युद्ध और हम

तुमने पूछा था, तो कहती हूँ, हाँ मैं गई थी, कोलोन में जहाँ मेरे माता-पिता रहते थे..... वे तब भी जीवित थे.... लेकिन हमारा घर, वह कहीं नहीं था.... पडोस के सारे मकान लड़ाई में ढह गए थे..... और तब मुझे पहली बार पता चला कि जिन स्थानों हम रहते हैं, अगर वे न रहें.... तो उनमें रहनेवाले प्राणी, वह तुम्हारे माँ- बाप ही क्यों न हों.....बेगाने हो जाते हैं...जैसे उनकी पहचान भी ईंटों के मलबे में दब जाती हो...."

कैसे दीखते होंगे वे शहर, 
जिन्हें युद्ध के सनकी तानाशाहों ने 
अपने सनक में बर्बाद कर दिया 
कुछ बम- बारुद की गंध 
उजड़े मकान 
इन्सानियत के मलबे में 
कराहती मानवता 
और चारो ओर बिखरी  हुई होंगी 
निशानी -
कुछ बचपन की, कुछ यौवन की 
और हसरतों के धुएं में 
सुलगता हुआ शहर 
जहाँ कभी 
स्कूलों और अस्पतालों में 
जीवन सजता था। 

Comments

Popular posts from this blog

सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला": काव्यगत विशेषताएं

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व