समकालीन कथा साहित्य में नारीवाद: एक दृष्टि( सुश्री सुप्रिया सिंह शोधार्थी- राँची विश्वविद्यालय, राँची)


समकालीन शब्द ‘सम’ उपसर्ग तथा ‘कालीन’ विशेषण के योग से बना है। सम उपसर्ग का प्रयोग प्रायः साथ-साथ के अर्थ मे होता है। ‘समकालीन’ का अर्थग्र्रहण किया जाता है ‘समय’ के साथ’। हिन्दी कथा साहित्य ने आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल आधुनिक काल से होकर समकालीन साहित्य तक अपना सफर तय किया। आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल में काव्य अपने चरम पर पहुँचा, लेकिन आधुनिक काल से लेकर समकालीन समय में गद्य विधा अपना परचम लहरा रही है।

समकालीन होने से तात्पर्य- अपने समय के महत्वपूर्ण समस्याओं उनसे उत्पन्न तनावों और चिंताओं को झेलते हुए उनके समस्या समाधान की ओर दृष्टि करते हुए, अपनी सर्जनात्मक क्षमता द्वारा अपने होने का एहसास समाज को दिलाना।

हिन्दी साहित्य में सन् 1960 ई0 के बाद के साहित्य को ‘समकालीन साहित्य’ कहा जाता है। आज केवल पुरूष ही नहीं महिला लेखिकाओं ने भी अपने साहित्य सृजन के माध्यम से समाज को नयी दृष्टि देने के लिए प्रतिबद्धता दिखाई है। 1960 के बाद महिला कथाकार बड़ी चतुराई से समाज की विषमताओं का मुँह तोड़ जवाब देने साहित्य में उतरी और समकालीन महिला लेखन परम्परा का सूत्रपात किया। पुरूष लेखकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली समकालीन लेखिकायें कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, शिवानी, मेहरून्निसा परवेज आदि हैं, जिन्होनें नारी जीवन और उनके संघर्ष का सृजन कर अमीट छाप छोड़ी।

साहित्य समाज का दर्पण है। अर्थात साहित्य का आधार समाज ही है। युग विशेष के अनुसार ही साहित्य में विशेष कला, शिल्प भी अपनाया जाता है। स्वतंत्र्योतरकालीन आधुनिक हिन्दी साहित्य के समकालीन साहित्यकार कृष्णा सोबती जी ने अपने कथा साहित्य में मध्यवर्ग के संस्कारों को बदलने का रचनात्मक प्रयास किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय समाज में बहुत से परिवर्तन आयें। शिक्षा का प्रचार प्रसार होने लगा, लोग रोजगार की तलाश में गाँव से शहर की ओर पलायन करने लगे। अब संयुक्त परिवार एकल परिवार में परिणत होने लगा। पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया। स्वतंत्रता के बाद अकाल, भूखमरी, गरीबी को झेलते हुए स्वतंत्रता की भावना लोगों में पनपी साथ ही लोगों में स्वार्थ की भावना ने भी जन्म लिया। स्वर्थपरता की भावना के कारण लोगों में नैतिक पतन होने लगा और साथ ही साथ समाज में स्त्री-पुरूष, पति-पत्नी और प्रेम सम्बन्धों में भी परिवर्तन आये। यही दृष्टि उनके साहित्य में भी परिलक्षित होती है। भोगा हुआ यथार्थ के संदर्भ में कृृष्णा सोबती जी का कथन है-

“लेखक को अपनी यात्राओं को कोरे आदर्शों के ढ़लानों और उँचाइयों में ही सम्पूर्ण नहीं करनी होती, उसका सफर ऐन जिन्दगी के बीचो-बीच होकर गुजरता है। उसकी मंजिल इंजन की जुर्रत और जीवन का लहू है जो निरंतर संघर्षाें में बहता है।”

