का किंचित प्रभाव होते हुए भी वे यथार्थ की भूमि पर प्रतिष्ठित है, इनमें प्रेमचन्द के उपन्यास को मनोरंजन से ऊपर उठाकर जीवन के सीधे सम्पर्क में लाने का प्रयत्न किया था प्रेमचन्द उर्दू में ‘नबाब राय’ के नाम से लिखा करते थे। प्रेमचन्द का असली नाम धनपतराय है, वे हिन्दी में लेखक का कार्य प्रेमचन्द के नाम से करते थे।

उनके पहले उपन्यास का नाम सेवासदन है जो 1917 में प्रकाषित हुआ जिसे स्वयं प्रेमचन्द ने हिन्दी का बेहतरीन उपन्यास कहा है, यह उनके उर्दू उपन्यास ‘बजारे हुश्न’ 1914 का हिन्दी रूपान्तरण है, इसलिए स्पष्ट है कि इसकी समस्या भी वेश्या जीवन की ही समस्या है दहेज प्रथा, अनमेंल विवाह आदि वेश्या जीवन की ओर ले जाने वाले सामाजिक दोष है, इनके कारण मध्यवर्गीय परिवार के बाद प्रेमचन्द के ‘प्रेमाश्रय (1922), ‘रंगभूमि’ (1926), ‘निर्मला’ (1927), ‘गबन’ (1931), ‘कर्मभूमि’ (1933) और योगदान मौलिक उपन्यास प्रकाशित हुए।

इस बीच उन्होनें अपने दो पुराने उर्दू उपन्यासों को भी हिन्दी में रूपान्तरित और परिष्कृत करके प्रकाशित किया, ‘जलवाए ईसार’ हुआ तथा ‘हमर बुर्मा’ व हमस बब’ के पूर्व प्रकाशित हिन्दी रूपान्तर ‘प्रेमा’ अर्थात ‘दो सखियों कास विवाह’ को परिष्कृत कर उन्होंनें ‘प्रेम प्रतिज्ञा’ (1929) शीर्षक से सर्वथा नए रुप में प्रकाशित कराया, वैसे मूल रुप से हिन्दी लिखित उनका पहला उनन्यास ‘कायाकल्प’ है।

प्रेमचन्द ने एक-एक कर बड़ी बेसब्री से जीवन की समस्याओं का अपने उपन्यासों में स्थान दिया, ‘सेवासदन’ में उनका ध्यान मुख्यतः विवाह से जुड़ी समस्याओं- तिलक, दहेज प्रथा, कुलीनता का प्रश्न, विवाह के बाद घर में पत्नी का स्थान आदि और समाज में वेश्याओं की स्थिति पर यहाँ निर्मला में दहेज प्रथा और कुछ विवाह से होने वाले पारिवारिक विघटन तथा विनाश का चित्रण है, विवाह से जुड़ी समस्याओं- तिलक, दहेज प्रथा, कुलीनता का प्रश्न, विवाह के बाद घर में पत्नी का स्थान आदि और समाज में वेश्याओं की स्थिति पर रहाँ है निर्मला में, कृषक जीवन की समस्याओं के चित्रण का प्रथम प्रयास प्रेमाश्रय में लक्षित हुई है और उसे पूर्णता प्राप्त हुई गोदान में और विशेष रुप से रंगभूमि और कर्मभूमि में ग्रामीणों की स्थिति का चित्रण किया है पर गोदान कासे तो ग्रामीण जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य ही कहा जा सकता है। ग्रामीण जीवन और कृषि संस्कृति का इतना सच्चा व्यापक और प्रभावशाली चित्रण हिन्दी के किसी अन्य उपन्यास में नही हुआ है। सभ्भवतः वह संसार के साहित्य में बेजोड़ है।

उपन्यास जब हिन्दी साहित्य परिवार में नया-नया प्रवेश कर रहा था, तो सतर्क गृहस्थ की भाँति वरिष्ठ लेखकों और सम्पादकों की दृष्टि उस पर खड़ी थी। संस्कृत में आख्यायिका की परम्परा तो थी पर आधुनिक काव्य रुप की तरह उपन्यास का हिन्दी आरम्भ अंग्रेजी सम्पर्क के कारण हुआ स्वयं भारतेन्दु का उपन्यास ‘पूर्णप्रकाश चन्द्रप्रभा’ रूपान्तरण है। इन्होनें अपना कोई भी उपन्यास पूरा नही लिखा पर एक पत्र से ज्ञात होता है कि इन्हीं के उत्साह दिलाने से उस समय स्वर्गीय श्री गोस्वामी राधाचरण जी ने ‘दीप निर्वाह’ तथा सरोजनी का ‘उल्टा’ किया और बाबा गदाधर जी ने ‘कादम्बरी’ का संक्षिप्त तथा दुर्गेशनन्दिनी का पूरा नाम किया था।

इस युग में प्रायः सभी शैलियों के उपन्यासकारों ने एक तो आदर्श का चरम उद्धाŸा रुप प्रस्तुत किया तो दूसरी ओर यथार्थ की एकदम शिथिल स्थिति का वर्णन। उपन्यासकारों में ये दो प्रवृŸिायाँ एक साथमिल जाती है जिसे शायद उन्होनें अपने ढंग से यथार्थ का वास्तविक रुप माना, उनकी दृष्टि में चरम आदर्श और नग्न यथार्थ मिलकर सामाजिक जीवन का असली चित्र प्रस्तुत करते है।

चम्मालाल जौहरी ‘सुधाकर’ का हिन्दी साहित्य में ‘डकैती’ शीर्षक लेख ‘इन्दू’ में प्रकाशित हुआ जो, हिन्दी साहित्य के कलकत्ता अधिवेशन में पठित विष्णुचन्द्र शर्मा के विस्तृत लेख हिन्दी का ‘हानिकार’ साहित्य के प्रतिवाद स्वरुप लिखा गया था, इसके द्वारा उपन्यास से होने वाली हानियाँ बतायी गयी।

प्रेमचन्द हिन्दी उपन्यास की वयस्कता की प्रभावशाली उद्घोषणा हैं। कहानी कला पर्यटन है कि ‘बुरा आदमी भी बिल्कुल बुरा नही होता, उसमें कहीं देवता अवश्य छिपा होता है, एक नया दृष्टिकोण विकसित करते है, जिसे उन्होंनें आदर्शोन्मुख यथार्थ वाद का नाम दिया है जहाँ जैनेन्द्र की आत्मकेन्द्रित अर्न्तमुखी पीड़ा, इलाचन्द्र जोशी की काम कुण्ठा-जनित जटिल व्यक्ति-चेतना यशपाल का समाजवादी यथार्थ वाद भगवतीचरण वर्मा और उपेन्द्र नाथ अश्क का रुमानी समाजोन्मुख सर्व मांगलिक मानववाद सभी के प्रेरणा सूत्र लक्षित किये जा सकते है। प्रेमचन्द ने साहित्य को जीवन की व्यापक अनुभूति के साथ सम्बद्ध करके देखा था उन्होनंे उसे सुरुचि जागृत करने वाला तथा आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति देने वाला माना था। उत्पन्न उपन्यासों में व्यक्ति-चेतना, समाज, मंगल, यथार्थ की अनुभूति आदर्श की कल्पना, वाहन घटना वैविध्य आन्तरिक मनोमघँन एवं भावद्धद्ध सभी कुछ मिल जाता है। सेवासदन 1918, प्रेमाश्रय 1921, रंगभूमि 1925, कायाकल्प 1926, निर्मला 1927, गबन 1931, कर्मभूमि 1932, गोदान 1936 और मंगलसूत्र (अधूरा) 1936, प्रेमचन्द के प्रमुख उपन्यास है। इन उपन्यासों ने हिन्दी-भाषी जनता का मानसिक संस्कार किया है।

प्रेमचन्द से प्रभावित होकर उन्हीं के ढंग के उपन्यासों की रचना में प्रवृŸा होने वाले उपन्यासकारों में विश्वम्भरनाथ शर्मा, कौशिक, श्रीनाथ सिंह शिवपूजन सिंह सहाय, भगवती प्रसाद बाजपेयी, चण्डी प्रेदश हरदयेश (चण्डी प्रसाद हृदयेश), राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, सियारामशरण गुप्त आदि प्रमुख है। कौशिक जी की कृति (1891-1945 ई0) के दो उपन्यास माँ 1929 ओर भिखारिणी 1929 ई0 प्रसिद्ध है। दोनो ही उपन्यास मानव चरित्र की महिमा के द्योतक और हृदयस्पर्शी है।

इसी युग में ऐसे उपन्यास भी लिखे गए जिनकी मूल चेतना ‘प्रेमचन्द’ के रचनादर्श से भिन्न रुमानी है। शिल्प और भाषा के दृष्टि से भी प्रेमचन्द ने हिन्दी उपन्यास को विशिष्ट स्तर प्रदान किया। यूँ सुघटित और चारों ओर से दुरुस्त से कथानक गढ़ने का कौशल ‘देवकी नंदन खत्री’ भी दिखा चुके थे पर चित्रलीय विषय के अनुरुप शिल्प के अन्वेषण का प्रयोग हिन्दी उपन्यास में पहली बार प्रेमचन्द ने ही किया उनकी विशेषता यह है कि उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये दृश्य अत्यन्त सजीव गतिमान और नाटकीय है, उनके उपन्यासों की भाषा की खूबी यह है कि शब्दों के चुनाव तथा वाक्य योजना की दृष्टि से उसे सरल और बोलचाल की भाषा कहा जा सकता है, पर भाषा की इस सरलता को निर्जीवता और एकरुपता एवं अकाव्यात्मकता का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए, भाषा के सटीक, सार्थक और व्यजंनापूर्ण प्रयोग में वे अपने समकालीन ही नही बाद के उपन्यासकारों को भी पीछे छोड़ जाते है। वस्तुतः प्रेमचन्द ने ही हिन्दी उपन्यास को अभिव्यक्ति का माध्यम प्रदान किया।

वस्तुतः प्रेमचन्द युग में अनेक उपन्यास लिखे गये तथा कई नये प्रकार के उपन्यासों का जन्मकाल भी प्रेमचन्द के युग को माना जा सकता है, प्रेमचन्द युग में सर्वाधिक सामाजिक उपन्यासों की रचना हुई।

सामाजिक उपन्यासः

इस युग में सर्वाधिक सामाजिक उपन्यास लिखे गए प्रेमचन्द के सभी उपन्यास सामाजिक उपन्यास की श्रेणी में आते है। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में साामजिक समस्याओं, पराधीनता, जमींदारों, पूंजीपतियो और सरकारी कर्मचारियों द्वारा किसानों का शोषण, निर्धनता, अशिक्षा अंधविश्वास, दहेज की कुप्रथा, घर और समाज में स्त्री की स्थिति वेंश्याओं आदि की जिन्दगी, वृद्ध विवाह, विधवा समस्या, साम्प्रदायिक, वैमनस्य, अस्पृश्यता, मध्य वर्ग की कुण्ठाओं आदि का वर्णन किया, प्रेमचन्द के उपन्यासों सेवासदन, प्रेमाश्रय, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, प्रतिज्ञा, वरदान और गोदान (गोदान प्रेमचन्द का अन्तिम उपन्यास है।) प्रेमचन्द युग के अन्तिम चरण में उपर्युक्त सभी प्रवृŸिायों का उन्मेष हो चुका था विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक (1891-1940) ने माँ और भिखारिणी लिखकर प्रेमचन्द का सफल अनुकरण किया था। पर सभ्भवतः इसी कारण लिखने की योग्यता होते हुए भी वे अपनी अलग पहचान नही बना सके, देव नारायण द्विवेदी (1897) के कर्ता ब्यापक प्रणाय पश्चात और दहेज तथ अनुपालन मण्डल कृत निर्वासित (1929) आदि उल्लेखनीय है।

प्रेमचन्द के समकालीनों में जयशंकर प्रसाद, इसलिए उल्लेखनीय है कि वे न केवल कविता और नाटक के क्षेत्र में वरन् कंकाल (1929), तिलक (1934) की रचना द्वारा उपन्यास के रुप में भी चर्चा के विषय बने। तिलक में ग्रामीण और कृषक जीवन का सामान्य औपन्यासिक फैलाव मात्र है। कंकाल की विशिष्टता यह है कि इसमें प्रसाद ने समाज की त्याज्य अवैध और अज्ञात-कुलनशाील संतानों की कथा कही है।

सियारामशरण गुप्त कृत गोद (1932), अंतिम आकांक्षा (1934) और नारी (1937), गाँधी दर्शन पर आधारित मनोवैज्ञानिक सामाजिक उपन्यास है, राधिकारमण प्रसाद सिंह ने राम रहीम (1937) में कतिपय सामाजिक पहलुओं का उद्घाटन किया, भगवती प्रसाद बाजपेयी के उपन्यासों प्रेमपथ, मीठी चुटकी, अनाथ, पत्नी, त्यागमयी, लालिमा आदि में मध्यमवर्गीय पारिवारिक, सामाजिक जीवन का चित्रण किया है, वृन्दावन लाल वर्मा (1889-1969) कृत संगम (1928), लगन (1929), प्रत्यागत (1920), कुण्डली चक्र (1932) सामाजिक उपन्यास है।

