अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ


सन् 1932 में ब्रिटेन में माइकेल राबर्टस ने न्यू सिगनेचर्स नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया था। इसमें आडेन, एम्पसन, जान लेहमन, स्पेन्डर आदि की रचनांए संग्रहीत थीं। इन कवियों ने परम्परागत काव्य पद्धतियों को अधूरा समझकर नई दिशाओं की खोज की; पुराने के प्रति असन्तोष तथा नए के अन्वेषण में सभी संलग्न थे। अज्ञेय द्वारा प्रकाशित तार सप्तक 1943  की भूमिका में न्यू सिग्नेचर्स की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। 1947 में अज्ञेय द्वारा प्रकाशित ‘प्रतीक’ पत्र इस काव्यान्दोलन को पुष्ट करता है।https://youtu.be/u-AAd-8Ud1M
प्रयोगवाद शब्द का  प्रयोग सर्वप्रथम आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी ने अपने निबन्ध प्रयोगवादी रचनाएं में किया। इस निबन्ध में मुख्यतः तार सप्तक की समीक्षा की गई है, जिसमें उन्होने लिखा है कि पिछले कुछ समय से हिन्दी काव्य क्षेत्र में कुछ रचनाएं हो रही है, जिन्हें किसी सुलभ शब्द के अभाव में प्रयोगवादी रचना कहा जा सकता है। दूसरा सप्तक की भूमिका में अज्ञेय ने बाजपेयी का उत्तर देते हुए तार सप्तक की रचनाओं को प्रयोगवादी कहना स्वीकार नहीं किया है। प्रयोग का कोईवाद नहीं हैं। अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें कवितावादी कहना। दूसरा सप्तक भमिका पृ0-6 पर तार सप्तकीय कवियों के वक्तव्यों में प्रयोग शब्द बार-बार प्रयुक्त हुआ है इसलिए इस काव्यधन का नाम प्रयोगवाद चल पड़ा है।
दूसरा सप्तक 1951 और तीसरा सप्तक 1959  में प्रकाशित हुआ। इस समय तक नई कविता नाम भी सामने आया। प्रयोगवादी कविता और नई कविता के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर विवाद भी खडे़ हुए। कुछ लोगों ने यह कहा कि नई कविता प्रयोगवादी कविता का ही परिष्क््ृत रूप है, वस्तुतः तीन सप्तक एक ही काव्यान्दोलन के तीन सोपान हैं, नयी कविता प्रयोगवादी कविता का नया संस्कार है आदि। प्रयोगवादी कविता में निम्नलिखित विशेषताएं दृष्टिगत होती है।’’

1. सत्य का अन्वेषण
2. वैयक्तिकता - आत्मकेन्द्रित 
3. बौद्धिकता का आग्रह
4. व्यष्टि एवं समष्टि का द्वन्द
5. आस्था एवं जिजीविषा
6. भाषा का नया प्रयोग

अज्ञेय प्रयोगवाद के प्रवर्तक कवि हैं। उन्होनें परम्परा से चले आ रहे भाव और शिल्प से अलग नये काव्य रूप का निर्माण किया । प्रयोग और परिवतर््न की जो धारा निराला व अन्य छायावादी और प्रयोगवादी कवियों में देखने को मिलती है उसे अज्ञेय ने एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। 

