हिन्दी कहानी का विकास: डॉ. शिप्रा श्रीवास्तव ‘सागर’
हिंदी कहानी वास्तव में आधुनिक युग की देन है जिसके अंतर्गत समयानुसार रचनाकारों ने मौलिक प्रयास के द्वारा कहानी कला के रूपों को सम्पन्न किया है। कहानी गद्य की एक महत्वपूर्ण विधा है। जिसका वास्तविक विकास मुख्यतः भारतेंदु के आगमन के पश्चात हुआ तदन्तर उसका विकास होता रहा है। अतएव हिंदी कहानी का उद्भव और विकास भारतेंदु के ही युग से माना जा सकता है। भारतेंदु के आगमन से पूर्व कथाओं का रूप आत्मिक और आध्यात्मिक जीवन की अभिव्यक्ति तथा नैतिक उपदेश का माध्यम थी और गद्य का परिष्कृत रूप भी साहित्य क्षेत्र में नहीं के बराबर था। प्राकृत, अपभ्रंश तथा चारण साहित्य में कथा तत्त्व प्राप्त हुए जिसमें मुख्यतः ‘बीसलदेव रासो’, ‘पृथ्वीराज रासो’ आदि रासो रचनाओं का स्वरुप सामने आता है। मध्यकालीन हिंदी आख्यानक काव्य का कथा-रूप प्रेम पर आधारित था- जायसी कृत ‘पद्मावत’, कुतुबन कृत ‘मृगावती’ तथा नल-दमयंती की कथा प्रेम पर आधारित कथा है।
भारतेंदु युग तक आते-आते हिंदी भाषा के माध्यम से ‘हिंदी कहानी’ के अतिरिक्त गद्य की अन्य विधाओं का पूर्ण विकास हुआ। अतएव भारतेंदु युग हिंदी साहित्य का नवोत्थान युग सिद्ध हुआ । भारतेंदु के समय जो विकास हुआ तत्पश्चात धीरे-धीरे उन्नति की ओर अग्रसर होता हुआ आज इतना व्यापक हो गया कि युग सत्य की प्रमाणिकता को अभिव्यंजित करने में पूर्णतया सफलता प्राप्त हो चुकी है।
आधुनिक कहानी अपनी कलात्मक रूपों में सन 1900 में प्रकाशित ‘सरस्वती’ नामक मासिक पत्रिका के द्वारा अपना वैशिष्ट्य स्थापित कर सकी और हिंदी कहानी के उद्भव के साथ उसका पूर्ण विकास भी इसी पत्रिका के माध्यम से संभव हो सका।
कहानी के शिल्प विधा की दृष्टि से पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी का ऐतिहासिक महत्व है। उन्होंने केवल 3 कहानियां- ‘सुख में जीवन’, ‘बुद्धू का कांटा’ और ‘उसने कहा था’ लिखकर हिंदी कहानी के शिल्प कला को विकास की ओर उन्मुख किया। इसके पश्चात हिंदी कहानी को व्यापक और विकसित स्वरूप प्रदान करने वाले पुरोधा प्रेमचंद और प्रसाद है।
हिंदी कहानी का आरंभ तो आधुनिक युग की देन है लेकिन वास्तव में आधुनिक हिंदी कहानी के विकास के जन्मदाता प्रेमचंद और प्रसाद हैं जिनके उदय से समूचा युग प्रभावित रहा है। प्रेमचंद का कहानी साहित्य तो इतना विशाल है कि उस में समूचा युग समा गया है जैसे प्रेमचंद पूर्व हिंदी कहानी, प्रेमचंद युगीन कहानी, प्रेमचंदोत्तर कहानी। यही कारण है कि हिंदी कहानी के विकास का इतिहास प्रेमचंद के नाम से अभिहित किया गया है। प्रेमचंद की प्रथम हिंदी कहानी 1915 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। उनकी कहानियों की संख्या कुल मिलाकर 300 से ऊपर है। उन्हें कहानी को जीवन का अंग माना और कहा कि सबसे उत्तम कहानी वह होती है जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो। अपनी ही कहानियों के उदाहरण देते हुए आपने बताया कि मेरी ‘सुजान भगत’, ‘मुक्तिमार्ग’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘महातीर्थ’ नामक सभी कहानियों में एक न एक मनोवैज्ञानिक रहस्य खोजने की चेष्टा की गई है।