सामाजिक उपन्यासों के अतिरिक्त भी इस युग में कई प्रकार के उपन्यासों की रचना हुई। 

मनोवैज्ञानिक उपन्यासः

हिन्दी उपन्यास को प्रेमचन्द युग में ही नई दिशा देने का सफल प्रयास किया जैनेन्द्र (1905-1988) में। इस युग में उनके तीन उपन्यास प्रकाशित हुए परख (1929), सुनीता (1935) और त्यागपत्र (1937) हिन्दी उपन्यास को उससे जो पाना था वह हिन्दी कृतियों में मिल गया। परख, में समकालीन सामाजिक उपन्यास की परम्परा से (जिसके प्रेमचन्द सर्वश्रेष्ठ लेखक थे) अलग लीक पर चलने का प्रयास किया गया। लेखक ने ब्यापक सामाजिक जीवन को अपनी उपन्यासों का विषय न बना कर व्यक्ति मानस की शंकाओं उलझनों और गुत्थियों का चित्रण किया है, उनके उपन्यासोें की कहानी अधिकतर एक परिवार की कहानी होती है, और वे शहर की गली और कोठरी की सभ्यता में ही सिमट कर व्यक्तिपत्रों क मानसिक गहराइयों में प्रवेश करने की कोशिष करते हैं।

जैनेन्द्र की अगर कोई त्रुटि है, तो यह है कि वे अपने पात्रों को पहेली बना कर छोड़ देते है, और पाठक उस वैज्ञानिक पहेली का सुलझाने के असफल प्रयत्न में उलझा रह जाता है। जो हो उन्होनें हिन्दी उपन्यासों को असंदिग्ध रुप से नई दिशा प्रदान की और उपन्यास को यथार्थ ही नही मनोवैज्ञानिक यथार्थ के क्षेत्र में भी प्रवेश करने की राह सुझायी। इस प्रकार उन्हें हिन्दी में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की परम्परा का पुरस्कर्ता माना जा सकता है जैनेन्द्र गाँधीवाद के अध्यात्म पक्ष पर बल देते हुए आत्म-पीड़न के द्वारा हृदय परिवर्तन में विश्वास करते है। इनके अनुसार मानव में दो मूल प्रवृŸिायाँ है-स्पर्धा और संमर्पण।  स्पर्धा, अहं का सृजन करती है। संमर्पण वृŸिा स्व, को पर के लिए उत्सर्ग कर देने में अपनी सार्थकता अनुभव करती है। जैनेन्द्र ने अहं, की निस्सारता दिखाकर संमर्पण द्वारा स्व और पर में अभेद स्थापित करने की चेष्टा की है। अहं को विगलित करने में पीड़ा और व्यथा ही समर्थ है। व्यथा का तीव्रतम रुप कामगत यातना में प्राप्त होता है। इसीलिए जैनेन्द्र ने अपने उपन्यासों में काम-पीड़ा और संमर्पण का चित्रण करके अहं, का विसर्जन किया है।

मानव के मूल बृŸिायों की संघर्ष को समझाने और उभारने के लिए जैनेन्द्र को अर्न्तमुखी होना पड़ा है। वे व्यक्ति मन की अतल गहराई में उतरे है थोड़े अबूझ और रहस्यमय हुए है-स्वयं उन्हीं के शब्दों में- जो एकदम वास्तविकता में लिप्त है-वह फिर चाहे जितना भी बड़ा आदमी समझा जाता हो-सफल उपन्यासकार नही हो सकता। एकदम जरुरी है कि वह कुछ अबोध भी हो, मिस्टिक भी हो इनकी तीन-उपन्यासों के साथ-साथ अन्य उपन्यासें-कल्याणी (1939)त्र सुत्वदा (1952), विवर्त (1953), व्यतीत (1953), जयवर्धन (1956), मुक्तिबोध (1965), अन्नतर (1968), अनास्वामी (1974) ओर दर्शाक (1985) ये बारह उपन्यास प्रकाशित हो चुके है। प्रायः इन सभी उपन्यासों में काम पीड़ा का दर्शन स्वीकार किया गया है। काम-अभुक्ति मानव को खण्डित कर देती है। वह भटकने लगता है। विद्रोह और उच्छृंखल हो जाता है। उसका दृष्टिकोण ध्वंसात्मक हो जाता है। नारी के समर्पण से ही वह सन्तुलित हो जाता है।

परख में कष्टों और सत्यधन, सुनीता में सुनीता और हरिप्रसन्न, त्यागपत्र में मृणाल और कल्याणी में कल्याणी, सुखदा में सुखदा और लाल विवर्त में भुनमोहिनी और जितेन, ब्यतीत में जयन्त ओर अनीता, तथा जयवर्धन में जय और इला के बीच काम-अभुक्ति प्रदान है। जैनेन्द्र ने अपने ढंग से स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध को मानसिक धरातल पर उसका उद्वाŸाीकरण करना चाहा है। धीरे-धीरे उनका यह मन विवाह-संस्था के निषेध का रुप ले लेता है। नारी के अहं को विघटित करने के लिए उसके प्रति समर्पित हो सकती है, किन्तु इसके लिए विवाहिता आवश्यक नहीं है।

दर्शाक में विवाह सम्बन्ध के टूटने पर स्त्री को वेश्या जीवन व्यतीत करने के लिए विवश दिखाया गया है। सम्बन्ध टूटने का कारण वैसा है, जैसे की प्रधानता होने पर सहज मानवीयता का दास होता है, ऐसी स्थिति में वर्तमान मर्यादाओं पर चोट करना आवश्यक है। पैसे के जगह प्यार की प्रतिष्ठा से ही मानवता का कलयाण सम्भव है। इस प्रकार परवर्ती उपन्यासों में जैनेन्द्र ने पूँजीवाद से उत्पन्न भोगवादी संस्कृत पर प्रहार करते हुए यांत्रिकता के ऊपर-मानवीय और पैसे की जगह प्यार को प्रतिष्ठित करना चाहा है, किन्तु यह सब उन्होनें अपनी विरल दार्शनिक मुद्रा प्रारम्भ से ही लक्षित की जा सकती है, और उनका यह चिन्तन रुप उनके उपन्यासकार पर निरन्तर छाया रहा इलाचन्द्र जोशी मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार है, उन्होंने उपन्यासों में प्रायः अवचेतना मन की गुत्थियों, कुण्ठाओं, ग्रन्थियों को सुलझाया है। कही-कही तो ऐसा प्रतीत होता है, कि वे मनोवैज्ञानिक केसों को औपन्यासिक रुप दे रहे है। इनके मुख्य उपन्यास है सन्यासी, जहाज के पँक्षी आदि। हिन्दी उपन्यास को जैनेन्द्र की देन महत्वपूर्ण है। प्रेमचन्द के बाद उन्होंने ही हिन्दी उपन्यास को विशेष व्यक्तित्व प्रदान किया।

इलाचन्द्र जोशी (1902-1982) के लज्जा (1929), सन्यासी (1940), पर्दे की रानी (1942), ‘प्रेत की छाया’ (1944), निर्वासित (1946), मुक्तिपथ (1948), ‘सुबह के भूले’ (1951), ‘जिप्सी’ (1952), कुचक्र (1969), ‘भूत विषय’ (1973), ‘कबि की प्रेयसी’ आदि कई उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। इनमें पर्दे की रानी, ‘प्रेत और छाया’ तथा ‘जहाज के पंक्षी’ एवं ‘सन्यासी’ को विशेष ख्याति मिली हैं जोशी जी फ्राँयड और मार्क्स दोनों के समन्वय में विश्वास करते है और इसी आधार पर समाज के स्वस्थ प्रगति की अनिवार्यता स्वीकार करते है। आपके प्रथम उपन्यास घृणामयी में लज्जा नामक आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवती की काम-चेष्टाओं का मनो-विश्लेषण किया गया है। कवि की प्रेयसी में जोशी जी ने कालिदास द्वारा ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक में उल्लिखित कवि नाटककार की सृष्टि की है। जोशी जी हिन्दी उपन्यासों में मनोविश्लेषण की प्रवृति के प्रवर्तक और उन्नायक है। वे व्यक्ति मन के पर्दो में छिपे हुए रहस्यों का उद्घाटन करना आवश्यक मानते है। उनके उपन्यासों के सभी नायक दुर्बल और मनोग्रन्थि पीड़ित है। जोशी जी इसे आज के मध्यमवर्ग की अनिवार्य विशेषता मानते है।

प्रेम मूलक उपन्यासः

इस काल में स्वच्छंदवादी पद्वति के प्रेम मूलक उपन्यासों की रचना का श्रेय ‘सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ को है, इनके द्वारा रचित ‘अप्सरा’ (1931), ‘अल्का’ (1933), ‘प्रभावती’ (1926) और निरुपमा (1936) प्रेममूलक उपन्यास है। वृन्दावन लाल वर्मा का ‘गढकुण्डार’ (1929) और ‘विराट की पत्नी’ (1929), ‘प्रसाद जी’ कृत ‘तितली’ (1943), भगवती बाबू का ‘तीन वर्ष’ (1936), ‘चित्रलेखा’ (1934), ‘उषा-मिला’ का ‘प्रिया’ आदि उपन्यासों को स्वच्छन्दतावादी परम्परा में रखा गया है।

पं0 हजारी प्रसाद द्विवेदी के ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’, पुनर्नवा, और ‘अनाम दास का पोथा’ सभी में गहरी रोमानियत विद्यमान है।

बाणभट्ट की आत्मकथाः

1946 में स्वच्छन्छतावाद के सभी तत्व विद्यमान है। वस्तुतः ‘वाणभट्ट’ स्वयं स्वच्छन्द प्रवृŸिा के नायक है। कल्पनाप्रियता, भावावेग, आदर्श प्रणय, सौन्दर्य प्रियता, प्रकृति में रहस्यप्रियता, विचित्रता और अलौकिकता के समावेश से यह कृति स्वच्छन्दतावाद के सभी विशेषताओं से युक्त हो गयी है। द्विवेदी जी की कृति पुनर्नवा में ‘गोपाल आर्यक’ और ‘चन्द्र’ का प्रेम पूर्णतः रौमांटिक है।

वस्तुतः रोमांसप्रियता मनुष्य की सहज प्रवृŸिा हैं। यह सौन्दर्य चेतना का ही एक रुप है। वर्जनाओं के घेरे में बधी हुइ कलाकारों की पीड़ा कभी-कभी सहसा विद्रोह करके स्वच्छन्दता की धारा प्रवाहित कर देती है। वर्जनाओें के कारण ही कलाकार अतीत में विचरण करते हुए अपनी मनः तृप्ति करता है। सामाजिक वर्जनाओं में शिथिलता आने पर प्रवृŸिा स्पष्ट होकर मनोवैज्ञानिक यथार्थ और सामाजिक यथार्थ के अन्तराल में प्रवाहित होने लगती है।

पत्रात्मक प्रविधि उपन्यासः

प्रेमचन्द युग के सबसे अक्खड़ और बदनाम उपन्यासकार हुए ‘बेचन शर्मा उग्र’ जिन्होनें ‘चन्द हसीनों के खुतूत’ (1927), ‘दिल्ली का दलाल’ (1937), ‘बधुआ की बेटी’ (1928), ‘शराबी’ (1930), आदि उपन्यासों में समाज की बुराइयों को उसकी नंगी संच्चाई को बिना किसा लाग-लपेट के बड़े ही साहस के साथ किन्तु सपाट बयानी के रुप में प्रस्तुत किया उन्होंनें समाज के उस वर्ग को अपने उपन्यासों का विषय बनाया जिसे दलित या पतित वर्ग कहते है।

वेचन शर्मा उग्र द्वारा लिखित ‘चन्द हसीनो के खुतूत’ पत्रात्मक प्रविधि में लिखा गया हिन्दी का पहला उपन्यास है, उग्र के अनुकरण-कर्Ÿााओं में विषय की दृष्टि में ऋभचरण जैन और शिल्प की दृष्टि से अनूपलान मण्डल उल्लेखनीय है।

‘ऋषभचरण जैन’ ने ‘उग्र’ की भाँति तत्कालीन समाज के वर्जित विषयों ‘दिल्ली का कलंक’, ‘दिल्ली का ब्याभिचार’, वेश्यापुत्र रहस्यमयी’ उपन्यासों की रचना की और ‘अनूपलाल मण्डल ने’ पत्रात्मक प्रविधि, में समाज की बेदी, पर और रुपरेखा शीर्षक उपन्यासों का प्रणयन किया।

ऐतिहासिक उपन्यासः

ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखन में सबसे अधिक सफलता श्री वृन्दावन लाल वर्मा को मिली है। ‘गढ़कुण्डार’ (1924), ‘विराट की पदमिनी’ (1936), ‘मृगनयनी’ (1950), ‘टूटे काँटे’ (1954),‘अहिल्याबाई’ (1955), ‘भुवन विक्रम’ (1957), ‘माधव जी सिंधियाँ’ (1957), ‘रामगढ़ की रानी’ (1961), ‘महारानी दुर्गावती’ (1964), ‘कीचड़ और कमल’(1964), ‘सोती आग’ (1966), ‘ललितादित्य’ देवगढ़ की मुस्कान (1937), वर्मा जी के प्रमुख उपन्यास हैं।

