मानक हिन्दी की व्याकरणिक विशेषताओं का उल्लेख करें-
कोई भी व्याकरण भाषा की प्रकृति को पूर्णत: नियमबद्ध नहीं कर सकता।
भाषा की जो प्रकृति वर्तमान में
दृष्टिगोचर होती है, व्याकरण खुद को वहीं तक
सीमित रखता है। वह भाविष्य में उस भाषा की
प्रकृति में होने वाले परिवर्तन की कोई सूचना नहीं दे सकता । अत: व्याकरण भाषा की
प्रकृति का अधुरा परिचय देता है।
भारतीय आर्यभाषाओं से विकसित हिन्दी में ४६ ध्वनियाँ हैं। इनमें
ग्यारह स्वर ( अ, आ, इ, ई,उ,ऊ,ए,ऐ, ओ, औ, ऋ) चा ३३ व्यंजन है [क, ख ,ग, च, छ, ज, झ, ट, ठ, ड, ट , ण, त थ द ध न प फ ब भ म य,र, ल, व , श, ब, स, इ)। इनके अतिरिक्त अनुस्वार और विसर्ग दो व्यंजन और हैं। हिन्दी वर्णमाला में मित्र व्यंजन
क्ष (क+ष), ज्ञ(ज +उ) एवं एक संयुक्त व्यंजन त्र (त+र) मिलते हैं। हिन्दी में मूर्धन्य घोष व्यंजन द वं ह है। अरबी, फारसी मूल से आई हुई है क़ ख़ ज, फ़ ध्वनिया एवं स्वं अंग्रेजी से आई हुई ऑ ध्वनि भी हिन्दी में
मिलती है। अत: हिन्दी वर्णमाला में १२ सहायक वर्ण है। न्ह, म्ह, एवं ल्हू को भी स्वतंत्र स्वनिय के रूप में परिगणित किया जाता है। इस दृष्टि से हिन्दी को
माला में वर्णो की संख्या और भी वढ़ जाती है।
संज्ञा की रूप - रचना वचन एवं
कारक के अनुसार होती है। वचन भी दी हैं और कारक भी रूपात्मक दृष्टि से दी हैं। इस प्रकार २ X २ की रूप तालिका से ये रूप बनते हैं।
संज्ञा
प्रातिपादिक चार उपवर्गो में मिलते हैं।
उप १. पुन्निंग आकारान्त
(लड़का
उपवर्ग) अपवाद हैं - नाना, मामा, राजा, पिता, मुखिया ।
उपा-२ पुल्लिंग शेष शब्द
(घर , माली, डाकू , कवि) ।
उप-३ स्त्रीलिंग इकारान्त
, ईकारान्त एवं यकारान्त (छवि, नन्दा, बूड़िया)
उपळ-४ स्त्रीलिंग शेष
शब्द (बहन, लता , बहू आदि)
इनमें रूप - रचनात्मक
विभिन्न प्रत्ययों को स्क साथ प्रदर्शित करने के लिझ निम्न तालिका बनाई जा सकती है ।
निभावत प्रत्यय
निर्थक, बहुवचन .
मूलस्कवचन
मूल बहुवचन -अर्का-१
तिर्यक कक्चन
-रू -उपज -२ - उपा -३ -
-ऑ/
-ओं वर्ग -४ -४
- ओं
- अं
हिन्दी में दो वचन (स्कवचन, बहुवचन) , दो लिंग (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग) होते हैं। हिन्दी में स्वाभाविक स्त्रीलिंग एवं
पुल्लिंग के अतिरिक्त व्याकरणिक लिंग - भेद
भी होता है। हिन्दी आकारान्त विशेषणों (अच्छा, अच्छी) तथा क्रियाओं में भी लिंग होता है (लड़का आता है, लड़की आती है)। हिन्दी सर्वनामों में लिंग-भेद के कारण
परिवर्तन होता है। संस्कृत के आठ कारक रूपों की जगह दो ही रूप हिन्दी में मिलते हैं – मूल स्वं तिर्यक। तिर्यक रूप में कारक चिन्ह लगाकर कारकों के आठ अर्थ प्रकट किये जाते हैं। शून्य चिद्ध की कारक के अर्च में तया
। ‘ने’ चिन्ह कर्ता का अर्थ
प्रकट करने के लिए भूतकालिक कृदन्त कालों के साथ लगता है। ‘ने’ चिन्ह हिन्दी की अपनी
विशेषता है। इसी प्रकार ‘को’ चिन्ह कर्म करक ‘को ', के, लिए, सम्प्रदान कारक , "से" कारण और अपादान कारक, 'के ' ‘की', 'का' सम्बन्ध कारक एवं में तथा ‘पर' अधिकरण कारक के अर्थ प्रकट करते हैं। हिन्दी में कुछ
