‘रोज़’ कहानी में व्याप्त संवेदनात्मक दृष्टि : श्रीमती कुसुम पाण्डेय (स्वतंत्र लेखिका)
मनोवैज्ञानिक कहानी के पुरोधा सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन “अज्ञेय “ जैनेंद्र की पीढ़ी के रचनाकार हैं। इनका जन्म सन 1911 में जिला गोरखपुर के कसया नामक स्थान पर हुआ था। यह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कवि, उपन्यासकार, कहानीकार एवं आलोचक जी ने विभिन्न समाचार पत्रों का संपादन किया था जिसमें दिनमान, प्रतीक (1947) एवरी मैंस (1972) क्रांतिकारी आंदोलन से भी इनका गहरा जुड़ाव था। सन 1930 में गिरफ्तारी के दौरान यह 4 वर्ष तक कैद एवं 2 वर्ष तक नजरबंद भी रहे। अज्ञेय ने लगभग 67 कहानियां लिखी। जिनमें 23 कहानियों को विशेष प्रसिध्दि भी प्राप्त हुई अपनी सफल कहानियों के माध्यम से लेखक कुछ नए दिशा संकेत भी दिए हैं। अज्ञेय की कहानी कला में बौद्धिकता एवं मनोभावों का गहरा पुट विद्यमान है, मनोवैज्ञानिकता सुगम संगीत ना होकर शास्त्रीय संगीत का है।
अज्ञेय की कहानियों का विषय भले ही बासी हो गया हो किंतु उसकी उपयोगिता आज भी बनी हुई है। अज्ञेय ने अपनी साहित्यिक यात्रा कहानी लेखन से ही शुरू किया था। उनकी पहली कहानी जिज्ञासा 1929 में लिखी गई थी। जो सन 1935 में प्रकाशित हुई।
अज्ञेय की प्रारंभिक कहानियों का विषय क्रांति था जिसमें अकलंक, विपथगा, हारिती, द्रोही, मिलन अभिशापित, एक घंटे में, अंगोरा के पथ पर, पगोडा का वृक्ष, कुली की सीटी, पुरुष का भाग्य है।
अज्ञेय की कहानियों का मूल स्वर मानव मन के भीतर उठने-गिरने वाली मनोभावों की गाथा है। कहानीकार के रूप में उनकी दृष्टि मुख्यतः व्यक्ति चरित्र की ओर रही है। व्यक्ति के स्वभाव और कर्म प्रेरणाओं का सूक्ष्म विश्लेषण ही उनकी कहानियों के मुख्य उद्देश्य बिंदु रहे हैं। मध्यमवर्गीय पारिवारिक, सामाजिक जीवन स्त्री और पुरुष की नैतिक संबंधों और क्रांतिकारियों के साथ-साथ शरणार्थी के जीवन का भी चित्रण मिलता है।
अज्ञेय की बहुचर्चित कहानी सर्वप्रथम ’रोज़’ शीर्षक से छपी थी। इस कहानी की कथानायिका मालती के यांत्रिक वैवाहिक जीवन के माध्यम से नारी के यंत्रवत जीवन और उसकी सीमित घरेलू परिवेश में बीतते उबाऊ जीवन का चित्रण है। यह कहानी भारतीय समाज में आस्थापूर्वक जिंदगी एवं नारी जीवन के अभाव में घुटते हुए पंगु बनी व्यक्तित्व की ऊबाहट भरी एक ही ढर्रे पर चलती दिनचर्या, कहानी के शीर्षक ‘रोज़’ की सार्थकता सिद्ध करता है। तथा नायिका मालती का तकिया कलाम शब्द रोज़ बन गया है। ‘गैंग्रीन’ अथवा ‘रोज़’ कहानी के प्रमुख पात्रों में मालती कहानी की मुख्य नायिका पात्र है। यह एक विवाहित स्त्री है। तथा एक बच्चे की मां है बच्चे का नाम टीटी है। मालती के पति महेश्वर हैं जो कि एक पहाड़ी गांव में सरकारी डिस्पेंसरी में डॉक्टर हैं। उत्तम पुरुष शैली में लिखी गई इस कहानी में लेखक स्वयं आत्म चरित्र प्रधान नायक है जो दूर के रिश्ते में उसकी बहन और बचपन की सहेली मालती से मिलने उसके यहां आता है।
घर में प्रवेश करते ही तथा नायक को घर की उदासी और मनहूसियत की विकराल छाया का भान होता है। यह भी महसूस होता है कि उसके आगमन से मालती को विशेष प्रसन्नता नहीं हुई है। कथा नायक के शब्दों में-
“मैं प्रतीक्षा में था के मालती कुछ पूछे किंतु एकाएक मुझे ध्यान हुआ- उसने कोई बात नहीं की... यह भी नहीं पूछा, कि मैं कैसा हूं? कैसे आया हूं... बैठी रही।
क्यों विवाह के दो वर्षों में ही बीते दिन भूल गई?"
