साम्राज्ञी का नैवेद्य दान:अज्ञेय

यह कविता जापानी लोक में प्रचलित एक कथा को आधार बना कर लिखी गयी है।बुद्ध हो जाना अपने आप में विशिष्ट है, बुद्ध से प्रेरित होकर इस कविता की जो भाव भूमि अज्ञेय ने तैयार की है वह अनुकरणीय है। ऐसी पूजा जिसमें फूल को क्षति पहुंचाए अपने प्रभु को अर्पित करने का भाव देखने को मिलता है रानी बुद्ध के मंदिर में खाली हाथ आती है और कहती है की हम उस कली को डाली से अलग ना कर सके, और उसे वहीं पर बिना क्षति पहुंचाए वहीं से आप को समर्पित करती हूँ। कविता की पंक्तियां इस प्रकार हैं

हे महाबुद्ध! 

मैं मंदिर में आई हूँ 

रीते हाथ : 

फूल मैं ला न सकी। 

औरों का संग्रह 

तेरे योग्य न होता। 

जो मुझे सुनाती 

जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत— 

खोलता रूप-जगत् के द्वार जहाँ 

तेरी करुणा 

बुनती रहती है 

भव के सपनों, क्षण के आनंदों के 

रह:सूत्र अविराम— 

उस भोली मुग्धा को 

कँपती 

डाली से विलगा न सकी। 

जो कली खिलेगी जहाँ, खिली, 

जो फूल जहाँ है, 

जो भी सुख 

जिस भी डाली पर 

हुआ पल्लवित, पुलकित, 

मैं उसे वहीं पर 

अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल, 

हे महाबुद्ध! 

अर्पित करती हूँ तुझे। 

वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का, 

वहीं-वहीं नैवेद्य चढ़ा 

अपने सुंदर आनंद-निमिष का,
(अज्ञेय)



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