प्रसाद जी की कहानियों के पृष्ठभूमि सांस्कृतिक है- जिसमें भावुकता और कल्पना का समन्वय मिलता है। इनकी कहानियों में प्रेम के विविध पक्ष और नारी चरित्र के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्रसाद की कहानी का रचनाकाल 1911 ई से 1937 ई तक फैला हुआ है। इनके कुल पांच कहानी संग्रह उपस्थित हैं – ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आंधी’ और ‘इंद्रजाल’
प्रेमचंद और प्रसाद के रचना काल के बाद हिंदी कहानी की दिशा में विशेष बदलाव आया। कहानियों का प्रारंभिक रूप मुख्यतः कल्पना, आदर्श, यथार्थ और लोकमंगल की भावना से प्रेरित और प्रोत्साहित था। तत्पश्चात सन 1936 में प्रेमचंद के निधन के पूर्व ही हिंदी कहानी में घटित परिवर्तन की आहट सुनाई देने लगी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भारतीय मानस में व्यक्ति स्वतंत्र न थे, नए राष्ट्र और नए मनुष्य के निर्माण से संबद्ध जो भावानुकूल और आदर्शवादी कल्पनाएं, प्रबल आशंकाएं और अभिलाषाएं थी वह मुख्यतः वस्तु और शिल्प फिर दोनों दृष्टियों से परिवर्तित हुई और स्थूल उपकरणों की अपेक्षा सूक्ष्मता का विश्लेषण हुआ। फलस्वरुप अनेक नई प्रवृत्तियों का विकास हुआ- जीवन दर्शन और मनोविज्ञान, इन दोनों प्रवृत्तियों को लेकर कहानियां विशेष रूप से प्रभावित हुई। मानव-मन की आंतरिक अन्विति तथा आंतरिक संबंध का चित्रण कहानियों में अभिव्यंजित होने लगा और कहानी का एक नया रूप सामने आया। कहानी में कल्पना एवं भावना के स्थान पर मनोविश्लेषण द्वारा बुद्धिवाद और तर्क की सूक्ष्म अभिव्यक्ति कहानियों में मुखरित हुई। फलतः घुटन, निराशा और कुंठा का स्वर कहानियों में आया तथा हिंदी कहानी के क्षेत्र में नवीन युग और उत्कर्ष काल के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। हिंदी कहानी के इस विकास काल में युगीन प्रवृत्तियाँ मुख्यतः दो क्षेत्रों में मुखरित हुई- सांस्कृतिक और सामायिक। कहानी-कला के उत्कर्ष काल में जीवन-दर्शन, मनोविज्ञान, यौनवाद और साम्यवाद इन प्रमुख प्रवृत्तियों का विकास हुआ जिन्होंने इस युग को अपूर्व प्रेरणा व चिंतन और विश्लेषण की नई दृष्टि से कहानी-कला को आलोकित किया। वस्तुतः यह समस्त प्रवृत्तियाँ इतनी शक्तिशाली, क्रांतिमूलक और युग-सापेक्ष है कि इनके प्रभाव और इन की प्रेरणा से हिंदी कहानी-साहित्य का स्वर्ण द्वार खुलता है।
जीवन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में मानवतावाद ने जीवन दर्शन को सर्वग्राही और व्यापक बनाया। इस मानवतावाद में अब पुरातन पंगुता, अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के अपेक्षाकृत समस्या व्यक्तिपरक, भावपरक, चरित्रपरक हो गई जिसमें समाज के अपेक्षा व्यक्ति सापेक्ष को अधिक महत्व दिया गया है। इस युग के प्रमुख कहानीकारों में जैनेंद्र कुमार, सियारामशरण गुप्त, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, उपेंद्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर आदि प्रमुख कहानीकार हैं