सहजता और सम्पूर्णता के संत: रैदास( डॉ.अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव)


भारतीय समाज में आध्यामिकता और भक्ति की चेतना का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है । भारतीय  समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग या समुदाय जिसमें आध्यात्म और भक्ति की चेतना देखने को ना मिलती हो । विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में प्रमुख और जीवन्त भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से दो अवधारणाओं का अस्तित्व निरंतर बना रहा है । एक भौतिकवादी है जो जड़ पदार्थ से सृष्टि की उत्पत्ति मानती है और दूसरी धारा यह मानती है कि ज्ञान या चेतना पहले पैदा हुआ । इसका मूल वेदों में देखने को मिलता है । हमारे देश की संस्कृति में आध्यात्मिकता का विशेष प्रभाव देखने को मिलता है । भारत में यह चेतना अनादि काल से समाज को पुनर्नावित करने की दिशा में प्रयास करती रही है । इसी पुनर्नवन की परम्परा में भारत के सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से समाज के जागरण में अपनी-अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है ।
भारतीय समाज की ऐसी संचरना है कि समाज के सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी मान्यताओं को जाना एवं माना है । हमारे यहाँ जितने मत-मतान्तर देखने को मिलते हैं , उतने शायद ही दुनिया के किसी भू-भाग पर देखने को मिलते हों । आध्यात्म और भक्ति के जितने वैविध्यपूर्ण रूप हमारे यहाँ देखने को मिलता है ,वह अपने आप में विलक्षण है, इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि हमने समाज को किसी एक बंधे- बंधाये सांचे में ढालने के बजाय सबको स्वाधीन रखा । भारतीय भक्ति परम्परा को लोक जीवन में प्रवाहित करने का श्रेय हमारे ऋषियों,मुनियों एवं संतों को दिया जाता है, वेदव्यास से लेकर आदि कवि बाल्मीकि और शंकराचार्य से लेकर रामानुजाचार्य तक सभी ने लोक जीवन में आध्यात्मिकता और भक्ति को जगाने का कार्य किया ।
रामानुजाचार्य ने दक्षिण भारत में भक्ति परम्परा को एक नए रूप में प्रस्तुत किया ,उन्हीं की शिष्य परम्परा में रामानन्द हुए । रामानन्द ने भक्ति का प्रचार –प्रसार उत्तर भारत में भी किया । स्वामी रामानन्द मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के महान सन्त थे। उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के प्रत्येक वर्ग तक पहुंचाया। वे पहले ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया। उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि – द्रविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद।  
यानि उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है। स्वामी जी ने बैरागी सम्प्रदाय की स्थापना की, जिसे रामानन्दी सम्प्रदाय के नाम से भी जाना जाता है।स्वामी रामानंद ने राम भक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया। साथ ही ग्रहस्तो में वर्णसंकरता ना फैले, इस हेतु विरक्त संन्यासी के लिए कठोर नियम भी बनाए ।  
उन्होंने अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सेन नाई, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास, सुरसरी, पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हें द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इन्हें अपने अपने जाति समाज में, और इनके क्षेत्र में भक्ति का प्रचार करने का दायित्व सौपा । इनमें कबीरदास और रैदास आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित किये। कालांतर में कबीर पंथ, रामानंदीय
