खोई हुई दिशाएँ: महानगरीय जीवन की त्रासदी ; निधि शर्मा शोधार्थी (हिन्दी विभाग )काजी नजरुल विश्वविद्यालय, आसनसोल
(चित्र साभार -गूगल )
हिंदी कहानी के विकास में कथाकार कमलेश्वर का बहुत बड़ा योगदान है। कमलेश्वर दो कहानी आंदोलनों के अगुआ रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नई कहानी आंदोलन और सन् 70 के बाद समानांतर कहानी आंदोलन का नेतृत्व करने वाले कहानीकारों में कमलेश्वर अग्रणी हैं। उन्होंने नई कहानी के संदर्भ में नई ‘कहानी की भूमिका’ नामक पुस्तक भी लिखी जो ‘नई कहानी’ को स्वतंत्रता पूर्व की कहानियों से अलग करती है। स्वतंत्रता के पश्चात देश की स्थितियां बहुत बदल गई थीं। मोहभंग की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। कमलेश्वर की कहानियां एक लंबे संघर्ष के बाद मिली स्वतंत्रता के बाद एक नए युग, एक नई जागरण की आशा, देश विभाजन की त्रासदी, नेहरू के नेतृत्व में देश के विकास का स्वप्न, गांव से नगरों की ओर पलायन, देश की बदलती हुई परिस्थितियों और गांव तथा नगर की चेतना में होने वाले परिवर्तन का एक जीवंत दस्तावेज हैं। कमलेश्वर ने इन स्थितियों और देश की दुरावस्था का जीवंत चित्रण अपनी कहानियों में किया है। साथ ही उन्होंने कहानी में नई भाव-भूमि, शिल्प-कथ्य आदि में परिवर्तन कर हिंदी कहानी के विकास को एक नया मोड़ भी दिया है।
कमलेश्वर की कृतियों में महानगरीय जीवन का सूक्ष्मता से चित्रण मिलता है। उन्होंने इलाहाबाद से दिल्ली महानगर आने के बाद वहां की त्रासदियों को बहुत करीब से देखा और समझा। महानगर की जिंदगी बहुत ही भाग-दौड़ और मानसिक व्यस्तता से भरी हुई होती है। यहां तक कि रात में भी दिन भर की बातें दिमाग में चलती रहती हैं और सुकून की नींद भी लोगों को नहीं मिलती। ऐसे ही महानगर की गंभीर परेशानियों, त्रासदी, चिंताओं, कठिनाइयों पर आधारित कमलेश्वर की बहुचर्चित कहानी है -‘खोई हुई दिशाएँ’।
‘खोई हुई दिशाएँ’ कहानी में दिखाया गया है कि कोई व्यक्ति जब महानगर आता है तो अपने साथ कई सपने लेकर आता है किंतु वहां के वातावरण में ढलना एक बहुत बड़ी चुनौती बन जाती है क्योंकि वहां उसे कभी अपनत्व नहीं मिलता। भागमभाग की जिंदगी होती है जहां कोई किसी को पूछता तक नहीं। सभी अपने स्वार्थ के लिए जीते हैं। एक संवेदनहीनता, संवादहीनता, कुंठा, मानसिक तनाव की स्थिति वहां होती है, जिसमें वहां सामान्य गांव, कस्बे अथवा नगर से पहुंचे व्यक्ति के लिए ढल पाना अत्यंत ही मुश्किल हो जाता है और कभी-कभी व्यक्ति की मानसिक विक्षिप्तता का कारण भी बन जाता है। कहानी का नायक चन्दर भी दिल्ली महानगर की भीड़-भाड़ भरी जिंदगी में मानसिक तनाव, कुंठा, संवादहीनता आदि के बीच अपने आप को गुम हो जाने जैसा महसूस करता है।
अगर महानगरीय क्षेत्र का अर्थ समझें तो ‘महानगरीय क्षेत्र’ एक विशाल जनसंख्या वाला केंद्र और उसके पड़ोसी क्षेत्र को मिलाकर होता है। इसमें एकदम निकटता से जुड़े शहर एवं अन्य प्रभावित क्षेत्र भी गिने जा सकते हैं। इसमें सबसे बड़े शहर के नाम से ही इस क्षेत्र के नाम को जाना जाता है। भारत में जनगणना आयोग ने महानगरीय क्षेत्र को परिभाषित इस प्रकार से किया है -‘‘यह वह क्षेत्र है, जिनकी जनसंख्या 40 लाख से अधिक होती है। इनमें मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु और हैदराबाद- ये छः शहर वर्तमान में आते हैं ।”