जिन्होंने कहानी-कला को एक विशेष दिशा की ओर मुड़ते हुए नयी प्रवृत्तियों के आधार पर कहानी-कला को आगे बढ़ाया। इनकी कहानियों का धरातल मुख्यतः व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में, व्यक्तिगत चरित्र के आंतरिक समस्याओं का मनोवैज्ञानिक धरातल पर सहानुभूतिपूर्ण अंकन करते हुए कहानी को एक नई अंतर्दृष्टि, संवेदनशीलता और दार्शनिक गहराई प्रदान की है। सामाजिक रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, स्त्री विमर्श और स्वतंत्रता की भावना का विकास करने के लिए एक नए कदम का उन्मेष कहानीकारों ने अपनी कहानियों के माध्यम से किया और कहानी का विकास स्वतंत्र अस्तित्व लेकर विविध प्रयोगों द्वारा विस्तार पाने लगा।
वस्तुतः मानसिक द्वंद्व एवं घात-प्रतिघात से अनुप्राणित जैनेंद्र की कहानियों में, ‘एक रात’, ‘पत्नी और पाज़ेब’ मुख्यतः वैयक्तिक प्रश्नों और नीति की बुनियादी समस्याओं का विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं। मनोवैज्ञानिक प्रभाव को कलात्मक परिष्कार देने में ‘अज्ञेय’ का अद्वितीय स्थान है, इनकी कहानियों में समिष्टिमूलक स्थूल चरित्रों की अपेक्षा व्यक्तिगत चरित्रों को विशेष आग्रह मिला है जिसमें मनोवैज्ञानिकता की निष्फल लौ विद्यमान है। इनकी कहानियों में रचना शैली का नवीन प्रयोग हुआ है तथा हिंदी कहानी के विकास में अत्यंत गौरव प्राप्त हो सका है- ‘रोज़’, ‘धोखा’, ‘गैंग्रीन’, ‘पुरुष के भाग्य’, ‘हीलीबोन की बत्तखें’ आदि इनकी बहुचर्चित कहानियां है। इलाचंद्र जोशी जी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति के प्रतिनिधि कलाकार के रूप में प्रतिस्थापित हुए। समाज के यथार्थ जीवन की समस्याओं को प्रतिबिंबित करने वाले कहानीकार ‘अश्क’ की कहानियों में मौलिकता का विशेष आग्रह मिलता है। यशपाल समाजवादी कहानीकार के रूप में दलित शोषित वर्ग एवं धार्मिक रूढ़ियों के प्रति विद्रोह करने वाले संवेदनशील कहानीकार के रूप में उपस्थित हुए- ‘एक राज’, ‘बदनाम’, ‘जबरदस्ती’, ‘आदमी का बच्चा’, ‘फूलों का कुर्ता’ मानसिक विश्लेषण एवं व्यक्ति संघर्ष को लेकर लिखी गयी उच्च कोटि की कहानियाँ हैं। मनोवैज्ञानिक आधार तथा सामाजिक चेतना से अनुप्राणित भगवतीचरण वर्मा की कहानियों में तीक्ष्ण व्यंग्य का पुट मिलता है। जिसमें रूढ़िवादी समाज के प्रति विद्रोहात्मक अनुगूँज के स्वर लक्षित होते हैं- ‘प्रायश्चित’, ‘पराजय’, ‘राख और चिंगारी’ इनकी श्रेष्ठ प्रतिनिधि रचनाएं हैं।
इस प्रकार प्रेमचंदोत्तर युग की कहानियों का विकास एक विशेष दिशा में लक्षित है। इन कहानियों में कहानी कला का मेरुदंड व्यक्ति अथवा चरित्र हो गया, चरित्र की अंतः प्रेरणाओं तथा मानव मन की जटिलताओं को सामान्य शिल्प विधान में न बाँध पाने के कारण कहानी-कला में ‘रेखाचित्र’, ‘सूचनिका’, ‘झांकी’, ‘व्यंग्य चित्र’, ‘संस्मरण’ आदि रूप विधानों की अवतारणा हुई।