सम्प्रदाय से अलग रास्ते पर चल पड़ा । रामानंदीय सम्प्रदाय सगुण उपासक है और विशिष्टाद्वेत सिद्धान्त को मानते है । कबीर और रैदास ने निर्गुण राम की उपासना की। इस तरह कहें तो स्वामी रामानंद ऐसे महान संत थे जिसकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते थे। जब समाज में चारो ओर आपसी कटूता और वैमनस्य का भाव भरा ङुआ था, वैसे समय में स्वामी रामानंद ने भक्ति करने वालों के लिए नारा दिया- जात-पात पूछे ना कोई-हरि को भजै सो हरि का होई ।
रामानन्द की शिष्य परम्परा में सगुण और निर्गुण दोनों काव्य धारा का विकास हुआ ,निर्गुण काव्य धारा के प्रमुख साधक के रूप में कबीर की ख्याति सर्वविदित है ,इसी परम्परा में रैदास या रैदास का भी नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है । रैदास भारतीय संस्कृति में व्याप्त उस पुरोहित वर्ग के वर्चस्व का प्रतिवाद करते हैं, जिसने अपने प्रपंची अनुष्ठानों के माध्यम से ईश्वर को 'अपने ईश्वर' में बदल दिया है। भूख, प्यास, गरीबी से अधिक रैदास को तत्कालीन समाज में वर्चस्व की इस सत्ता से टकराना पड़ा था। इसी कारण हम देखते हैं कि वे कई पदों में 'आरती' शब्द की आनुष्ठानिक मनोवृत्ति की तीखी आलोचना करते हैं और ईश्वर के समक्ष अपने पक्ष को विनम्रतापूर्वक रखते हैं। रैदास भारतीय संत परम्परा के ऐसे संत हैं जिन्होंने जाति व्यस्था से ग्रस्त समाज में नये प्रतिमान स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया ,रैदास का महत्व इस कारण और भी है कि इनकी भक्ति का विकास अपनी आजीविका चलते हुए किया है । रैदास के साहित्य  संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि – “रैदास के भजनों में अत्यंत शांत और निरीह भक्त ह्रदय का परिचय मिलता है। साधारणतः निर्गुण संतों में कुछ-न-कुछ सुरति निरति और इंगला, पिंगला का विचार आ ही जाता है। रैदास के कुछ भजनों में भी वे स्पष्ट आए हैं, परंतु रैदास की वाणियाँ इन उलझनदार बातों से मुक्त हैं। यद्यपि उनमें अद्वैत-वेदांतियों के परिचित उपमान तथा नाथों और निरंजनों के सहज, शून्य आदि शब्द भी आ जाते हैं, फिर भी उनमें किसी प्रकार की वक्रता या अटपटापन नहीं है और न ज्ञान के दिखाने का आडंबर ही है।”
सहजता रैदास के जीवन और साहित्य की विशिष्टता है । रैदास ऐसे संत साधक हैं जिन्हें लोक में विशेष मान्यता मिली है, इसी मान्यता के कारण रैदास के बारे में अनेक बातें प्रचलित हैं। हिन्दी भक्ति साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि समग्र भक्ति साहित्य का विकास ग्राम्य या लोक जीवन में हुआ है ,रैदास का भी साहित्य लोक जीवन में पल्लवित और पुष्पित हुआ । रैदास और कबीर दोनों एक ही गुरु के शिष्य थे और दोनों समाज के उपेक्षित वर्ग से आते थे , लेकिन दोनों के साहित्य के टोन में हमें पर्याप्त अंतर देखने को मिलाता है । इस रेखांकित करते हुए ममता झा ने अपनी पुस्तक संत रैदास रत्नावली में लिखा है कि – “जहाँ तक जीवन दर्शन का सवाल है, तो जब कोई व्यक्ति जनता के सवालों से टकराता है , तो वह जनता की आवश्यकताओं के दायरे में व्यस्था के कर्णधारों को तरह-तरह से संबोधित करता है । यह संबोधन रैदास में भी है