‘‘महानगरीयता का तात्पर्य ‘cosmopolitanism’ से है, जो ग्रीक भाषा के ‘कॉस्मोपॉलितेस‘ से बना है। इसका अर्थ है ‘विश्व नागरिकता‘। कॉसमॉस का अर्थ विश्व तथा पॉलितेस का अर्थ नागरिक से है। भारतीय परंपरा में ‘विश्व परिवार‘ की दार्शनिक अवधारणा है -‘वसुधैव कुटुंबकम।’.... इस शब्द के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, कानूनी आदि कई पहलू हैं। यह ऐसा विचार है जो मनुष्य को क्षेत्र, प्रांत, राष्ट्र की सीमाओं, अन्य संकीर्ण विचारों, पूर्वाग्रहों, बद्धमूल धारणाओं आदि से पूरी तरह मुक्त देखना चाहता है और उससे पूरे विश्व का न कि उसके किसी विशेष हिस्से को मानता है ।”
‘‘हाल में समाजशास्त्रियों और राजनीतिक सिद्धांतकारों द्वारा नए संदर्भों से महानगरीयता का नए अर्थ में वर्णन किया तथा सदियों से मंद गति से चली आ रही इस विचारधारा को फिर से सक्रिय करने की कोशिश भी हुई है। इसका धुर-राष्ट्रीयतावाद और बहुसांस्कृतिकतावाद के बीच की चीज के रूप में पुनरोदय हुआ है, जिसके पीछे आज के जमाने के अनेक तत्त्व कारक रहे हैं, जैसे -लोगों का बड़े पैमाने पर स्थानांतरण, देशांतरण, अन्य संस्कृतियों से निकटता आदि। महानगरीयता का शाब्दिक अर्थ-संबंध महानगर (कॉस्मापॉलिटन सिटी) में वास करने से है, जो स्वरूपतः है तथा तत्त्वतः ग्रामीण क्षेत्रों, कस्बों और शहरों में निवास करने से भिन्न है। यद्यपि आज गांव और शहर की दूरी पहले जैसी अलंघ्य नहीं है। आबादी के लिहाज से गांव से बड़ा कस्बा, उससे बड़ा शहर या नगर और फिर महानगर होता है ।”
अगर हम प्रस्तुत आलेख के शीर्षक में उद्धृत ‘त्रासदी’ शब्द को समझें तो ‘त्रासदी’ शब्द का प्रयोग नाटक की एक शैली के संदर्भ में होता है जिसमें नायक प्रतिकूल परिस्थितियों और शक्तियों से संघर्ष करता हुआ तथा संकट झेलता हुआ अंत में विनष्ट हो जाता है अथवा जिस नाटक का अंत दुखांत होता है, उसे त्रासदी या ट्रेजेडी कहते हैं। डॉक्टर नगेंद्र के अनुसार, ‘‘त्रासदी दृश्य काव्य का एक भेद है। इसकी कथावस्तु गंभीर होती है। इसका एक निश्चित आयाम होता है और यह अपने आप में पूर्ण होती है, अर्थात इसमें जीवन के गंभीर पक्ष का चित्रण होता है। त्रासदी के मूल भाव करुण और त्रास होते हैं.......”4किंतु सामान्य रूप से हम किसी के जीवन में घटित कोई अप्रिय दुखद-घटना के लिए ‘त्रासदी’ शब्द का प्रयोग करते हैं।
अतः महानगरीय जीवन की त्रासदी का अर्थ है -‘महानगर में रहने वाले लोगों के जीवन में घटित होने वाली दुखद घटनाएं अथवा परेशानियां ।’