सम्बन्ध सूचक अवव्य भी कारकों के अर्थ में
प्रयुक्त होते हैं। यात – प्रति, तई (कर्म) दवारा जरिये कारण (करण); हेतु निमित्त , वास्ते (सम्प्र॰ ) ; अपेक्षा, सामने (अपादान); मध्य , बीच, अन्दर, ऊपर, (अधिकरण)।
सर्वनाम संज्ञा के स्थान पर आता है। इसके सात भेद - पुरूषवाचक , निश्चय वाचक , अनिश्चयवाचक, प्रश्न वाचक, सम्बन्धवाचक, सहसम्बन्धवाचक, निजनाचक (आप) हैं। वचन के
अनुसार पृथक् - पृथक् रूप केवल उत्तम सर्व मध्यन पुरूष में तथा निश्चयवाचक
सर्वनाम में मिलते है । अनिश्चयवाचक, प्रश्नवाचक, सम्बन्धवाचक तथा सहसम्बन्धवाचक सर्वनामों में वचन - भेद के
अनुसार पृथक् - पृथक् रूप नहीं मिलते हैं। एकवचन के रूप ही (कोंई, कौन, जो, सो) बहुवचन में भी व्यवह्र्त होते हैं। वचन - बोध क्रिया रूपों से ही किया जा सकता है।
रूप - रचना की समानता को ध्यान में रखकर सर्वनामों में चार उपवर्ग बनते हैं:
उपवर्ग - १ पुरूषवाचक
उत्तम तथा मध्यन) सर्वनाम - मैं,
उपवर्ग -२ निश्चयवाचक, प्रश्न वाचक, सम्बन्ध तथा सहसम्बन्धवाचक सर्वनाम - यह, वह , कौन/क्या, जो, सो ।
उपवर्ग - ३ अनिश्चयवाचक
सर्वनाम - कोई
उपवर्ग - ४ आदरार्थ
सर्वनाम - आप
इनकी रूप- तालिका अलग -
अलग बनती है।
उपवर्ग -१ पुरूषवाचक -
रूप तालिका
पुरूषवाचक मूल । तिर्थक
। कर्म/ समृदान । सम्बन्धीवाची
उत्तम पुरुष
एकवचन मैं
मुझ, मैं मुझे मेरा/री/रे
बहुवचन हम हम
हमें हमारा/री/रे
मध्यम पुरूष
एकवचन तू तुझ, तू तुझे तेरा/री/रे
बहुवचन तुम तुम तुम्हें तुम्हारा/री/रे
उपवर्ग -२ निश्चयवाचक, प्रश्नवाचक, सम्बन्ध तथा सह सम्बन्धवाचक सर्वनाम की रूप – तालिका
सर्वनाम तिर्थक । कर्म/
सन्मान निश्चयवाचक निकटवर्ती
इनके अतिरिक्त इतना , उतना, जितना, कितना, परिणामवाचक; ऐसा, वैसा, जैसा, कैसा –गुणवाचक सर्विनामिक विशेषण के मुख्य रूप
हैं।
ये समस्त सर्वनान रूप अधिकांशतः प्राकृत और अपभ्रंश रूपों से विकसित हुए हैं।
हिन्दी की क्रिया
- स्चना भाषा के विचोगात्मक (विश्लिष्टात्मक) रूप का प्रकट करती है। क्रिया के साधारण के अन्त में 'ना' होता है, यथा; खाना, देखना, चलना। ना, को हटा देने से हिन्दी धातु शेष रह जाती है -खा, देख. चल। हिन्दी में कुल लाभग 500 धातुएँ हैं। ये धातुएँ कुछ अकर्मक, कुछ सकर्मक होती हैं। धातु में -आ, -वा लगाकर हिन्दी की प्रेरणार्थक धातु बनाई जाती है।
हिन्दी क्रिया में तीन काल (वर्तमान, भूत, भविष्य), पाँच अर्क (निश्चय, आज्ञा, सम्भावना, संदेह, संकेत), तीन अवस्थाएँ ( सामान्य, पूर्ण, अपूर्ण) तीन वाच्च (कर्तृ , कर्म, भाव) मिलते हैं। काल –
रचना में कृदन्त (
भूतकालिक, वर्तमानकालिक, पूर्णकालिक, संज्ञार्थक क्रिया) तथा सहायक क्रिया (होना) से विशेष सहायता ली जाती है। हिन्दी क्रिया – रचना में भूतकाल से संबंधित
रूप
'ता' में तथा भविष्य काल से संबंधित रूप 'गा' में अंत होते हैं। हिन्दी
में छ: मूल काल भूत निकलनार्थ (ला), भविष्य - निश्चयार्थ