और कबीर में भी । रैदास में ह्रदय पक्ष प्रवण है ,कबीर में बुद्दि पक्ष । रैदास विनम्र हैं, कबीर आक्रामक , रैदास ज्यादातर व्यक्ति को संबोधित करते हैं ,कबीर समाज को । रैदास व्यक्ति सत्ता के बदलने में समाज को बदलने की बात कहते हैं । आज के समय में रैदास जहाँ मनुष्य की सांस्कृतिक आकांक्षा को तृप्त करते है , कबीर उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को, रैदास जहाँ वंचितों के भीतर एक समग्र भावनात्मक एकता को लेकर चलते हैं ,कबीर वंचितों के भीतर अधिकार भावना को उत्प्रेरित करते हैं ।
कबीर और रैदास दोनों का मूड अलग-अलग है , कबीर के यहाँ व्यस्था से विद्रोह देखने को मिलता है , जबकि रैदास विरोध करते हुए अपने लिए एक नया मार्ग बनाते हैं। रैदास अपने समय में प्रचलित रुढियों के परिमार्जन की दिशा में विशेष प्रयास किया । भारतीय समाज व्यस्था में वर्ण व्यस्था और जाति व्यस्था को कोढ़ माना जाता रहा है ,और इसका अभिशाप समाज के चौथे वर्ण अर्थात ‘शूद्र’ को सहना पड़ा । प्रारम्भ में वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर नहीं ,वरन कर्म के आधार पर होता था, लेकिन मध्यकाल तक आते-आते जन्म के आधार पर रूढ़ हो गयी और समाज में छुआछूत- भेदभाव का प्रसार तेजी से हो रहा था । संत रैदास समाज के इसी वर्ग से आते थे , और इसी कारण इन्हें उस समय के उच्च वर्ग का उपहास और प्रतिरोध का शिकार होना पड़ा । इस कारण इन्होंने इन सड़ी-गली मान्यताओं का विरोध किया –
रैदास एक बूंद सौ ,सब ही भयो वित्थार ।
मूरिख हैं जो करत है वरन अवरन विचार ।।        
रैदास एक ही नूर ते जिमी उपज्यों संसार ।
ऊँच-नीच किहि बिध भये ,ब्राह्मण अरु चमार ।।
उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि ‘कोई व्यक्ति जन्म के कारण ऊँच-नीच नहीं हो सकता, क्योंकि संसार के सभी प्राणी एक ही मिट्टी (तत्व) से निर्मित है। इन सबका रचनाकार भी एक ही ब्रह्म है, अर्थात् सभी मानव का शरीर एक जैसा रक्त, हाड़ और मांस से बना है। सभी की उत्पत्ति भी एक ही बिन्दु से होती है। तो आपस में भेद कैसा? ब्राह्मण-अब्राह्मण व वर्ण-अवर्ण की बात कहाँ रह जाती है? इसमें जन्माधारित श्रेष्ठता का सवाल ही कहाँ उठता है? श्रेष्ठ व्यक्ति तो शुद्धाचारण, उत्तम विचार और उत्तम कर्मों से होता है। इसलिए जाति भेद और वर्ण भेद की यह व्यवस्था व्यवहारिक नहीं, बल्कि निंदनीय है।
वर्ण-व्यस्था के साथ-साथ उस समय समाज में धर्म को लेकर भी लोग के बीच विभाजन देखने को मिलता है , संत रैदास हिन्दू-मुसलमान दोनेां के बीच किसी भी प्रकार का कोई अन्तर नहीं मानते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः एक समान। सब में एक ही रंग का रक्त, एक प्रकार मास और अस्थियाँ हैं, फिर इस संसार में आकार व्यक्ति धर्म, जाति और वर्ण आदि के नाम पर आखिर क्यों बँट जाता है? संत रैदास ने बुनियादी सवाल पर अपना मत व्यक्त किया है –  
हिन्दू-तुरक नहीं कछु भेदा, सभ मँह एक रक्त और मांसा।
दोऊ एकह दूजा कोऊ नाँही, पेख्यो सोध रैदास।। 
रैदास तत्कालीन समाज में प्रचलित रुढियों को दूर करने की दिशा में विशेष प्रयास किया, धर्म और जाति के आधार पर बंटे हुए समाज को संगठित करने की दिशा में आपकी वाणियों का विशेष महत्व है । आपने धार्मिक पाखंडों का भी खंडन कर कर्म की प्रधानता पर बल दिया। संत रैदास एक निर्भीक विचारक थे और इनके विचारों का प्रभाव सदियों तक समाज पर रहा है और आज भी ये प्रासंगिक हैं, मन को मंदिर मानने वाले रैदास के निर्गुण स्वामी सबके मन में ही बसते हैं –
