कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती
कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती |
कत लिखि लिखि पठवत नँदनंदन कठिन बिरह की काती॥
नयन, सजल, कागद अति कोमल, कर अँगुरी अति ताती।
परसत जरै, बिलोकत भीजै दुहूँ भाँति दुख छाती ॥
क्यों समुझे ये अंक सूर सुनु कठिन मदन-सर-धाती।
देखे जियहिं स्यामसुंदर के रहहिं चरन दिनराती ॥
प्रस्तुत पंक्तियों सूरसागर के भ्रमरगीत प्रसंग से ली गई है । जब कृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा आ जाते हैं तो वहां उनकी मुलाकात उद्धव होती है । ऊधौ श्री कृष्ण को समझते हैं तब कृष्ण गोपियों गोपियों की याद में परेशान रहते हैं । उद्धव निर्गुण ज्ञान का उपदेश कृष्ण को देते हैं कृष्ण उद्धव को गोकुल भेजते हैं कि हे उद्धव आप गोपियों को समझा दो उड़ उठाओ कृष्ण का संदेश लेकर गोकुल पहुंचते हैं और वहां पहुंचने के बाद गोपिया उद्धव के निर्गुण ज्ञान को अपने लोक ज्ञान से ऐसी तर्क देती है कि उद्धव निरंतर हो जाते हैं ऐसे ही जब उद्धव गोपियों को कृष्ण का सन्देश देना चाहते हैं तो गोपियों कहतीं है की ब्रज में कोई पत्र नहीं पढ़ पाता है और कहती हैं कि कोई ब्रज में चिट्ठी पत्री नहीं पढ़ पाता ऐसे में कृष्ण क्यों इस कठिन विरह की पाति को लिख लिख कर भेज रहे हैं आगे गोपियाँ कहती हैं कि हमारी आंखें आंसू से भरीं हैं और उनसे निरंतर आंसू बह रहे हैं और हमारे हाथ कृष्ण के विरह में तप्त हैं और यह काजल कागज बहुत ही कोमल है ऐसे में हम अगर इस कागज को खोलते हैं तो हमारे हाथों के ताप से यह जल सकता है और यदि हम इसे देखते हैं तो हमारी आंखों के आंसू से यह भीग जाएगा इसलिए दोनों ही स्थितियों में हमारे ह्दय को कष्ट ही होगा ऐसे में आप ही इस पत्र को रखिए और और आगे कहतीं है ं हम अज्ञानी ग्रामीण स्त्रियाँ हमें आपका निर्गुण ज्ञान नहीं सुनायेगा।
अति उत्तम
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