मालती द्वारा अपने भाई का औपचारिक स्वागत जिसमें कोई उत्साह नहीं है, बल्कि कर्त्तव्य पालन की औपचारिकता अधिक है। उसके प्रश्नों का वह संक्षिप्त उत्तर देती है। बचपन की बातूनी चंचल लड़की इतना बदल क्यों गई है? वह चुप रहने लगती है। उसका व्यक्तित्व बुझ सा गया है। स्त्री का जीवन विवाह के बाद अपने सगे संबंधियों के साथ कितना बदल जाता है। यह उसके कर्त्तव्य पालन में औपचारिकता तथा कर्त्तव्य पालन में उत्साह हीनता से प्रकट होता है। उसका यह शुष्क व्यवहार उसके उदास यांत्रिक जीवन की ओर संकेत करता है।
विजय मोहन के शब्दों में यह उस घर की एक रसता और घनीभूत ऊब को व्यक्त करता है। अज्ञेय की यह कहानी नजरबंदी के दौरान लिखी गई थी।
कहानी के दूसरे भाग में मालती के अंतर्द्वंदग्रस्त मानसिक स्थिति, बीते बचपन की स्मृतियों, शारीरिक जड़ता और थकान का अंकन हुआ है।
मालती की भांति उसके पति का जीवन भी एक ही प्रकार के मरीजों को देखते हुए यांत्रिक बन गया है।
साथ में पानी, नौकर, सब्जी और पहाड़ी जीवन के अभाव का वर्णन कहानी को आगे बढ़ाता है।
रोज़ की दिनचर्या में मालती पति के खाने के बाद दोपहर के तीन बजे अपना भोजन करती है और रात के दस बजे के बाद उनके भोजन करने के उपरांत। यही उसके रोज़ का क्रम है जो संवादों के माध्यम से यहां प्रकट होता है
“मालती हम दोनों के लिए खाना ले आई। मैंने पूछा तुम नहीं खाओगी? या खा चुकी।“
महेश्वर बोले, कुछ हंसकर, “वह पीछे खाया करती है।“
कथा नायक गहरी सोच में पड़ जाता है।
पति दो बजे खाना खाने आता है ,इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!
यह कैसी विडंबना है, कि स्त्री भूखी प्यासी पति का इंतजार करती रहे। लेखक की संवेदना मालती के प्रति सहज ही दृष्टिगत होती है।
मालती का देर से भोजन करना, पानी नियमित रूप से वक्त पर न आना, पति का सवेरे डिस्पेंसरी जाकर दोपहर को लौटना, फिर शाम को रोगियों को देखना यह सब मालती के जीवन में रोज़ एक ही जैसी ही घटना है।
इसी क्रम में उसका नन्हा बालक बिस्तर से गिरकर रोने लगता है तब भी मालती को यही लगता है कि यह तो रोज़ ही होता है। बिस्तर से गिरने पर बालक को लगने वाला चोट वस्तुतः मालती के हृदय पर लगने वाली चोट के बराबर ही है जो प्रायःही लगते रहते हैं। मालती पर लगने वाले चोटें चिंता का विषय नहीं है, क्योंकि वह रोज़ इन चोटों को सहती रहती है। रोज़ की ध्वनि कहानी में निरंतर गूंजती रहती है।
घंटा खड़कने पर समय की गिनती करना मालती के नीरस जीवन की पोल खोल देता है।
दूर ... शायद अस्पताल में ही , तीन खड़के। मैं चौंका, मैंने सुना मालती वहां बैठी अपने आप ही एक लंबी-सी थकी हुई सांस के साथ कह रही है,“तीन बज गए..." बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य संपन्न हो गया हो। कथाकार ने बाह्य वातावरण के साथ स्थिति का संलिष्ट अंकन किया है।
लेखक ने मालती की मानसिकता का अवलोकन करते हुए लिखा है- “अबकी बार और उग्र रूप में मैंने सुना, मालती एक बिल्कुल अनैच्छिक अनुभूतिहीन, नीरस, यंत्रवत थके हुए स्वर में कह रही है “चार बज गए।“
मानो इस अन्येच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन तुल्य जीवन बीतता हो। वैसे जैसी मोटर का स्पीड मीटर यंत्र फासला नापता है। और यंत्रवत विश्रांत स्वर में कहता है। (किससे!) मैंने अपने अमित शून्य पथ का कितना अंश कर लिया।
डॉक्टर महेश्वर की यांत्रिक दिनचर्या, एक ही रोग गैंग्रीन से पीड़ित रोगियों के टांग काटने या उसके मरने के नित्य चिकित्सा कर्म का पता चलता है।
महेश्वर के देर से आने का कारण जब कथा नायक पूछता है। तब डॉक्टर ग्लानि भरे स्वर में बताते हैं, आज का ऑपरेशन करना ही पड़ा।
“गैंग्रीन कैसे हो गया?”