समाज की जड़ परिवार है। आजकल परिवार का स्वरूप बहुत ही छोटा होता जा रहा है। संयुक्त परिवार का विघटन होता जा रहा है। संयुक्त परिवार का विघटन समकालीन रिश्ते की शिथिलता का कारण बन गया। आज नगरीकरण और औद्योगिकरण के कारण संयुक्त परिवार ही नहीं अणु परिवार का विघटन भी हो रहा। आज की युवा-पीढ़ी किसी के नियंत्रण में रहना नही चाहती। आज के संघर्षपूर्ण जीवन में मानव का लक्ष्य सामाजिक सम्बन्ध बढ़ाना नहीं सिर्फ वैयक्तिक सुख-सुविधाओं को पाना हैै। नये सुख-सुविधाओं की चाह में वे विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति को गड्ढ़े में डालकर आगे बढ़ाना आज के पीढ़ी की आदत बन चुकी है। ऐसी समस्याओं का पर्दाफाश आजकल के साहित्यकार कर रहे हैं। कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘दिलो-दानिश’ (1993) में स्त्रियाँ परम्परागत पारिवारिक संहिता को झेलती हुए कुंठाग्रस्त जीवन बिताती थीं। पुरूष अपनी प्रेमिका के बच्चों के बाप बन जाने पर स्थिति और भी नाजुक मोड़ पर आ जाती है, इस उपन्यास में अवैध संतान की समस्या को गहरी संवेदशीलता से साथ उकेरा गया है। कृष्णा जी के अन्य उपन्यास ‘समय-सरगम’ (2000) में वृ़द्ध व्यक्तियों की समस्याओं का चित्रण है।

वैश्विक स्तर पर पारिवारिक विघटन, उच्चवर्गीय जीवन के अंर्तविरोध, नकली जीवन, बाहर और भीतर की जिन्दगी का तनाव पति-पत्नी के टकराहट की वजह से टूटते बच्चे, भोग-विलास के पीछे अंधी दौड़ आदि का चित्रण समकालीन कथाकारों की विषय वस्तु रही है।

जीवन की जटिल अनुभुतियों और विविधतापूर्ण अनुभवों को व्यक्त करने में हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में कहानी और उपन्यास सक्षम सिद्ध हुए हैं। समकालीन महिला-लेखन की पहचान कथा-साहित्य के माध्यम से ही मिली है क्योंकि वर्तमान स्त्री-समस्याओं की जटिलतायें प्रकट करने में कथा साहित्य ही ज्यादा समर्थ है।

आधुनिक नारी बोध को प्रकट करने वाले नारी लेखन समसामयिक भारतीय समाज की ही उपज है, जिसकी प्रेरक पृष्ठभूमि पश्चिमी जीवन मूल्यों के प्रति आकर्षण, युवापीढ़ी की दिशा हीनता, स्वार्थपूर्ण राजनीती, भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था, जीवन में अर्थ की प्रधानता, शहरीकरण का दबाव मानवीय मूल्यों का क्षरण, निराशा, कुंठा, विषमता आदि से त्रस्त जनता आदि बहुआयामी वातावरण रहा है।