(चलेगा), वर्तमान संभावनार्च (ले), भूत संभावनाच (चलता); वर्तमान आझार्च (चले), भविष्य – आज्ञार्थ (चलना) के रूप मिलते हैं। दस यौगिक काल के रूप
भी मिलते हैं। वर्तमान कालिक कृदन्त + सहायक क्रिया
में बने काल (१) वर्तमान अपूर्ण निश्चयार्थ- वह चलता है। (२) भूत अपूर्ण निश्चयार्थ- वह चलता था। (३) भविष्य अपूर्ण निश्चयार्थ- वह चलता होगा (४) वर्तमान अपूर्ण संभावनार्य -
वह चलता है (५) भूत अपूर्ण संभावनार्च- वह चलता होता।
भूतकालिक कृदन्त
+ सहायक क्रिया से बने काल:
(१) वर्तमान पूर्ण निश्चयार्थ - वह चला है (२) भूत पूर्ण निश्चयार्य – वह चला था (३) भविष्यपूर्ण निश्चयार्थ - वह चला होगा ।
(४) वर्तमानपूर्ण संभावना – वह चला हो
(५) भूत पूरी संभावनार्च - वह चला होता ।
क्रियाओं के सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थ प्रकट करने के लिए दो या
अधिक प्रधान या सहकारी क्रियाओं के संयोग से हिन्दी का संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं। प्रधान क्रियाओं के साथ सहकारी क्रियाएँ – होना, आना, उठना, करना, चाहना, चुकना जाना आदि लगती हैं।
हिन्दी में अव्वयों के चार समूह
क्रियाविशेषण - (अब ,
जब तक); समुच्चयबोधक (और, या), सम्बन्धसूचक- (बिना, साथ, तक), विस्मयादिबोधक (हाय, आह) आदि मिलते हैं।
हिन्दी वाक्य में सामान्यतः
कर्ता - कर्म- क्रिया का पदक्रम रहता है। क्रिया सामान्यतः लिंग -बचन में कर्ता से और कभी- कभी कर्म से अनुशासित होती है।
विशेष्य के अनुसार विशेषण का लिंग हेता है। हिन्दी में तीन प्रकार के वाक्य
साधारण, मित्र, संयुक्त होते हैं। पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई (।) का प्रयोग होता है। शेष विराम चिन्ह अंग्रेजी के ही व्यवहृत होते हैं।
हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।
"धरती की सुलगानी छाती के बैचैन शरारे पूछते हैं
जो लोग तुम बचा न सको, वो खून के धारे पूछते हैं
कायनात की छाती फटती है, अम्बर के तारे पूछते हैं
ऐ राह बरे मुल्क -ए- कौम बता, ये किसका लहू है, कौन मरा।"
प्रश्न: अपभ्रंश, अनाडू सर्व प्राथमिक हिन्दी की ताकशीक, स्नं शाहिदक किसे पताएँ सताएँ।
३. अपभ्रंश की व्याकरणिक, विशेषताएं
अपभ्रंश चूंकि संस्कृत के क्रमिक विकास ( संस्कृत - पालि - प्राकृत -
अपभ्रंश) से निष्पन्न भाषा है, इसलिए उसकी व्याकरणिक विशेषताओ का आकलन प्राकृत, पालि सर्व
संस्कृत की तुलना में ही किया जा सकता है। परिनिष्ठित अपभ्रंश का मूल आधार पश्चिमी
देशों की बाली थी और ऐतिहासिक दुनिया शौरसेनी प्राकृत की परम्परा में थी। इसतिर ६
निदान इसे शौरसेनी और
परिचमी अगलंय कहते हैं।
हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंशा की व्याकरलस चूकने के बाद अन्त में
और सेनीनत्' लिखकर इस ता की और संकेत दिया है। जाहिर है कि
यह याश्चिमी भारत की बोली थी, किन्तू सही से १० शताब्दी
तक समूचे उत्तर भारत की साहित्विक भाषा होने का गौरव प्राप्त था। इसका काल ५० ई.
