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Showing posts from June, 2024

एक चर्चित चेहरा : सारिका नारायण

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  एक चर्चित चेहरा!!! उस भीड़ में एक चर्चित चेहरा, निसंदेह: वो कल था मेरा,  उसके रहने से,  सब कुछ भरा था मेरा,  उसकी खुशबु से,  मन महकता था मेरा ,  उसके साथ होने से रिश्ता था हमारा  दुःख, भय का  नहीं था कोई पहरा  खुशी, मुस्कुराहटों का था अंबार लगा,  वो खुला आसमान था  आश्रय था मेरा,  कितना सुखद अहसास था   हमारा था भीड़ में एक चर्चित चेहरा  पूर्ण विश्वास था हमारा वो सब कुछ था  पर है बहुत कुछ अब भी  यादों में।

कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती

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कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती | कत लिखि लिखि पठवत नँदनंदन कठिन बिरह की काती॥ नयन, सजल, कागद अति कोमल, कर अँगुरी अति ताती।  परसत जरै, बिलोकत भीजै दुहूँ भाँति दुख छाती ॥ क्यों समुझे ये अंक सूर सुनु कठिन मदन-सर-धाती। देखे जियहिं स्यामसुंदर के रहहिं चरन दिनराती ॥ प्रस्तुत पंक्तियों सूरसागर के भ्रमरगीत प्रसंग से ली गई है । जब कृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा आ जाते हैं तो वहां उनकी मुलाकात उद्धव होती है । ऊधौ श्री कृष्ण को समझते हैं तब कृष्ण गोपियों गोपियों की याद में परेशान रहते हैं । उद्धव निर्गुण ज्ञान का उपदेश कृष्ण को देते हैं कृष्ण उद्धव को गोकुल भेजते हैं  कि हे उद्धव आप गोपियों को समझा दो उड़ उठाओ कृष्ण का संदेश लेकर गोकुल पहुंचते हैं और वहां पहुंचने के बाद गोपिया उद्धव के निर्गुण ज्ञान को अपने लोक ज्ञान से ऐसी तर्क देती है कि उद्धव निरंतर हो जाते हैं ऐसे ही जब उद्धव गोपियों को कृष्ण का सन्देश देना चाहते हैं तो गोपियों कहतीं है की ब्रज में कोई पत्र नहीं पढ़ पाता है और कहती हैं कि कोई ब्रज में चिट्ठी पत्री नहीं पढ़ पाता ऐसे में कृष्ण क्यों इस कठिन विरह की पाति को लिख लिख कर भेज रहे हैं आगे गोपि

मातृभाषा

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मातृभाषा में हम कुछ भी समझ और आत्मविश्लेषण कर सकते हैं। जिन देशों ने अपनी मूल भाषा को प्राथमिकता और महत्व दिया है, उन्होंने अन्य देशों की तुलना में कहीं बेहतर विकास किया है। मातृभाषा हमें अपने विचारों, विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता देती है और अंततः मनोवैज्ञानिक विकास की ओर ले जाती है। जिस प्रकार बच्चे के विकास के लिए मां का दूध महत्वपूर्ण होता है, उसी प्रकार हमारी मानसिक संज्ञानात्मक क्षमताओं के विकास के लिए मातृभाषा अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। आजकल लोग भाषाओं को लेकर कई तरह की आशंकाएं रखते हैं। कुछ हद तक वे भेदभाव का आधार बन गए हैं लेकिन यह ध्यान में रखना होगा कि भारत के अधिकांश नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने अपनी शिक्षा अपनी मातृभाषा या मूल भाषा में प्राप्त की। अब समय आ गया है कि हम अपनी जड़ों की ओर लौटें, अपनी भाषा के महत्व को समझें क्योंकि अंततः वे ही हमें खुद को अभिव्यक्त करके उड़ने और ऊंची उड़ान भरने के लिए पंख देती हैं और हमें इस विस्तृत दुनिया में पहचान दिलाती हैं।  अधिकांश शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में मूल भाषाओं की उपेक्षा की जाती है। हालाँकि, इन्हें संशोधित किया जाना चाहिए और म

