लोक रंग के कुशल चितरे :रेणु

 हिन्दी साहित्य के इतिहास में अंचल की पहचान और अंचल के चित्र को अंकित करने की दृष्टि से रेणु का अपना विशिष्ट स्थान है । रेणु ने आंचलिक उपन्यासों के साथ साथ अपनी कहानियों के माध्यम से भी अंचल के चित्र को बखूबी कथा के फलक पर उभारने का कार्य किया है। रेणु की आंचालिकता को अब तक ज्यादातर उनके उपन्यास मैला आंचल से ही जोड़कर देखा और समझा गया है। मैला आंचल के साथ ही उनकी कहानियों में भी आंचल अपने समग्र विशेषता और विवशता के साथ मौजूद है । रसप्रिया, लाल पान की बेगम, ठेस, आदिम रात की महक , तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम, नैना जोगिनिया और ठुमरी कहानी संग्रह में रेणु ने आंचलिक जीवन को इस रूप में प्रस्तुत किया है कि कहानियों को पढ़ते हुए अंचल का चित्र ही हमारे समक्ष उभर आता है ।

रेणु के कथा साहित्य में लोक जीवन का व्यापक और यथार्थपरक रूप देखने को मिलता है। आज के समय में लोक जीवन से बहुत सी चीजें और परमपराएं लुप्त होती जा रहीं हैं,लेकिन यदि हमें इन लुप्त होती चीजों और परमपराओं को संजोना और समझना है तो रेणु की कहानियों से बेहतर परिचायक और कुछ नहीं हो सकता । रेणु मूलतः कथाकार हैं ,लेकिन अपनी कहानियों से वो हमारे सम्मुख चित्र और लोक की सोंधी महक के माध्यम से पूरा का पूरा फिल्म प्रस्तुत कर देते हैं । सहृदय पाठक/आस्वादक के लिए इनकी कहानियां सिनेमा से कम नहीं है। लोक रस और रंग के चित्रों को रेणु ने अपनी कहानियों में इस तरह संजोया है कि लोक जीवन अपने आप में हमारे समक्ष साकार हो उठता है।

रेणु ने बदलते हुए गांव को उसके बनते बिगड़ते मूल्यों को पूरी समग्रता और जटिलता में पूरी तन्मयता के साथ चित्रित किया है। ऐसी तन्मयी भावन योग्यता अन्यत्र नहीं दिखाई पड़ती । फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियों में पूर्णिया और मिथिला के ग्राम गीतों के छंद और ध्वनि जीवन्त तो हो उठते हैं । वह सारे पेड़ पौधा फूल जानते पहचानते हैं, उसकी खुशबू से परिचित हैं पंछियों के रंग और आवाज को भी अलगा कर रख देते हैं। 
लाल पान की बेगम कहानी रेणु की लोक रंग और रस से भरपूर चित्रात्मक कहानी है। जिसमें रेणु की कलम कूची बनकर हमारे समक्ष पूरा का पूरा दृश्य ही उपस्थित कर देती हैं। इस कहानी में कथाकार ने लोक मन की सहजता को बहुत ही यथार्थ रुप में हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है। बिरजू की माँ का चरित्र लोक जीवन की सहजता का प्रमाण है। 
कहानी का आरंभ होता है जब मखनी फुआ बिरजू की मां से पूछती है कि क्यों रे बिरजू की मां नाच देखने नहीं जाएगी क्या? 
बिरजू के बप्पा बैलगाड़ी लेने गए थे और आए नहीं थे इस कारण बिरजू की मां गुस्से में थी और वह ।बोलती है आगे ना पीछे पगहिया हो तब तो। यहां से कहानी का कलेवर होता है लोकमान की सहजता देखते तो वही तब बनती है जब बिरजू की मां नाच देखने जा रही होती है और अपने घर का जिम्मा उसी मखनी बुआ के भरोसे छोड़कर जाती है। लोक की यह विशेषता होती है कि उसके मन में कुछ नहीं होता है झगड़ा होने पर सब कुछ कह देना और फिर थोड़े ही देर में सहज भाव से एक दूसरे के साथ घुल मिलकर रहना। 

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