से १०००ई तक माना।आता है। निस्सयत
कहा (चन वाल), २७म चरित (स्वयंभू), महापुराण (पुष्पदंत) आदि अपभ्रंश की प्रमुख रचनाएं हैं।
विशेमनाएं
१. अपभ्रंश की लिपि-शैली
(वर्तनी) में सर्वत्र शकरूपता नही है। असे - तृतीया और सप्तमी के नाम और बहुमान के
लिए विभक्ति -चिल नही मिलता और की हि'। इसी तरह वही सकवचन और
बहुननन में भी कही हैं'
है और कही ।
२. इ और य का विपर्यय तथा प्रायः ब को व एवं न को ण के रूप में लिखा जाता है
३. स्वर
लस्व - अ, इ , उ ,ए , ओं
दीर्घ - आ, ई, ऊ, ए, ओ और ऋ
अपभ्रंश की अनुलेखन पद्धति (orthography) पूर्णतया प्राकृत स्नं संस्कृत की अनुगामिनी रही। ए और ओं (ह्रस्व) जैसी नवीन ध्वनियों के लिए नवीन चिन्ह नहीं बनाए गए। उत्तर भारत में इनकी
जगह, इ, उ का प्रयोग
होता रहा।
४. क ख ग घ / च छ ज झ /ट ठ ड ढ ण / त थ द ध न / प फ ब भ म । य र ल व श (केवल पूर्ती अपभ्रंश), स, ह / अर्थात ङ ण एवं ष ध्वनियाँ अपभ्रंश में नहीं मिलती हैं।
५. स्तर - परिवर्तन
सम्बन्धी विशेषताए
अपभ्रंश में संस्कृत
शब्दों में आदि अक्षर के स्वर की कोई
हानि नहीं हुई है क्योंकि स्वराघात प्रायः आदि अक्षर पर पड़ता है।
जैसे, (सं.) माणिक्य > (अप०) माणिकक ; (सं.) घोटक, - (अप.) घोडम ; (प्रा.) छाहा > (अप.) छाआ।
६. प्राकृत की तरह ही अन्य स्वर का या तो लोप हो गया है या ने हर्स्वीकृत हो गए हैं। जैसे, क्षेत्रित, खेत्री, पुस्तक, - पोथा ( अन्त्य स्वर अ का लोप), प्रिया> पिअ, संध्या >संझ (अनंत्य स्वर ह्र्स्वीकृत)
७. इ, उ, अ, आदि स्वर अनुनासिक हो जाते हैं। जैसे वक्र >बैंक पक्षिन - पंखि
८. कभी- कभी अनुनासिकता
क्षतिपूर्ति के लिए आती है । जैसे स्वयम> सइँ।
९ (I) उपधा स्वर को अपभ्रंश में सुरक्षित रखने की प्रकृति है। जैसे, गोरचन > गोरोएण, अंधकार >अंधयार।
(ii) कहीं - कहीं उपधा स्वर में मात्रा मेद हो गया है। अ, बह्मचर्य > बम्मचार, गभीर > गुहिर।
व्यंजन
परिवर्तन
१०. प्राकृत के द्वित्व व्यंजन
में से ही एक का लोप तथा
लुप्त व्यंजन के पूर्व के ह्रस्व स्वर के दीर्थ होने की प्रवृत्ति अपभ्रंश काल में
प्रचलित हो गई थी। जैसे,
(सं.) तस्य > प्रा. तस्स> अप. तासु / कर्म > कम्प > कामु/स्य कस्सु >
का है।
११. स्वरमध्यम म् का व हो गया है तथा इसके साथ
का संलग्न स्वर अनुनासिक हो गया है। यथा : कमल > कंवल/ कुमार> कुँवार
१२
अपभ्रंश के शब्दों में बहुधा अंतिम व्यंजन लुप्त हो
जाते हैं। यदि कहीं वे लुप्त नहीं हुए तो अ उनके साथ जुड़कर
उन्हें स्वरांत बना देता है। यथा : मनस् > मला , जगत् > जग , आयुष > आउस ।
१३. ड. द ६ न र के बदले ल देखा जाता है। जैसे प्रहीन > पलित, नवनीत> लोण, दरिद> दलिट्ट, तड़ाग > तलाउ ।
१४. प्राकृत की तरह ही
अपभ्रंश में रलयोर भेदः, उलयोरवेद :, अल्प प्राणी – करण, महाप्राणीकरण, घोषीकरण, अघोषीकरण, समीकरण आदि नियमों , का बघावत् पालन हुआ है।
१५. व्यंजनों के कुछ प्रचलित परिवर्तन
ण >न्ह, ण्ह – कृष्ण, कान्ह
व
> ब - बचन > बअण
क्ष> क्ख, च्छ = पक्षी > पक्खी, पच्छी
य
> ज = युगल > जुगल
न > ण = निनिड > निनड
श
> स = पश्यति > प्रस्सदि, शय्या >सेज्जा
शब्दरूप और धातुरूप में परिर्तन
१६ अपभ्रंश में शब्दरूप और
धातुरूप बहुत ही कम हो गए है। गौर, जिससे उन्हे रटने से जान बची।
१७. वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि एवं प्राकृत सन्यौगात्मक, भाषाएँ थी। प्राकृत में निचोगात्मकता के लक्षण
दिखाई पड़ने लगे थे. किन्तु अपभ्रंश में आकर ये नक्षा प्रमुख हो गए।
१८. कारक, विभक्तियों के हास की जो प्रवृत्ति पालि से प्रारम्भ हुई थी
