ओशो वचन
एक राजा एक रथ से गुजरता था—जंगल का रास्ता, शिकार से लौटता था। राह पर उसने एक गरीब आदमी को, एक भिखारी को एक बड़ी पोटली—बूढ़ा आदमी और बड़ा बोझ लिए हुए चलते देखा। उसे दया आ गयी। उसने रथ रुकवाया और कहा भिखारी को कि तू बैठ जा, कहां तुझे उतरना है हम उतार देंगे।
भिखारी बैठ तो गया, डरता, सकुचाता—रथ, राजा! अपनी आंखों पर भरोसा नहीं आता! कहीं छू न जाए राजा को! कहीं रथ पर ज्यादा बोझ न पड़ जाए! ऐसा संकुचित, घबड़ाया, बेचैन—सच में तो डरा हुआ बैठ गया, क्योंकि इनकार कैसे करे? मन तो यह था कि कह दूं कि नहीं—नहीं, मैं और रथ पर! मुझ जैसे गंदे आदमी को, चीथड़े जैसे कपड़े, इस रथ पर बैठाके, शोभा नहीं देती। लेकिन राजा की बात इनकार भी कैसे करो? बुरा न मान जाए, अपमान न हो जाए।
तो बैठ तो गया, बड़े डरे—डरे मन से, और पोटली सिर से न उतारी। राजा ने कहा—मेरे भाई! पोटली तेरे सिर पर भारी है इसीलिए तो तुझे मैंने रथ में बिठाया, तू पोटली सिर से नीचे क्यों नहीं उतारना? उसने कहा—आप भी क्या कहते हैं? मैं ही बैठा हूं यही क्या कम है, और पोटली का वजन भी रथ पर डालूं! मुझे बैठा लिया, यही कम सौभाग्य मेरा! नहीं—नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा; पोटली का वजन भी और रथ पर डालूं!
अब तुम रथ में बैठे हो, पोटली सिर पर रखे हो तो भी वजन रथ पर पड़ रहा है। उतार कर रख दोगे, तो भी वजन रथ पर पड़ रहा है।
इस भिखारी की दशा है अहंकारी की। वह नाहक ही बोझ ढोल रहा है। वह कह रहा है—मैं यह करूं, मैं यह करूं, मैं यह करके दिखाऊं, मैं वह करके दिखाऊं। करने वाला कोई और। तुम न करो तो भी वही होगा जो होना है। तुम करो तो भी वही होगा जो होना है। तुम नाहक ही पोटली सिर पर लिए बैठे हो। सब उसके हाथों में है। उसके हाथ सब तरफ फैले हुए हैं। इसीलिए तो हिंदुओं ने उसको हजार हाथों का बनाया है। दो हाथ का हो तो हमें संकोच होगा कि भई! पता नहीं किसी और के काम में उलझा हो अभी। हजार हाथ हैं उसके, अनंत हाथ हैं उसके। तुम जरा अपने को छोड़ो, तो उसका हाथ का सहारा सदा है। वही तुम्हें सम्हाले हैं।...(ओशो)
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