महानगर की दुनिया चकाचौंध से भरी हुई दुनिया होती है जहां लोगों के लिए चमक-दमक, उद्योग-धंधे, व्यापार, शिक्षा, चिकित्सा, नौकरी आदि की कई सुविधाएं होती हैं। इतनी सुविधा संपन्न जगह से स्वाभाविक ही लोग आकर्षित होते हैं किंतु दूर से बेहद खूबसूरत दिखने वाली महानगर की दुनिया और यहां रहने वाले लोगों की जिंदगी इतनी खूबसूरत और और आसान नहीं होती। महानगरों में जितनी सुविधाएं होती हैं उतनी ही अधिक प्रतिस्पर्धा और संघर्ष से भरा हुआ यहां का जीवन होता है। यहाँ प्रतिस्पर्धा हर क्षेत्र में है- नौकरी, शिक्षा, व्यवसाय सभी जगह। उन्नत सड़कें है किंतु ट्रैफिक जाम की समस्या भी साथ में है। हर वक्त फैक्ट्रियों, वाहनों आदि से निकलता हुआ धुआँ, कई बीमारियां और इस भागमभाग की जिंदगी में शरीर से कहीं अधिक दिल और दिमाग थक जाता है। यही स्थिति कथा-नायक चन्दर की भी है जो सुविधा संपन्न दिल्ली में रहकर भी असुविधापूर्ण जिंदगी जी रहा है। दिन-भर में इतना अधिक थक जाता है कि दिल और दिमाग तक उसका साथ नहीं देते -‘‘सामने दाएँ-बाएँ आदमियों का सैलाब था। शाम हो रही थी और कनॉट प्लेस की बत्तियाँ जगमगाने लगी थीं। थकान से उसके पैर जवाब दे रहे थे। कहीं दूर आया-गया भी तो नहीं, फिर भी थकान सारे शरीर में भरी हुई थी। दिल और दिमाग इतना थका हुआ था, लगता था वही थकान धीरे-धीरे उतरकर तन में फैलती जा रही है ।”
व्यस्तता महानगरीय जिंदगी की एक बहुत बड़ी समस्या है। यहां रहने वाले लोगों की जिंदगी में व्यस्तताएँ इतनी अधिक होती हैं कि वह अपनों को भी समय नहीं दे पाते। दूसरों से तो दूर स्वयं से भी नहीं मिल पाते। आलोच्य कहानी का नायक चन्दर भी इतना व्यस्त रहता है कि चीजों को याद रखने के लिए डायरी में लिख कर रखता है। यहां तक कि जब उसे याद आता है कि उसने खुद से भी काफी समय से बात नहीं की तब वह खुद से भी मिलने का समय तय कर डायरी में लिखता है। हद तो तब हो जाती है जब यह भी याद नहीं रहता कि उसने खाना खाया है या नहीं, उसे भूख भी लगी है या नहीं- ‘‘भूख...पता नहीं लगी है या नहीं। वह दिमाग पर जोर डालता- सवेरे आठ बजे घर से निकला था। एक प्याली कॉफी के अलावा तो कुछ पेट में गया नहीं ...और तब उसे एहसास हुआ कि थोड़ी-थोड़ी भूख लग रही है। दिमाग और पेट का साथ ऐसा हो गया है कि भूख भी सोचने से लगती है ।”
हम देखते हैं कि महानगर में सुख-सुविधा और भोग-विलास के साधन प्रचुर मात्रा में होते हैं किंतु मनुष्य के लिए जो सबसे जरूरी चीज है ‘प्रेम और अपनत्व’, वह उसे वहां कभी नहीं मिलता। वहां रहने वाले सभी लोग एक-दूसरे से कटे हुए रहते हैं। अपने-अपने स्वार्थ के लिए जीते हैं। भोग-विलास के साधन, पैसा, सुख-सुविधाएं जुटाने और अपने आप को श्रेष्ठ और अभिजात्य प्रदर्शित करने की अंधी दौड़ में वे इस कदर शामिल रहते हैं कि उन्हें अपने आस-पास हो रही घटनाओं, आस-पास रहने वाले लोगों के सुख-दुख से भी कोई लेना-देना नहीं रह जाता। एक प्रकार से संवेदनहीनता, संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दैनिक जागरण अखबार के जाने-माने पत्रकार अनंत विजय कहते हैं कि ‘‘महानगर की भागदौड़ भरी जिंदगी और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने और भोगवादी जिंदगी जीने की हवस ने हमको न केवल संवेदन शून्य बना दिया है, बल्कि हम लगातार स्वकेंद्रित भी होते चले गए हैं। इस आपाधापी में हमारा परिवार और हमारा समाज हमसे लगातार दूर होता चला गया ।” कहानी में नायक भी ऐसा ही महसूस करता है और मन ही मन सोचता है -‘‘चौराहे पर बत्तियाँ लगी हैं। बत्तियों की आँखें लाल-पीली हो रही हैं। आस-पास से सैकड़ों लोग गुजरते हैं पर कोई उसे नहीं पहचानता हर आदमी या औरत लापरवाही से दूसरों को नकारता या झूठे दर्प में डूबा हुआ गुजर जाता है ।”