काबे अरु कैलास मंहि जिह के ढूँढ़ण जाँह ।
रैदास पिआरा राम तड बैठ रहा मन माह ।।
बाहर खोजत का फिरइ घट भीतर ही खोज ।  
रैदास उनमानि साधिकर देखहु पिआ कूँ ओज ॥
बन खोजड़ पिअ न मिलहिं बन मंह प्रीतम नाँह ।
रैदास पिअ है बसि रह्यों मानव प्रेमहिं माँह ॥
रैदास भारतीय परम्परा एक ऐसे संत विचारक के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने अपने दर्शन के माध्यम से समाज का न सिर्फ पथ-प्रदर्शन किया है, वरन बहुत ही सलीके से विरोध करने का भी सलीका भी सिखाया । अपने कर्म में लीन रहना और प्रभु का स्मरण करना रैदास के जीवन की अभिन्न दिनचर्या थी , कर्म करते हुए भी वह संसार में लिप्त नहीं हुए –  
रैदास सोइ साधु भलो जउ जग मंहि लिपत न होय ।
गोविंद सो राँचा रहइ अरु जानंहि नहि कोय।  
रैदास सोइ साधु भलो जउ रहइ सदा निरबैर ।
सुखदाई समता गहइ समनह माँगहि खैर ।
रैदास सोइ साधु भलो जउ अपन न जताय ।
सत्तवादी साँचा रहइ मन हरि चरनन मंह लाय ।
रैदास के अनुसार वह साधु उत्तम है, जो संसार में रहता हुआ भी संसार में लिप्त नहीं होता ,प्रभु के नाम में लीन रहता है और उस प्रभु के बिना और किसी को भी संसार में नहीं जनता । आगे वो साधु के सन्दर्भ में बात करते हुए कहते हैं साधु तो वही है ,जो द्वेषमुक्त रहता है और सबके लिए सुख और समानता का आकांक्षी हो । भारतीय संतों ने समाज को निरपेक्ष भाव से जीवन जीने का सन्देश दिया और उन संतों की बातें आज भी प्रासंगिक हैं । रैदास एक ऐसे संत हैं जिनके दर्शन में जीवन की व्यावहारिकता का प्रकाश देखने को मिलता है, रैदास ने समस्त बन्धनों की मुक्ति के लिए समाज एक दिशा दिया । कर्मकांडों से परे एक मानववादी दृष्टिकोण के लिए रैदास जाने जाते हैं । संत रैदास कर्मकाण्डों एवं वेद-शास्त्रों के सैद्धान्तिक ज्ञान से ऊपर उठकर व्यवहारिक बातों में विश्वास करते थे। बगैर श्रम के धन कमाने की इच्छा समाज में अंधविश्वास भी पैदा करती है। लोग नाना प्रकार के कर्मकाण्डों, अनुष्ठान, बलि तथा मनौती के माध्यम से धनी बनने के लिए नाना प्रकार के देवताओं को प्रसन्न करने में समय, ऊर्जा और धन नष्ट कर देते हैं। संत रैदास एक भ्रमणशील संत कवि थे, वे समाज के प्रत्येक वर्ग, धर्म, और जाति के लोगों में व्याप्त ऐसे मिथ्या-विश्वास से पूर्णतः अवगत थे तथा इससे उपजी सामाजिक असंतुलन के गम्भीरता को भी समझते थे इसलिए उन्होंने ‘श्रम को ईश्वर रूप’ जानकर इसकी साधना के लिए समाज को प्रेरित किया। उनका कहना था -
स्रम करि ईसर जानि कै, जउ पूजही दिन रैन।
रैदास निन्हहि संसार मंह, सदा मिल ही सुख चैन।।
जिह्वा से ओंकार भज, हथ्थन सो कर कार।
राम मिलही घर आई कर कह रैदास चमार।।
श्रम को साधना के रूप में स्वीकार करना मध्ययुगीन भक्ति साहित्य में अपने समग्र रूप में मौजूद है ।मनुष्य को मेनहत करके जीवन यापन करना चाहिए ,जो मनुष्य नेक कमाई करता है उसका मेहनत कभी भी निष्फल नहीं जाता । मेहनत करने वाला व्यक्ति कभी भी दूसरों के हितों का नुकसान नहीं करता है । भक्ति परम्परा में यह देखने को मिलता है कि लगभग सभी कवियों के काव्य में सामाजिक ऐक्य और सांस्कृति सामंजस्य पर विशेष बल दिया । सभी संत कवि विषमता मुक्त समाज के आकांक्षी हैं , रैदास की चेतना में प्राणी जगत के सभी जीवों के प्रति संवेदनशीलता का भाव देखने को मिलती थी । रैदास एक ऐसे सजग और चेतना संपन्न संत हैं ,जिन्होंने जाति ,धर्म,समाज में एकता को स्थापित करने के लिए सृजन किया और समाज को नया मार्ग दिखाया । रैदास के दर्शन में जीव-जगत के साम्य का भाव देखने को मिलता है , वे जीवों को भी भगवन का ही रूप मानते थे –