कवि परिचयः- प्रयोगवाद के प्रर्वतक कवि सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सायन अज्ञेय का जन्म 7 मार्च 1911 ई0 को कसया ;कुशीनगरद्ध के पुरातत्व खुदाई शिविर में हुआ। इनके पिता श्री हीरानन्द शस्त्री प्रसिद्ध पुरातत्वविद् थे। पहले बारह बर्ष की शिक्षा पिता के देख रेख में घर पर ही सम्पन्न हुई। आगे की पढाई मद्रास और लाहौर में हुई। लाहौर के फारमन कालेज से बीए करने के पश्चात् सन् 1929 में आपने अंगे्रजी एम.ए. में प्रवेश लिया। इन दिनों त कवे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी के प्रमुख सदस्यों आजाद, भगवती, चरण बोहरा और सुखदेव से परिचित हो चुके थे और इनका क्रान्तिकारी आन्दोलन की ओर रूझान बढ़ता जा रहा था। नवम्बर सन् 1930 में बम बनाने के आरोप में इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में रहकर चिन्ता और शेखर एक जीवनी की रचना की । क्रमशः सन् 1936 में और 37 में सैनिक व विशाल भारत का सम्पादन किया। सन् 1943 से 1946 तक ब्रिटिश सेना में रहे। सन् 1947 से 1950 तक आल इण्डिया रेडियो में काम किया। सन् 1943 में तार सप्तक का प्रर्वतन और सम्पादन किया। प्रतीक 1947, दिनमान, नवभारत टाइम्स, वाक् एवरी मैन तथ पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन से पत्रकारिता के नये प्रतिमान रचे। 

इसके साथ साथ देश विदेश की अनेक यात्राएं आपने की, जिनसे इनके मन में भारतीय सभ्यता की सूक्ष्म पहचान और पकड़ गहरी हुई। विदेश में भारतीय साहित्य और संस्कृति का अध्यापन कार्य भी आपने किया। कई राष्ट्र्ीय और अन्तराष्ट्र्ीय सम्मानों से सम्मानित हुए- भारतीय ज्ञानपीठ, यूगोस्लाविया का अन्तर्राष्ट्र्ीय सम्मान गोल्डल रीघ आदि। सन् 1980 में वत्सल निधि की स्थापना की । इस संस्थान के माध्यम से साहित्यओर संस्कृति बोध के निर्माण में कई नये प्रयोग आपने किये। 4 अप्रैल 1987  के दिल्ली में हृदय गति रूक जाने से आपके निधन हो गया। 
अज्ञेय द्वारा रचित अनेक कृतियाॅं हैं जिनमें अठ्ठारह काव्य संग्रह, एक गीति नाटक, चार उपन्यास, दृह कहानी संग्रह, दो यात्रा संस्मरण और सात निबन्ध संग्रह प्रमुख हैं। ये कृतियां है- काव्य संग्रह - भग्नदूत 1933, चिन्ता 1942, इत्यलम् 1946, हरीघास पर क्षण भर 1949, बाबरा, अहेरी 1954 इन्द्रधनु रौंदे, हुए ये 1957, अरी ओ करूणा प्रभामय 1959, अॅंागन के पार द्वारा 1961, कितनी नावों मे कितनी बार 1967, क्योंकि में उसे जानता हूॅ 1969, इत्यादि। कहानियां एवं उपन्यास - विपथगा 1937, परम्परा 1944, शरणार्थी  1948, जयदोल 1951, अमर वल्लरी, ये तेरे प्रतिरूप 1969, शेखरः एक जीवनी ;दोभाग 1941, 1944द्ध, नदी के द्वीप 1952 अपने अपने अजनबी 1961।
अन्य कृतियां- अरे यायावर रहेगा याद 1953, एक बूॅंद सहसा उछली 1960, त्रिशंकु 1954, आत्मनेपद 1960, हिन्दी साहित्यः एक आधुनिक परिदृश्य 1967, लिखि कागद कोरे 1972, तार सप्तक 1943, दूसरा सप्तक 1951, तीसरा सप्तक 1959, चौथा सप्तक तथा अनेक सम्पादित एवं अनूरित ग्र्र्रन्थ।
छायावादोत्तर काल के कवियों के प्रमुख स्थान रखनेवाले अज्ञेय ने अपने बाल्यकाल में ही अंग्रेजी की लुक बन्दियां करके अपने जन्मजाति काव्य प्रतिभा का परिचय दे दिया था। उनकी हिन्दी की प्रथम कविता लाहौर का लेंज के पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उनकी इस कविता पर रवीन्द्र नाथ टैगोर का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। उनकी वास्तविक काव्य साधना का आरम्भ उनके कारावास काल से आरम्भ होता है।
अज्ञेय जब कविता के क्षेत्र में आये ता उस समय हिन्दी में छायावादी कविताका दौर चल रहा था। 1933 में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह भग्नदूत पर छायावाद का ्रपभाव स्पष्ट दृष्टिगत होता है। आगे चलकर अज्ञेय ने कविता के क्षेत्र में प्रयोक करने की आवष्यकता समझी। इसलिए समकालीन प्रयोकधर्मा कवियों को एक सूत्र में बांधकर तार सप्तक के रूप में प्रकाशित करने का और हिन्दी काव्य परम्परा को नया मोड़ देने का बीड़ा अज्ञेय ने उठाया। अज्ञेय की कविताों पर पश्चात्य कवि डी0एच0 लारेन्स और राबर्ट ब्राऊनिंग का प्रभाव है, ऐसा आलोचकों का मानना है।
काव्य के मूलतः दो पक्ष होेते हैं- कथ्य या भाव पक्ष तथा कथन की भंगिमा या कला  पक्ष। अज्ञेय के काव्य का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि उनका काव्य के इन दोनों पक्षों पर गहरी पकड़ है। अज्ञेय के साहित्य में कथ्य और कथ्य की भंगिमा दोनों नये रूप में दिखाई देते है। कहीं-कहीं छायावादी साहित्य के लक्षण भी अज्ञेय के काव्य में है।
भाव की दृष्टि से अज्ञेय की प्रथम विशेषता है कि उनकी अधिकांश कविताएं प्रणयानुभूति से अनुप्रेरित हैं। उनके प्रथम काव्य संकलन भग्नभूत में छायावादी प्रणय भावना ही केन्द्रीय है, जिसमें कवि ने अपनी रोमांटिक अनुभूतियों को मुखरित किया है। अज्ञेय के प्रथम संकलन भग्नभूत में प्रणय भवाश्रित कविताएॅं बड़ी संख्या में हैं। असीम प्रणय मी तृष्णा, कहो कैसे मन को समझा लूॅं, दृष्टिपथ से तुम जाते हो जब। विफले विश्वक्षेत्र में खोजा आदि कविताएं इसी प्रकार की है। इनमें से कुछ कविता की पंक्तियाॅं द्रष्टव्य है-