कहानीकार कमलेश्वर ने कहानी में महानगर के लोगों के मशीन की तरह होते चले जाने और जीवन के उबाऊपन को भी दर्शाया है। कहानी के नायक चन्दर की जिंदगी एक ही ढर्रे पर चलती है। दिन भर बाहर एक ही तरह का काम करना, एक ही तरह के लोगों से मिलना, घर आकर मेहमान की तरह कुर्सी पर बैठना, घर आई मिसेज गुप्ता से दो-चार इधर-उधर की बातें करना और जब तक उसकी पत्नी निर्मला काम से मुक्त होकर आती है तब तक उससे करीब से मिलने का उत्साह खत्म हो चुका होता है। यही नहीं उसके घर के आस-पास भी एक ही तरह की घटनाएं रोज़ होती हैं। सभी लोग एक ही ढर्रे पर रोज़ कार्य करते हैं। महानगरीय जीवन में इसी तरह लोग मशीन की तरह हो चुके हैं। कुछ भी नयापन नहीं, उत्साह नहीं बस एक ही तरह सुबह से रात, दिन से सप्ताह, सप्ताह से महीने और साल एक ही दिनचर्या मैं गुजरते रहते हैं। कोई एक-दूसरे से नहीं मिलता, किसी का एक-दूसरे के प्रति दायित्व नहीं होता, अपनत्व नहीं होता। समाज में होते हुए भी कोई सामाजिक नहीं रह गया है। ‘दैनिक जागरण’ अखबार के पत्रकार अनंत विजय कहते हैं -‘‘हम महानगर की भागदौड़ की जिंदगी में अपने को स्थापित करने की होड़ में इतने डूब गए हैं कि सामाजिक जिम्मेदारियों से मुंह चुराने लगे हैं। पश्चिमी सभ्यता के आक्रमण और उसके बाद उसके अंधानुकरण ने हमसे हमारे समाज को अलग कर दिया है ।” कहीं-न-कहीं इसमें पश्चिमी सभ्यता का भी प्रभाव है। जैसे पश्चिम में रिश्ते-नाते बहुत ही अस्थायी होते हैं। लोग अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने और अपने में मशगूल रहने में विश्वास करते हैं। वैसा ही हम हमारे भारत को, बेहद आधुनिक हो चुके समाज और महानगरों में देख रहे हैं।
आलोच्य कहानी में कहानीकार ने लोगों के स्वार्थ, बनावटीपन, प्रदर्शनप्रियता को भी अपनी कहानी के माध्यम से दर्शाया है। आज लोगों में अपनत्व बहुत कम रह गया है किंतु उसकी जगह अपनत्व का बनावटीपन और दिखावा है। लोग दिखाते हैं कि वे दूसरों की चिंता करते हैं, उनसे लगाव रखते हैं किंतु यह हृदय से नहीं होता। कहानी में नायक चन्दर का मित्र आनन्द भी ऐसा ही है। वह उससे खुशी-खुशी मिलता तो है किंतु उसके व्यवहार में एक बनावटीपन है और अंततः पता चलता है कि वह चन्दर से पैसा उधार लेने के लिए मिला था और नहीं मिलने पर वह उसे अकेला छोड़ कर चला जाता है। चन्दर को लगता है कि यही बनावटीपन उसके स्वयं के अंदर भी आ गई है - ‘‘उसे लगता है कि वही बनावटीपन उसमें भी कहीं ना कहीं है... जब कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दर्जों में बैठ-बैठकर वह किताबों से जिन्दगियों के मरे हुए ब्यौरे पढ़ रहा था ।”