एकै माटी के सब भाँडे एकौ सिरजनहारा ।
रैदास व्यापै एकौ घट भीतर एकै घड़े कुम्हारा।
जैसे एक कुम्हार एक ही मिट्टी से अनेक तरह के बरतन तैयार करता है, ऐसे ही संसार के सब जीवों को एक ही मिट्टी से प्रभु ने पैदा किया है। सब जीवों को बनानेवाला एक ही प्रभु है, इसलिए संसार के सभी जीव एक समान हैं। जीवन जगत में समानता स्थापित कारणव की दिशा में रैदास के विचार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । रैदास इन अर्थों में और भी विशिष्ट हैं कि उन्होंने सिर्फ मनुष्यों की एकजुट करने की दिशा में प्रयास किया वरन जीवों को भगवान की रचना माना और उनमें भी प्रभु का निवास मानकर उनके प्रति संवेदना प्रकट किया । भारतीय भक्ति परम्परा की सबसे बड़ी विशेषता लगभग सभी भक्त कवियों ने अपने विचारों और काव्य के माध्यम से समस्त प्राणियों के प्रति संवेदना का भाव प्रकट करते हुए सभी जीवों में भगवान का होना स्वीकार किया । रैदास की वाणियों में समस्त पारिस्थितिक तंत्र के प्रति संवेदन देखने को मिलता है ।    
भाव एवं जीवन की सहजता के साथ-साथ रैदास के वाणियों में भी सहजता देखने को मिलती है ।गहन से गहनत्तर अनुभूति भी मुखर एवं रूप में प्रस्तुत कर देना आपकी विशेष उपलब्धि है ,आपकी भाषा- शैली की विशेषता को रेखांकित करते हुए ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ ने लिखा है कि – “अनाडाम्बर, सहज शैली और निरीह आत्म-समर्पण के क्षेत्र में रैदास के साथ कम संतों की तुलना की जा सकती है । यदि हार्दिक भावों की प्रेषणीयता काव्य का उत्तम गुण हो तो निस्संदेह रैदास के भजन इस गुण से समृद्ध हैं । सीधे-सादे पदों संत कवि ह्रदयभाव बड़ी सफाई से प्रकट हुए हैं ,और वे अनायास सह्रदय को प्रभावित करते हैं । उनका आत्म-निवेदन ,दैन्य-भाव और सहजभक्ति पाठक के हृदय में इसी श्रेणी के भाव संचारित करते हैं । इसी श्रेणी को काव्य में प्रेषणीयता का गुण कहते हैं।
उपरोक्त कथन से स्पष्ट है की रैदास के वाणियों की सहजता उनके समग्र व्यक्तित्व में देखने को मिलती है , रैदास की सहजता के कारण ही उन्हें उनके समय में बहुत सम्मान मिला । भाव ,भाषा, आचरण और जीवन की के कारण उनके सम्बन्ध में अनेक जनश्रुतियां भी प्रचलित हैं। मीराबाई का उनका शिष्य होने को उनके जीवन की बड़ी उपलब्धि के रूप में माना जाता है ,यहाँ तक की राणा सांगा के महल में जहाँ मीरा बाई कम मंदिर है ,वहां रैदास का भी मंदिर है और उसमें उसमें उनकी चरण पादुका भी रखी है । इस दृष्टि से रैदास की कितनी सहज स्वीकृति थी ‚इसका अंदाज लगाया जा सकता है ।
गुरु ग्रन्थ साहिब में भी रैदास की पवन वाणी के पद देखने को मिलते हैं ,उनकी वाणी कई रागों में उच्चरित हुई है ‚ जिससे यह प्रतीत होता है कि गुरु रैदास संगीत विद्या में भी पारंगत थे । लगभग भी संत कवियों की वाणियों में राग-रागिनियों का पुट देखने को मिलता है ‚रैदास एक सम्पूर्ण संत हैं । उनकी सम्पूर्णता उनके जीवन की सहजता में है । अपनी वाणियों की परिधि में आपने जीवन के विविध पक्षों को समाहित कर लिया है।

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