हिन्दी लेखिका मन्नू भंडारी जी ने अपनी औपन्यासिक कृतियों ‘एक इंच की मुस्कान’,‘आपका बंटी’,‘महाभोज’ मंे नारी के मानसिक व्यापारों के विविध आयामों, बाल मनोविज्ञान तथा आधुनिक नारीत्व आदि पर चर्चा की है। समकालीन महिला लेखिकाओं की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। नारी जागृति के इस युग में समाज में होने वाली सारी घटनाओं के प्रति सजग रहना अनिवार्य है। इसकें लिए सक्षम बनना महिला साहित्यकारों का लक्ष्य है। पहले स्त्रियाँ तन-मन से अपने पूरे परिवार की सेवा करती थी। अब स्त्रियाँ तन-मन-धन से घर-बाहर दोनों को सॅवारती हैं। फिर भी पुरूषवादी राजनीति उसे घर फोड़ने और दिल तोड़ने की ओछी राजनीति और वाग्विलास के रूप में प्रकट करते दिखाई देते हैं। इसलिए महिला लेखिकाओें ने महिलाओं के लिए नारी मुक्ति आंदोलन सन् 1960 ई0 के लगभग शुरू किया। और यह आंदोलन भारतीय नारी समाज पर परिवर्तन का तूफान लाया, क्योंकि भारतीय नारीवादी आंदोलन जो बहुत कुछ उदार था, उनका मत था कि शासन द्वारा कानून बनने पर स्त्रियों को पुरूषों के समान स्तर मिल जायेगा। शिक्षा, रोजगार, समान वेतन, मताधिकार आदि के साथ गृहणी और कामकाजी महिलाओं के जीवन में सामंजस्य लाने का प्रयास हुआ। भारत के अधिकांश लोग इस तरह के ही उदारवादी नारीवाद के पक्ष में सामने आये।

नरीवाद के कई रूप परिलक्षित होते हैं, उनमें उदारनारीवाद, वामपंथी नारीवाद, उग्रनारीवाद, आधुनिक नारीवाद आदि प्रमुख है।

उदारनारीवाद- शिक्षा, रोजगार, समान वेतन, मताधिकार आदि के साथ गृहणी और कामकाजी महिलाओं के जीवन में सामंजस्य लाने का अवसर प्रदान करना ही उदारवादी नारीवाद का लक्ष्य था।

उग्रनारीवाद- केट मिलेट, फायरस्टान  आदि उग्र नारीवादी लोग विवाह और परिवार को बाधा मानती है। उग्रनारीवादी पूर्णतः पुरूष विरोधी हैैं। वे मानती है कि बच्चों की जिम्मेदारियों का निर्वाह स्त्री और पुरूष दोनों को करना चाहिए।

वामपंथी नारीवाद- मार्क्स और एंगल्स के अनुसार पूँजीवाद की समाप्ति और वर्गहीन समाज की स्थापना होने पर नारी शोषण का अंत हो जायेगा।

उत्तर-आधुनिक नारीवाद- इसमे नारीवाद प्रमुख है, उसका कारण वह नारी शरीर और नारी चिंतन दोनों को मानती हैं और उसी से मुक्ति की अभिलाषा करती हैं।

समकालीन महिला लेखिका श्रीमति सूर्यबाला अपने उपन्यास ‘अग्निपंखी’ दीक्षांत आदि द्वारा नारीवाद का स्पष्टीकरण करती हैं। स्त्री को अपनी जिंदगी बिताने के लिए हर पल हर क्षण जागरूक रहना अनिवार्य है, न तो वह कांच के बर्तन की तरह टूट जाएंगी। हमेशा सजग और स्वावलम्बी रहने की प्रेरणा सूर्यबालाजी की रचनाओं में मिलती है।

उषा प्रियंवदा का पहला उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ में उन्होने सीमित आयवाले मध्यवर्गीय परिवार में एक पढ़ी लिखी, नौकरी-पेशा अधिक उम्र तक अविवाहित रह जाने वाली लड़की की क्या स्थिति होती है, उसे किस प्रकार के मानसिक तनावों और संघर्षों से गुजरना पड़ता है, इसका अंकन बहुत प्रभावशाली ढंग से किया है।

साहित्य जिसे कथा, कहानी, आलोचना, उपन्यास कविता इत्यादि मानवीय संवेदनाओं की वाहक कहा जाता है। समकालीन समय में कई तरह के विमर्शों की चर्चा और नारीवाद के सन्दर्भ में विभिन्न लेखन प्रस्तुत हो रहें हैं। क्योंकि स्त्री मुक्ति अकेले स्त्री मुक्ति का प्रश्न नहीं बल्कि पूरी मानवता की मुक्ति का प्रश्न है। इतिहास ने साबित भी किया कि आधी आबादी के शिरकत के बिना देश की उन्नति नहीं हो सकती है, नाहीं कोई क्रांति ही सफल हुई है।