क्या है प्रेम। धनीभूता इच्छाओं की ज्वाला है
क्या है विरह प्रेम की बुझती राख भरा प्याला है।
तू जाने किस-किस जीवन के विच्छेदों की पीड़ा
नभ के कोने-कोने में आ बीज व्यथा का बो जा। 
बिफले विश्व क्षेत्र में खो जा।

(भग्नदूत)

विश्वदेव! यदि एक बार, 
या कर तेरी दया अपार 
हो उन्मत भूला संसार
मैं ही विकालित कम्पित होकर
नश्वरता की संज्ञा खोकर-
क्षणभर झंकृत हो विलीन हो - होता तुझ से एकाकार
पा कर तेरी दया अपार, हे विश्व नाथ! बस एक बार!

(भग्नदूत)


भावनुभूति की दृष्टि से अज्ञेय काव्य में व्यक्ति वादिता की प्रधानता है- उनकी कविता कर्मनिष्ठ है। व्यक्तित्व की स्वातन्त्रय पर जोर  देते हुए वे लिखते हैं- 

अच्छी कुण्ठा रहित इकाई 
साॅंचे ढाले समाज से 
अच्छा अपना ठाठ फकीरी 

मंगनी के सुख साज से । 

इसके साथ हि उनकी कविताओं में लोकहित या समष्टि हित की भावना भी व्यक्त हुई है। हरीघास पर क्षणभर की एक कविता में अज्ञेय ने व्यष्टि को समष्टि पर न्योछावर करने का भाव व्यक्त किया है- 
नही संकुचा हूॅ कभी समवाय को देने स्वयं का दान विश्वनज की अर्चना मे नहीं बाधक था कभी इस व्यष्टि का अभिमान।
थोथी नागरिक सभ्यता के सम्बन्ध मे तीखे व्यंग्य अज्ञेय के काव्य  की एक अन्य विशेषता है नागरिक  जीवन की करूणाहीनता, आत्मलीनता आदि दुर्वत्तियों के अज्ञेय कटु निदक हैं। दूसरों का अकारण अहित करने में आनन्दानुभव करने वालो के पति उनका यह व्यंग्य द्रष्टव्य है- 