लंबे संघर्ष के बाद देश के स्वतंत्र होने पर हिंदी कहानियों में भी इस नए उल्लास और नवीन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हुई। राष्ट्रीय स्वाधीनता की प्राप्ति के पश्चात विकसित होने वाली स्वतंत्र सांस्कृतिक चेतना के साथ नए कवि नए आलोचक और नए कहानीकारों के पीढ़ी सामने आई। जिनकी कहानियों में स्वभावतः आत्मसजगता का विकास हुआ और बदलते हुए परिवेश तथा जीवन के विघटन का दौर आरंभ हुआ।
1955 में ‘कल्पना’ में दुष्यंत कुमार का लेख ‘नई कहानी: प्रयाग और परंपरा’ प्रकाशित हुआ जिसमें कहानी को पहली बार ‘नई’ संज्ञा से विभूषित किया गया। युगीन संक्रमणशील परिस्थितियों के फलस्वरुप नई संवेदना से युक्त नई पीढ़ी ने सर्जनात्मक धरातल पर जो अभिव्यक्ति दी, वह स्वतः पूर्ववर्ती कहानियों से भिन्न हो गई। कहानियों की नई प्रवृत्तियों के लिए मोटे तौर पर सन 50 के आसपास का समय निर्धारित किया जा सकता है। इस सिलसिले में शिव प्रसाद सिंह की कहानी दादी मां जो 1951 के ‘प्रतीक’ में छपी थी। अमरकांत, मारकंडे, शैलेश मटियानी, रेनू, शेखर जोशी, लक्ष्मीनारायण लाल, रांगेय राघव इत्यादि कथाकारों ने अपनी कहानियों में आंचलिकता को प्रमाणिक और जीवंत रूप दिया। इस तरह की कहानियों में कहानी गांव की मिट्टी की सोंधी गंध थी, वह ताजगी से भरी हुई तथा पर्याप्त आकर्षक थी।
नई संवेदना को पुराने कथाकार अपने से संपृक्त न कर सके। युद्ध-पूर्व की बड़ी प्रतिमाओं की रचना-शक्ति को 1945 तक पहुंचते-पहुंचते किसी ने ग्रस लिया। नई कहानी, नए कथाकार की परिवर्तित जीवन बोध की कहानी है। नई कहानी की विशिष्टता यथार्थवाद की प्रतिष्ठा के परिप्रेक्ष्य में है। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ में लिखते हैं कि “अनावश्यक अलंकृति से हटकर आज की कहानी यथार्थ चेतना के सभी सूक्ष्म स्तरों को एक सहज भूमि पर उपलब्ध कराना चाहती है। आज के कहानीकार ने यथार्थ के नानाविध पक्षों का उद्घाटन किया है जिसके प्रति प्रायः हम उदासीन रहा करते थे”। डॉ. देवीशंकर अवस्थी नयी कहानी का वास्तविक जन्म सन 1955 से मानते हैं जब ‘कहानी’ पत्रिका का पुनः प्रकाशन होता है। डॉ. इंद्रनाथ मदान के अनुसार नयी कहानी के आन्दोलन के शुरुआत और पूर्ण प्रतिष्ठा डॉ नामवर सिंह द्वारा हुई। फिर भी नई कहानी का वास्तविक आरंभ 1950 में ही हो गया था जिसकी चर्चा उस युग के लेखकों और समीक्षकों ने गोष्ठियों एवं साहित्यिक सम्मेलनों में पूरे जोर के साथ आरंभ की।
इस प्रकार स्वातंत्र्योत्तर कहानी में शिल्पगत और भाषागत परिवर्तन का विकास भी पुरजोर ढंग से हुआ। नई कहानी की अपनी कुछ अलग विशेषताएं भी कहानियों में निहित हैं जो पुरानी कहानियों से अलग एक विशेष दिशा में प्रोत्साहित हुई। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव ने नई कहानियों की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “आज की कहानी में कथानक, चरित्र, वातावरण और प्रयोजन के सार्थक सांकेतिक अभिव्यक्ति केवल कलात्मक विशेषता एवं भाव निपुणता के कारण नहीं बल्कि एक नई संवेदनशीलता एवं नए यथार्थ बोध से व्युत्पन्न है”।