समकालीन परिदृश्य में महिला कथाकारों की लम्बी फेहरिस्त है। जिन्होनें विभिन्न नारी सम्बन्धी मुद्दो को नये आयाम दिये। भारत की स्थिति पाश्चात्य संस्कृति से अलग है। लैंगिक भेद-भाव, यौन-उत्पीड़न, बालात्कार, दहेज-उत्पीड़न, वैधव्य, राजनीति में प्रतिनिधित्व का अभाव, उत्तराधिकार की समस्या, निरक्षरता, मृत्युदर की अधिकता आदि अनेक परम्परागत और आधुनिक जीवन की समस्याएँ है, जिनका शिकार होकर स्त्री जाति घुटन भरा जीवन व्यतीत करती है।

नासिरा शर्मा जी के कहानियाँ और उपन्यास में मुस्लिम नारी शोषण का सच्चा चित्र उपस्थित होता है। मुस्लिम समाज की नारियाँ अपने खिलाफ हो रहे शोषण के प्रति आवाज तो उठाना दूर, वह उसे पहचान भी नही पाती है। प्रभा खेतान के उपन्यस ‘छिन्नमस्ता’, ‘तालाबंदी’ और ‘पीली आँधी’, मृदुला गर्ग के ‘कठगुलाब’, गीतांजलि श्री के ‘हमारा शहर उस बरस’, राजी सेठ के ‘निष्कवच’, अल्का सरावगी के उपन्यास ‘कलि कथा-वाया बाईपास’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘इदन्नमम’, ‘अल्मा कबूतरी’, ‘चाक’, ‘झूलानट’ आदि में मुखरित स्वर नारीवाद का है।कृष्णा सोबती जी के पूर्व हिन्दी में किसी महिला कथाकार द्वारा स्त्री के स्वैसचार का इतने साफ ढ़ंग से और इतना मुँहफट चित्रण नहीं किया गया था। ‘मित्रों मरजाबी’ और ‘सूरज मुखी अंधेरे के’ इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। नारी लेखन को पढ़ने पर हमें नारी शोषण के विविध रूप समाज में दृष्टव होते है, जोे कुछ इस प्रकार है।

नारी शोषण के विविध रूप-

नारी शोषण परिवार में- जिंदगी में नारी को कई दायित्व निभाना पड़ता। कभी माँ की, पत्नी की बेटी की, बहन की, बहु की, बुआ की, नानी की आदि भूमिकाओं के रूप में होने पर भी दुःख की बात है कि अगर वे  अनपढ़ है तो परिवार और समाज में उनका शोषण अवश्य होता है। नारी का सबसे आदरणीय रूप माँ का है जिनका भी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक शोषण होता है। आज की पीढ़ी वृद्ध माता-पिता को बेकार की चीज समझने लगे हैं। ‘अपना-अपना आकाश’ कहानी में कैलाशो देवी नामक वृद्ध माँ तीन बेटे और बहुए होने पर भी उनकी जिंदगी फूटबाल की तरह एक घर से दूसरे घर में फेकते रहने जैसी हो गयी थी।

नारी-शोषण वैवाहिक जीवन में- इस पुरूषाधिपत्य समाज में पत्नी का स्थान सबसे निचले स्तर पर है। अपने वैवाहिक जीवन में भोगी हुई पीड़ा की सीमा ही नहीं है। पत्नी को पतिवत्रा होना चाहिए। पति-सेवा ही उसके जीवन का लक्ष्य है। पति के अलावा दूसरे आदमी का चेहरा देखना ही जुर्म है। लेकिन पति कितनी रखवालियों के साथ जी सकता, समाज को कोई शिकायत नहीं। कृष्णा सोबती जी की रचना ‘डार से बिछुड़ी’ की नायिका पाशो आजीवन शोषण का सामना करती है।

मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘आपका बंटी’ हिन्दी साहित्य में एक मील का पत्थर है। शकुन केे जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि व्यक्ति और माँ के इस द्वंद में वह न पूरी तरह व्यक्ति बनकर जी सकी ना माँ बनकर। हिन्दुस्तान के हजारों औरतो की यह त्रासदी है।

नासिरा शर्मा का ‘एक और शाल्मली’ जिसमें घर और बाहर अपने अधिकार माँगती आजादी के बाद की उभरती एक अलग किस्म की स्वतंत्रतचेता स्त्री है जो पति से संवाद चाहती हैं, बराबरी का दर्जा चाहती है, प्रेम की माँग करती है जो उसका हक है। इस पात्र का सृजन बेहद सूझबूझ से किया गया है। नासिरा जी के एक अन्य उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ जिसमें बचपन में बिना पैसे के लेनदेन के मंगनी हो जाती है और लड़का बड़ा होने पर शादी करने से मुकर जाता है। इस पर औरत टूटती नहीं, वह अपना एक घर बनाती है, एक वजूद हासिल करती है और मर्द के लौटने पर उसे दुबारा कुबूल नहीं करती।

सूर्यबाला का ‘यामिनी कथा’ उपन्यास नारी को दो रूपों माँ और पत्नी बनकर अपने कर्तव्यों को निभाने की त्रासदी है।

नारी शोषण नौकरी क्षेत्र में- आजकल नारी जिंदगी के कई क्षेत्र में अपना योगदान दे रही है। चाहे वो उच्च शिक्षित नारी हों या अल्प शिक्षित नारी। लेकिन उन्हें अपने काम के दौराप कई प्रकार के अत्याचारो और शोषण का सामना भी करना पड़ता है।

‘पतझड़ की आवाजें’ निरूपमा सेवती का प्रमुख उपन्यास है। उपन्यास में लेखिका ने कामकाज स्त्रियों की समस्याओं को उकेरा है। यह उपन्यास नौकरी पेशा नारी का अंर्तद्वन्द्व, बदलती धारणाओं के बीच उसके घर और बाहर की परिस्थितियों से उसके संघर्ष को व्यक्त करता है।

अन्यत्र चित्रा मुद्गल ने अपने उपन्यास ‘एक जमीन अपनी’ में महानगरीय परिवेश में विज्ञापन जगत में संघर्ष कर अपना स्थान बनाने वाली नारी की चेतना को अंकित किया है।

मैत्रेयी पुष्पा के प्रसिद्ध उपन्यास ‘इदन्नमम’ में नायिका मंदाकिनी स्वयं पर होने वाले शोषण के विरूद्ध आवाज उठाती है। वह नेताओं और माफिया ठेकेदारों के करतूतों को चित्रित करते हुए आदिवासियों पर होने वाले शोषण के खिलाफ भी अपनी आवाज बुलंद करती है।

दलित और जनजाति नारी शोषण- दलित वर्ग तो जन्म से ही शोषण के शिकार है। जिंदगी के हर क्षेत्र में, हर दिशा में नारी का शोषण चलता रहता है। दलित और जनजाति होने पर नारी की स्थिति और भी शोचनीय हो जाती है मेहरून्निसा परवेज का ‘कोरजा’ जिसमें आदिवासी परिपेक्ष्य में एक स्त्री की त्रासदी का वर्णन है। मंजुल भगत का ‘अनारो’, ‘गंजी’ जिसमें एक कामकाजी नौकरानी के रोजी-रोटी के संघर्ष के साथ उसकी ताकत और स्वाभिमान का भी अंकन किया गया हैं।