जहाँ इस युग का अभीष्ट विभिन्न सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में जीवन का यथार्थ में जीवन का आदर्शात्मक यथार्थ निरुपण प्रतीत होता है। वहाँ शुद्ध ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना परम्परा को आरम्भ करने का श्रेय वर्मा जी को है। इतिहास के तथ्यों की रक्षा ऐतिहासिक घटनाओं को राष्ट्रीय दृष्टि से रखना व देखना ऐतिहासिक का भूगोल की सम्यक जानकारी आदर्शवादी कथानक और कथा नायिकाओं की सृष्टि, वीरता और प्रेम के उद्धात स्वरुप  का चित्रण, भव्य सृजनात्मक कल्पना के इतिहास, के विश्वराव भर देने का कौशल द्धत और संघर्ष के बीच में शान्ति के क्षणों और प्रेम के मधुसिक्त कणों की सृष्टि अद्भुत और रहस्यमयी स्थितियों की परिकल्पना, तथा कथासूत्रों को नाटकीय स्थितियों से सज्जित करते चलना आदि अनेक विशेषताएँ मिल-जुल वर्मा जी की उपन्यास कला को गरिमा प्रदान करती है।

चतुरसेन शास्त्री के तीन ऐतिहासिक उपन्यास वैशाली की नगर वधू’ (1949), ‘सेामनाथ’ (1954), ‘वयंरक्षाम’ (1955) प्रसिद्ध है।

रांगेय राघव की कृत-मुर्दो का टीला इतिहास की मर्यादा को सुरक्षित रख सका है।

राहुल सांकृत्यायन और यशपाल ने इतिहास का आधार मार्क्सवादी जीवन दर्शन की व्याख्या के लिए लिया हैं। यशपाल ने दिव्या की भूमिका में लिखा है- इतिहास मनुष्य का अपनी परम्परा में आत्मविश्लेषण है। राहुल जी के ‘सिंह सेनापति जय चौधेय’ और ‘मधुस्वप्न’ की अधिक चर्चा हुई है।

अमृतलाल नागर के ‘शतरंज के मोहरे’, ‘सात घूँघट वाला मुखड़ा (1968), ‘एकदा नैमिषारण्ये’ (1972)(1981), ‘मानस का हल’ (1927), ‘करवट’ (1985)(1985), पीढ़ियाँ (1990) आदि उपन्यासों में भी नागर जी ने अतीत को वर्तमान से जोड़ने की कोशिश की है।

रघुवीर शरण गुप्त कृत- ‘आग और पानी’, ‘ढाल तलवार’, ‘आंेस के आँसू’, ‘पहली हार’, उजला कफन, राव की दुल्हन, हँसी, टपका तेज, रुप के जाले, व्यास और शोले, सोने की राख, बलिदान, रंग विरंगे चेहरे, सदा-सदा के प्रश्न आदि प्रकाशित है। आपके उपन्यासों में इतिहास के सत्य के सत्य राष्ट्रीय गौरव ओज और दीप्ति को भी वाणी मिली है।

अनूदित उपन्यासः

‘राहुल सांस्कृत्यायन’ (1893-1963) ने इस काल में मौलिक उपन्यासों के स्थान पर ‘शैतान की आँख’ (1923), विस्मृति के गर्भ में (1923), ‘सोने की ढाल’ (1923), प्रभूति अनूदित उपन्यासों की रचना की जिनमें ऐतिहासिक रोमानी कथानकों को स्थान प्राप्त हुआ।

अन्य उपन्यासकार ओर उनके उपन्यासः

प्रेमचन्द के समकालीन उपन्यासकारों की संख्या दो ढाई सौ के लगभग है। प्रसाद जी कुल तीन उपन्यास लिखकर उपन्यास के क्षेत्र में प्रसिद्ध हो गए, कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण) प्रसाद ने यथार्थ को भी व्यक्तिवाद और भावात्मक दृष्टि से देखा है। इनसे भी भिन्न ‘बेचन शर्मा उग्र’ ने जो उपन्यास लिखे थे, वे प्रकृतिवादी यथार्थ के उदाहरण है। सुदर्शन ‘कौशिक’ और भगवती प्रसाद बाजपेयी, प्रेमचन्द की परम्परा का निर्वाह करने वाले लेखक है।

प्रेमचन्द के अनुकरण कर्ताओं में चतुरसेन शास्त्री और प्रताप नारायण श्रीवास्तव प्रमुख है। चतुरसेन शास्त्री के हृदय की परख  (1918), हृदय की प्यास (1932), अमर अभिलाषा (1932) और ‘आत्मदाह’ (1937) शीर्षक उपन्यासों की रचना की। प्रताप नारायण श्रीवास्तव कृत ‘विदा’ (1929), ‘विजय’ (1937) आदर्शवादी उपन्यास है। ‘शिवपूजन सहाय’ (1893-1963) ने हिन्दी उपन्यास पर ले जाने का प्रयास किया उनका ‘देहाती दुनिया’ (1926) शीर्षक उपन्यास प्रचलित रुढ़ि को तोड़ने की दिशा में एक साहसिक कदम था किन्तु शायद यह कदम समय से पहले उठा लिया गया इसलिए इस उपन्यास का समुचित मूल्यांकन 1950 इ्र0 के लगभग आँचलिक उपन्यासों का आर्विभाव होने पर हुआ।

‘भगवती चरण वर्मा’ ने चित्रलेखा (1934) रचनाकार पाठको के बीच पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त की थी, पर जीवन की धड़कन न होने के कारण इनका कोई मूल्य न हो सका 1936 ई0 में इनका ‘तीन वर्ष’ नामक उपन्यास छपा जो अपनी ‘अश्रुपंकिल’ भावुकता के कारण पाठको में काफी लोकप्रिय हुआ। पृष्ठ संख्या 26

‘श्रीनाथ सिंह’ (1901-1995 ई0) के ‘उलझन’ (1922), ‘क्षमा’ (1925), ‘एकाकिनी’ (1927), ‘प्रेम परीक्षा’ (1927), ‘जागरण’ (1937), ‘प्रजा मण्डल’ (1941), ‘एक और अनेक’ (1951), ‘अपहर्ता’ (1952) आदि कई उपन्यास प्रकाशित है। इन सभी उपन्यासों में प्रेमचन्द युगीन- आदर्शवादी मनोवृŸिा लक्षित होती है। शिवपूजन सहाय (1892-1963 ई0) का एकमात्र उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ (1925) प्रसिद्ध है।

इसमें सरल ग्रामीण जीवन का सुबोध और प्रभावकारी चित्रण किया है। स्वयं लेखक के शब्दों में मै ऐसी ठेठ देहात वाला हूँ, जहाँ इस युग की नयी सभ्यता का बहुत ही धुँधला प्रकाश पहुँचा है। वहाँ केवल दो चीजें दिखने में आती है- अज्ञानता का घोर अन्धकार और दरिद्रता का ताण्डव नृत्य। वहीं पर मैने जो कुछ देखा-सुना है उसे यथाशक्ति ज्यों का त्यों इसमें अंकित कर दिया है।

भगवती प्रसाद वाजपेयी (1899-19973ई0) ने प्रेमचन्द युग में लिखना आरम्भ किया था। इनकी आठ कृतियाँ- ‘प्रेमवध’ (1936), ‘मीठी चुटकी’ (1928), ‘अनाथ पत्नि’ (1928), ‘मुस्कान’ (1929), ‘त्यागमयी’ (1932), ‘प्रेमनिर्वाह’ (1943), ‘लालिमा’ (1943) तथा ‘पतिता की साधना’ (1936) प्रेमचन्द युग में प्रकाशित हो चुकी थी। प्रारम्भ में आपकी प्रवृŸिा आदर्शप्रधान एवं सुधारवादी थी। धीरे-धीरे आपकी कृतियों में प्रेम की जटिलता, मनोवैज्ञानिक द्वन्द और नारी जीवन की भूलभूलैया को प्रधानता मिलने लगी।

‘चण्डीप्रसाद’ ‘हृदयेश’ (1898-1936 ई0) के दो उपन्यास ‘मनोरमा’ (1942) तथा ‘मंगल प्रसात’ (1926) प्रसिद्ध हैं। इनमें भावपूर्ण आदर्शवादी शैली में मनुष्य की सद्वृŸिायों की महिमा अंकित की गयी है। राजाराधिका-रमण सिंह (1890-1971) के उपन्यासों में राम रहीम (1936), पुरुष और नारी (1939), संस्कार (1942), चुम्बन और चाँटा (1956) प्रसिद्ध है।

उपन्यासकार ने देश की सामाजिक राजनीतिक-गतिविधियों पर भी अपना ध्यान केन्द्रित किया है। आपकी जीवन दृष्टि गाँधी युग की आदर्शवादी चेतना से प्रभावित है किन्तु इनका रचनादर्श प्रेमचन्द युग का अतिक्रमण नही कर सका है। सियारामशरण गुप्त (1895-1963 ई0) का प्रथम उपन्यास गोद (1932) में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास में गाँधीवादी जीवन-दर्शन व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतनाभिव्यक्ति हुई है। प्रेमचन्द युग की व्यापक मनोभूमि गाँधीवाद ही थी, किन्तु प्रेमचन्द ने गाँधीवाद के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक बल दिया था। इसलिए सियाराम गुप्त के उपन्यास ‘प्रेमचन्द’ की ‘टिपिकल’ कला प्रवृति एवं रचना-संघठन के दायरे से बाहर हो जाते है, वे व्यक्ति की उस अन्तर्मुखी चेतना का स्पर्श करते हैं जो सामाजिक कटुता को अन्तर्मन में ही पी जाना चाहती है। प्रेमचन्द में आक्रोश और क्षोभ है। ‘सियारामशरण’ जी में सारे गरल को मौन भाव से स्वीकार कर लेते है। आपके उपन्यासों का उल्लेख यथा स्थान प्रेमचन्दोŸार युग ओर औपन्यासिक प्रवृŸिायों के विकास की चचा्र के साथ किया जायेगा। ‘प्रेमचन्द’ युग कवि चेतना की दृष्टि से स्वच्छन्दतावादी (छायावादी) युग माना जाता है।

प्रेमचन्दोŸार युग में उपन्यासकारों की दो समान्तर पीढ़िया कार्य कर रही हैं। पहली पीढ़ी उन उपन्यासकारों की है, जिनका मानस-संस्कार प्रेमचन्द युग हुआ था किन्तु जिन्होंनें शीघ्र युग प्रभाव के साथ अपनी मनोवृŸिा में परिवर्तन कर लिया और प्रेमचन्द युग से आगे बढ़कर अपनी सीमा बना ली। दूसरी पीढ़ी स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद इस क्षेत्र में आई है, उपन्यास रचना की अनेक सम्भावनाओं की ओर संकेत कर रही है। इन दोनो पीढ़ियों के उपन्यासकारों का मूल्यांकन ‘प्रेमचन्दोŸार युग कर मर्यादा के अन्तर्गत किया जायेगा।

प्रेमचन्द युग को हिन्दी उपन्यास का स्थापना काल कह सकते है, जहाँ प्रेमचन्द ने हिन्दी उपन्यास को प्रथम बार साहित्य का दर्जा ¬प्रदान किया और जैनेन्द्र ने उसे आधुनिक बनाया और जहाँ ‘प्रसाद’ कौशिक ‘उग्र’, ‘भगवती प्रसाद बाजपेयी’, ‘निराला’ आदि ने भी अपने-अपने ढंग से उसे समृद्धि प्रदान कर परवर्ती उपन्यासकारों का मार्गदर्शन किया।

छायाबादोŸार युगः

प्रेमचन्द के उपरान्त हिन्दी उपन्यास कई मोड़ो से गुजरता दिखाई पड़ता है, गद्य-पद्य की अन्य विधाओं की भाँति इस काल के उपन्यासों में भी प्रगति प्रयोग का समयारम्भ उनके बीच विषमता की एक स्पष्ट रेखा खींची हुई है। इस विधा का जन्म ही मध्यवर्गीय सामाजिक चेतना के उन्मेष के फलस्वरुप होता है, इसकी अनिवार्य माँगो की तहत लेखक को एक दृष्टिकोण लेकर चलना पड़ता है। सन् 1941 में प्रकाशित दो उपन्यासों ‘शेेखर एक जीवनी’ और ‘दादा कामरेड’ में प्रयोग और प्रगति की दो जीवन दृष्टियाँ साफ उभरकर आई किन्तु शेखर एक जीवनी के शक्तिशाली प्रयोग अभिनव रुप विन्यास और विद्रोह  मूलक व्यक्तित्व और आग्रहो ने अपनी ओर लोगों का ध्यान बरबस आकृष्ट किया, परवर्ती मूलक-उपन्यासकारों में न तो अस्मिता का ऐसा तीखा बोध था और न इसे कलात्मक रुप में रेखांकित करने की रचनात्मक क्षमता वस्तुततः व्यक्ति स्वतंत्र मूलक तार्किक निष्कर्षो की सभा सम्भावनाओं को यह निःशेष कर देता है, ऐसी स्थिति में आगे के प्रयोगवादी उपन्यास प्रायः निर्जीव दिखायी देने लगते है।