वह अपभ्रंश में उत्तरोत्तर बड़ती गाई। अपभ्रंश में केवल तीन कारक - समूह हैं जो विभक्तियों के एकीकरण की प्रवृत्ति के प्रमाण हैं। यथा – कर्ता - कर्म - सम्बोधन (ii) करण - अधिकरण (iii ) सम्प्रदान -
सम्बन्ध - अपादान । संस्कृत में कारकों के लिए एक शब्द के २१ रूप. प्राकृत में १२ स्नं अपभ्रंश में ६ रूप रह जाये गए।
१९. नपुंसक लिंग लुप्त हो
गया। स्त्रीलिंग के रूप भी बहुत कम रह गए अर्थात पुल्लिंग रूप की प्रधानता हो
गई।
२०. सम्प्रदान के रूप घिसकर सहज हो गए अर्थात सम्प्रदान के रूप अपभ्रंश में नहीं मिलते वाक्य में शब्दों का स्थान भी निश्चित हो गया।
२१ पूर्वकालिक क्रिया इ, इऊ , इति, अवि , एप्पि, एप्पिणु , एनि के योग से बनने लगी। जैसे जंडिव, लेवि, लेप्पीणु ।
२२. अपभ्रंश में भाषा निकासा प्रवृत्ति के कारण संयुक्त
क्रियाएँ विकसित हुई।
२३. आत्मनेपद एवं परस्मैपद का भेद मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा प्रारम्भकाल
से ही समाप्त होने लगा था। अपभ्रंश तक आते – आते वह लुप्त हो गया। गणभेदो की जटिलता भी अपभ्रंश काल तक समाप्त हो गई।
२४. कारकों के लिए परसर्ग
- प्रयोग की बहुलता आई। क्रियापदों में - तिङन्त
रूपों की जगह कृदन्त रूपों का प्रयौग बढ़ गया।
२५. द्विवचन लुप्त हो गया। इसके प्रकट करने के लिए संख्यावाचक विशेषण 'दो' का प्रयोग किया जाने लगा।
यया - दुई धनु
अवहट्ठ
अवहट्ठ अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच संक्रान्ति काल की भाषा है। आचार्य हेमचन्द्र ने जब अपभ्रंश का व्याकरण लिखा। उस समय अपभ्रंश साहित्यिक भाषा थी । बोलचाल की भाषा साहित्यिक भाषा से छिटककर
भिन्न भिन्न क्षेत्रीच बोलियों का स्वरूप ग्रहण करने लगी थी। हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन' में ‘ग्राम्य – अपभ्रश' का उल्लेख किया है। जाहिर है कि यह ग्राम्य – अपभ्रंश परिनिष्ठित अपभ्रंष से विकसित आम बोलचाल की भाषा थी। हेमचन्द के देशी नाम माला' में भी ऐसे अनेक देशी
शब्दों का संग्रह है, ओ प्राकृत ही नहीं, बल्कि, अपभ्रंश साहित्य में भी अप्रयुक्त
हैं। स्पष्ट है कि इन शब्दों का
प्रयोग आम बोलचाल मे ही होता रहा होगा।
डॉ. बाबू राम सक्सेना ने कीर्तिलता की भूमिका
में 'देसिल बअना ---- -- अव्हट्ठा' को आम बोलचाल की भाषा
मानते हुए अवहट्ठ और देशी को एक माना है।
१००० ई. को मोटे तौर पर
अपभ्रंश का अवसान काल और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का आरम्भ काल माना जाता है, किन्तु 'संदेश वाहक', 'कीर्तिलता' एवं 'वर्ण रत्नाकर' के रचना - काल को ध्यान में रखकर अव्हट्ठ का काल १४
शताब्दी तक माना जा सकता है। साहित्यिक अवहट्ठ का मूल रूप कदाचित परिनिष्ठित पश्चिभी अपभ्रंश था। यो साहित्मिक दृष्टि से इसके पूर्व और
पश्चिमी दो ही रूप हैं। किन्त आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के मूल में अवहट्ठ का कोई-न-कोई एक क्षेत्रीय रूप अवश्य रहा होगा । अवहट्ठ साहित्य की प्रमुख रचनाएं हैं – संदेशरासक : अदृहमाण, १२वीं शताब्दी; वर्ण रत्नाकर : ज्योतिरीश्वर ठाकुर १४वीं शती उत्तरार्ध : कीर्तिलता: विद्यापति, १४वीं शती उत्तरार्ध; ज्ञानेश्वरी : संत ज्ञानेश्वर, उक्ति – व्यक्ति प्रकरण :
दामोदर पंडित, 12वीं शती उत्तरार्द्ध।
विशेषताएं
१. अपभ्रंश की सभी ध्वनियाँ अवहट्ठ में पाई जाती है। इसके
साथ ही ऐ, औ-दो नई ध्वनियों का उदय हुआ। पुराने अहु