एहसासों में जिन्दा हो

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याद है मुझे अब भी  वो सर्दियों की बरिश  चाय की चुस्कियां तेरे नर्म हाथों की आलू के पराठे,  और गर्मियों की लू  वो रिक्शे की सवारी  वो तेरी जुल्फों का लहराकर  मेरे मन को बहकाना  वो तेरी खुशबू का  मेरे सांसों में उतरना ।  याद है मुझे अब भी ,  वो आखिरी बार मिलना  चाय से शुरू हुई मोहब्बत का  स्वीटकार्न सूप पर खत्म होना।  ना जाने कितनी  याद होंगी तुम्हें- उन लम्हों बातें और बहुत सी बातें।  वो एक कहानी - जो अधूरी खत्म हो कर भी  एहसासों जिन्दा है।

सब प्रभावित थे: सारिका नारायण

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तुम्हारे प्रभावशाली व्यक्तित्व से,  सब प्रभावित थे, और मैं, सिर्फ़ तुम्हारी बातों से,  जो मुझे सदा ही मोहित करती रहती थी,  कितने प्रसन्न थे सब, तुम्हें उच्च पदस्थ देखकर, और मैं सिर्फ़ शायद, स्मृति में थी, जो मुझे सदा ही तुमसे जोड़े रही,  चारों ओर तुम्हारी सराहना करते लोग,  और मैं,  तुमसे लंबी दूरी पर थी, फिर भी , मैं तुम्हें क़रीब महसूस करती रही। शिद्दत से और  तुम............ 

प्रफुल्लित हृदय संग: सारिका नारायण

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प्रफुल्लित हृदय संग आई जो पहली बारिश  झम-झम बरस गई बूंदों की ख्वाहिश  चमकती दामिनी ने गड़गड़ाहट बादलों की घोषणा की तरल _तरल हो गई सुखी वसुंधरा की रंजिश  विचलित मन और ये गरमी की तपिश  निष्ठुर मौसम ने आखिरकार तोड़ी अपनी बंदिश  अब तीव्र तपिश से झुलसा ह्रदय भी धुल गया  जो रिमझिम फुहारों के साथ आई पहली बारिश  हर धार से जलनिधि का संचय संभव होगा  बादलों ने भी अब बंद की अपनी साज़िश,  झूम झूम कर बादल बूंदे बरसा रहें हैं  कैसे घटाओं से भी स्वत: छूट गई वो कशिश। 

सूरदास का वात्सल्य मनोभाव

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सूरदास हिन्दी के एक ऐसे कवि के रुप में ख्यतिलब्ध हैं जिन्होंने वात्सल्य एवं श्रृंगार का बहुत ही सूक्ष्म एवं व्यापक चित्रण किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि वो वात्सल्य और श्रृंगार का कोना कोना झांक आये हैं। यह सच भी है।  गोकुल में रहते हुए कृष्ण ने जो भी बाल लीला की है उसे सूरदास ने बहुत ही सूक्ष्म एवं यथार्थ पूर्ण रुप में प्रस्तुत किया है।  घुटुरुन चलत का पद हो या यशोदा हरि को पालने झुलावें पद इन सब जो अंकन है उसमें अवगाहन करके हमारा मन आह्लादित हो उठता है। मातृ ह्दय की ममता हो या बाल मन का हठ और तर्क दोनों बेजोड अंकन सूरदास के सूरसागर में देखा जा सकता है। वास्तव में सूरसागर सागर से कम नहीं है। वात्सल्य मनोभाव एक ऐसा मनोभाव है जिससे रुबरु होते हुए हम सब कुछ भूलकर एक बच्चे के ह्दय से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं।  जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥ मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै। तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥ कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै। सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥ इहिं अंतर

भिक्षुक: निराला

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वह आता-- दो टूक कलेजे को करता, पछताता पथ पर आता। पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता — दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए, बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते, और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए। भूख से सूख ओठ जब जाते दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते? घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते। चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए, और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए ! ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।

सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान :अज्ञेय

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अज्ञेय का व्यक्तित्व एवं कृतित्व हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।  हे महाबुद्ध! मैं मंदिर में आयी हूँ रीते हाथ: फूल मैं ला न सकी। औरों का संग्रह तेरे योग्य न होता। जो मुझे सुनाती जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत- खोलती रूप-जगत् के द्वार जहाँ तेरी करुणा बुनती रहती है भव के सपनों, क्षण के आनंदों के रह: सूत्र अविराम- उस भोली मुग्धा को कँपती डाली से विलगा न सकी। जो कली खिलेगी जहाँ, खिली, जो फूल जहाँ है, जो भी सुख जिस भी डाली पर हुआ पल्लवित, पुलकित, मैं उसे वहीं पर अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल, हे महाबुद्ध! अर्पित करती हूँ तुझे। वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का, वहीं-वहीं नैवेद्य चढ़ा अपने सुंदर आनंद-निमिष का, तेरा हो, हे विगतागत के, वर्तमान के, पद्मकोश! हे महाबुद्ध!

माँझी! न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता

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माँझी! न बजाओ बंशी मेरा मन डोलता  मेरा मन डोलता है जैसे जल डोलता  जल का जहाज़ जैसे पल-पल डोलता  माँझी! न बजाओ बंशी मेरा प्रन टूटता  मेरा प्रन टूटता है जैसे तृन टूटता  तृन का निवास जैसे बन-बन टूटता  माँझी! न बजाओ बंशी मेरा तन झूमता  मेरा तन झूमता है तेरा तन झूमता  मेरा तन तेरा तन एक बन झूमता। (केदार नाथ अग्रवाल)

बैना :अरूणिमा सिंह

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बैना! बायना यानी विवाह के बाद वधू पक्ष की तरफ से आई मिठाई को सबको उपहार स्वरूप बांटना। हमारी तरफ विवाह में बतासा, खाझा, बालूशाही, लड्डू, ढूंढी मुख्य मिठाई होती है।   विवाह के दूसरे दिन गृहस्वामिनी बहु के घर से आए एक सुन्दर से डलवा में मिठाई और एक साड़ी रखकर ऊपर से क्रोशिए के बने सुंदर से थालपोश से ढंक कर पूरे गांव में मिठाई बंटवाती हैं।  जितनी महिलाएं दुल्हन की मुंह दिखाई करने आती हैं उनको भी बायना दिया जाता है।  विवाह में आए रिश्तेदार जब घर वापस जाने लगते हैं तब उनको लईया और मिठाई का बायना देकर विदा किया जाता है।   सारी मिठाई एक तरफ और बायना की मिठाई खाने का आनन्द एक तरफ होता है।  जब घर में बहु आती है तब घर के लड़के लड़कियों का सबसे ज्यादा ध्यान मिठाई के डिब्बे खोलने पर रहता है क्योंकि गत्ते पर, गत्ते के अन्दर खुब शायरी और दुल्हन के भाई, बहन, बुआ, समधी, समधन के लिए गाली लिखी होती थी। ढूंढी बनाते समय उसके अंदर सिक्के, छोटे आलू, शायरी लिखकर पर्ची डाल दिया जाता था।   सारे लोग उन शायरियो और मजाक में लिखी गालियों को पढ़ पढ़ कर हंसते थे। घर में खुब हंसी मजाक का आंनद मय माहौल बना रहता था।  