कविता की सांस्कृतिक राष्ट्रीयधारा के समान्तर उपन्यासों में सास्कृतिक सामाजिक धारा का विकास हुआ ‘वृन्दावन लाल वर्मा’ ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी’ सांस्कृतिक धारा के उपन्यासकार है, तो ‘अश्क’, ‘भगवती चरण’ मिश्र ‘अमृत नागर’ दूसरी धारा के 1950 के बाद प्रयोग-¬प्रगति की धारा का मिला जुला रुप आँचलिक उपन्यासों में मिलना है, इसी दौर में कुछ लघु औपन्यासिक प्रयोग भी हुए।

सन् 1960 कविता की तरह उपन्यासों में भी नया मोड़ आता है। पिछले दो दशकों में आधुनिकतावादी और जनवादी धारा दिखाई देने लगती है, ‘मोहन राकेश’, ‘निर्मल वर्मा’, ‘उषा प्रियंबदा’ आदि पहले श्रेणी के उपन्यासकार है, तो ‘अमृतशय’, ‘भैरव प्रसाद गुप्त’, ‘मारकण्डेय’ आदि दूसरी श्रेणी के।

प्रेमचन्द ने भावी उपन्यासों के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करते हुए कहा था- ‘‘यों कहना चाहिए कि भावी उपन्यास जीवन चरित्र होगा, चाहे किसी बड़े आदमी का या छोटे आदमी का। उसकी छुटाई-बड़ाई का फैसला उन कठिनाइयों से किया जायेगा कि उपन्यास मालूम हो। अभी हम झूठ को सच बनाकर दिखाना चाहते है, भविष्य में सच को झूठ बनाकर दिखलाना होगा। किसी किसान का चरित्र हो, या किसी देशभक्त का, या किसी बड़े आदमी का पर उसका आधार यथार्थ पर होगा। तब यह काम उससे कठिन होगा, जितना अब है; क्योंकि ऐसे बहुत कम लोग है, जिन्हें बहुत से मनुष्यों को भीतर से जाने का गौरव प्राप्त हो।’’

प्रेमचन्द के बाद विश्व में और भारत वर्ष में बहुत बड़े-बड़े परिवर्तन हो चुके है। 1939 इ्र0 से 1945 ई0 तक सम्पूर्ण विश्व को अपनी लपेट में लेकर ध्वंस-लीलाकरने वाला महायुद्ध इसके बीच भारत में घटित होने वाले अनेक घटनाएँ- 1940-41 ई0 में कांग्रेस का व्यक्तिगत सत्याग्रह, बंगाल का भीषण अकाल, 1942 ई0 में गाँधी जी का ‘भारत छोड़ो’ का ऐतिहासिक नारा जनता का विद्रोह, अंग्रेजो का भीषण दमन-चक्र 1946 ई0 में बम्बई में भारत की समुद्र सेना की बगावत, अगस्त 1946 ई0 में नेहरु का नेतृत्व में अर्न्तकालीन सरकार का संघठन और मुस्लिम लीग का प्रत्यक्ष संघर्ष 15 अगस्त 1947 ई0 को पूरे देश का ‘भारत’ और ‘पाकिस्तान’ दो देशों में बँटवारा और भारत की स्वतंत्रता 26 जनवरी 1949 ई0 में भारत संविधान का निर्माण 26 जनवरी 1950 ई0 को भारत का ‘सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ के रुप में उदय हुआ।

ऐतिहासिक रुप से पूरे काल-विस्तार में लिखें गए उपन्यास-साहित्य को दो वर्गो में विभाजित किया जा सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति का उपन्यास साहित्य और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक का उपन्यास साहित्य। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले पूरे हिन्दी प्रदेश को एकता के सूत्र में बाँधने और उत्साह को एक निश्चित दिशा में प्रवाहित करने वाली मूल प्रेरणा थी साम्राज्यवाद से सतत् की प्रवृŸिा इसके साथ ही शोषण का विरोध निम्न वर्ग के प्रति सहनुभूति, सामाजिक एकता, नारी जागरण और अछूतो द्वारा, हिन्दू मुस्लिम एकता आदि अन्य प्रेरणाएँ थी, जो साहित्यकारों की सृजनेच्छा को प्रभावित कर रही थी। रचनाकारों के सामने लक्ष्यहीनता का प्रश्न नही था। उनके मन में आदर्शवादी प्रवृŸिायाँ प्रधान रुप से कार्य कर रही थी, किन्तु आदर्श को जीवन का स्पन्दन देने के उद्देश्य से। परम्परा के प्रति उनका विद्रोह ध्वंसात्मक नही हो पाया था।

स्वच्छन्दतावादी, मानवतावादी, प्रवृŸावादी, प्रगतिवादी और मनोविश्लेषणवादी, प्रकृŸिायाँ, उपन्यासों को अलग-अलग सीमाओं में विकसित करने लगी थी। लेकिन उद्देष्यहीनता, व्यक्तित्व की खोज या मूल्यों के विघटन अजनवीपन और कुण्ठा जैसी चर्चाओं से उस युग के उपन्यासकार परिचित नहीं थंे।

प्रेमचन्दोŸार उपन्यासकारों की दों सामान्तर पीढ़ियों का उल्लेख पीछे किया गया है। प्रथम पीढ़ी के अन्तर्गत-चतुरसेन शास्त्री, इलाचन्द्र जोशी, सियाराम शरण गुप्त, प्रताप नारायण श्रीवास्तव, जैनेन्द्र, उपेन्द्रनाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा, भगवती प्रसाद बाजपेयी, यशपाल, ‘अज्ञेय’, मन्मनाथ गुप्त, हजारी प्रसाद द्विवेदी, देवेन्द्र सत्यार्थी, विष्णु प्रभाकर, अमृतलाल नागर आदि आते है।

दूसरी पीढ़ी में उदयशंकर भट्ट, प्रभाकर माचवे, वीरेन्द्र कुमार जैन, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहानी, कृष्णचन्दर, ‘फणीश्वर नाथ रेण’, ‘नागार्जुन’, लक्ष्मीनारायण लाल, रागेंय राघव, धर्मवीर भारती, डॉ0 रघुवंश अमृतराय, डॉ0 देवराज, कृष्णचन्द शर्मा, भिक्खु, रुद्र काशिकेय, अनंत गोपाल शेवड़े, नरेश मेहता, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, लक्ष्मीकान्त वर्मा, कंचनलता, सब्बरवाल, शिवानी, श्री लाल शुक्ल, शैलेश मटियानी, मारकंडेय, ठाकुर प्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र, दुष्यन्त कुमार, निर्मल वर्मा, मनहर चौहान आदि लेखक आते है।

पिछले कुछ वर्षो में उपन्यास लेखकों की एक तीसरी पीढ़ी भी तैयार हो गयी है। इनमें केशवप्रसाद मिश्र, विवेकराय, कृष्ण बलदेव वैद, राही मासूम रजा, शिवप्रसाद सिंह, मनु शर्मा, वदी उज्जमाँ, अमरकान्त, विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, राजेन्द्र अवस्थी, जगदीशचन्द, राजकमल चौधरी, श्री कान्त वर्मा, हृदयेश, योगेश गुप्त, गंगा प्रसाद विमल, महेन्द्र किशोर, रमेश चन्द शाह, कामतानाथ, शानी, महीप सिंह, गिरिराज, हिमांशु जोशी, कोहली, रामदेव शुक्ल, गिरीश आस्थाना, गोविन्द मिश्र, विनोद कुमार शुक्ल, नरेन्द्र कोहली, मधिमधुकर, राजकृष्ण मिश्र, योगेश कुमार, प्रमोद कुमार सिन्हा, पंकज विष्ट, संजीव आदि उल्लेखनीय है।

उपन्यास लेखिकाओं में शशिप्रभा शास्त्री, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंबदा, मृदुला गर्ग, दीप्ति खंडेवाल, मन्नू भण्डारी, राजी सेठ, कन्ता भारती, दिनेश नंदिनी, डालमिया, निरुपमा सोबती, प्रतिभा वर्मा, ममता कालिया, मेहरुन्निसा, परवेज, मृणाल पाण्डेय, मत्रयी, पुण्या, अलका सरावगी आदि विशेष सक्रिय है। यह पीढ़ियाँ एक दूसरे से जुड़ी हुई है। तीसरी पीढ़ी आक्रोश एवं जीवन यथार्थ के प्रति ससंक्ति है। प्रेमचन्द के बाद इनत माम उपन्यासकारों और उनकी कृतियों का कई प्रकार से वर्गीकरण करने की चेष्टा की गयी है।

उपन्यास का यह नया विधान उसके भाषा और प्रयोग से जुड़ा हुआ है, ‘कालक्रम’ और घटनाचक्र पर निर्भरता छोड़कर आधुनिक उपन्यास विम्ब की भाषा में अधिक विकृति होता है। अंग्रेजी में डिकेंस के उपन्यास आदि पहली प्रवृŸिा के उदाहरण है, तो जेम्स-ज्वायश का ‘यूलिसीज’ दूसरी प्रवृŸिा की ख्याति रचना है। इधर साँववैलो के उपन्यास हरजौग में दोनों प्रवृŸिायों का यद्यपि मुद्रण शैली की स्थूल सहायता से सजग संगमन किया गया है, ‘मैलाआँचल’ की भाषा भी सीधी इतिवृŸिापरक न होकर अपने में सर्जनात्मक है।

नयी कविता नव लेखन युग के कुछ पहले के उपन्यासों में धर्मवीर भारती का सूरज का सातवाँ घोड़ा 1959 अभिनव प्रयोग की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

हिन्दी का आधुनिक कथा साहित्य नए-पुराने स्वदेशी-विदेशी के तनाव में लिखा जा रहा है। समकालीन उपन्यास की दों धाराएँ स्पष्ट देखी जा सकती है,      प्रधान उपन्यास और सूक्ष्म अनुभव परक उपन्यास।

नयी कविता के साथ-साथ चलने वाले कथा साहित्य में प्रयोग कई प्रकार के हुए पर सफलता फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आँचल प्रकाशित होते-होते जगत में छा गया। गोदान, त्यागपत्र, शेखर एक जीवनी के क्रम में एक समकालीन क्लैसिक बन गया है। गोदान प्रेम की अंतिम और रेणु की मैला आँचल पहला कृति है। दोनो उपन्यास अपने-अपने कथा स्तरों पर समूचे जातीय जीवन को एक बारगी चित्रित करते हैं।

जिसे हम इतिहास कहते है वह वर्तमान परिस्थितियों में अतीत का पुर्ननिर्माण है। इस पुर्ननिर्माण में कलाकार वर्तमान की उपेक्षा नही कर सकता। वस्तुतः वह वर्तमान को अतीत में जीना चाहता है। इसीलिए बहुत से उपन्यासकार इतिहास का उपयोग वर्तमान समस्याओं को सुलझाने में करते हैं। इसी प्रकार जिन्हें आँचलिक उपन्यास कहा गया है। डॉ बच्चन सिंह ने सन साठ के बाद से हिन्दी उपन्यासों में ‘आधुनिकतावादी’ और जनवादी धाराओं को प्रवाहित होता है हुआ लक्षित किया है। उन्होंनें आधुनिकतावादी धाराओं को ‘प्रयोगवाद, का अगला कदम माना है और जनवादी विचारधारा को कड़ी।

उपन्यास मूलतः मनुष्य के जीवन में साहित्यकार की बढ़ती हुई दिलचस्पी का ही द्योतक है। मानवतावादी कलाकार मनुष्य की श्रेष्ठता में विश्वास करता है। वह उसे सभी प्रकार की दुर्बलताओं के बाबवूज सहानुभूति ही देना चाहता है। वह मनुष्य के मंगल में, उसके विकास और अभ्युदय में रुचि लेता है। हिन्दी साहित्य में मानवतावादी विचारधारा मध्ययुगीन संत साहित्य में भी विद्यमान है, किन्तु आधुनिक मानवतावादी उससे भिन्न है। मध्यकालीन संत ईश्वर में विश्वास करते थे, वे मनुष्य मात्र में ईश्वर के सत् रुप की प्रतिष्ठा मानते थे और इसी आधार पर मनुष्य मात्र की एकता मानवतावादी मानवता को ही प्रेरक-तत्व मानता है। ‘गोदान’ में उन्होनें प्रोसेसर मेहता के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करते हुए लिखा है-‘‘किसी सर्वज्ञ ईश्वर में उनका विश्वास न था। ग ग ग यह धारणा उनके हृदय में दृढ़ है। गयी थी कि प्राणियों के जन्म मरण, सुख, पाप-पुण्य में कोई ईश्वरीय विधान नहीं है।’’