का विकास ऐ (भुजपति > भुनवइ> भुववे) में तथा अडु का विकास औ (चतुः हाटक, >चौहट>चौहट्ट) में हुआ। ह्रस्व ऐ, ओं का प्रयोग कम हो गया। व्यंजन वे ही थे जो अपभ्रश में थे। अंतर केवल यह था कि संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग बढ़ने पर श ध्वनि प्रचलन में आने लगी।
२. अवहट्ठ (परवर्ती अपभ्रश) तदभव शब्दों के ध्वनि – परिवर्तन में उतनी सक्रिय नहीं रही. जितनी अपभ्रंश के स्थिर एवं संश्लिष्ट पदो को और भी विशिष्ट करने में । अवहट्ठ में जो आधुनिक भाषाओ के बीच मिलते हैं, वे बहुत कुछ इसी रूप- निर्माण के क्षेत्र में
३. अवहट्ठ में लगभग सभी कारकों में धड़ल्ले के साथ निर्विभाक्तिक पदों का प्रभोग होने लगा। हेमचन्द्र के समय यह
प्रवृत्ति इतनी प्रबल न थी। उन्होंने प्रथमा, द्वितीया और षष्टी – केवल तीन विभक्तियों
लोप
का निर्देश किया था, लेकिन 'संदेशशासक' तथा 'प्राकृत पैगलम' तक आते - आते ऐसे निर्विभाक्तिक पदों की लड़ी लग गई।
4॰ विभक्ति लोप के साथ ही परसरगों का प्रयोग अधिक होने लगा। प्रेमचन्द - व्याकरण में जहाँ केहि , रेसि, तनेण, होन्ताओ, केरअ, केर मज्झि आदि गिने चुने परिसर्ग मिलते हैं, वहाँ संदेशशासक में एक साथ सहितीयिक, सम सरिसु, हुँतउ, द्विठयउ, रेस, लग्नि, तनि, माहि आदि विविध परसर्ग दिखाई पड़ने लगे। अवहट्ठ में सम्बन्ध कारक में परसरगों का प्रयोग सर्वाधिक हुआ। जैसे केर, केरअ, कर आदि ।
५. श्री हरिवल्लभ भायाणी का सुझाव है कि '
संदेशशंसक' में संजीवनर और अल्हावयर आदि शब्दों का - घर (कर) प्रत्तय हिन्दी में लुटेरा, चितेरा आदि शब्दों के –एरा प्रत्यय की जननी है।
६ पूर्वकालिक क्रिया के लि२ साहित्यिक अपभ्रंश में जहाँ - इनि –अवि, -विइ आदि प्रत्यय आते थे, वहाँ अवहट्ठ में संयुक्त पूर्वकालिक, रूपों का प्रचलन हो गया ; जैसे - दहेवि करि (जला कर)। आगे चलकर हिन्दी में ऐसे ही दुहरे पूर्वकालिक रूपों (जा कर, खा कर) का प्रचलन रूढ़ होने लगा।
७ सर्वनाम के रूप भी घिसकर अपभ्रंश की अपेक्षा आधुनिक बोलियों के अधिक नजदीक आ गए, विशेषतः कीर्तिलता में ; जैसे मोर, तोता मोके, तोके, मोहिं ताहि आदि । अन्यपुरूष के लिए
अपभ्रंश में जहाँ से, ते आदि का प्रचलन था , पूर्वी अवहट्ठ में धड़ल्ले से ओई >अदस वाले रूप चल पड़े। ऐह, जेह, केह जैसे सर्वनाम भी प्रचलित हो रहे थे।
८. सामान्य वर्तमान काल के विडन्त के रूप स्वर संकोचन
अथवा संधि का द्वारा आधुनिक हो गए; जैसे करइ (अ +इ ) > करे, उपजइ > उपजै
९
कीर्तिलता में सहायक
क्रिया –आद्धि? धड़> धडल के रूप में प्राप्त होने लगी थी। इनसे संयुक्त क्रिया के रूप मनने लगे थे। जैसे – होइते अछ।
भूतकाल बनाने का कृदन्त प्रतत्य ‘अल' जो भोजपुरी, मगही मैथिली और बंगला की अपनी विशेषता है, वह अवहट्ठ काल में प्रचलित हो गया था। जैसे - भूमर पुष्पाद्देशे चलल । काहु सम्बल देल
अवहट्ठ काल में परसगों की प्रयोग बहुलता, सहायक क्रियाओं एवं
संयुक्त पूर्वकालिक क्रियाओ के प्रचलन से यह स्पष्ट है कि हिन्दी की वियोगात्मकता (विषलिसतात्मक्ता) के बीज अवहट्ठ काल में ही अंकुरित में गए। हिन्दी में
अधिकांश परसर्गों के मूल आधार अवहट्ठ में ही हैं। इसके अतिरिक्त क्रमशः अवधी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली की तीन अवस्थाओं से गुजरने पर एक ही परसर्ग काफी घिसकर परिमार्जित में गाया। सहु से से कहु से को ', मंह से में, केरअ से का’ आदि क्रमश: परिमार्जन के प्रमाण हैं। हिन्दी कर्म – सम्प्रदान में सर्वनाम के जो इन्हें, उन्हैं रूप मिलते हैं, वे इनही और उनही के ही रूपान्तर है। उनकी हिं विभक्ति घिसकर अई से ऐ हो गई है।