सांप
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी  तुम्हें  नहीं आया
एक बात पूछूं -;उत्तर दोगेद्ध
तब कैसे सीख डसना
विष कहां पाया।


अज्ञेय ने दुःख को शोधक और मुक्तिदायक रूप दिया है। उनके विचार में दुःख उसी की आत्मा की शुद्धि करता है, जो उसे दूर करने की कोशिश करता है। अज्ञेय ने दुःख को गौरवान्वित करके उसे एक दर्शन का रूप दे दिया है। वह दार्शनिक सूत्र है-

दुःख सबको माँजता है,
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना, वह न जाने किन्तुः
जिनको माँजता है 
 उन्हें वह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।


अज्ञेय की कविताओं मे उनके अहं का स्वरूप भी अभिव्यक्त हुआ है। जिसे इन पक्तिंयों में देखा जा सकता है-

मै वह धनु हूँ
जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है
 स्खलित हुआ है बाण 
 यद्यपि  ध्वनि दिग्दिगन्त  में फूट पड़ी है।
मै वह धनु हॅूं। 

प्रयोगवादी कविता में बौद्धिकता उसका एक प्रमुख लक्षण है। यह बौद्धिकता आरोपित नहीं सामाजिक दबाव का सहज परिणाम है। इस बौद्धिकता के परिणम स्वरूप प्रयोगवादी कवि के प्रतीकों ओर उपमानों में पूर्ववती समस्त उपमानों का बहिष्कार दिखाई पड़ता है। पूर्ववती उपमानों को छोड़क वह अपनी प्रिया को बाजरे की कलगी से उपमित करते हुए कहता है कि-

अगर मैं तूमको
ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार न्हायी कुॅंई
 टटकी कली चम्पे की 
वैगरह तो 
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है,
या कि मेरा प्यार मैला है,
बल्कि केवल यही
ये उपमान मैले हो गये है
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच। 

(कलगी बाजरे की:हरीघास पर क्षणभर)


काव्य भाषा की दृष्टि से अज्ञेय की यह मान्यता है  िकवह बोलचाल की भाषा के निकट होनी चाहिए। कवि जब अपना सत्य दूसरे पर प्रकट करने चलता है तब अनिवार्यतः यह मानता है कि वह सत्य जितने अधिक व्यक्तियों पर प्रकट हो, उतना ही काव्य सफल है। इसीलिए कविता की भाषा के लिए बोलचाल की भाषा सर्वदा आदर्श के रूप में रहती है और रहनी चाहिए। अज्ञेय कविताओं में इस कथन का निर्वाह देखने को मिलता है।
विदेशी शब्दावली के स्त्रोत के भी अज्ञेय ने अपनाया है अंग्रेजी की अपेक्ष उर्दू के शब्दों का उनमें अधिक प्रयोग मिलता है। अंग्रेजी के शब्दों में रेल, पार्क,बैंच, मीटर थियेटर, स्टीमर आरि लोक प्रचलित शब्दों का प्रयोग दिखाई देता है तो उर्दू के शब्दों में -दीवाना, इलाज, गुमान, हक, जुदा, बाकी, सुरमेदानी, बदनाम, शहराती, शराब, तैनात आदि का।
अज्ञेय की काव्य भाषा में कहावतों ओर मुहावरो का भी अपेक्षित मात्रा में प्रयोग हुआ है- अॅेेंगूठा दिखाना, मुॅंह चुराना, आंखों से चूमना, खिलकर मिलना, आंचल बचाना, पल्ला छुड़ाना, फब्तियां कसना, दामन पक रखना, मुलम्मा छूटना आदि अनेक मुहावरों का प्रयोग अज्ञेय के काव्यों में देखने को मिलता है।
अज्ञेय के काव्य में बिम्व-योजना और प्रतीक योजना का भी अत्यंत सफलता से निर्वाह हुआ है। अज्ञेय का काव्य बिम्ब योजना की दृष्टि प्र्याप्त समृद्ध है, उसमें दृश्य, श्रव्य, स्पश्र्य आदि बिम्बों की सफल योजना दृष्टिगत होती है-