गाँधीवादी विचार धारा को हिन्दी उपन्यासकारों में आध्यात्मिक धरातल पर स्वीकार करने वाले दो लेखक है। सियारामशरण गुप्त के तीन उपनयास है। (1932 ई0) ‘अंतिम आंकाक्षा’ (1927 ई0) और ‘नारी’(1937ई0)। इन तीनों में गाँधी के अध्यात्मक पक्ष को महत्व दिया गया है। आध्यात्मिक स्तर पर गाँधीवाद हृदय परिवर्तन और आत्म-पीड़न के सिद्धान्त को स्वीकार करता है। प्रताप नारायण श्रीवास्तव(1904 से 1978 ई0) अनेक उपन्यास प्रकाशित है- इनका प्रथम उपन्यास ‘बिदा’ (1927), प्रेमचन्द के जीवन काल में ही प्रकाशित हो गया था। इसके बाद ‘बिजय’ (1937), ‘विकास’ (1938), ‘बेदना’ (1959), ‘बन्दना’ (1961), ‘विसजैन’ (1949), ‘बेकसी का मजार’ (1957), ‘बिषमुखी’ (1958), ‘बेदना’ (1959), ‘बन्दना’ (1961), ‘बच्चना’ (1962), ‘बिनाश के बादल’ (1963),‘विपथगा’ (1964),‘बन्धननिहीना’(1964), ‘व्यावर्तन’ (1964), ‘बन्दिता’ (1968), ‘विश्वास की’, बेदीपुर ‘बिहान’ आदि उपन्यासों की रचना करके आपने हिन्दी उपन्यास-जगत में अपना महत्वपूण स्थान बना लिया है। इनके उपन्यास रोचक और पठनीय होते है।

श्री अमृतलाल नागर है। आप भी घृणा के स्थान पर ‘प्रेम’ पर ‘ध्वंस’ के स्थान पर आपका पहला उपन्यास महाकाल 1946 में प्रकाशित हुआ था। बूँद और समुद्र उपन्यास में प्राचीन रुढ़ियो को खोखलापन जाति भेद की व्यर्थता पूँजीवाद की यान्त्रिकता आदि अनेक बातें उभर कर सामने आयी है। मानवतावादी दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहते है-

‘मनुष्य का आत्मविश्वास जगना चाहिए। सुख-दुख में व्यक्ति का व्यक्ति से अटूट संम्बध ठना रहे-जैसे बूँद से बूँद जुड़ी रहती है- बनता है- इसी तरह बूँद में समुद्र समाया है।’..................व्यक्ति की सामाजिक चेतना जगाकर ही रहेगी।’’ शतरंज के मोहरे (1959) सुहाग के नूपूर (1960) में भी अपनी संस्कारगत सीमाओं के बाबवूज उन्होंनें ‘नगर-बधू को भी सहानुभूति प्रदान की है- वैश्या माहती कहती है-

‘सारा इतिहास सच ही लिखा रहा है देव। केवल एक बात अपने महाकाव्य में और जोड़ दीजिए- पुरुष जाति के स्वार्थ और दम्भभरी मूर्खता से ही सारे पापों का उदय होता है, उसके स्वार्थ के कारण ही उसका अधीग-नारी जाति-पीड़ित है। एकांगी दृष्टिकोण से सोचने के कारण ही पुरुष न तो स्त्री को ‘सती’ बनाकर ही सुख कर सका न वेश्या बनाकर ही। इसी कारण स्वयं ही झकोले खाता है और खाता रहेगा नारी के रुप में न्याय रो रहा है। महाकवि उसके आँसुओं में अग्नि-प्रलय भी समाई है और जल प्रलय भी। उपयुक्त शब्द किसी महान् मानवतावादी लेखक की कलम से ही लिखे जा सकते है।

अमृत और विष (1966) नाच्यों बहुत गोपाल (1978) विखरे तिनके (1982), अग्निगभी (1983) नागर जी के ऐतिहासिक व सामाजिक उपन्यास प्रकाशित हुए विष्णु प्रभाकर कृत ‘निशिकान्त’ (1955), ‘तट के बन्धन’ (1955), ‘स्वप्नमयी’ (1859), ‘दर्पण का व्यक्ति’ (1968), ‘कोई तो’ तो (1980), ‘अर्धनारीश्वर’ (1942) आदि कई उपन्यास प्रकाशित हैं। इनका उपन्यास व्यक्ति की संवेदना से समष्टि के संवेदना तक की यह यात्रा परायी से जुड़ने की यात्रा है।

प्रगतिवादी उपन्यासः

कविता की तरह उपन्यास में भी प्रगति वाद की धारा चल निकली उसके प्रवर्तन का श्रेय यशपाल (1903-1976) को है वे क्रान्तिकारी आन्दोलन के सक्रिय सदस्य थे (1938) में जेल से 

छूटने के बाद मार्क्सवादी विचार धारा के कट्टर समर्थक हो ‘बिप्लव’ नामक पत्र (1938) भी निकाला सच्चा क्रान्तिकारी इसी दिशा का वरण कर सकता था, सम्रगतः यशपाल को प्रेमचन्द परम्परा का कथाकार कहा जाना चाहिए।

पहला उपन्यास ‘दादा कामरेड’ (1914) में लेखक की अपनी ही विचार धारा का रुपान्तरण है। क्रान्तिकारी आतंकवाद से मार्क्सवाद में यह एक राजनीतिक उपन्यास है। ‘देशद्रोही’ (1943) का सरोकार सन् 1942 में कांग्रेस द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध छेड़े गये ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से है। ‘पार्टी कामरेड’ (1947) अपेक्षाकृत साफ सुथरा उपन्यास है। ‘झूठा सच’ पहला भाग 1953 दूसरा भाग (1960) के प्रकाशन ने सिद्ध कर दिया कि यशपाल बहुत विशाल फलक पर जीवन के विविध रुपों आयामों, समस्याओं जटिलताओं को अपने ढंग से प्रभावशाली रुप में प्रस्तुत कर सकते है। इतनी विशालता, अतना बैविध्य, इतने प्रश्न इतनी समस्यायें हिन्दी के किसी एक उपन्यास में नही उठायी गयी है।

उपन्यास दो भागों ‘वतन और देश और देश का भविष्य’ में प्रकाशित हुआ। इसमें कोई ‘सन्देह नही’ कि यशपाल जैसी ऐतिहासिक दृष्टि हिन्दी उपन्यासकारों में कम ही लोगों को प्राप्त है। इसलिए देश विभाजन की भूमिका पर इतनी बड़ी कृति की परिकल्पना यशपाल की ही कर सकते थे।

राहुल सांकृत्यायन (1839-1963) भाषाविद् अप्रतिम घुमक्कड़ इतिहास पुरातत्व वेŸाा थे। वे बौद्ध धर्म तथा मार्क्सवादी के पक्षधर थे। कुछ दिनों तक कम्यूनिष्ट पार्टी के सदस्य भी थे, उनके उपन्यासों पर उनके पांडित्य और मार्क्सवादी दर्शन की छाप स्पष्ट देख जा सकती है। जीने के लिए (1940), सिंह सेनापति (1844), ‘जय यौद्येय’ (1944), ‘मधुस्वप्न’ (1949) और विस्मृत यात्री (1954) उनके उपन्यास है।

रांगेय राघव (1923-1912)कवि उपन्यासकार और कहानीकार थे। कुल मिलाकर उनके 39 उपन्यास प्रकाशित हुए। उनमें से ‘घरौदे’ (1946), ‘सीधासाधा रास्ता’ (1951), ‘अँध्ेारे का जुगनू’ (1953), विशेष रुप से उल्लेखनीय है। भैरव-प्रसाद के उपन्यास खाली से परिचालित रेखीय और निष्कर्ष वादी है।‘मशाल’ (1951), ‘गंगामैया’ (1955), ‘सतीमैया का चौरा’ (1956), ‘आशा’ उपन्यास है।

अमृत का पहला उपन्यास ‘बीज’ (1953) देने के लिए लिखा गया प्रतीत  होता है ‘नागफनी का देश’, ‘हाथी के दाँत’ का सुख दुःख और उनका एक वृहदकाय उपन्यास ‘धुवा’ (1977) में प्रकाशित हुआ।

प्रयोगवादी उपन्यासः

प्रेमचन्द के जमाने में ही जैनेन्द्र एक सीमित अर्थ में व्यक्ति स्वतंत्रता की समस्या को अपने उपन्यासों का वर्णन विषय बनाते थे किन्तु रुढ़ सामाजिक संस्कार व्यक्ति स्वातंत्रय को खुलकर सामने नहीं आने देते, उसके सभी नारी पात्र सामाजिक मर्यादाओं को बनाए रखने और अपनी पहचान को रेखांकित करने के द्वन्द में उलझे रहते है। ऐसी स्थिति मे ंआत्म यात्ना के अतिरिक्त अन्य कोई राह शेष नही बचती वे समाज केा न तोड़कर स्वयं टूटते है टूटना उनकी नियति है और अनियमित उनकी मंजिल उनके अस्तित्व मूलक प्रश्नों को लेकर रोमांटिक एगोनी का रुप ले लेते है, फ्रायड के अवचेन भाव की प्रधानता है, उन्हें एक आयामी बना देता है।

अज्ञेय के शेखर एक जीवनी (1941) में मूलतः समस्या व्यक्ति स्वातंत्रता की ही उठाई की है, क्रान्तिकारी जैनेन्द्र की ‘सुनीता’ में भी और अज्ञेय के ‘शेखर एक जीवनी’ में भी दोनों ही एकरसता वैवाहिक जीवन की है और शेखर की अविवाहिक जीवन की, पर शेखर जटिल जीवन की गहराइयों में डूबता उतरता, अनेक प्रकार के प्रयोग करता पारम्परिक मूल्यों कीे ढहाता एक बिद्रोही का व्यक्तित्व धारण कर लेता है, और जो अन्ततोगत्वा अपने ही खिलाफ जाता है।

शेखर बिद्रोह करता है- माँ के विरुद्ध, पिता के विरुद्ध, शिक्षा के विरुद्ध, माँ बाप द्वारा निर्णित के विरुद्ध, विद्रोहियों के तीन हथियारों- प्रेम, घृणा में विभक्त पाता। प्रेम और घृणा में की और ज्यादा उन्मुख दिखायी पड़ता है। अपने विभाजन व्यक्तित्व की बात स्वयं लेखक ने उठाई है।

यह कृति ‘प्लैश बैक’ शैली में लिखी गयी है। शेखर को फाँसी की सजा होती है वह अपने जीवन की अंतिम शत में अपने समूचे अतीत का एकवार पुनः जी लेना चाहता है। शेखर एक अहंवादी व्यक्ति है। वह हर सामाजिक बन्धन के प्रति विद्रोह करता है, उसका अहम् हर पुरुष से स्त्री से समपर्ण की। उनके जीवन में अनेक स्त्रियाँ आती है-उसकी बहन सरस्वती, मिस प्रमिभा लाल, मणिका, शान्ति, शीला, शारदा और अपनी सार्थकता पा लेता है। शशि की मृत्यु के बाद भी शेखर के लिए प्रेरणा बनी रहती है।

कहा जाता है कि ‘शेखर एक जीवन’ पर रोमाँ-रोला के ‘जाँ क्रिस्ताँन’ का आलोचनाओं के बावजूद हिन्दी-जगत की एक शसक्त और विशिष्ट रचना  है।

प्रेम का ममता तो वह है लेकिन दाता नही है, इसलिए जिम्मेदार नही, वही के दीप (1951) उसका दूसरा प्रयोगवादी उपन्यास है, जो अपनी जादुई और क्रीड़ापरक प्रेम-दर्शन के कारण पाठक को एक साथ ही चमत्कृत और शिथिल बना देता है। इसमें सन्देह नही कि उŸार स्वच्छन्दतावाद काल में कला के प्रति इतना सचेत और अनुशासित रचनाकार दूसरा नहीं। उन्होंनें ‘नदी दीप’ मध्यवर्गी कुण्ठित जीवन के प्रतीक रुप में कल्पना की है। इस कल्पना को सामने रखकर ‘अज्ञेय’ ने अद्भुत सृष्टि की हैं। भुवन का व्यक्तित्व एक आत्मकेन्द्रित व्यक्ति के आन्तरिक संघर्ष को स्पष्ट करने वाला है। मन की बारीक पर्तो को खोलने में अज्ञेय को पूर्ण सफलता मिली थी।

‘अपने-अपने अजनबी’ (1961) अज्ञेय का तीसरा उपन्यास है जिसमें एक दिखायी पड़ती है। अपने पहले दोनो उपन्यासों में अज्ञेय ने यौनकल्ट की स्थापना के साथ-साथ एक मसीहाई दृष्टिकोण भी एख्तियार किया है। ‘अपने-अपने अजनबी’ इसी की फलश्रुती है। प्रयोग की दृष्टि से ‘भारती’ का ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ (1952) वह भारती के तंत्र और अज्ञेय के मन से कीलिन तथा सज्जा में चमत्कारिक हैं।