कृष्णा सोबती जी समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में मूर्धन्य लेखिका के रूप में सामने आयीं। उन्होने अपने लेखन के माध्यम से स्त्री अस्मिता की तलाश की। लेखिका अपने उपन्यास में विशेष मानव-जीवन की कथा कहती हैं। कृष्णा जी अपनी रचनाओं में  अपने परिवेश और विविधमुखी जीवनानुभवों को अभिव्यक्त करती हैं। यथार्थ जीवन का विविधमुखी यथार्थ ही कृष्णा सोबती जी के लिए कच्चा माल है। ये ऐसी सशक्त नारीवादी लेखिका है जिन्होने अपने लेखन के जरिये स्त्री की बदलती हुई स्थिति, उसके संघर्ष और यातनाओं को स्त्रीवादी परिपेक्ष्य में निडर होकर प्रस्तुत किया है। इस सन्दर्भ में राकेश कुमार कहते हैं- “कृष्णा सोबती का लेखन स्त्री की यथा स्थिति के खिलाफ अपनी मानवी स्त्रीवादी भूमिका तो निभाता ही है। वह स्त्री को यथास्थितिवाद से बाहर निकालने वाला, उसकी मुक्ति की तलाश करने वाला, उसमें साहस और निर्भिकता पैदा करने वाला, उनकी मुक्ति की कामना करने वाला है।”

स्वतंत्रता के बाद नारी-लेखत में मुक्ति के स्वर उभरे। वह नारी जो या तो केवल सती-सावित्री के रूप में उपस्थित थी या फिर वह जो केवल स्वप्नलोक में रची-बसी देह मात्र थी, जिसे पुरूष प्रधान समाज में पुरूष के इशारों पर नचाया जा सकता था। उस नारी ने अपनी पारम्परिक छवि को तोड़ा है। पुरूष के लिए यह चौकाने वाला विषय है कि नारी अभिव्यक्ति मुखर हो सकती है और वह स्वयं नारी के संदर्भ में। नारी लेखन में किसी प्रकार पुरूष से प्रतिद्वंद्विता नहीं है। उसमे पुरूष को नकारना अथवा विरोध करना जैसा भाव न होकर स्वयं की अस्मिता की तलाश करना ही मूल लक्ष्य है। शिक्षा और कानून के प्रति जागरूकता ने उसे आत्मनिर्भरता दी है। महिला लेखन अभी भले ही मात्र कुछ साक्षर महिलाओं तक ही पहुँच रहा है, परंतु फिर भी वह अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा है, निरंतर प्रवाह के साथ।

नरीवाद की आवश्यकता पर नजर डालने पर पता चलता है कि नारीवाद वह दर्शन है जिसके द्वारा समाज में महिलाओं की विशेष स्थिति के कारणों का पता लगाकर, उनकी बेहतरी के लिए वैकल्पिक समाधान खोजे जा सकते है। नारीवाद ही बता सकता है कि समाज में नारी-सशक्तिकरण के लिए कौन-कौन सी रणनीति बनायी जाए। नारी किसी भी मामलों मे पुरूषों से कम नहीं, फिर भी उन्हे तमाम अवसरों से वंचित किया जाता है। इन सब प्रश्नों के जवाब के लिए नारीवाद की जरूरत दृष्टव्य होती है।

  पंडित जवाहर लाल नेहरू कहा है- “यदि आपको विकास करना है तो महिलाओं का उत्थान करना होगा। महिलाओं का विकास होने पर समाज और राष्ट्र का विकास स्वतः हो जायेगा।”

साहित्य का समकालीन मुद्दा स्त्री-विमर्श है। लेखक, साहित्यकार व बुद्धिजीवी वर्ग सदियों से शोषित, दलित, पीछे धकेली गई स्त्री को केन्द्र में लाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हर तरफ स्त्री की गुहार है, पुकार है, उसके लिए कुछ कर गुजरने का जूनून केवल स्वयं सेवी संगठनों में ही नहीं वरन् स्वयं महिलाओं में भी ऐसी सक्रियता व सजगता पनप रही है।

