स्वेच्छा
♥ *समर्पण का अर्थ है* ♥
स्वेच्छा से, अपनी मर्जी से, तुम पर कोई दबाव न था, कोई जोर न था, कोई कह नहीं रहा था, कोई तुम्हे किसी तरह से मजबूर नहीं कर रहा था, तुम्हारा प्रेम था, प्रेम में तुम झुके, तो समर्पण, प्रेम में ही समर्पण हो सकता है।
और जहाँ प्रेम है, अगर समर्पण न हो तो समझ लेना प्रेम नहीं है। आमतौर से लोग यह कोशिश करते हैं कि प्रेम के नाम पर समर्पण करवाते हैं। तुम्हें मुझसे प्रेम है, करो समर्पण! अगर प्रेम है तो समर्पण होगा ही, करवाने की जरूरत नहीं पडेगी।
बाप कहता है कि मैं तुम्हारा बाप हूँ तुम बेटे हो, मुझे प्रेम करते हो? तो करो समर्पण। पति कहता है पत्नी से कि सुनो, तुम मुझे प्रेम करती हो? तो करो समर्पण। प्रेम है तो समर्पण हो ही गया, करवाने की कोई जरूरत नहीं है। जो समर्पण करवाना पड़े, वह समर्पण ही नही अधिपत्य है। जो हो जाए सरलता से, जो हो जाए सहजता से! वही समर्पण है।
प्रेम तभी घटता है जब समर्पण घटे, प्रेम और समर्पण एक दूसरे के पूरक है। प्रेम के बिना कैसा समर्पण! और समर्पण न हो तो कैसा प्रेम.........😍
🌹 _*ओशो*_ 🌹
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