दृश्य बिम्ब - 

उड़ गई चिड़िया
    काॅपी, फिर
  थिर 
हो गयी पत्ती।   - चिड़िया की कहानी
(अरी ओ करूणा प्रभामय।)

श्रव्य बिम्ब-
श्रेतीले कगाज पर गिरना छप-छड़ाप।
झझा की फुफकार, तप्त,
पेडों का अरराकर, टूट टूटकर गिरना। 
ओले की कर्री चपत।
(असाध्य वीणा)
प्रतीकों के विषय में अज्ञेय ने यह अभिमत व्यक्त  किया है कि- प्रतीकों के देवता जन कूच कर जाते हैं, तब उन्हें भी नया संस्कार देने की आवश्यकता होती है। समर्थ कलाकार प्रतीकों को भांजता है। अपनी इसीी मान्यता के अनुरूप अज्ञेय ने अपनी प्रतीक योजना को नई अर्थवता प्रदान करते हुए हिन्दी काव्य भंडार को अपने भव्य प्रतीकों से समृद्ध किया है-

हम निहारते रूप, 
काॅच के पीछे हाॅफ रही मछली 
रूप तृषा की 

;और कांच के पीछे है जिजीविषा।

  (सोन मछली अरी हो करूण प्रभामय।)

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वण्र्य-विषय, काव्य भाषा, छन्द -विधान, बिम्व, प्रतीक योजना सभी क्षेत्रों  में अज्ञेय परम्परानुपालन के स्थान पर नवीनता के हिमायती एवं परिपोषक रहे हैं। अज्ञेय का कविरूप हिन्दी काव्य के क्षेत्र में एक प्रज्वलित दीप स्तम्भ के समान प्रतिष्ठित है। आज की हिन्दी कविता रस छन्द उपमान प्रतीक छन्द ओर भाषा के स्तर पर जो प्रगति कर रही है उसमें अज्ञेय का योगदान सर्वोपरि है, इस बात में कोई सन्देह नहीं है।

 नदी के द्वीप  कविता का मूल पाठ

नदी के द्वीप कविता विषय वस्तु एवं काव्यगत वैशिष्ट्य - प्रस्तुत कविता नदी के द्वीप अज्ञेय के हरी घास पर क्षणभर शीर्षक कविता संकलन से ली गई है। इस संकलन में अज्ञेय की 1949 के आस-पास लिखी गई कविताएं संकलित हैं। यह काव्य संग्रह अज्ञेय के काव्य जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव है।

हरीघास पर क्षण भर से अज्ञेय की नयी काव्य यात्रा आरम्भ होती है। इत्यलम्  इति $ अलम्  से ही स्पष्ट है कि अज्ञेय ने जो कुछ लिखा है उसकी अब वे इति चाहते हैं। उसके बाद से नयी शुरूआत उनके अन्तर्गुहावासी की बैचेनी सेआरम्भ होती है और कभी भी समाप्त नहीं होती। अन्तर्गुहावासी कविता उनकी चिन्ता और कवि कर्म की कुंजी है। कवि स्व-रति को पहचान करके भी अनपहचाना कर देता हैं अज्ञेय का व्यष्टि के गत अभिमान  भी इस संग्रह की कविताओं में अभिव्यक्त मिलता है।
नदी के द्वीप में भी व्यष्टि का अभिमान देखने को मिलता हैं। नदी के द्वीप में अज्ञेय यह स्वीकार करते है कि हम मनुष्य नदी के द्वीप हैं। अर्थात हम समाज के एक अंग है लेकिन हमारा एक अलग अस्तित्व भी है। हम यह नहीं कहते कि हमें छोड़कर नदी की धारा और किसी दिशा में बह जाए। क्योंकि हम यह जानते हैं कि हमें इस नदी ने ही रूपापित किया है । हमारी गोलाइयां, अंतरीय, उभार, हर कोण सब इस नदी ने ही गढ़े  है; अर्थात हमारे व्यक्तित्व के हर पहलू का निर्माण समाज के प्रवाह से ही होता है और समाज रूपी परिवेश से हम सभी प्रभावित होते हैं। इसलिए यह नदी समाज हमारी जन्मदात्री है, मां है।
यह स्वाभाविक है कि हम अपनी मा के प्रति प्यार और आदर का भाव रखते हैं। इसलिए हमेें द्वीप बनकर रहना ही पसन्द है; जन्मदात्री नदी की धारा के साथ रहते हुए भी हम अपने अलग अस्तित्व को खोना नहीं चाहते। इस व्यक्तिवादी भाव के बावजूद हम उस मां रूपी नदी के प्रति हरपल समर्पित होकर रहते हैं। 
क्वि ने इस कविता में जीवन सत्य से संबन्धित यह प्रश्न उठाया है कि यदि धारा बन सकते हैं? कवि भी यह मानता है कि नदी में अपने को विलीन करने से ;हमारे ढ़ह जाने सेद्ध नदीका निर्मल जल गदला हो जाएगा। अर्थात हम कभी भी अपने व्यक्तित्व को समाज में विलीन नहीं कर सकते। अपनी अलग पहचान बनाए रखने में ही समाज की भी भलाई है। इसे  अज्ञेय के जीवन का मूल दर्शन  कहा जा सकता है-