पूछने पर पता चलता है, कि कांटा चुभ जाने से गैंग्रीन हो गया था। इस पर मालती तड़पकर कहती है। यह भी कोई बात है? कि कांटा चुभ गया तो टांग काटनी पड़ी। यह भी कोई डॉक्टरी है। हर दूसरे दिन किसी की टांग किसी की बांह काट आते हैं। मालती की संवेदना यहां उन पहाड़ी लोगों से है जो गैंग्रीन की वजह से अपनी टांग या हाथ गवां देते हैं। वह विरोध करती है ऐसे सरकारी तंत्र की लापरवाही का जिसमें छोटी डिस्पेंसरी में सुविधाओं का अभाव रहता है। जिसके सरकारी डिस्पेंसरी की दुर्दशा के कारण शहर के अस्पताल में ले जाते मरीजों की मृत्यु तक हो जाती है। कहानी का अंत “ग्यारह बजे के घंटा” की ध्वनि के साथ होता है। घंटे गिनना उसकी जीवन की निराशा और करुण स्थिति की तरफ ध्यान दिलाता है। जहां नारी के परंपरागत सीमित संसार में घुटन और उदासी का चित्र है। मालती सामाजिक सरोकार से कटी हुई भी है परंपरागत भारतीय महिला के रूप में चित्रित की गई है। जिसमें पति के खा लेने के बाद ही वह खाती है। अखबार में लपेटे हुए आम को काटने से पहले अखबार को पढ़ लेती है जिससे पता चलता है कि अपनी दुनियां से इतर भी बाहरी दुनियां के बारे में जानने की जिज्ञासा रखती है। साधारण स्त्री के रुप में वह अस्तित्व के प्रति सोचने, संघर्ष करने की अथवा अपने उबाऊ जीवन से उभरने हेतु जीवन में कुछ परिवर्तन लाने हेतु आशा नहीं करती है । मालती के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप यह है। कि उसके सामने अपनी को सिद्ध करने के लिए कोई चुनौती या संघर्ष नहीं है।
निष्कर्षतः ‘रोज़’ हिंदी के समस्त गंभीर कहानी पाठ को और समीक्षकों ने एक मत हो कर अज्ञेय जी की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी है। सभी ने समवेत स्वर में रोज़ को हिंदी कहानी साहित्य की सर्वोत्तम उपलब्धि स्वीकार किया है। इसमें संबंधों की वास्तविकता को एकांत व्यक्ति की अनुभूति से अलग जाकर सामाजिक संदर्भ में देखा है। मध्य वर्ग की पारिवारिक एकरसता को जितनी मार्मिकता से यह कहानी व्यक्त कर सकी है वह अपने आप में विरल है। कहानी की सफलता उसके आंतरिक बोध और उपचार (ट्रीटमेंट) के संबंध में हैं। कहानी का पूरा परिवेश और उस परिवेश को व्यक्त करने वाले उपकरण सभी मध्यम परिवार की एकरसता और “बोरडम" को बड़ी जटिल सूक्ष्मता से व्यक्त करते हैं। एकांत पहाड़ी वातावरण, सूना पहाड़ी बंगला, नल के पानी के निरंतर टिप-टिप, बीमार बच्चे की रिरियाहट और उस युवती मां की नजर में हर चोट के साथ थकी हुई आवाज इस असह्य एकरसता को स्वीकार कर लेने की विवशता कि ‘रोज़’, ‘ऐसा ही होता है’ या ‘तीन बजे गए’।
लेखक ने मानसिक परिवेश और बाहरी परिवेश की ऐसी सघन बुनावट की है जो भीतर के अकेलेपन, एकरसता और मोनोटनी में अत्यंत सजीव रूप से मूर्त हो उठता है।
‘रोज़’ कहानी में मालती दमघोटू जिंदगी का भार ढोने वाली नारियों का प्रतिनिधित्व करती है। इस कहानी में पति एवं परिवार द्वारा बनाई गई परंपरागत दिनचर्या में स्त्री के कोमल भाव और सूक्ष्म संवेदनों के निस्पंद हो जाने वाली नारी के जीवन की भावोल्लास विहीन यांत्रिकता का अंकन है।
गहन चिंतन-मनन का संस्कार अज्ञेय की अधिकांश कहानियों की मूल संवेदना है। परंपरागत समाज में सामंतवादी मूल्यों की शिकार स्त्री की स्थिति और पारिवारिक घुटन को अज्ञेय ने गहरी अंतर्दृष्टि एवं आत्मीयता से देखा है ।
डॉक्टर गोपाल राय के शब्दों में कहा जा सकता है कि " ‘रोज़’ निम्न मध्यम वर्गीय जीवन की दहला देने वाली तस्वीर है। दांपत्य जीवन के नीरस, बुझे सारहीन जीवन को अंकित करने में अज्ञेय को अद्भुत सफलता मिली है।
सन्दर्भ:
1. राजपाल अज्ञेय संपूर्ण कहानियां पृष्ठ संख्या 19 -20
2.ओम प्रभाकर अज्ञेय का कथा साहित्य पृष्ठ संख्या 161 -162
3.अज्ञेय चिंता नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
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