रेत उपन्यास में आदिवासी स्त्री संघर्ष: डॉ. विनोद कुमार बी.एम.

 

रेत उपन्यास में आदिवासी स्त्री संघर्ष

                                                   डॉ. विनोद कुमार बी.एम.

                                                                  सहायक प्राध्यापक

हिन्दी विभाग, आल्वास कॉलेज, मूडुबिदिरे

दक्षिण कन्नड़ कर्नाटक-574227

Vinodmadhav812@gmail.com

शोध सारांश-

            यह उपन्यास कंजर आदिवासी समाज की महिलाओं की त्रासदी का अनुठा नमुना है। उपन्यास की पृष्ठभूमि हरियाणा और राजस्थान का सीमावर्ती इलाका है। यही पर गाजुकी नदी के किनारे गाजुकी कंजरों की बस्ती है। इसी बस्ती में है कमला सदन इसी घर में खिलावड़ियों का राज है खिलावड़ी अर्थात धंधा करने वाली कुँवारी लड़कियाँ। इस समाज में खुली मान्यता है कुंवारी लड़कियों को वेश्यबृत्ति करने की। इस समाज का पुरूष कोई काम-धंधा नहीं करता है। इस आदिवासी समाज के उपर अपराधी होने का कलंक लगा हुआ है। कंजर बदनाम कौम के रूप में देखी जाती है। इस आदिवासी समाज का लाभ सब उठाना चाहते हैं लेकिन इनके साथ कोई सभ्य समाज का आदमी जुड़ाव रखना नहीं चाहता है।

बीज शब्द- समानता, अधिकार, शोषण, सभ्यता-संस्कृति, हाँशिए का समाज, राजनीतिक ताकत, मत्था ढकाई आदि।

मूल शोध-

      हिंदी का कथा साहित्य मानव जीवन के समस्त भंगिमाओं का अंकन करने लगा है। समय एवं परिस्थिति के हिसाब से हिंदी कथा साहित्य अपनी पृष्ठभूमि बदलते हुए चला आ रहा है। वर्तमान परिपेक्ष्य में दृष्टिपात करने से हमें यह ज्ञात हो जाता है कि कथा साहित्य के अंतर्गत जातीय जीवन पर आधारित उपन्यास धड़ल्ले से लिखे जा रहे हैं। जातीय जीवन पर भगवानदास मोरवाल का रेत उपन्यास अपने आप में एक नायाब उपन्यास है। इस उपन्यास के अंतर्गत भगवानदास मोरवाल ने राजस्थान एवं हरियाणा की सीमावर्ती इलाके में बसने वाली कंजर आदिवासी समाज के जीवन संघर्ष को केंद्रित किया है। इस संदर्भ में रेत विकिपिडिया पर वर्णन है कि हिन्दी कथा में अपनी अलग और देशज छवि बनाए और बचाए रखने वाले चर्चित लेखक भगवानदास मोरवाल के इस नये उपन्यास के केन्द्र में है- माना गुरू और माँ नलिन्या की संतान कंजर और उसका जीवन। कंजर यानी काननचर अर्थात जंगल में घूमने वाला। अपने लोक विश्वासों व लोकाचारों की धूरी पर अपनी अस्मिता और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती एक विमुक्त जनजाति।1 इस उपन्यास के अंतर्गत कंजर आदिवासी महिलाओं के संघर्ष को उजागर करने का सफल प्रयास किया है। कंजर आदिवासी समाज आजादी से पूर्व से ही हाँशिए का जीवन जीते हुए चला आ रहा है। यह समाज खुलकर वेश्यावृत्ति का धंधा करता है। यही इनके  रोजी रोजगार का साधन है, परंतु यह धंधा करना  इनके लिए कभी भी आसान नहीं रहा है। इस समाज की स्त्रियां सबसे ज्यादा त्रासदी का शिकार होती हैं। तात्कालिक प्रशासन इनके पुरुषों को छोटे-मोटे अपराधों में फंसा कर जेल में डाल देता है तथा उनकी रिहाई के बदले कंजर आदिवासी महिलाओं  के तन के साथ खिलवाड़ किया जाता है। सरकार ने इनके ऊपर पाबंदियां लगा रखी है। बिना नजदीकी थाना को सूचना दिए यह अपने गांव से बाहर नहीं जा सकते। रोज थाने में हाजिरी लगानी पड़ती है। इस पर चिढ़कर कंजर आदिवासी महिला कहती है कि "इसका मतलब है रजिस्ट्री का  टंटा अभी चलता रहेगा। अपने मर्दों को हवालात से छुड़वाने के लिए जमानत के नाम पे दरोगांओं के बगल में सोना पड़ेगा?"2

