मेरे अपने


 मेरे अपने

मेरे मालिक ! 

बस इतना ही

ख्वाहिश है मेरी

मेरा घर

मेरा शहर और

मेरे अपने मुझे

ताउम्र जानते

पहचानते और

मानते रहंे।

जब गैरों के

शहर और नगर से

वापस अपने

कस्बे में आता हूँ

तो हर वक्त

हर साख मेरे

अन्दर समा जाती है।

वो गलियाँ,

वो बाजार सब

जिन्दगी के उन

पलों की कहानी

सुनाते फिरते हैं

जिनमें हम

पले बढ़े।



चिरैया

मुझे सीखना है

अभी बहुत कुछ-

चिरैया से,

ताल-तलैया से,

उस माटी से

पानी-हवा से,

जंगल-जानवर से,

निःस्वार्थ

प्रेम करने

और दूसरों के लिए

जीने का ढंग

जो मुझे अब तक

आया ही नहीं।

ताउम्र पढ़ने और

लोगों के साथ रहकर भी।

अरे ओ! चिरैया

तू कैसे कर लेती है

बिना कुछ कहे।

कोशिश कर रहा हूँ।

उस भाव और

भाषा को

जानने और समझने की।

जो अभी हमसे

दूर

अभी बहुत दूर है।

उस जंगल में 

जीव में

अपनी पूरी जिन्दादिली

के साथ



जहर

अमृत पीकर कौन,

अमर हुआ।

शायद जमाने को

मालूम नहीं

मगर जहर पीकर

मीरा अमर हो गयीं

और 

शंकर भी

महादेव हो गये।




परिन्दें

घोंसले ही नियति

नही हैं परिन्दों की

आसमानों और

ऊंचाइयों की

दूरियां भी उनकी

मंजिल नहीं।

यायावरी और जोखिम

है हर पल उनके

जेहन में।

ना घर

ना शहर

और ना ही देश

की परिधि उन्हें

रोक सकेगी।

हमारी नियति है।

घर, नगर और देश।

आजाद नहीं हैं।

हम-परिन्दों

के मांनिद।



 

हिसाब

बहुत करीने से।

गढ़ा है हमने

खुद को

यूं ही बेबजह

जिन्दगी का

हिसाब न कर

बेहिसाब हूँ मैं

तू अपने

हिसाब में रह।

पुरानी बातें जो हैं।

उन्हें वैसा ही

रहने दे।

उन

मेल-मुलाकातों का

मोल-तोल ना

कर।

बेहिसाब हूँ मैं

तू हिसाब-किताब में रह।




फासला

चुप रहता हूँ,

जब भाव मन में

समाते नहीं।

रूक जाता हूँ,

जब पांव 

ठहरते नहीं।

हंस लेता हूँ

जब आंसू

रूकते नहीं।

गुनगुना लेता हूँ,

जब भीड़ में 

तन्हा होता हूँ।

खुश होता हूँ,

जब कोई विकार

मन में

होता नहीं।

चुप रहने दो।

अकेले ही

फासला खत्म

कर लूंगा। खुद से।






पतझड़

मुझे!

शिद्दत से याद है

वो पतझड़ो का मौसम

और हवाओं की बेरूखी

और

दरख्तों की बेबसी

जब बेपर्द हो गये।

शौके साख।

और हवाओं ने

डाले से बिछड़े

पत्तो को भी उड़ा

दिया था।

आज वही 

दरख्त और शाख

बेदर्द हवाओं 

का रूख बदल रहे  हैं।




आज फिर स्तब्ध

और निःशब्द हूँ

उस साज का

एक सघन एहसास

मेरे  अन्तर्मन में

समा गया हैं

जिससे तेरी धुन

हर पल झंकृत

होती थी।

आखिर ये

धुनें अक्सर

साज को छोड़

क्यूँ देतीं।

हर कम्पन

हर स्पन्दन

साज का ही होता

फिर भी

एक दीर्घ मौन

निःशब्द कर

गया।

अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

असिस्टेन्ट प्रोफेसर

अमिटी विश्वविद्यालय

उत्तरप्रदेश, लखनऊ परिसर


Comments

  1. बहुत खूब गुरुजी

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    Replies
    1. Bahut Accha Guruji Sasha Karti aapki aur BHI lekh milenge padhne ko 🙏🏻🙏🏻

      Delete
  2. Super amazing lines

    ReplyDelete

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