नई कहानी में युग सत्य को अभिव्यंजित किया है। इस प्रकार नई पीढ़ी के कथाकारों ने कुछ ही वर्षों में अपना एक नया व्यक्तित्व बनाया जिसमें यथार्थ खंड के नए-नए पहलुओं को उभारने और उसके अंदर जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों के चित्रण को आत्मसात किया गया। इस प्रकार नई कहानी के संदर्भ में मोहन राकेश की कहानी ‘एक और जिंदगी’, राजेंद्र यादव की ‘जहां लक्ष्मी कैद है’, कमलेश्वर की ‘खोई हुई दिशाएं’, उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’, रेणु की ‘तीसरी कसम’, मन्नू भंडारी की ‘यही सच है’ आदि नई कहानियां है जिसमें बदली हुई मानसिकता, नवीन आर्थिक परिस्थितियों से जूझते मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं, पीड़ा प्रवंचन और जीवन की भूख का मर्मबेधी मार्मिक चित्रण हुआ है।
आधुनिक कथाकार केवल नगर संबंधी कथाओं को लेकर उपस्थित नहीं हुए वरन उनका लोक जीवन से भी गहरा संबंध स्थापित हुआ। इसमें ग्रामीण, अशिक्षित, असंस्कृत मनुष्यों का उनकी भावनाओं तथा क्रियाकलापों का तीव्र और मार्मिक अनुभूति से अंकन करते हुए अपनी कहानियों में अद्भुत आत्मीयता और अंतरण का परिचय भी दिया। शेखर जोशी का ‘कोसी का घटवार’ तथा कमलेश्वर का ‘राजा निरबंसिया’ नई कहानी होने के अतिरिक्त परंपरा अर्जित उपलब्धि भी है।
सन साठ ईस्वी तक आते-आते नई कहानी जैसे ही शिल्पगत रूढ़ियों का शिकार होने लगी, कहानीकारों की एक दूसरी पीढ़ी उठ खड़ी हुई जिसमें कहानी के प्रचलित रूप से असंतोष व्यक्त किया। उसमें उठाई गई समस्याओं और मूल्यों के प्रति भी उन्हें विरोध दृष्टिगत हुआ। उसने यह अनुभव किया कि जीवन आज के संदर्भ में बेमानी एवं मिथ्या है, साठोत्तरी कहानीकारों के समय यह सत्य अधिक मुखर हुआ। प्रेमचंद के बाद एक साहित्यिक विधा के स्तर पर इसका स्थापित होना नई कहानी के आंदोलन का परिणाम है।
इस पीढ़ी के कथाकारों ने ‘सचेतन कहानी’, ‘अ-कहानी’, ‘समानांतर कहानी’, ‘जनवादी कहानी’ के नारे उठाने के साथ-साथ रचना प्रक्रिया के संदर्भ में अनुभूति की प्रमाणिकता, प्रतिबद्धता, भोगा हुआ यथार्थ, मूल्यबोध आदि शब्दों को कभी फैशन और कभी गंभीरता से लेकर गोष्ठियों एवं पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर वार्तालाप और लेखन को आरंभ किया। सातवें दशक की कहानियों में विरोध का स्वर अधिक प्रखर रहा। यह विरोध आर्थिक असमानता के कारण अधिक उत्पन्न हुआ। इस आर्थिक असमानता तथा जीवन के अन्य अंतर्विरोध को सन साठ के बाद की कहानी में प्रकट किया गया। कुछ विद्वान साठोत्तरी कहानियों को नई कहानी का ही विकास मानते हैं।
सन साठ के बाद की कहानी ने अपनी पूर्ववर्ती परंपरा का सही दिशा में विकास किया है। उसे जीवन के और अधिक नजदीक खींचा है। भारतीय जनजीवन में जितनी वीभत्स संक्रमण और मूल्यहीनता पिछले 20-25 वर्षों में परिलक्षित होती है उतनी पूरी शताब्दी में कहीं भी नहीं मिलती। आजादी का स्वप्न साकार होने के बाद हम दास्तां की जिन नई बेड़ियों में बंद है उनका स्वरूप और अधिक भयानक प्रमाणित हुआ।