प्रभा खेतान ने स्त्री को स्वयं को पहचानने पर बल दिया। घर की चार दीवारी में हमेशा उसे उपेक्षा की नजरों से देखा गया है, जबकि वह इन चारो दीवारो में उस पुरूष का ही ध्यान रखती है जो स्वयं को स्त्री का रक्षक मानता है।2

प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की राय है- “स्त्रियों के सहयोग के बिना मानव साहित्य सम्पूर्ण नहीं हो सकता। एक पुरूष किसी पुरूष की हृदयानुभूति को सफलता पूर्वक प्रकट कर सकता है। परन्तु जब वह स्त्रियों की अनुभूति को प्रकट करने जाता है तब उसे विवश होकर कल्पना से ही काम चलाना पड़ता है।”

स्त्री की दासता और उसका अन्य रूप ही उसकी नियति रही है। स्त्री कब सुरक्षित थी? रामायण काल में? शूर्पणखा और सीता मैया दोनो सिर हिला रही हैं। महाभारत काल में? द्रौपदी, अम्बा, सत्यवती..................... पूरी कतार की स्त्रियाँ निषेध की मुद्रा में हाथ हिला रही हैं। मुगलो की छत्र छाया हो या राजपूतों का रनिवास स्त्री की सुरक्षा उतनी ही संदिग्ध अवस्था में दृष्टव्य होती है। स्वतंत्रता से पहले की बात हो या उसके बाद की बातें यह प्रश्न चिन्ह वहीं का वहीं है? आज भी उन प्रश्नों के उत्तर मौन है। वह वैज्ञानिक हो, अंतरिक्ष यात्री हो, रंगकर्मी हो, साहित्यकार हो या पत्रकार सब कुछ होते हुए भी हैं, अन्ततः स्त्री ही। उनके खिलाफ हत्या और शोषण के आकड़े आज भी बढ़ रहे है।

आज आधुनिक युग में भी स्त्री संघर्ष कर रही है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक आज भी उसे सबको कहना पड़ रहा अपने अस्तित्व के लिए कि वह जिन्दा है। प्रश्न यह है कि आखिर वह कब सुरक्षित होगी यह सोचनीय विषय है।

मस्तराम कपूर के अनुसार- “स्त्री की अस्मिता की लड़ाई स्त्री को मनुष्य का दर्जा दिलाने की लड़ाई है। अभी यह लड़ाई शुरू हुई है। अगली सदी इस लड़ाई की सदी होगी।” इसलिए आज की सदी को लोग महिलाओं की सदी बुलाने लगे हैं।”

नारी सृष्टि की नींव है, सृष्टि की सृजन मार्गदर्शिका है, सृष्टि का आधार है। वह करूणा की प्रतिमूर्ति, मातृत्व की साकार प्रतिमा, सृजन एवं धैर्य की देवी है। जब तक स्त्री की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति का विकास नहीं होगा तब तक समाज के विकास पर प्रश्नचिन्ह लगा रहेगा। यह सदी स्त्री जागरण की सदी है। कई शताब्दियों से नारी को कुचला रौंदा जाता रहा है। जब सामाजिक व्यवस्था व्यक्तित्व को दबाने का प्रयास करती है, तब व्यवस्था में विद्रोह होता हैं और नयी व्यवस्था उभरने लगती है। वस्तुतः स्त्री-विमर्श समकालीन विचार चिन्तन है। प्रारम्भिक काल में भी स्त्री जीवन हिन्दी साहित्य का केन्द्रीय विषय रहा है, लेकिन तथ्य यह है कि इसमें नारी की या तो जीवनगाथा केन्द्र में रही या उसकी व्यथा-कथा। अपनी अस्मिता, आत्मचेतना और अस्तित्वबोध के प्रति नारी की सजगता असल में स्वतंत्रता के बाद ही उत्तरोत्तर हिन्दी साहित्य में विकसित होती गयी।