आलोच्य कहानी में जो सबसे बड़ी समस्या दिखाई गई है वह है पहचान का संकट, अस्तित्व का संकट अथवा अजनबीपन की समस्या। इस कहानी में अस्तित्ववाद का प्रभाव भी दिखता है। हम देखते हैं कि गांव या कस्बों से लोग नौकरी की तलाश में अथवा युवा वर्ग कोचिंग और पढ़ाई के लिए आते हैं लेकिन वे महानगर जैसी जगह में आकर अपने आप को बिल्कुल अजनबी महसूस करते हैं। गांव या कस्बे में जहाँ थोड़ी-सी जान पहचान भी आत्मीयता का कारण बन जाती है वहीं महानगरों में पहले तो कोई जान-पहचान बनाने की चेष्टा नहीं करता और जान-पहचान हो भी जाए तो केवल स्वार्थ के लिए होता है। आसपास रहने वाले लोग भी एक दूसरे को नहीं पहचानते अथवा पहचान कर भी ना पहचानने का ढोंग करते हैं। इस तरह बाहर से आया व्यक्ति अकेलेपन से निराश हो जाता है। पहचान के लिए तरस जाता है कि कोई तो उसे पहचाने, बात करे लेकिन ऐसा नहीं होने पर वह भावनात्मक रूप से टूट जाता है। कहानी का नायक चन्दर भी पहचान की संकट से जूझ रहा है। उसके घर के आसपास के लोगों को बस वह उनकी आने-जाने की आहट से पहचानता है। कहानी में एक पत्रकार के आने-जाने का पता बस उसके द्वारा घर आकर सिगरेट के धुआं छोड़ने और सुबह चले जाने का पता उसकी खिड़की के नीचे गिरे सिगरेट, तीलियां, डबल रोटी के पैकेट आदि से चलता है। एक गाड़ी वाला सरदार भी केवल थोड़े से किराए के लिए उससे अपनी पहचान को नकार देता है। यहां तक कि उसकी प्रेमिका इन्द्रा जो उसकी छोटी से छोटी आदतों से भी परिचित थी, वह भी उससे मेहमानों जैसा और बेहद फीका व्यवहार करती है। वह भावनात्मक रूप से पूरी तरह अपने आप को टूटा हुआ महसूस करता है। इन्द्रा चन्दर से चाय में कितनी चीनी देनी है पूछती है जबकि वह इसके बारे में अच्छी तरह जानती है तो चन्दर टूट जाता है -‘‘और एक झटके से सब कुछ बिखर गया, उसका गला सूखने-सा लगा और शरीर फिर थकान से भारी हो गया। माथे पर पसीना आ गया। फिर भी उसने पहचान का रिश्ता जोड़ने की एक नाकाम कोशिश की और बोला, ’दो चम्मच‘ और उसे लगा कि अभी इन्द्रा को सब कुछ याद आ जाएगा ...पर इन्द्रा ने प्याले में दो चम्मच चीनी डाल दी और उसकी ओर बढ़ा दिया। जहर की घुँटों की तरह वह चाय पीता रहा। इन्द्रा इधर-उधर की बातें करती रही, पर उनमें उससे मेहमानवाजी की बू लग रही थी और चन्दर का मन कर रहा था कि इन्द्रा के पास से किसी तरह भाग जाए और किसी दीवार पर अपना सिर पटक दे ।”
चन्दर मानसिक रूप से पीड़ा में रहता है। वह लोगों के बीच पहचान और आत्मीयता न मिलने पर अवसादग्रस्त हो जाता है। अंततः ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है कि घर की प्रत्येक वस्तु को अपनी पहचान का आधार बनाने की कोशिश करता है कि यह सब वस्तु उसकी अपनी है, वह अंधेरे में भी सब कुछ पहचान सकता है। यहां तक कि पहचान खो जाने का भय उस पर इतना हावी हो जाता है कि वह अपनी पत्नी को नींद से जगा कर पूछता है -‘‘मुझे पहचानती हो? मुझे पहचानती हो निर्मला?” इसी तरह के कई दृश्य कहानी में हैं, जहां वह चाहता है कि सामने वाला इंसान शायद उसे पहचाने, उससे आत्मीयता का व्यवहार करे, किंतु