जनसंचार माध्यम और हिंदी: हिंदी सिनेमा के विशेष संदर्भ में : कौशल्या वरदराजन
जनसंचार माध्यम और हिंदी: हिंदी सिनेमा के विशेष संदर्भ में
कौशल्या वरदराजन
Koushalyav
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प्रत्यक्ष संवाद के बजाय किसी तकनीकी या
यान्त्रिक माध्यम के द्वारा समाज के एक विशाल वर्ग से संवाद कायम करना जनसंचार कहलाता
है। जनसंचार के प्रमुख माध्यम हैं : अखबार, रेडियो, टीवी, इंटरनेट, सिनेमा आदि।संचार के माध्यम के रूप में हिन्दी का प्रयोग कोई नयी बात नहीं है, अभिव्यक्ति की क्षमता पाते ही, जन-कथा एवं पुराण कथा के रूप में हिन्दी जनसंचार का माध्यम बन गई थी। संचार माध्यम की भाषा के रुप में हिंदी ने जनभाषा का रूप धारण करके व्यापक जन स्वीकृति प्राप्त की है।और बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप ढलते हुए आज उसने यह मुकाम हासिल किया है ।
आज का युग सूचना तथा संचार क्रांति का युग है ।संचार माध्यमों के विकास के साथ हिंदी में भी आशातीत विकास हुआ है। आज हिंदीतर प्रदेशों में भी प्राय: हिंदी बोली और समझी जाती है ।ऐसा जनसंचार माध्यमों के कारण ही संभव हो पाया है अन्यथा हिन्दी को सुदृढ़ करने के प्रयास तो आज भी हिन्दी दिवस, हिन्दी समारोह, तक ही सीमित हैं। संचार माध्यमों के कारण हिंदी भाषा बड़ी तेज़ी से तत्समता से सरलीकरण की ओर जा रही है। इससे उसे अखिल भारतीय ही नहीं, वैश्विक स्वीकृति प्राप्त हो रही है।
भूमंडलीकरण
के
इस
दौर
में
जनसंचार
माध्यमों
ने
हिंदी
के
सामर्थ्य
में
वृद्धि
की
है
।संचार माध्यम की भाषा के रूप में प्रयुक्त होने पर हिंदी समस्त ज्ञान-विज्ञान और आधुनिक विषयों से सहज ही जुड़ गई है।राष्ट्रीय ही नहीं, विविध अंतर्राष्ट्रीय चैनलों में हिंदी आज सब प्रकार के आधुनिक संदर्भों को व्यक्त करने के अपने सामर्थ्य को विश्व के समक्ष प्रमाणित कर रही है। अत: कहा जा सकता है कि वैश्विक संदर्भ में हिंदी की वास्तविक शक्ति को उभारने में संचार माध्यमों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।यहाँ हिंदी की दशा और दिशा के निर्धारण में जनसंचार माध्यमों के अंतर्गत हिंदी सिनेमा की भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
फ़िल्म - माध्यम से हिंदी को वैश्विक स्तर पर सम्मान प्राप्त हो रहा है। आज अनेक फ़िल्मकार भारत ही नहीं यूरोप, अमेरिका और खाड़ी देशों के अपने दर्शकों को ध्यान में रखकर फिल्में बना रहे हैं और हिंदी सिनेमा ऑस्कर तक पहुँच रहा है। दुनिया की संस्कृतियों को निकट लाने के क्षेत्र में निश्चय ही इस संचार माध्यम का योगदान चमत्कार कर रहा है। इसमें संदेह नहीं कि सिनेमा ने हिंदी की लोकप्रियता भी बढ़ाई है और व्यावहारिकता भी।आज हिंदी को व्यापक लोकप्रियता और संप्रेषण के माध्यम रूप में जो आम स्वीकृति मिल रही है यह स्थिति उसे संवैधानिक प्रावधानों अथवा सरकारी दबावों से नहीं मिल पायी ।
इसका श्रेय निश्चित रूप से हिंदी सिनेमा को जाता है ।
फिल्मों ने हिंदीतर प्रदेशों में भी हिंदी को लोकप्रिय बनाया है ।
चाहे बरसों पहले बनी ‘पड़ोसन’ और ‘एक दूजे के लिए हो’ या हाल में प्रदर्शित ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ मनोरंजन और फिल्म की दुनिया ने इसे व्यापार और आर्थिक लाभ की भाषा के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है ।
अपने शैशव काल से ही सिनेमा हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार माध्यम बना ।
यद्यपि हिंदी सवाक् सिनेमा का उदय 1931 में आर्देशिर ईरानी की ‘आलम आरा’ से हुआ ।परंतु ‘राजा हरिश्चंद्र’ जो 1913 में बनी भारत की पहली फीचर फिल्म थी तथा जिसका निर्माण भारतीय सिनेमा के जनक माने जाने वाले दादा साहेब फाल्के द्वारा किया गया था के,सब-टायटल्स हिंदी में भी थे ।अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे कर चुका हिंदी सिनेमा तब से अब तक हिंदी के प्रचार में जुटा हुआ है ।