‘अलिफलैला’ और ‘पंचतंत्र’ के ढंग पर कहानियाँ किस्सागों मणिक मुल्ला के व्यक्तित्व से जुड़कर उपन्यास बन जाती है। ‘प्रभाकर माचवे’ ने कई छोटे-छोटे प्रयोगात्मक तेवर वाले उपन्यासों की ‘परन्तु’ (1951), ‘एकतारा’ (1952), ‘द्वारा’ (1955), ‘साँचा’(1956), ‘जो’ (1964), ‘किशोर’ (1969), ‘तीस चालीस पचास’ (1972), और ‘दर्द के पैबन्द’ (1975), ‘अपदेवी’ (1973), ‘द्यूत’(1976), ‘किसलिए’(1975), ‘आँख मेरी बाकी उनका’ (1983), ‘प्लापता’ (1984) आदि उल्लेखनीय है।

प्रभाकर माचवे की उपन्यास की नारी का उद्धान्त प्रेम पुरुष को उच्चतर मूल्यों से जोड़कर सामाजिक विकृतियों से मुक्ति दिला सकता है। परन्तु में हल्का सा आरोमांटिंक सामान्य उपन्यास है।

‘शिवप्रसाद मिश्र’ रुद्र की बहती गंगा (1952) में काशी के दो सौ वर्षो के अविछिन्न जीवन प्रवाह को सत्रह तरंगों में आंकलित किया गया है। ‘गिरधर गोपाल’ के चाँदनी रात के खण्डहर (1954) आदि प्रयोगवादी उपन्यास है। (पृष्ठ संख्या 32)

प्रेमचन्दोŸार कर हम वर्गीकरण की समस्या पवर विचार कर हम कहते आये है कि कोई भी वर्गीकरण पूर्णतः सन्तोष जनक नही हो सकता है।

सामाजिक सांस्कृतिक उपन्यासः

प्रयोग-प्रगति काल में सामाजिक सांस्कृतिक उपन्यास भी लिखें जा रहे थें। कविता का तेवर कहीं अधिक दिखा और प्रभावशाली था जबकि अधिकांश सामाजिक सांस्कृतिक उपन्यास में एक प्रकार की मन्धरता और ऐतिहासिक दृष्टि की न्यूवताएँ हैं। 1946 में ‘सियाराम शरण गुप्त’ का ‘नोवारवाली’, दिनकर का ‘कुरुक्षेत्र’ प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष ‘भगवती शरण वर्मा’ का ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’, रांगेय राघव का ‘विषाद मठ’, हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘वृन्दावन लाल वर्मा’ का प्रकाशन हुआ। जाहिर है कि उपन्यासों के माध्यम से उपन्यासों के इतिहास का साहित्यिक पुर्नलेखन लेखकों में ‘भगवतीचरण वर्मा’, उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’, अमृत लाल नागर, चतुरसेन शास्त्री, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि के नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है।

भगवतीचरण वर्मा के प्रथम उपन्यास ‘वतन’ (1927 ई0) में प्रकाशित हुआ था, उसके बाद ‘चित्रलेखा’ (1934), ‘तीन वर्ष’ (1936), ‘आखिरी दाँव’ (1950), ‘अपने खिलौने’ (1957), ‘भूले विसरे चित्र’ (1959), ‘वह फिर नही आई’ (1960), ‘सामर्थ्य और सीमा’ (1932), ‘थके पाँव’ (1963), ‘रेखा’ (1964), ‘सीधी सच्ची बातें’ (1968), ‘सबहिं नचावत रामगोसाई’ (1970), ‘प्रश्न और मरीचिका’ (1973), ‘भुवराज चूण्डा’ (1978), ‘धुप्पल’ (1981), ‘चाण्क्य’ (1982) आदि उपन्यास प्रकाशित हो चुके है।

‘अश्क’ जी की कृत ‘सितारों के खेल’ (1940), ‘गिरती दीवरों’ (1947), ‘गर्भराख’ (1957), ‘शहर में घूमता आइना’ (1963), ‘एक नन्हीं किन्दील’ (1969), ‘बाँधों न नाव इस ठाँव’ (1944), और निमिषा (1980) आपके बहुचर्चित उपन्यास है।

नगर जी के ‘शतरंज के मोहरे’, ‘सात घूंधट नैमिषाख्ये (1972), ‘मानस का हंस’ (1981) ‘खंजन नयन’ (1981), ‘करवट’ (1985), ‘पीढ़ियाँ’ (1990) प्रकाशित है।

सांस्कृतिक मिथकीय उपन्यासः

सांस्कृतिक राष्ट्रीय कविताओं की तरह इस काल में भी मिथकीय उपन्यासों की भी रचना हुई कुछ मिथकीय उपन्यासों की रचना हजारी प्रसाद द्विवेदी (1907-1978) ने की है, ‘बाण भट्ट की आत्मकथा’ (1943), ‘चारुचन्द्र लेख’ (1962), ‘पुनर्नवा’ (1975), और ‘अनाम दास का पोथा (1976) उनके उपन्यास है। इन उपन्यासों में मिथकों निजंधरों, कथाओं, उपन्यासों कथा अभिप्रायों के माध्यम से संरचना का जो रुप खड़ा किया गया है वह अपनी व्यंजकता में आधुनिक जीवन बोध को भी लिए हुए है। एक विशिष्अ भागवान दृष्टि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और जीवन दर्शन के अन्वेषी मिथकों (केस्ट मिथ) के कारण उनके उपन्यासों की एक अलग पहचान बन गई। 

वस्तुतः द्विवेदी जी की दृष्टि में भारतीय सांस्कृतिक कोई ठहरा हुआ विम्ब नही है वह विवराम लोकोन्मुख प्रवाह है जिसके अपने आवर्त है, उथला-गहरापन गति की मंदता तीव्रता गति मोड़ है, दिशाएं है, इसे आंकने के लिए मिथक उपन्यास के काव्यशास्त्र का एक सौन्दर्य शास्त्रीय आयाम हो सकता है। इधर द्विवेदी जी की परम्परा में ‘शिवप्रसाद सिंह’ ने एक महत्वपूर्ण उपन्यास ‘नीला चाँद’ लिखा है।

आँचलिक उपन्यासः

हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों की परम्परा भी धीरे-धीरे समृद्ध हो रही है। आँचलिक उपन्यासों में किसी पिछड़े हुए अज्ञात अंचल या किसी अपरिचित या अर्द्धपरिचित जाति के जीवन को पूरी सहृदयता के साथ चित्रित किया जाता है। ‘आंचलिक उपन्यास’, रीजनल नावेल का समानार्थी माना जा सकता है। आवश्यक है कि वह उस जीवन में घुलामिला हो, जिसका उसे चित्रण करना है। आँचलिक उपन्यास अपने भूमि के हर कोने से परिचित होने की प्रवृŸिा के द्योतक है।

फणीश्वरनाथ रेणु (1921-1977) के साथ हिन्दी में आचलिक उपन्यासों की शुरूआत होती है यह दूसरी बात है इसकी ऊँचाई को लाँघ पाना संभव नहीं है। आँचलिक उपन्यासों  के अंचल विशेष के माटी की सौंधी महक, प्रवृति के निर्वाह प्रसार, लोक संस्कृत के छनद तथा लोक भाषा की ताजगी की मोहक छवियों को कथा विम्बों में इस ढंग से उतारा जाता है कि पूरा अंचल अपनी समग्रता में चित्रित हो उठता है। अमूर्त अंचल का अभिप्राय संमूर्तन इसकी विशेषता हैं।

कुछ परम्परा प्रेमी लोग आंचलिक उपन्यासों की शुरुआत ‘शिवपूजन सहाय’ की ‘देहाती दुनिया’ (1925) को मानते है और कुछ लोग ‘नागार्जुन’ के बनचमना (1952) से। समसयाएं अन्य स्थानो पर घट सकती है। ‘बलचनमा’ है, अंचल नही वस्तुतः नई जरुरतों के अनुरुप ‘रेणु’ ने अपने उपन्यासों में एक नए का अन्वेषण किया गया है, जो उनका अपना है। न तो इसमें कुण्ठाग्रस्त व्यक्ति मन की अभिव्यक्ति के लिए देशी-विदेशी की अवधारणा मूलक जय-गाथा की सपाट बयानी का प्रयोग है।‘धरती परिकथा’ (1957), ‘रेणु’ का दूसरा महत्वपूर्ण आँचलिक उपन्यास है, सबसे महत्वपूर्ण बात है कि मूल्यहीनता के उस जमाने में ‘रेणु’ के पास एक आस्थावादी दृष्टिकोण है, इसलिए ये एक रचनात्मक निष्कर्ष पर पहुँच सके है, अनगिनत चलचित्रों, लोक कथाओं, लोकगीेतों राजनीति दलों का निरन्ध्र स्थापत्य और मूल्यवाादी दृष्टि के कारण इसमेें जो राष्ट्रीय चरित्र उभरा है वह अप्रतिम है। ‘दीर्घतमा’ (1963), ‘जूलूस’ (1965), ‘कितने चौराहें’ (1966), ‘पल्टू बाबू रोड’ (1979) उनके अन्य उपन्यास है।

उदय शंकर भट्ट का ‘सागर लहरें और मनुष्य’ में लम्बाई के समीपवर्ती बरसोवा गाँव के मछुवारों की उपन्यास लोक परलोक में ग्रामीण जीवन पर नयी सभ्यता के दुष्प्रभाव को रेखांकित किया गया है और ‘शेष अवशेष’ (1967) उनके अन्य उपन्यास है।

रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारुँ’ में राजस्थान के नये जीवन चित्रित है। लेखक ने नटों के सामाजिक जीवन आचार-विचार कायदे-कानून तथा यौन-नैतिकता का यथार्थ चित्र अंकित किया है। अपने एक दूसरे उपन्यास धरती मेरा घर में अपने राजस्थानी वीरों की जीवनगाथा प्रस्तुत की है। उसने पूरी सहानुभूति के साथ इन्हें पिछड़े हुए इंसान के रुप में सामने लाने की कोशिक की है।

नागार्जुन ने कई उपन्यास लिखें- ‘रतिनाथ की चाची’ (1948), ‘बलचनमा’ (1952), ‘नई पौधे’ (1953), ‘बाबा बटेश्वरनाथ’ (1954), ‘बरु के बेटे’ इमरतिया जमनियां के बाबा नाम से छपा, ‘दुःख मोचन’ (1957), ‘चेहरे नए पुराने’ (1962), ‘उग्रतारा’ (1963), ‘हीरक जयंती’ (1963) इत्यादि प्रायः सभी उपन्यासों में मिथिला के माटी-पानी, फूल-पौधे मौसम का रंगीन और जीवंत परिदृश्य मिल जाएगा, इसलिए कुछ लोग उन्हें आंचलिक उपन्यासकार कहते है। सातवें दशक में भी ग्रामांचल को आधार बनाकर ‘राही मासूम रजा’, शिव प्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र आदि ने उपन्यास लिखें।

राही मासूम रजा का ‘आधा गाँव’ (1967) में गाजीपुर जिले के गंगौली के शीया मुसलमानो के जीवन का यथार्थ और विश्वनीय चित्र अंकित है। भारत का स्वाधीनता संग्राम, द्वितीय विश्वयुद्ध, देश-विभाजन, स्वतंत्रता प्राप्ति, जमींदारी उन्मूलन जैसी घटनाओं का इन शीया मुसलमानों पर जो प्रभाव पड़ा है और उनकी मानसिकता में जो बदलाव आया है उसे लेखक ने बड़ी सूक्ष्मता से लक्षित और व्यंजित किया है।

शिव प्रसाद सिंह का ‘अलग-अलग वैतरणी’ ऐसा ही उपन्यास है। इस उपन्यास में आज के गाँवो का जीवन-यथार्थ अपनी कुरुपता में साकार हो उठा है। मानवीय संवेदना और मूल्य दृष्टि के विखरे हुए बिन्दुओं को संगठित करके नए जीवन का संचार करने वाला कोई पात्र उपन्यास में उभरकर सामने नहीं आता। शैलूूष 1989 में कबीलाई जीवन व्यतीत करने वाले नटों के जीवन-संघर्ष को उभारा गया है।

राम दरश मिश्र का ‘जल टूटता हुआ’ और ‘सूखता हुआ तालाब’ एवं ‘पानी के प्राचार’ को विशेष रुप से आंचलिक माना जाता है। हिमांशु श्रीवास्तव का ‘रथ के पहिए’ ग्रामांचलीय उपन्यास है।

केशव प्रसाद मिश्र के ‘कोहबर की शर्त’ में लेखक ने अंचल केरि सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन का उच्छवसित चित्र अंकित किया है।