      आए दिन इस समाज की महिलाओं को नरक भोगना पड़ता है। यौन शोषण का शिकार कंजर आदिवासी महिलाएं होती हैं। इस नरक से मुक्ति पाने के लिए हर जगह गुहार लगाती हैं। लेकिन इनका जीवन और संघर्षी ही होता चला जाता है। इस इलाके में जो भी थानेदार आता है वह इनका भरपूर शोषण करता है। समाज में एक धारणा बनी हुई है कंजर मतलब अपराधी,धंधा करने वाला समाज इसी कारण इनके उपर अत्याचार और बढ जाता है। लेखक वर्णन करते हैं कि "धर्मपुर थाने में केहर सिंह थानेदार का नहीं, साक्षात यमराज के प्रतिरूप में तबादला होकर आया है। इतनी पाबंदी तो यह अंग्रेजी अफसर भी नहीं लगा रहे हैं, जिन्होंने कानून बनाया है।"3

      अपने ही देश में अपने ही लोगों के बीच यह कंजर आदिवासी समाज गुलामी भरा जीवन जीने के लिए मजबूर है। जितना शोषण एवं अत्याचार ब्रिटिश हुकूमत ने इन आदिवासी महिलाओं पर नहीं किया उससे ज्यादा शोषण भारतीय थानेदारों द्वारा किया जा रहा है। उपन्यास के फलक पर लेखक ने इन आदिवासी महिलाओं की त्रासदी इनके द्वारा ही उजागर करवाया है "कस्तूरी बुआ तो सुनते ही लावा सी फूट पड़ी "यह देसी फिरंगी हमें परेड के लिए नहीं, हमारी छातियां नापने के लिए बुला रहा है।"4

      कंजर आदिवासी समाज में महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय है। समाज में दो प्रकार की महिलाएं हैं एक बुआ जो धंधा करती है और दूसरी जिसको भाभी कहा जाता है ब्याह करके घर बसाती है। इस भाभी जैसी स्त्रियों की बोली लगती है। उसके रूप एवं सुंदरता के हिसाब से कीमत चुकता करके ब्याह कर लिया जाता है। यह महिला पूरे घर परिवार की चाकरी करती है। जो स्त्री खिलाड़ी या बुआ बन जाती है वह शादी नहीं कर सकती इस संदर्भ में उपन्यास की प्रमुख पात्र रुक्मणी नरेट वैद्यजी से कहती है कि "घर बसाना इतना आसान नहीं है  वैद्य जी। और जब घर ही बसाना था तो क्यों बनी खिलावड़ी? ब्याह रचा के अपने संतो भाभी की तरह पूरे घर की चाकरी ना कर रही होती?”5