अवहट्ठ में रुक तरफ संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ा - दूसरी तरफ अरबी, फारसी एवं तुर्की शब्द आगत हुए।
प्रारम्भिक हिन्दी
प्रारंभिक हिन्दी से मतलब है: अपभ्रंश एवं अवहट्ठ के बाद और खड़ीबोली के साथ हिन्दी के मानक रुप के स्थिर एवं प्रचलित होने से पूर्व की अवस्था। प्रारंभिक हिन्दी का फलक कई दृष्टियों से व्यापक और विविधता मूलक
है। शुरू में हिन्दी भाषा - समुच्चय के लिए प्रयुक्त होती थी। १३वी-१४वीं शती में देशी भाषा को 'हिन्दी' या ‘हिन्दवी' नाम देने में अबुल हसन अमीर खुसरू ( १२५३ - १३२५ ई.) का नाम
उल्लेखनीय है: हिन्दवी बुद अस्त दर मायामे
कुहन' (हिन्दी भाषा का अस्तित्त
प्राचीन काल में था और आज भी है)। १५वी- १६वीं शती में देशी भाषा के समर्थन में जायसी कथन है : तुर्की, अरबी, हिन्दवी भाषा जेती आहि, जामे मारग प्रेम का सबै सराहै ताहि। जहाँ दृष्टव है कि
जायसी की कविता की भाषा 'अवधी' है और खुसरु भाषा देहलवी। इससे जाहिर होता है कि उन दिनों दिल्ली के आसपास से लेकर अवध तक के प्रीत की देशी भाषा का हिन्दी या 'हिन्दवी' नाम से अभिहित किया जाता
था। दक्खिनी हिन्दी के लेखकों ने अपनी भाषा को हिन्दी, या हिन्दवी कहा है। इनसे अलग भारतीय परंपरा से सम्बन्धित कवि संस्कृत आदि प्राचीन भाषाओं की तुलना में देशी
भाषा के लिए केवल 'भाषा' या 'भाखा’ का प्रयोग करते हैं।
यथा:
संस्कृत है कूप –जल भाषा बहता नीर - कबीर
का भाषा का संस्कृत प्रेम
चाहिए साँच' - तुलसी
प्रार्ंभिक हिन्दी एक समूह भाषा है जिसमें आज के हिन्दी प्रदेश की १८
बोलियाँ समाहित हैं। ये अपभ्रंश/ अवहट्ठ विभिन्न रूपों से निष्पन्न है।
चन्दूधर शर्मा गुलेरी कहते हैं: " पुरानी अपभ्रंश संस्कृत और प्राकृत से मिलती है और पिछली पुरानी हिन्दी से। शौरसेनी ही अपभ्रंश की भूमि हुई एवं वही पुरानी हिन्दी की भी। अपभ्रंश कहाँ समाप्त
होती है और पुरानी हिन्दी कहाँ आरंभ होती है इसका निर्णय करना कठिन है। इन दो भाषाओं के समय और देश के विषय में कोई स्पष्ट रेखा नहीं खींची सकती " फिर भी प्रारंभिक हिन्दी का काल मुख्यत: १००० ई० से १८०० ई. तक माना जा सकता है। हिन्दी साहित्य का जो आदिकाल है, वह प्रारम्भिक हिन्दी का शैशव काल है। इस काल की हिन्दी में अपभ्रश के काफी रुप मिलते हैं। साथ ही
हिन्दी की विभिन्न बोलियों के रूप इस
काल में बहूत स्पष्ट नही हैं।
प्रारंभिक हिन्दी की
विशेषता (वयाकरणिक)
1 हिन्दी में प्रायः ध्वनियाँ वहीं हैं जो अपभ्रंश - अवहट्ठ में मिलती थी किन्तु प्रारंभिक हिन्दी में कुछ नई ध्वनियों का भी विकास हुआ । अपभ्रंश मे
संयुक्त स्वर नही थे । हिन्दी में
ऐ, ओ, आई, आऊ. इआ आदि
संयुक्त स्वर इस काल में प्रयुक्त होने लगे।
२. उत्क्षिप्त व्यंजन ड़ द हिन्दी की अपनी ध्वनियाँ हैं।
३. कुछ व्यंजनो के महाप्राण रूप विकसित हो गए। जैसे – म्ह, न्ह, ल्ह आदि।
४. अपभ्रंश तथा आदिकालीन हिन्दी के शव्द भंडार में विदेशी
शब्दों की दृष्टि से अंतर मिलता है। अपभ्रंश में अरबी -फारसी- तुर्की शब्दों की संख्या सौ से अधिक नहीं थी, किंतु हिन्दी के इस कॉल में मूसलमानों के बस जाने एवं उनके शासन के कारण इन तीनों ही भाषाओ से पर्याप्त शब्द आ गए। विदेशी शब्द प्रायः पहले उच्चवर्ग में आते है, फिर मध्यम वर्ग में और तब निम्न वर्ग में।
५. ऋ हिन्दी में तत्सम शब्दों में ही लिखी जाती है, किन्तु इसका उच्चारण रि की तरह या गुजराती में रू की तरह होता है।
६. ऊष्म वर्ग ष लेखन में रहा किन्तु उच्चा२ण में यह श् की तरह ही उच्चरित होता है। य का ज में तथा न का ब में रूपान्तर दिखाई पड़ता है।
७.