कामायनी

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कामायनी हिन्दी साहित्य का ही नहीं अपितु विश्व का बेजोड़ ग्रन्थ है। यह प्रसाद की अन्तिम और अन्यतम कृति है। इसका प्रकाशन 1936 ई. में हुआ। "कामायनी" कवि की अन्य रचनाओं की भाँति दी चार क्यों की कल्पना और लेखन का परिणाम नहीं है। इसकी रचना प्रायः नी वर्षों में पूरी हुई। इसका लेखन 1927 ई. को बतनापंचमी को प्रारम्भ हुआ, इसका समापन 1955 ई. की महाकालरात्रि (शिवरात्रि) को हुआ। वस्तुतः कामायनी जैसी रचना किसी कवि की जीवन-व्यापी साधना, लम्बी वैचारिक और सृजनात्मक शक्ति और गहन दार्शनिक दृष्टि का ही परिणाम हो सकती है। इस महाकाव्य में कवि ने दार्शनिक आधार पर आनन्द को प्रतिष्टा की है। इस कथा का मुख्य आधार है-मनु का पहले श्रद्धा को, फिर इहा को पानी के रूप में स्वीकार करना। कथा में एक "रूपक" है। इसके अनुसार बढ़ा विश्वास समन्वित रागात्मक वृति है और इड़ा व्यवसायित्मिका बुद्धि। कवि ने श्रद्धा को मृदुता, प्रेम और करूणा का प्रवर्तन करने वाली सच्चे आनन्द तक पहुंचाने वाली के रूप में चित्रित किया है। इड़ा या बुद्धि को अनेक प्रकार के कार्य-व्यवसायों में प्रवृत्त करती हुई, कर्मों में उलझाने वाली क

आओ लौट चलें: प्रीति श्रीवास्तव

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  एक दिन ऐसा आएगा जब सारे कॉंकरीट के जंगल  काट दिए जाएंगे एक दिन ऐसे शहरों से  हवा पानी खत्म हो जाएगा प्रकृति के सारे कातिल  औक्सिजन पानी के बिना तड़पने लगेंगे और भाग जाएंगे  कॉंकरीट का जंगल छोड़कर  ढह जाएंगे फिर सारे बहुमंजिली इमारतें फिर आएगी हरियाली धीरे धीरे दबे पांव जैसे आया था इंसान धीरे से और फिर उग आएंगे बड़,पिपल,सेमर और बढ़कर हो जाएंगे घने वृक्ष फिर बनेंगे शहर हरे भरे जंगल और लौट आएंगे सारे वन्य जीव तब इंसान फिर दुबक कर रहेगा किसी छोटे से गांव में प्रकृति के छांव में एक दिन जंगल फिर आएगा अपना जमीन आसमान वापस मांगने नही तो लूट लेगा सब कुछ मानव का गला दबाकर एक दिन जंगल जरूर आएगा।

भावी राजनीति

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 2014 के बाद जिस तरह से भारतीय राजनीति में नरेंद्र दामोदर मोदी का व्यक्तित्व एवं कद बढ़ा है, उसने एक नये तरह के राजनीतिक नरेटीव बनता जा रहा है। मोदी की गारंटी ने बहुत से लोगों के राजनीतिक ग्राफ को ऊपर उठ गया और बहुत से लोगों के राजनीति को हसिये पर पहुँचा दिया । 2024 का चुनाव परिणाम भारतीय राजनीति में आने वाले बहुत बडे़ गैप की संकेत दे रहा है। अब तक भारतीय जनता पार्टी में यह परम्परा चल पड़ी है कि मोदी और योगी के नाम पर कोई भी चुनाव जीत जा सकता है और यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी जमीनी स्तर पर काम करने वाले नेताओं की उपेक्षा देखने को मिल रहा है। नि:सन्देह यह भारतीय जनता पार्टी का सर्वश्रेष्ठ समय था जो अब धीरे -धीरे खत्म हो रहा है। अब पार्टी को अपने काडर पर फोकस करना चाहिए।  भारतीय रजनीति अब एक ऐसे दौर में पहुंचाने जा रही है जहां से अस्थाईत्व का दौर आरम्भ होगा ।क्योंकि भारतीय जनता पार्टी में भी अब वह करिश्माई व्यक्तित्व नहीं रह जाएगा जिसके सहारे भारतीय जनमानस को एकजुट किया जा सके । अब किसी व्यक्तित्व के सहारे नहीं वरन् अपने काम और समर्थन को प्राथमिकता देना होगा। अगर जनप्रतिनिधि अहंकार