सफर : सारिका साहू

ऐसा रहा सफ़र, न कोई हमराह , न कोई  हमसफर ।
तन्हा ही रह गए, अकेलेपन को लगाकर गले।।
अपनी खामियों से रूबरू हो, चल दिए हम।
अब न रहे ,किसी से कोई शिकवे ,न कोई गिले।।
सफ़र में चुन _चुन कर कांटे लोग  बिछाते  गए।
मंजिल पाने के जुनून में हम सब नकारते चले।।
कईं मुश्किलों भरा  पल पल सफ़र तय कर ।
हम हर मुश्किल से दो दो  हाथ करते चले ।।
अपेक्षा न की, अपनों से ,न की परायों से।
खुद अकेले ही ये सफर तय करते चले।।
मंजिल को पास पाकर भी न भरा दम।
आज फिर सफ़र में खुद से मिलते चले।।
 साथ जो न मिला हमे किसी का।
खुद अपनी बुनियाद हम रखते चले ।।
तूफानों से लड़कर भी अडिग खड़े रहे।
हर हार  को पार करके आगे बढ़ते चले ।।

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला": काव्यगत विशेषताएं

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व