स्व के प्रति सजगता, अपने अधिकार एवं अस्तित्व की चेतना स्त्री-विमर्श की मुख्य शक्ति बनकर उभरी। जिस शक्ति का उद्भव हुआ, वह है- नारीवाद या नारीवादी अवधारणा। कात्यायनी मानती हैं, “स्त्री-विमर्श अथवा नारीवाद पुरूष और स्त्री के बीच नकारात्मक भेदभाव की जगह स्त्री के प्रति सकारात्मक पक्षपात की बात करता है। वस्तुतः इस रूप में देखा जाय तो स्त्री विमर्श अपने समय और समाज के जीवन की वास्तविकताओं और सम्भावनाओं को तलाश करने वाली दृष्टि है।”

स्त्री की अस्मिता के निर्माण के लिए जरूरी है कि उसकी चुप्पी को तोड़ा जाये, स्त्री जब बोलती है तो अपने भावों की अभिव्यक्ति ही नहीं करती, बल्कि अपना संसार नये सिरे से बनाती है। 20वीं सदी के मुक्ति संघर्षों से नारी-मुक्ति का संघर्ष अधिक विस्तृृत हो गया है। यह संघर्ष आत्मबोध आत्मनिविश्लेषण और आत्माभिव्यक्ति का संघर्ष है। सभ्यता के आदिकाल से नारी पुरूष वर्ग द्वारा शोषित है। सीमोन द बोउवर, केट मिलेट, जर्मेन ग्रियर आदि पश्चिमी लेखिकाएँ मानती हैं कि स्त्री होना एक ऐतिहासिक घटना है। वह जन्म से स्त्री नहीं, बल्कि हजारों साल की सभ्यता ने उसे वस्तु के रूप में परिणत किया है। स्त्री आन्दोलन की सर्मथक स्त्रियाँ पुरूष नही बनना चाहतीं। यह नहीं समझना चाहिए के ये स्त्रियाँ विशिष्ट दैहिक, मानसिक और भाषिक संरचना पर गर्व नहीं करती। जो प्राकृतिक विशिष्टताएँ हैं, शर्मनाक वे नहीं, शर्मनाक आरोपित सामाजिक मानदंड है, जो दोहरे हैं और जिन पर पुर्नविचार होना चाहिए ताकि विकास के अवसर सबको समान रूप में मिल सकें। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि नारीवादी आंदोलन से उभर आया स्त्री विमर्श समकालीन हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में एक नया आयाम ग्रहण कर चुका है। पाश्चात्य और भारतीय परिपेक्ष्य में अनेक स्त्री विचारकों ने स्त्री सम्बन्धित न केवल नये सिद्धान्त को प्रतिपादित किया, बल्कि स्त्री जीवन के विभिन्न प्रसंगों पर ज्ञान, कर्म और यथार्थ का लेखा-जोखा भी प्रस्तुत किया। सन् 1960 के आसपास से नारी लेखन और नारीवादी लेखन दोनों ही दिशाओं में एक बदलाव परिलक्षित होता है। क्रान्तिकारी नवीनता और साहसपूर्ण लेखन प्रयोगधर्मी चुनौतियों से भरपूर स्त्री की स्वतंत्रता के विविध आयामों को प्रस्तुत करने वाली रचनाओं की बहुलता देखने को मिलती है, जो अपने-अपने ढ़ंग से स्त्री विमर्श को प्रस्तुत करती हैं। इस प्रकार हम समकालीन हिन्दी साहित्य में कथा, उपन्यास, कविता, आलोचना, नाटक आदि अनेक विधाओं में स्त्री विमर्श और नारीवाद सम्बन्धी मुद्दो को देखते है। जो समकालीन समय की माँग है। जिससे स्त्री और पुरूष दोनों जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनसे समाज में विकास की रफ्तार को बढ़ाया जा सके।

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