‘सचेतन कहानी’ के प्रवक्ता महीप सिंह ने जब सचेतन कहानी की अवधारणा को आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया तो उनका मुख्य बल नई कहानी में सक्रिय इस आत्मपरकता का विरोध ही था। उनके अस्तित्ववादी दर्शन के प्रभाव से अजनबियत और अ-लगाव की जो प्रवृत्तियाँ कहानी में घुसपैठ कर रही थीं व्यक्ति को समाज से काट कर एक स्वतंत्र इकाई के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था। ‘नई कहानी’ की तरफ नई कहानी में भी संत्रास, हताश और मृत्युबोध की बातें की जाने लगी थीं- महीप सिंह ने नई कहानी में सक्रिय इन प्रवृत्तियों के विरुद्ध ही सचेतन कहानी की अवधारणा प्रस्तुत की। इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा- सचेतन एक दृष्टि है। वह दृष्टि जिसमें जीवन जिया भी जाता है और जाना भी जाता है। अपने संक्रांति काल में चाहे हमें जीवन अच्छा लगे या बुरा लगे चाहे उसे घूंट-घूंट पीकर हमें तृप्ति प्राप्त हो, चाहे नीम के रस की तरह हमें उसे आंखें मूंदकर निगलना पड़े परंतु जीवन से हमारी संपृक्ति छूटती नहीं। कड़वे घूंटों से घबराकर जीवन से भाग खड़े होने की बात वयक्तिक रूप में मानव इतिहास में अनेक बार दोहराई गई है और हर बार किसी न किसी प्रकार का दार्शनिक, बौद्धिक आधार देकर उसके औचित्य की स्थापना का प्रयास किया गया है। परंतु मनुष्य की प्रवृत्ति जीवन से भागने की नहीं रही है। जीवन की ओर भागना ही उसकी नियति है।
‘सचेतन कहानी’ यदि नई कहानी की उपेक्षा की प्रतिक्रिया थी तो और ‘अ-कहानी’ नई कहानी में वैचारिकता के क्षरण और राजनीति के निषेध वाली दृष्टि का ही विकास थी- एकांगी, अतिरेकी और अतिरंजनापूर्ण विकास। हिंदी की साठोत्तरी कविता की तरह जिसे ‘अ-कविता’ आंदोलन के रूप में जाना जाता रहा है, ‘अ-कहानी’ का भी मूल स्वर विरोध और निषेध का है। ‘अ-कहानी’ आंदोलन ने साहित्य के पारंपरिक वस्तु और मूल्यों को अस्वीकार कर दिया। इसका अर्थ है कहानी के रूढ़ धारणाओं को अस्वीकार करके लिखी गई कहानी जिसमें जीवन के सहज संदर्भों और संवेदनाओं को कथा के बिना प्रस्तुत कर दिया जाता है। ‘अ-कहानी’ आज के संत्रास, अकेलेपन, टूटन, बिखराव को दिखाना चाहती है। आज की मूल्यहीनता और विसंगति उसका कथ्य है। ‘अ-कविता’ के अनेक कवि- गंगाप्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी और राजकमल चौधरी आदि ‘अ-कहानी’ में भी सक्रिय दिखाई देते हैं और ये लोग ही ‘अ-कहानी’ की घोषणा पत्र तैयार करने की पहल भी करते हैं। गंगाप्रसाद विमल और रविंद्र कालिया इस आंदोलन के प्रमुख प्रवक्ताओं में से रहे हैं। गंगाप्रसाद विमल ‘अ-कहानी’ को आंदोलन न मानकर एक दृष्टि मानते हैं जो कहानी विधा के स्वीकृत मान-मूल्यों के निषेध पर बल देती है।
हिंदी में कहानी संबंधी आंदोलनों ने जहां रचनात्मक सक्रियता और ऊर्जा का माहौल बनाया वहीं लोगों को ऐसा भी लगता था कि इन छोटे-छोटे आंदोलनों और मुद्दों में बंटकर कहानी अपने मूल गंतव्य से भटक गई है। कहानी उससे यथार्थ का अंकन नहीं कर पा रही है जिससे प्रतिबद्ध होकर उसने अपनी विकास यात्रा शुरू की थी और जिसके लिए प्रेमचंद ने उसके लगभग आरंभ में ही अनथक संघर्ष करके उसे एक प्रौढ़ और परिपक्व रूप दिया था। जो लोग इन आंदोलनों में शामिल थे वे तो अच्छी बुरी कैसी भी कहानियां लिखकर कहानी संबंधी चर्चा में बने रहे लेकिन बहुत से ऐसे लेखक थे जो आंदोलनों