      इस समाज का पुरूष कोई काम धंधा नहीं करता है। दिनभर दारू की नशा में धुत रहता है। घर परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी महिलाओं पर ही होती है। रूकमणी कंजर इस समाज की प्रगतिवादी सोच की महिला है। इनके समाज में धंधा करने से पहले मत्थ ढकाई की रस्म की जाती है। इस रस्म में संभ्रांत परिवार का कोई व्यक्ति मोटी रकम देकर व्याह जैसा संस्कार पूर्ण करता है।  मत्था ढकाई के बाद ही कुंवारी लड़ियां धंधा में उतर पाती है। उनको सामाजिक मान्यता मिल जाती है। मत्था ढकाई करने वाला पुरुष अपनी खिलाड़ी के पास जब चाहे बिना पैसे दिए रात बिता सकता है। उस व्यक्ति का जमाई की तरह मान किया जाता है। इस प्रथा का विरोध करते हुए रुकमणी कंजर कहती है कि "वैद्यजी रुकमणी नहीं पड़ती इस झमेले में। अपना तो साफ कहना है कि ग्राहक को ग्राहक ही समझना चाहिए। मैं नहीं पालती इस दामाद-जमाई का टंटा। जिसे शौक है पाले। अरे यह क्या बात हुई कि एक बार मत्था ढकाई क्या करें, उम्र भर उसकी गुलाम हो गई। ………………  और वैद्यजी, अगर मत्था ढकाई की उसने रकम दी है तो बदले में मैंने भी उसे अपनी आबरू हवाले की है। किसी ने किसी पर एहसान नहीं किया।"6

      वैसे तो सभ्य समाज के लोग आए दिन अपनी हवस बुझाने के लिए इनकी बस्तियों में पड़े रहते हैं लेकिन अपने घर के आस-पास कंजर आदिवासी महिलाओं को भटकने देना नहीं चाहते हैं। कंजर आदिवासी समाज में मान प्रतिष्ठा पाने के लिए लालायित रहता है। पैसे रुपए के बल पर सभ्य समाज की बस्तियों के आसपास जब यह बसना चाहता है तब सभ्य समाज इनको मुख्यधारा से जुड़ने से रोकता है। इनका कहना है कि कंजर सभ्य समाज की बस्तियों के पास रहेंगे तो उनकी बहन बेटियों पर बुरा असर पड़ेगा। कंजर आदिवासी समाज गाजूकी नामक बस्ती में अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ते हुए जीवन यापन करता है। गाजूकी तिराहे पर सभ्य समाज की बस्तियां हैं वहीं कंजर आदिवासी समाज जमीन खरीद कर घर बना कर दुकान- दौरी डालकर जीवन बिताना चाहता है इसपर एतराज जताते हुए सभ्य समाज के लोग पुलिस बुला लेते हैं। तब कंजर आदिवासी समाज की मुखिया कमला कहती है कि "असल बात वो नहीं है दरोगा जी कुछ और है…. सुनोगे? Xxxxxxx

असल बात यह है दरोगा जी की तिवारे पर आते हुए इन्हें लगता है डर, कि कहीं इनकी बहू बेटियां, जिन पर बुरा असर पड़ने की दुहाई दे रहे हैं, देख ना ले। किसी दिन वह इन्हें रंगे हाथ पकड़ ना ले।"7

      रुकमणी कंजर का उठना बैठना बड़े लोगों के बीच में है। इसकी दोस्त है सावित्री मल्होत्रा जो राजनीतिक पार्टियों से जुड़ी हुई है। रुकमणी को एक गुरु मंत्र देती है कि अपने रूप और सौंदर्य के बल पर बड़ी से बड़ी ताकत हासिल की जा सकती है स्वयं अपने पति और बच्चों को ठोड़कर मुरली नामक व्यक्ति की रखैल है। जो काम कंजर अपनी आर्थिक जरूरत के लिए करते हैं वही काम सावित्री बाई अपने को समाज में ऊँचा दिखाने के लिए करती है। यह भी कंजर समाज से उतनी ही नफरत करती है लेकिन कंजर समाज के पास वोट बैलेंस है। इसके लालच में कंजर समाज की सबसे ताकरवर एवं सुंदर हुस्न वाली महिला रूक्मिणी से जुड़ाव रखती है। वह रूक्मिणी को समझाते हुआ कहती है कि "हमारी सबसे बड़ी अमानत हमारी यह देंह ही तो है। सोच! हमारे पास यह नहीं होती, तो क्या है हमारे पास? अपनी देह की तू खुद मुख्तार है इससे आगे मैं क्या कर सकती हूं। "