यमुना दŸा वैष्णव की ‘शैली वधू’ (1959) मायानन्द मिश्र ‘माटी के लाग सोने की नया’ (1967) हिमांशु जोशी का ‘बुरुंश तो फूलतेे है’ (1965), ‘अख्य’ (1973) और ‘कगार की आग’ (1976) हर गुलाल का ‘भीतर कुआँ’ (1974), विवेक की राय का ‘बबूल’ (1964), ‘पुरुष पुराण’ (1975), ‘लोकऋण’ (1979), ‘सोनामाटी’ (1984) और ‘समर शेष है’ (1988), ‘मंगल भवन’ (1994) और नमामि ग्रामम (1997) शैलष माटियानी का ‘बोरीबली से बोरी बन्दर तक’ (1960), ‘किस्सा नर्मदावेद गंगूबाई’ (1960), ‘चिट्ठी रसैन’ (1961), चौथी मुट्ठी मनहर चौहान का ‘हिरना साँवारी’ (1962) रघुवर दयाल सिंह का ‘त्रियुगा’ (1967), श्याम परम्पर का का ‘मोरझाल’, योगेन्द्र सिन्हा का ‘बन के मन में’, शानी का ‘कालाजल’ (1965), और ‘साल बनो का द्वीप’ (1967), मधुकर गंगाधर का ‘मोतियों वाले हाथ’ (1963), ‘फिर से कहो’ (1964), ‘सुबह होने तक’ (1969), रामदेव शुक्ल का ‘ग्राम देवता’ (1982) और ‘विकल्प’ (1986) भगवानदास मोखाल का ‘काला पहाड़’ एवं श्री लाल शुक्ल का ‘रागदरबारी’ (1968) एक विशिष्ट उपन्यास है। लेखक ने पूरा उपन्यास व्यंजनाशैली में लिखा है। कथा का केन्द्र शिवपाल-गंज है, इसकी मुख्य समस्या शिवपाल गंगज के कॉलेज की है किन्तु अन्य सारी समस्याएं- अवसरवाद, छल, पचल, नैतिक गिरावट, कुत्सित राजनीति इसी के साथ जुड़ी है।

गाँवों के आज के जीवन यथार्थ को उपन्यास में अच्छी तरह देखा जा सकता है। वस्तुतः ऐ सारे उपन्यास ग्रामांचल में आधुनिकता की खोज करते हुए गाँव के प्रति रोमानी रुख एख्तियार करते है, आधुनिक चेतना की खोज के लिए गाँव गलत जगह है।

राजनीतिक पार्टियों का दृष्टिकोण चाहें जो हो, लेकिन साहित्यकार कभी मूल्यवादी दृष्टि से विलग नही हुआ। वह आज मानवता का प्रहरी है। वह निरन्तर मानवीय संवेदना का विस्तार करते हुए जनता की लड़ाई लड़ रहा हैं। इसलिए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि अभी उपन्यास मरा नही है जब तक जन जीवन की संश्लिष्ट गाथा की आवश्यकता रहेगी, उपन्यास के विकास की संभावना बनी रहेगी।

आध्ुानिक और जनवादी धारा के उपन्यासः

आधुनिकतावाद, नगरी करण की तेज प्रक्रिया, पूँजीवादी लोकतंत्र के प्रति तथा पश्चिमी प्रभाव के फलस्वरुप, पारम्परिक, सामाजिक मूल्यों निःशेष हुआ व्यक्ति अर्न्तमुखी हो गया, उपन्यासकारों में एक प्रकार का असमाप्त तनाव वृŸाात्मक और यौन विच्युतियों में पानह लेने की प्रवृŸिा दिखायी पड़ने लगी सामान्यतः इन उपन्यासों में अपनी धरती से उत्पन्न समस्याएं कम है। पश्चिम की भौड़ी एक प्रतिक्रिया हुई है इसके पहले से ही प्रगतिवादी विचारधारा से प्रभावित पर्याप्त साहित्य लिखा जा चुका था। जनवादी विचार-धारा उसी की अग्रिम कड़ी है इसमें सन्देह नही है कि आधुनिकवाद साहित्य का जन्म और उन्नयन प्रतिक्रियावाद के तहत हुआ है। पश्चिम में कट्टर मार्क्सवादी मान्यताओं के विरोध में नववाम पंथी का उदय हुआ जो साहित्य में व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करके चलता है। जनवादी धारा नव वामपंथी से प्रभावित है, किन्तु इस धारा के अन्तर्गत उपन्यासों में कट्टर मार्क्सवाद का प्रभाव कम नहीं है।

सन् उन्नीस सौ साठ से इकहŸार तक उपन्यासों पर दृष्टि डालने से तत्कालीन प्रवृŸिायों का आंकलन किया जा सकता है। ‘मोहन राकेश’ का ‘अंधेरे बंद कमर’े (1961), ‘नरेश मेहता’ का ‘यह पघ वंधुआ’ (1962),‘निर्मल वर्मा’ का ‘वे दिन’ (1964), ‘राजकमल चौधरी’ का ‘मछली मरी हुई’ और ‘शहर था और शहर नही था’(1966), ‘महेन्द्र भल्ला’ का ‘एक पति के नोटस’ (1966), ‘उषा प्रियंबदा’ का ‘रुकोगी नही राधिका’ (1962), ‘शिव प्रसाद सिंह’ का ‘न आने वाला कल’ (1968), ‘श्रीकान्त वर्मा’ का ‘दूसरी बार’ (1968), ‘गिरिराज किशोर’ का यात्राएँ’ (1976), ‘मणिमधुकर’ का ‘सफेद मेमने’ (1971), ‘ममता कालिया’ का ‘बधेर’ (1971), ‘मन्नू भण्डारी’ का ‘आपका बँटी’ (1971) आदि। इस दौर, इस धारा की शुरुआत अज्ञेय के ‘अपने-अपने अजनबी’ से होती है।

आठवें दशक के कुछ पहले तथा स्वयं दशक में लिखे गये उपन्यासों की विवेचना से इस धारा की प्रमुख प्रवृŸिायों पर आंकलन हो जाता है। ‘श्री लाल शुक्ल’ का राग दरबारी (1968), ‘बंदी उज्जामा’ का ‘एक चूहे की मौत’ (1971), ‘जगदीश चन्द्र’ का ‘धन धरती न अपना’ (1972), ‘काशीनाथ सिंह’ का ‘अपना मौर्या’ (1972), ‘राजीव सक्सेना’ का ‘पणिपुत्री सोना’ (1972), ‘गिरिराज किशोर’ का ‘जुगलबंदी’, ‘भीष्म साहानी’ का ‘तमस’, ‘नरेन्द्र कोहली’ का ‘आश्रितों का विद्रोह’ (1973), ‘जगदम्बा प्रसाद दीक्षित’ का ‘मुर्दाघर’ (1974), ‘रामदरश मिश्र’ का ‘अपने लोग’ (1976), ‘रमेश चन्द्र शाह’ का ‘गोबर गणेश’ (1978), ‘राही मासूम रजा’ का ‘कटराबी आंजू’ (1978), ‘कृष्णा सोबती’ का ‘जिन्दगी नामा’ (1979), ‘मन्नू भण्डारी’ का ‘महाभोज’ (1979) ‘श्रवण कुमार गोस्वामी’ का ‘जंगल’ (1979), ‘मनोहर श्याम जोशी’ का ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ और ‘कसम’ ‘मारकण्डेय’ का उपन्यास है।

अधिकांश आधुनिकवादी उपन्यासों ने जिन्दगी को मध्यवर्गीय जिन्दगी के कटघरें में कैद के लेखकों ने नोइक्जिट के दरवाजे तोड़कर उन्हें जनजीवन के बीच ला खड़ा कर दिया, आश्चर्य है कि उन उपन्यास और कथातत्व की तोड़-फोड़ के नारों के आधुनिकवादी उपन्यासों की अपेक्षा इसके औपन्यासिक रुपों में वैविध्य और नयापन अधिक है। इनकी भाषा में टटकापन शैली में व्यंजना फैन्टेसी, चेतना प्रभाव का विनियोग तथा तथ्य में ऐतिहासिक बोध का गरमाई है।

राजेन्द्र यादव के कुल छः उपन्यास ‘प्रेम बोलता है’ (1952), ‘उखड़े हुए लोग’ (1956), ‘कुलटा’, ‘शह और मात’, ‘इक इंच मुस्कान’, ‘अनदेखे अनजाने पल’ (1963) में प्रकाशित हुआ। महीप सिंह का एक उपन्यास ‘यह भी नही’ (1976) में प्रकाशित है। योगेश गुप्त के उपन्यास- ‘उनका फैसला’ (1977), ‘अकारण’ (1980), ‘उपसंहार’ (1980) उल्लेखनीय है। द्रोणवीर कोहली कृत ’टप्पर गाड़ी’ (1979), ‘हवेलियों वाले’ (1980), ‘चौखट’ (1981), ‘आँगन का कोठा’ (1985), ‘कायास्पर्श’ (1987), ‘प्रकसीम’ (1994), ‘बाहकैप’ (1998), ‘नानी’ (2000) में प्रकाशित एक दिल्ली के उच्च पर कार्य कर चुकी एक सुशिक्षित और संभ्रान्त महिला सरस्वती (नानी) की कहानी है।

कमलेश्वर 1932 के प्रायः सभी उपन्यास- ‘एक सड़क’, ‘सत्तावन गलियाँ, (1957), ‘डाक बँगला’ (1959), ‘लौटे हुए मुसाफिर’ (1961), ‘समुद्र में खोया हुआ आदमी’ (1967), ‘काली आँधी’ (1974), ‘तीसरा आदमी’ (1967), ‘आगामी अतीत’(1976), ‘वही रात’ (1980), ‘सुबह दोपहर शाम’ (1982), ‘पाकिस्तान’ (2000) में प्रकाशित हुआ है।

गिरधर गोपाल के दो उपन्यास ‘चाँदनी के खँडहर’, ‘कंदील और कुहासे’ चर्चित है। दुष्यन्त कुमार के ‘छोटे-छोटे सवाल’, ‘आँगन में एक वृक्ष’ प्रकाशित है।

आधुनिक और नए उपन्यासः

औद्योगीकरण, महानगरीय सभ्यता, बदले हुए मानसिक परिवेश और भ्रष्ट व्यवस्था के व्यक्ति यांत्रिक, अजनबी, मिसफिट, अकेला था, विद्रोह हो गया। इस दशक में उपन्यास को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

1. यौन विच्यूतियों में पनाह खोजने वाले उपन्यास।

2. मानवीय स्थितियों में मिसफिट व्यक्तियों को चित्रित करने वाले उपन्यास।

3. व्यवस्था की घुटन को अपनी नियति मानने या उसके विरुद्ध युद्ध करने वाले उपन्यास।

मोहन राकेश के अँधेरे बन्द कमरे, अन्तराल, ‘महेन्द्र भल्ला’ का ‘कल’, ‘एक पति के नोट्स’, ‘राजकमल चौधरी’ का ‘एक मछली मरी हुई’ और ‘शहर था शहर नही था’, ‘श्रीकान्त वर्मा’ का ‘दूसरी बार’, ‘ममता कालिया’ का ‘बेघर’, गिरिराज किशोर’ का ‘यात्राएँ’, ‘मणि मधुकर’ का ‘सफेद मेमने’, ‘कृष्णा सोवती’ का ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ आदि पहले श्रेणी के उपन्यासों में आते है। इन उपन्यासों में प्रायः सभी नायक मानसिक दृष्टि से अनिर्णयात्मक आत्मनिर्वासित और नपुंसक है, वे मुक्त होने की प्रक्रिया में ऐसी उलझन में फँस जाते है जहाँ से उन्हें निष्कृत नहीं मिलती, इन उपन्यासों में आधुनिकता का जो चित्र प्रस्तुत किया गया है उसमें स्त्री, शरीर, नशे या ड्रग्स का काम करता है राकेश को छोड़कर शेष उपन्यासों में प्रामाणिकता की भी कमी है।

छूसरी श्रेणी के उपन्यासकारों में उषा प्रियंबदा का रुकेगी नही राधिका और मन्नू भण्डारी का आपका बँटी की गणना की जाएगी, राधिका दो संस्कृतियों के पार्ट में पिसकर अनिण्रय और अकेलेपन को झेलती है, वह न विदेशी संस्कृति में फीट हो जाती है और न देशी संस्कृत में, ‘आपका बंटी में बंटी माँ, बाप दोनो से कटकर मिसफिट हो जाता है, इन दोनों उपन्यासों की आधार भूमियां ठोस तथा इनकी जिन्दगियाँ प्रमाणिक है।

‘नरेश मेहता’ का ‘यह पद्य वधुआ था’, ‘गोविन्द मिश्र’ का ‘वह अपना चेहरा’, ‘बदी उज्जमा का’ ‘एक चूहे की मौत’, ‘काशीनाथ सिंह’ का ‘अपना मोर्चा’ और ‘नरेन्द्र कोहली’ का ‘आश्रितों का विद्रोह’ आदि अन्तिम श्रेणी के उपन्यासों में आते है।

ठनके अतिरिक्त लक्ष्मीकांत वर्मा ने उपन्यास लिखे।

अन्य उपन्यासका एवं उनके उपन्यासः

गिरिराज किशोर के यथा प्रस्तावित (1982), परिशिष्ट (1984) और अंतध्वंस (1990) उपन्यास है। सुरेन्द्र वर्मा ने ‘अँधेरे से परे’ (1980) के बाद ‘मुझे चाँद चाहिए’(1993), ‘ममता कालिया’ का पहला उपन्यास ‘बेघर’ (1971) में प्रकाशित हुआ उनके दूसरे उपन्यास है।‘नरक दर नरक’ (1975), ‘प्रेमकहानी’ (1980), ‘एक पत्नि के नोट्स’ (1997), ‘लड़कियाँ’ आदि।

