काव्य दोष
काव्य में दोष की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन है। काव्य का दोष रहित होना आवश्य माना गया है। आचार्य मम्मट' ने काव्य की परिभाषा करते हुए 'तददोषो' पहले ही कहा है .काव्य-दोषों के सम्बन्ध में 'वामन' ने बहुत स्पष्ट कहा है कि जिन तत्वों से काव्य-सौन्दर्य की हानि होती है, उन्हें दोष समझना चाहिए। आचार्य 'मम्मट' के अनुसार जिससे मुख्य अर्थ अपकर्ष हो, उसे दोष कहते है। मुख्य अर्थ है- 'रस' .इसलिए जिससे रस का अपकर्ष हो,वही दोष है। हिन्दी में चिन्तामणि ,कुलपति मिश्र, सूरति मिश्र, श्रीपति, सोमनाथ, भिखारीक आदि आचार्यों ने काव्य-दोषों पर विचार किया है। इनमें अधिकांश का आधार 'मम्मट' का 'काव्य-प्रकाश' है। आचार्य मम्मट ने दोषों के मुख्य रूप से तीन भेद किये हैं -
1. शब्द दोष
2. अर्थ दोष
3. रस दोष
1. शब्द दोष - शब्द दोष के अंतर्गत शब्दांश ,शब्द और वाक्य तीनों की गणना की जाती है .
श्रुति- कटुत्व दोष :- जहाँ सुनने में कठोर लगने वाले शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाता है ,वहाँ श्रुति-कटुत्व दोष माना जाता है .
उदहारण -'पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता'
च्यूत संस्कृति दोष :- व्याकरण विरुद्ध प्रयागों में च्यूत संस्कृति दोष माना जाता है .
उदहारण -
पीछे मघवा मोहिं साप दई
अंगद रक्षा रघुपति कीन्हो .
न्यून पदत्व दोष - जहाँ अभीष्ट अर्थ के वाचक पद का प्रयोग न किया गया हो ,वहां न्यून पदत्व दोष होता है .
उदहारण -पानी पावक पवन प्रभु ज्यों असाधु त्यों साधु .
अधिक पदत्व दोष- जहाँ वाक्य में अनावश्यक अर्थ का सूचक पद प्रयुक्त होता है ,वहाँ अधिकपदत्व दोष माना जाता है .
उदहारण -
लपटी पुहुप पराग-पट,सनी स्वेद मकरंद .
आवनि नारि नवोढ लौं ,सुखद वायु गति मंद .
क्लिष्टत्व दोष- जहाँ ऐसे शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका अर्थ-बोध कठिनता से होता है ,वहाँ क्लिष्टत्व दोष होता है .
उदहारण -
अहि-रिपु-पति-प्रिय-सदन है मुख तेरो रमनीय .
उपुर्युक्त उदाहरण में कवि नायिका के मुख को कमल के समान रमणीय कहना चाहता है किन्तु कमल अर्थ तक हम बड़ी कठिनाई से पहुचाते हैं . अहि=सर्प ,उसका रिपु =गरुण ,गरुण के पति =विष्णु ,विष्णु की प्रिया= लक्ष्मी ,लक्ष्मी का सदन=कमल .इतने कष्ट साध्य यात्रा के बाद अर्थ की प्राप्ति होने के कारण यहाँक्लिष्टत्व दोष है .
पुनरुक्ति दोष
स्वशब्दवाचत्व दोष
दुष्क्रमत्व दोष -
पैसे दे दो, पाच नहीं तो दस ही दे दो
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