किन्तु हम है द्वीप 
हम धारा नहीं हैं
स्थिर समर्पण है हमार। हम सदा के द्वीप है स्रोतास्विनी में, 
किन्तू हम बहते नहीं हैं। क्योंकि अहना रेेत होना है, हम बहेंगे तो रहंेगे ही नहीं। 
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर 
फिर छनेंगे हम। जगेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।


समष्टि को धारा से घिरकर भी वह उससे अलग है, उससे मिलकर भी न मिलना उसकी नियति है।

-नदी के द्वीप कविता की भाषा में प्रयोग का पुट देखने को मिलता है। अज्ञेय काव्य क्षेत्र में भाषा की नवीनता और उसके सार्थक प्रयोग पर बल देते हैं। इस कविता में भी रेखा भाषा प्रयोग देखने को मिलता है। भाषा सहज सरल है और अपनी बनावट में गम्भीरता से पूरित है।
नदी के द्वीप कविता में कवि प्रतीको के माध्यम से अपने को तथा अपनी अस्मिता को परिभाषित करता है-

किन्तु हम है द्वीप 
हम धारा नहीं हैं
स्थिर  समर्पण है हमारा 
हम सदा के द्वीप है स्रोतास्विनी के
किन्तु हम बहते नहीं हैं
क्योंकि बना रेत होता है
हम बहेंगें तो रहेंगे ही नहीं।

महत्वपूर्ण रहना था होना है धारा में बहकर इतिहास प्रवार में घुलकर उसका अपना निजीपन नहीं रहेगा। उनकी कविता की अभिव्यक्तियां एक प्रकार की सुरक्षा कवच है। यहाॅं नदी समाज ओर द्वीप व्यक्ति का प्रतीक है।
इस कविता की भाषा में प्रयोगवादी कविता की भाषिक विशेषता है। प्रतीकों के माध्यम से अज्ञेय ने व्यष्टि और समष्टि के द्वन्द्व को प्रस्तुत किया है। इस कविता के भाषा की विशेषता की सहजता है।

शब्दार्थ

द्वीप- एक भूभाग जो नदी या समुद्र के पानी से घिरा होता है, 
स्रोतास्विनी- नदी
गढ़ना- निर्माण करना, बनाना
अंतरीय- भूमि का नुकीला भाग जो समुद्र में दूर तक चला गया हो, 
सैकल कूल- रेत का किनारा
सलिक- पानी, जल
क्रोड़- गोद, अंक
बृहद- बहुत बड़ा, विशाल
पितर- पूर्वज
भाजना - रगड़कर साफ करना, चमकाना
प्लावन- जल की तेजधार।

Comments

  1. Best but confusion haiding dismissed 😒

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  2. Agey ki visestaye pdf

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