से जुड़े न होने पर भी सार्थक और महत्वपूर्ण लेखन कर रहे थे। ‘कहानी का विकास’ में मधुरेश लिखते हैं कि- “कमलेश्वर ने ‘सारिका’ के अपने संपादन काल में आठवें दशक के शुरू में समानांतर कहानी के आंदोलन की शुरुआत की”। यह सामानांतर पीढ़ियों और सामानांतर सोच के कहानी थी जिसमें लेखकों की उम्र और विचारधारा का कोई बंदिश नहीं थी। यह पीढ़ीमुक्त लेखन और बहुमूल्य चिंतन पर पुनर्विचार के आग्रह से जन्मी कहानी थी। इस धारा के प्रमुख कहानीकार तथा उनकी कहानियों में मेहरुन्निसा परवेज की ‘आतंकभर सुख’, जितेंद्र भाटिया की ‘शहादत नामा’ और दामोदर सदन की ‘शमशान’ इत्यादि प्रमुख कहानियां थीं।
समानांतर कहानी में जुलूस, भीड़ और दिशाहीन आंदोलनों की भरमार सी है लेकिन सिर्फ इन चीजों के सहारे ही आम आदमी की सच्ची और प्रमाणिक कहानी नहीं लिखी जा सकती। युवा लेखकों की समझ को धुंधलाने का एक व्यापक षड्यंत्र ही इस आंदोलन के अंतर्गत लिखी गई अधिकतर कहानियों और उनका समाजशास्त्र निर्मित करने वाली उद्घोषणा में प्रतिफलित होता दिखाई देता है।
नई कहानियों का मोह त्याग करते हुए कुछ प्रमुख कहानीकार ‘जनवादी कहानी’ की धारा में अपना वर्चस्व स्थापित करते दिखाई देते हैं जिसमें भीष्म सहानी, शेखर जोशी, अमरकांत, मारकंडे, काशीनाथ सिंह, इसराइल, मधुकर सिंह, रमेश उपाध्याय और विजयकांत प्रमुख है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समकालीन कथाकारों ने संबंधों की व्यर्थता, विघटन, संत्रास, कुंठा इत्यादि को अपनी कहानी का मुख्य मुद्दा बनाया। इन कहानियों का विषय सामान्य एवं यथार्थ की भूमि पर प्रतिष्ठित है। आज तक जिसे कहने का साहस नहीं होता था उसे कहानीकार ने साहसपूर्ण कहा है। भाषा का काव्यनुकूल न होकर साधारण शब्द विन्यास की संक्षिप्त, संवेदना संपन्न, सहज और स्वाभाविक रूप में उपस्थित हुई है। कहानीकार कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपनी अभिव्यक्ति अत्यंत सरल और सहज ढंग से कर देता है। उन्होंने कहानियां गढ़ने में अधिक रूचि न लेकर अपने जीवनानुभवों, संघर्षमय जीवन एवं भोगे हुए यथार्थ को ही कहानी का रूप दिया है। यथार्थ के सतही रूप और रूमानी भावुकता का त्याग कर उन्होंने सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति की है। इस प्रकार समकालीन कहानी विषय एवं शिल्प के स्तर पर अपने महत्वपूर्ण विशेषताएं लिए हुए है जो मानव जीवन की यथार्थ भूमि पर प्रतिष्ठित होकर आज के सन्दर्भों में उनके जटिल संबंधों और जीवनानुभवों को संवेदना के स्तर पर चित्रित करती है। समकालीन कहानीकारों की कहानियों को पढ़कर ही आज के मानव के अस्तित्व का सत्याभास किया जा सकता है। ‘हिंदी का गद्य साहित्य’ में डॉ. रामचंद्र तिवारी कहते हैं- “अपने अनुभव और ज्ञान की इस पूंजी के बल पर आगे बढ़ते हुए कहानीकार के हाथों कहानी का भविष्य सुरक्षित है” ।
डॉ. शिप्रा श्रीवास्तव ‘सागर’
बढ़िया लिखा है शिप्रा जी आपने। बहुत बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteरमेश तिवारी
Deleteआभार आपका
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