इस विकास यात्रा में जहाँ बहुभाषिक भारत में उसे भाषायी सौहार्द स्थापित करने का सेहरा बांधा गया,वहीं उस पर हिंदी को विकृत करने का दोषी भी बनाया गया किसी
ने इसमें अच्छाइयाँ खोजीं और किसी ने बुराइयाँ ढूंढी परंतु इसे नजर अंदाज करने का साहस कोई न कर सका ।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सिनेमा में ऐसा क्या है जिसने हिंदी भाषियों को तो रीझा ही, साथ ही साथ अन्य भाषा-भाषियों को भी न केवल अपनी ओर आकर्षित किया वरन् उनके लिए भाषा शिक्षक का काम भी किया । सिनेमा एक दृश्य-श्रव्य साधन है जो मौखिक भाषा का ही आलंबन ग्रहण नहीं करता बल्कि मौखिक भाषाओं के साथ दृश्य भाषा,पूरक के रूप में साथ-साथ चलती है । फिल्मों में दृश्य की ताकत मौखिक भाषा की बाधाओं को दूर कर उसे अधिक संप्रेषणीय बना देती है । दृश्यता के साथ-साथ प्रतीकों की प्रचुरता और प्राचीनता अर्थ संप्रेषणीयता को अधिक सरल बना देती है । उदाहरण के लिए दिये का जलना जहॉ शुभ का प्रतीक है वहीं दिये का बुझना अशुभ का संकेत है । दृश्य भाषा के विकास तथा प्रतीकात्मकता के सहारे हिंदी, हिंदी फिल्मों के माध्यम से उन जनसमूहों में समादृत और लोकप्रिय हुई जो हिंदी भाषा नहीं जानते । इसप्रकार कश्मीर से कन्याकुमारी तक की विभिन्न भाषाओं,बोलियों को अपने में समेटे हिंदी की धारा, हिंदी सिनेमा के माध्यम से प्रवाहित होती रही है । बिना किसी नारे,शोर-शराबे के हिंदी सिनेमा तमाम आलोचनाओं के बावजूद हिंदी को व्यापक फलक पर स्थापित कर रहा है । प्रसिद्ध गीतकार और लेखक जावेद अख्तर के शब्दों में-“इसमें कोई शक नहीं कि हिंदी को फैलाने में,उसे लोगों की अपनी भाषा बनाने में हिंदी फिल्मों का बहुत बड़ा हाथ रहा है । खास तौर पर युवा पीढ़ी हिंदी को हिंदी फिल्मों के ज़रिए ही जानती है । हमारे देश में ही क्यों विदेश में भी हिंदी प्रचार-प्रसार का श्रेय हिंदी फिल्मों को ही जाता है ।“
आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में हिंदी सिनेमा भौगोलिक सीमाएं लांघकर विश्व धरातल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है । इसके परिणामस्वरूप विगत दशकों में हिंदी सिनेमा में कुछ नवीन प्रवृत्तियाँ देखने में आयीं हैं । हिंदी सिनेमा में प्रवासी भारतीयों के जीवन पर केंद्रित कथानकों में वृद्धि हुई है ।प्रवासी भारतीयों के लिए बनाए जा रहे सिनेमा ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति तथा विदेशी संस्कृति के मध्य सेतु का काम तो किया ही है ,साथ ही साथ विदेशों में बसे भारतीयों की अगली पीढ़ी को हिंदी भाषा सिखाने का काम भी किया है ताकि वे अपने जड़ों से जु़ड़े रह सकें क्योंकि भाषा ही संस्कृति की वाहिनी होती है ।
हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ हिंदी सिनेमा ने हिंदी के समृद्ध साहित्य का परिचय विश्व से करवाया है । हिंदी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की कालजयी रचनाओं जैसे गबन,गोदान,सेवा सदन, शतरंज के खिलाड़ी,सद्गति पर फिल्में बनी हैं । इसी प्रकार धर्मवीर भारती,मोहन राकेश, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, कमलेश्वर आदि की रचनाओं को भी फिल्मों ने जनसामान्य तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है ।