"पर भाई जी इसी देह से तो मैं पीछा छुड़ाना चाहती हूं।"8

      रुक्मिणी को अवसर मिलते ही अपने रूप एवं सौंदर्य के बल पर  भगवा राष्ट्रीय पार्टी में जगह बनाते देर नहीं लगती है। यहीं से इसके जिंदगी में एक नया दौर शुरू होता है। रुक्मिणी कंजर ना केवल अपना जीवन सुधारती है बल्कि अपने समाज की महिलाओं का भी जीवन सुधारने में सफल होती है "जिला जनजाति महिला प्रकोष्ठ की प्रमुख बनते ही रुक्मणी ने गाजुकी की काया पलट दी। जिन रास्तों से गुजरते हुए मुंह पर डाटा लगाना पड़ता था, इसमें ईटों के खड़ंजे बिछवा दिए गए।"9

      राजनीत की बागडोर हाथ आते ही रुक्मिणी कंजर अपने क्षेत्र की ना केवल विधायक बनती है बल्कि उप मंत्री भी बना दी जाती है। राज्यपाल के साथ खड़ी होकर रुक्मिणी कंजर अपने पद की शपथ लेती है "मैं रुकमणी कंजर, सत्य निष्ठा से प्रतिज्ञा करती हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगी तथा भारत की प्रभुता और अखंडता और अछुण्ण रखूंगी। मैं रुक्मिणी राज्य के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धा पूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूंगी तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगी।"10

      यह पद प्रतिष्ठा मान सम्मान उसे बड़े ही संघर्ष करके प्राप्त होते हैं। वह जिस वेश्यावृत्ति से अपने समाज को मुक्ति दिलाना चाहती है इसके लिए उसे कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। अपने रूप एवं सौंदर्य के बल पर ही वह पार्टी में टिकट का हकदार बन पाती है। वह अपनी इस सफलता को अपने मित्र वैद्यजी से कहती है कि "वैद्यजी अब जाकर पता चला है कि ताकत चाहे दौलत की हो या रूप और देह की वह कितनी बड़ी होती है। अगर इसमें से एक भी आपके पास है तो समझो आप से बड़ा ताकतवर कोई नहीं है….. और अगर सारी है तो कहना ही क्या….. मेरे पास आज तीनों है।”11

      इस प्रकार भगवानदास मोरवाल इस उपन्यास की रचना करके समाज में कंजर आदिवासी समाज के जीवन संघर्ष से अवगत तो कराया ही है साथ ही साथ इस आदिवासी समाज के मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त किया है। कंजर आदिवासी समाज के तमाम रीति रिवाज एवं सभ्यता संस्कृति को लेखक ने बड़े ही अन्वेषण पूर्वक उपन्यास फलक पर उतारते हुए चले गए हैं। इस उपन्यास की कथा ब्रिटिश काल से आरंभ होकर आधुनिक भारत तक आती है जिसमें कंजर आदिवासी महिलाएं निरंतर संघर्ष करते हुए चली आ रही हैं। शिक्षा एवं संविधान की ताकत आज इन महिलाओं को इनके वेश्यावृत्ति जैसे नारकीय धंधे से मुक्ति दिलाने का काम किया है।

संदर्भ ग्रंथसूची

1.https://hi.m.wikipedia.org

2. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 41

3. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 52

4. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 52

5. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 97

6. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 33

7. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 147

8. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 199

9. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 211

10. भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 316 

11 भगवानदास मोरवाल रेत उपन्यास पृष्ठ संख्या 323 

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