ऐसा ना होने पर वह बार-बार टूटता है, बार-बार बिखरता है। यहां महानगर दिल्ली के बारे में चन्दर की कही हुई बात ठीक ही बैठती है -‘‘और यह राजधानी! जहां सब अपना है, अपने देश का है... पर कुछ भी अपना नहीं है, अपने देश का नहीं है। तमाम सड़कें हैं जिन पर वह जा सकता है, लेकिन वे सड़कें कहीं नहीं पहुंचातीं। उन सड़कों के किनारे घर हैं, बस्तियाँ हैं पर किसी भी घर में वह नहीं जा सकता ।” इस पंक्ति में महानगरीय जीवन के अजनबीपन, कृत्रिमता, अविश्वास, पहचान खो जाने का भय, संत्रास सब कुछ स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है।
कहानी की भाषा सहज है। जैसा कि आमतौर पर महानगरों में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी शब्दों का भी सामान्य रूप से प्रयोग किया जाता है। वैसे ही प्रस्तुत कहानी में भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हुआ है जैसे- ऑल राइट पार्टनर, कॉमर्स मिनिस्ट्री, जर्नलिस्ट, थैंक्यू, फैमिली आदि। कुछ पंजाबी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है जैसे- किसे होरने, होणगे, लेंदे आदि। इसके अलावा कहानी में कुछ विरोधाभास के वाक्यों का भी प्रयोग हुआ है जैसे- ’और यह राजधानी! जहाँ सब अपना है, अपने देश का है...पर कुछ भी अपना नहीं है, अपने देश का नहीं है।‘ ’तमाम सड़कें हैं जिन पर वह जा सकता है, लेकिन वे सड़कें कहीं नहीं पहुंचातीं।' अगर कहानी के शिल्प पक्ष को देखें तो यह वातावरण प्रधान कहानी है। इसमें चरित्र अधिक नहीं हैं, घटनाएं भी अधिक नहीं हैं, संवाद भी नाम मात्र के हैं। इस कहानी में आत्मचिंतन अधिक है। कहानी के मुख्य पात्र के चिंतन-मनन के द्वारा और कुछ छोटी-छोटी घटनाओं के द्वारा महानगरीय जीवनशैली को और उसकी विसंगतियों को बखूबी दर्शाया गया है। इस कहानी पर अस्तित्ववाद और आधुनिकताबोध का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। कहानी में महानगरी जीवन की त्रासदी का चित्रण बहुत ही प्रभावशाली, मार्मिक और यथार्थ ढंग से किया गया है।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि ‘खोई हुई दिशाएँ‘ कहानी महानगरीय जीवन में व्यक्ति के आंतरिक और बाहरी संघर्षों की कहानी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सन् 1962 में लिखी गई यह कहानी आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी क्योंकि केवल युग बदला है, परिस्थितियां नहीं बदली हैं बल्कि और अधिक जटिल ही हुई हैं। व्यक्ति महानगरीय परिवेश में अजनबीपन, अकेलापन, पहचान के संकट से जूझ रहा है। सब कुछ इतना उलझ चुका है कि लोगों को कहां और किस दिशा में जाना है, वह दिशा ही नहीं मिल पा रही है। संबंधों की दिशाएँ भी खो गई हैं। अतः यह बेहद जरूरी है कि अब थोड़ा संभल जाया जाए। लोग एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील बनें। पैसों के साथ-साथ अपने संबंधों के प्रति भी उतना ही ध्यान दें ताकि इंसानियत बची रहे और इंसानियत बची रहेगी तभी यह दुनिया भी बची रहेगी।
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