हिंदी गीतों ने हिंदी की लोकप्रियता में वृद्धि की है । हिंदी फिल्मी गीत राजनीतिक सीमाओं, क्षेत्रीय मतभेदों से परे हर सामारोह में चाहे वह कोई सामाजिक उत्सव हो या राष्ट्रीय पर्व बजते हैं ।विदेशों में भी ये फिल्मी गीत उतने ही लोकप्रिय होते जा रहें हैं । चूकिं गीत और उसकी धुन आसानी से हमारी स्मृति का अंग बन जाते हैं इसलिए भाषायी प्रचार-प्रसार का सहज, दीर्घजीवी माध्यम बनते हैं । हिंदी फिल्मी गीतों में यह गुण विशेषतौर पर विद्यमान है।ये फिल्मी गीत गैर हिंदी भाषियों में हिंदी भाषा के प्रति कौतुहल जगाते हैं और इस भाषा को सीखने की प्रेरणा देते हैं ।
हिंदी भाषा को लोकप्रिय बनाने,उसकी व्याप्ति को बढ़ाने,हिंदी साहित्य को पुस्कालयों की कैद से मुक्त कर जन-जन तक पहुंचाने का कार्य करने के बावजूद संप्रेषण के इस सशक्त माध्यम को संदेह की दृष्टि से देखा जाना दुर्भाग्यपूर्ण है । हिंदी सिनेमा पर भाषा प्रदूषण का आरोप लगाया जाता है इस संबंध में यह कहा जा सकता है कि कोई भी भाषा बदलती परिस्थितियों के साथ अनुकूलन किए बिना निर्जीव हो जाती है और उसका प्रयुक्तिक्षेत्र क्षीण होता चला जाता है । समाज में नयी हलचलों को पहचानने और उनके अभिलेखन के लिए भाषा को अपना ताना-बाना बदलना पड़ता है । हिंदी भाषा भी इसका अपवाद नहीं है ।हिंदी फिल्मों ने उर्दू को हिंदी की प्रमुख सहायिका बनाया । पात्र और चरित्र के अनुरूप प्रांतीय भाषाओं ,बोलियों, बोलने के लहजों को अपनाया ।हिंग्लीश और मुबंइया भाषा को स्थान दिया । इस आधार पर हिंदी फिल्मों पर यह आरोप लगाना कि उसने भाषा को विकृत कर दिया अनुचित ही कहा जाएगा । बल्कि हिंदी फिल्मों ने हिंदी भाषा के सर्वथा नए रूप रंग और सॉचे-ढांचे को गढ़ा है ।
इसी प्रकार हिंदी सिनेमा पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि उसने साहित्यिक कृतियों के साथ न्याय नहीं किया । इस संबंध में यह समझना आवश्यक है कि सिनेमा एक स्वतंत्र विधा है । जिसकी अपनी विशेषताएँ और सीमाएँ हैं । फिल्मकार साहित्यिक कृति का सिनेमाई भाषा में पुन: सृजन करता है । इस प्रक्रिया में वह उसके मूल में थोड़ा परिवर्तन करता है । समीक्षक – आलोचक इसे मूल कृति के साथ खिलवाड़ मानते हैं परंतु सत्यजीत राय का मानना है कि “ऐसी फिल्म की कल्पना करना कठिन है जो अक्षरश: अपने साहित्यिक स्त्रोत के प्रति निष्ठावान हो।” अत: इस विधा को समझना अति आवश्यक है । सिनेमा अलमारी में बंद पड़े साहित्य को जन-जन तक पहुँचा कर उसकी सेवा कर रहा है अत: इन प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए ना कि आलोचना ।
सार रूप में कहा जा सकता है कि हिंदी भाषा और साहित्य के प्रसार में हिंदी सिनेमा ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है । आज आवश्यकता इस बात कि है कि फिल्म और साहित्य की जुगलबंदी जो हिंदी सिनेमा के प्रारंभिक काल से सत्तर के दशक तक बनी रही और हिट हुई तथा काल के प्रवाह में कहीं मंद हो गई उसे पुन: स्थापित किया जाए । नए फिल्मकारों को हिंदी साहित्य के प्रचुर भंडार से फिल्म निर्माण की संभावनाओं को टटोलना चाहिए जिससे वे हालीवुड के फूहड हिंदी संस्करण बनने से बच सकें । हिंदी फिल्मों में भी उन्हें भाषा का प्रयोग संवेदनशीलता और परिपक्वता से करना चाहिए । क्योंकि भाषा संस्कृति और जातीय सरोकारों से जुड़ी होती है । हास्य के लिए कभी-कभी फिल्मकार गैर-हिंदी भाषी पात्रों से उनकी प्रांतीय भाषा बोलने के लहजे में हिंदी बुलवाते हैं जो उस पूरे समाज का मजाक उड़ाती प्रतीत होती है । इससे उत्पन्न क्षोभ हिंदी भाषा के प्रति भी उनमें गुस्सा उत्पन्न कर सकता है । जो कि हिंदी के विकास में बाधक हो सकता है । मनोरंजन मर्यादा की हद तक होना चाहिए ।
हिंदी सिनेमा में हिंदी के प्रचार-प्रसार की अकूट संभावनाएँ हैं आवश्यकता इस सशक्त माध्यम का उचित उपयोग करने तथा वैश्विक स्तर पर हिंदी की नई और उन्नत दिशा तय करने की है ।
Bekar hai
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