मृदुला गर्ग इस दौर की सबसे लोकप्रिय लेखिका है। ‘उसके हिस्से का धूप’ (1975), ‘वशंज’(1976), ‘चिकोबरा’ (1979), ‘अनित्म’ (1980), ‘मै और मै’ (1984), ‘कठगुलाब’ (1996) आदि इनके उपन्यास है। इनकी कथा लेखिका की नारियाँ पुरुष से सम्पूर्ण मुक्ति नही चाहती। राजी सेठ ने ‘तत्सम’ (1983) में लिखकर हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। यों , तो तत्सम एक प्रेम कथा है, और इसमें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का ही विवेचन किया गया है। किन्तु यह सब कुछ इतना ससंस्कृत, सूक्ष्म और प्रौढ़ है कि पूरा रचना सामान्य प्रेमकथा से विल्कुल अलग और विशिष्ट बन गयी है। पिछले दशक में इनका दूसरा उपन्यास ‘निष्कावच’ (1995) में प्रकाशित हुआ है। इसमें भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृतियों एवं जीवन पद्धतियों का संवेदना के सूक्ष्म स्तर पर तुलनात्मक आँकलन किया गया है।

नासिरा शर्मा का पहला उपन्यास है, ‘सात नदियाँ एक समन्दर’ (1995), ‘शाल्मली’ (1993), ‘जिन्दा मुहाबरे’ (1993), ‘बीकरें की मँगनी’ (1989) और ‘अक्षयवट’ (2003) इन उपन्यासों में लेखिका ने जनात के दुःख दर्द को मानवीय दृष्टि से देखा है, और उसे पूरी सहानुभूति दी हैं।

मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी रचनाओं की तालगी और उष्मा से सहसा हिन्दी जगत का ध्यान खींचा है। ‘स्मृति देश’ (1990), ‘बेतवा वहती रही’(1993), ‘इदनमय’ (1994), ‘चाक’ (1997), ‘झूला नट’ (1999) और ‘आत्म कबूतरी’ (2000)। ‘सुरेश कांत’ का ‘धम्म शरणम’ (1989), ‘विश्वम्भर नाथ उपाध्याय’ का ‘जोगी मत जा’ (1989), ‘कमलकान्त त्रिपाठी’ का ‘पाट्टीघर’ (1991), ‘असगर वजाहत’ का ‘सात आसमान’ (1996), ‘विनोद कुमार शुक्ल’ के तीनों उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ (1979), ‘खिलेगा तो देखेगें’ (1996) और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ (1997)।

प्रभा खेतान एक संभ्रान्त सुरक्षित और प्रतिभा सम्पन्न रचनाकर है। जीवन की त्रासदी को एक संवेदनशील नारी की दृष्टि से देखा है। पुस्तक ‘द सेकण्ड सेक्स’ का हिन्दी रुपान्तरण करके उन्होनें ख्याति अर्जित की है। इनके ‘आओ पेपे घर चलें’ (1990), ‘तालाबंदी’ (1991), ‘छिन्न मस्ता’ (1993), ‘अपने-अपने चेहरे’ (1994), ‘पीली आँधी’ (1996) प्रकाशित है।

 मैत्रेयी पुष्पा का ‘चाक’, ‘कमलाकान्त त्रिपाठी’ का ‘बेदखल’ (1997) आदि इस समय के प्रमुख उपन्यास है। तथा उषा प्रियंबदा, कृष्णा सोवती, अल्का सारावली, चित्रा चर्तुवेदी वीणा सिन्हा, मधु काँकारियां, जया जादवानी, ‘तत्वमसी’ (2000), ‘निरुपमा सोवती’ के चार उपन्यास ‘पतझड़ की आवाजें’ (1976), ‘बँटता हुआ आदमी’ (1977), ‘मेरा नरक अपना है’ (1977), ‘दहकन के पार’ (1982) प्रकाशित है। कान्त भारती ‘रेत की मछली’ (1957), मृणाक पाण्डेय ‘पटरंग पुराण’ (1983), ‘रास्तों में भटकते हुए (2000), कमल कुमार का ‘अर्थाथ’ (1986), आवतेन (1992), हैब बरगर (1996), ‘यह खबर नही’ (2000), मेहरुन्निशा परवेज का ‘आँखो की दहलीज’ (1969), ‘उसका घर’ (1972), ‘कोरजा’ (1977), ‘अकेला पलाश’ (1981) प्रकाशित है तथा चित्रा मुदग्ल आदि प्रसिद्ध उपन्यासकार है।

आज की व्यवसायिक उपयोगवादी संस्कृति में नारी के शोषण की नयी-नयी स्थितियाँ उभरने लगी है। चित्रा जी की कृति7 ‘एक जमीन अपनी’ (1990), ‘आवाँ’ (1999), ‘गिलिगडु’ (2002) है। इसमें आज की युवा पीढ़ी द्वारा अपने बुजुर्गो की घोर उपेक्षा और अवमानना का बड़ा ही मार्मिक और सजीव चित्रण किया है। आज के भरे पूरे परिवार में भी बुजुर्गो की स्थिति परिवार के पालतू कुŸों से भी बदतर है। महानगरों के शिक्षित मध्यवर्गीय परिवारों का समकालीन जीवन का यह दस्तावेज है।

निष्कर्षतः- हिन्दी उपन्यास के पूरे विकास को ध्यान में रखकर देखा जाए तो कहा जा सकात है कि सीमित अवधि में हिन्दी उपन्यास ने तीन सौ वर्षो की यात्रा पूरी की है, आधुनिक उपन्यास का जनक डेनियल डिफो (1960-1931) ई0 को माना जाता हैं। इस प्रकार योरप ने जो यात्रा ढाई-तीन सौ वर्षो में पूरी की है उसे हिन्दी लेखकों ने पिछले सौ वर्षो में पूरा कर दिखाया है। आज हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में अनेक प्रकार के प्रयोग हो रहे है। यद्यपि अभी हम विश्व के श्रेष्ठ उपन्यासों के स्तर से काफी पीछे है और यह आशँका भी व्यक्त की जा रही है कि कहीं हिन्दी-उपन्यास ‘अपना पूरा स्तर प्राप्त किए बिना ही अकाल मृत्यु को प्राप्त न हो जाय’ किन्तु नई पीढ़ी की उपलब्धियों को देखते हुए यह आशंका निर्मूल प्रतीत होती है। आज हिन्दी-उपन्यास की कथा-भूमि काफी विस्तृत और वैविध्य पूर्ण हो चुकी है। संवेदना के स्तर पर हिन्दी उपन्यास जीवन के अनेक अपरिचित स्तरों को प्रस्तुत कर रहा है। महानगरी जीवन के अनेक स्तरों आंचलिक जीवन के अनेक उभरें-दबे कोनो  निम्नमध्यवर्गीय जीवन संघर्षो, अवरोधों और टूटते बनते रिश्तों, नारी जीवन की यातनाओं और त्रासदियों, तथा ऐतिहासिक पौराणिक जीवन की पुर्नर्व्याख्याओं से समृद्ध संभावना के नए क्षितिज का द्वारा मुक्त कर रहा है।

समाज में चिर उपेक्षितों,हरिजनों, जन-जातियों एवं अस्पृश्यों के प्रति गहरी सहानुभूति इधर के कुछ उपन्यासों में देखी जा सकती है, इन्हीं वर्गो से आने वाले लेखक अब तल्ख स्वर में सामाजिक न्याय की माँग करने लगे है। हिन्दी-भाषा के व्यापक प्रचार-प्रसार के साथ हिन्दीवर प्रान्तों के लेखक भी हिन्दी में लिखने लगे है, और उनके माध्यम से हिन्दी भाषी प्रान्तों के बाहर, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, कश्मीर आदि का जीवन यथार्थ भी हिन्दी उपन्यास में अभिव्यक्ति पाने लगा है।

अज्ञेय के ‘अपने-अपने अजनबी’ का पूरा परिवेश अन्तर्राष्ट्रीय है। डॉ0 देवराज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘अजय की डायरी’ का नायक अजय अमेरिका चला जाता है वहीं का वेष-परिवेश लेखक प्रस्तुत करता है। मोहन राकेश ‘अन्धेरे बन्द कमरे’ के नायक-नायिका भी है। निर्मल वर्मा के प्रसिद्ध उपन्यास ‘वे दिन’ में द्वितीय महायुद्ध के बाद यूरोप की अभिव्यक्ति पीढ़ी का चित्रण किया गया है, ‘जो’ उपन्यास में प्रभाकर माचवे ने अमेरिका के काले-गोरे कहानी के माध्यम से समस्या को कथा का आधार बनाया है।

महेन्द्र भल्ला ने ‘दूसरी तरफ’ और ‘उड़ने से पेश्तर’ इन दोनों उपन्यासों में इंग्लैण्ड जाने वाले भारतीयों के अनुभव को व्यक्त किया है। उषा प्रियंबदा ने ‘शेष प्रश्न’ में अमेरिका में रहने वाले भारतीयों की मानसिकता का चित्रण  किया है। योगेश कुमार ने ‘टूटते विखरते लोग’ तथा ‘नासिरा शर्मा’ ने ईरान के निवासियों के वर्तमान जीवन यथार्थ का चित्रण ‘सात नदियाँ एक समुन्दर’ में किया है।

इस प्रकार हिन्दी उपन्यास में एक साथ आँचलिक, अर्न्तप्रान्तीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन परिवेश के चित्र उभरने लगें है।

स्वातन्त्रयोŸार युग में हिन्दी उपन्यासों का टेकनीक की दृष्टि से भी अभूतपूर्ण विकास हुआ है। आत्मकथात्मक शैली, पत्र-शैली, डायरी शैली, रिपोतार्ज शैली, रेखाचित्र शैली या इन सबको सम्बन्धित करके चलने वाली सभी शलियों में उपन्यास लिखें गए  है। इनके अतिरिक्त अन्तर्जगत् की गहन अनुभूतियों को व्यक्त करने के प्रयत्न में चेतना प्रवाह (ेजतमंउ व िब्वचदेबपवनेउमेे) ‘पूर्वदीप्ति’ (थ्संेीइंबा) एवं मुक्त आसंग (थ्तमम ंेेवबपंजपवद) स्वप्न विश्लेषण (प्दजमतचतमजंजपवद व िकततमंउ) दिवास्वप्न आदि अनेक शैलियों का प्रयोग चरित्र-चित्रण के लिए किया गया है।

भारतीय उपन्यास की अपनी खास स्वायत पहचान निर्धारित करने में जिस उपन्यास लेखकों की कृतियों से विशेष प्रेरणा मिली है उनमें ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ अन्यतम है। भारतीय उपन्यास की भारतीयता को परिभाषित करने के लिए जो प्रमुख स्थापनाएँ की गयी है, उनमें प्रमुख है कि भारतीय उपन्यास यूरोपीय अर्थ में मध्य वर्ग का महाकाव्य या महाकथा नही बल्कि वह ठेठ भारतीय अर्थ में महाकथा है। इसी सन्दर्भ में स्वामी प्रसाद द्विवेदी, द्विजेन्द्र नाथ मिश्र ‘निर्गुण’, चतुरसेन शास्त्री, नागार्जुन और नरेन्द्र कोहली जैसे लेखकों का स्मरण भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इन जैसे उपन्यासकारों ने भारतीय कथा भूमि को निजी पहचान दिलाने में कलात्मक कोशिश किया है।

उपन्यास विधा से जो यह मांग करें कि यह एक विशेष सामाजिक दस्तावेज के रुप में मूल्यवान हो, और कृति के रुप में पठनीय हो, और प्रभावपूर्ण हो, उन्हें अब्दुल विस्मिल्लाह के ‘झीनी-झीनी बीनी चदरियाँ’ उपन्यास से निराशा नही होगी। उपन्यास से पहले उस जीवन के परिचय ही मूल्यवान है जिसे अब तक सामान्यीकृत करके देखा गया है। आँकड़े और तथ्य बटोरने वाले इन विरुप सच्चाइयों के उस मार्मिक स्रोत तक नही पहुँच पाए है, जिसे एक सार्थक रुपाकार देने की कोशिश यहाँ की गयी है।

‘‘काल की व्याप्ति को सीमित करने की दिशा में कई सफल प्रयोग हुए हैं। एक दिन की घटना तथा बारह घंटों की लिखे गये है। ‘अश्क’ का ‘शहर में घूमता आइना’ एक दिन के घटना पर आधारित है। भगवती चरण वर्मा का ‘सामर्थ्य और सीमा’ एक सप्ताह पर आधारित है।

छवजम दृ च्ंहम छव 52 ंदक 53 ंतम दवज जलचमे इमबंनेम जीम चंहम पे दवज बसमंत पद चीवजवबवचल ंदक जीम जमगज ंतम नदतमकंइसमण्

















 


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