विदेशी भाषाओं के प्रभाव से
क़, ख़ ग़ ज फ
ध्वनियाँ व्यवहृत होने लगी।
८. आदि स्वर लेप (अभ्यन्तर> भीतर), मध्यस्वर (चलना, कमरा) एवं अन्त्य स्वर
लोप (राम् , अन् , धर) की प्रवृत्ति प्राम्भिक हिन्दी में मिलती।
९. हिन्दी में अपभ्रंश के
द्वित्व की जगह केवल एक आरएच गया और पूर्ववर्ती स्वर
मे क्षतिपूरक दीर्घता आ गई। जैसे निःश्वास> निस्सास> निसासा
१०. प्रारंभिक हिन्दी में
संस्कृत, पालि एवं प्राकृत की तुलना में केवल दो ही लिंग रह गये। नपुंसक लिंग खत्म हो गया ।
११. बचन की संख्या भी मात्र दो रह गई – एकबचन और बहुबचन ।
१२. संस्कृत में कारक के २१ रूप थे, प्राकृत में १२ एवं अपभ्रंश में ६ रह गये। प्रारभिक हिन्दी में अधिकतम चार कारक रूप प्राप्त होते हैं। यह रूप द्योतन के लिए परसरगों का प्रयोग आवश्यक हो गया। आधुनिक हिन्दी में
तत्सम या तद्भव संज्ञापदों से संस्कृत की प्रथमा विभक्ति लुप्त हो गई है, किन्तु पुरानी हिन्दी में ‘उ' विभक्ति के रूप में यह वर्तमान है। यथा - (सं.) देश : > प्रा. देस > (प्रा0 हिन्दी) १३ . क्रियारूपों की जटिलता और लकारों की विविधरूपता
अपभ्रंश में ही कम हो गई थी। हिन्दी में आते - आते मुख्यतया चार लकार रह गये - सामान्य लट् ( वर्तमान काल), लड़. (सामान्य भूत), लृट (भविष्यत काल ) और लोट ।
१४. सहायक क्रिया एवं संयुक्त पूर्वकालिक क्रियाओ के रूप स्थिर हो गए थे।
१५. प्रारंभिक हिन्दी में
मानक हिन्दी की तरह पदक्रम निश्चित नहीं था।
जैसे – मनहिं विद्यापति, कहे कबीर सुनो भाई साधु, बंदों गुरूपद
पदुम परागा - तुलसी, लेकिन दक्खिनी हिन्दी की गध रचना में पदक्रम (संज्ञा - कर्म – क्रिया) निश्चित होता हुआ मिलता है।
१६. रचना की दृष्टि से संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि की भाषा योगात्मक थी। अयोग्यामकता अपभ्रंश से आरम्भ हुई और प्रारंभिक हिन्दी
बहुत हद तक अयोग्यात्मक हो गई।
अवहट्ठ और प्रारम्भिक
हिन्दी की बहुत ही क्षीण -सी -रेखा अलग
करती है। दो-तीन उदाहरणों से यह बात साफ हो जाएगी। संस्कृत ' उत्पद्यते' का प्राकृत रूप उप्पज्जई है एवं अपभ्रंश रूप उप्पजई । उप्पजई के अंतिम दो स्वरों के पास-पास होने के कारण स्वर संकोचन हुआ हैं, जिससे हिन्दी का उपजै रूप बना है। इस तरह के स्वर संकोचन की प्रवृत्ति अवहट्ठ में प्रारम्भ हो गई थी। अपभ्रंश में किज्जिय, कारिज्जिय आदि रूप मिलते है, इनसे कीजै (प्रा. हिन्दी), कीजिए (मानक हिदी) रूप निकले।
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