भोलाराम का जीव’ कहानी में निहित हरिशंकर परसाई की व्यंग्य दृष्टि : सरिता कुमारी
‘भोलाराम का जीव’ कहानी में निहित हरिशंकर परसाई की व्यंग्य दृष्टि
साहित्य की विधाओं में से एक विधा है ‘व्यंग्य’। इसका प्रयोग कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक और कविता में हुआ है। ‘व्यंग्य’ संस्कृत भाषा का शब्द है जो ‘वि’ उपसर्ग को ‘ण्यत्’ प्रत्यय और ‘अज्ज’ धातु में मिलाने से बनता है, जिसका अर्थ है ताना कसना। हिन्दी साहित्य ज्ञानकोश के अनुसार - “व्यंग्य हंसी-मजाक में यथार्थ और कड़वी बात कहने की कला है। इसमें राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि विसंगतियों और विडंबनाओं पर चुटीला प्रहार होता है।" साहित्य में व्यंग्य वह विधा है जिसके द्वारा साहित्यकार अपनी अभिव्यक्ति को प्रहारात्मक रूप में समाज के सामने लाता है। जो कटु होते हुए भी हास्य लगता है, लेकिन यह हास्य व्यक्ति के हृदय को अन्दर से कचोटता है। इसी संदर्भ में हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते है - “व्यंग्य वह है, जहां कहने वाला अधरोष्ठ में हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता हो।" हिन्दी साहित्य की परंपरा को देखे तो यह विधा ‘पृथ्वीराज रासो’ से लेकर आज के वर्तमान साहित्य में भी विद्यमान है।
हरिशंकर परसाई आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य के एक ऐसे कथाकार है, जिनका साहित्य समाज में फैली हुई विसंगतियों और विद्रूपताओं का पर्दाफाश करती है। परसाई जी मूलतः व्यंग्य साहित्यकार है। हिन्दी साहित्य ज्ञानकोश के अनुसार हरिशंकर परसाई - "आधुनिक हिंदी गद्य के कबीर हैं जिन्होंने सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य कला को क्लासिकीय ऊंचाई दी।" इन्होनें कबीर, तुलसी, भारतेंदु आदि की परंपरा को आगे बढ़ातें हुए व्यंग्य विधा को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित किया है। व्यंग्य पर परसाई जी लिखते है - "सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है। वह मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य करता है। अपने से साक्षात्कार करता है। चेतना में हलचल पैदा करता है और जीवन में व्याप्त मिथ्याचार, पाखण्ड, असामंजस्य और अन्याय से लड़ने के लिये उसे तैयार करता है।" इनकी व्यंग्य रचनाएँ पाठकों के हृदय को हँसाती ही नहीं है बल्कि वह उसे समाज की उस व्यवस्था से रूबरू करवाती है, जिससे पाठक के हृदय में उथल-पुथल मच जाती है। इसी संदर्भ में दीपक पाण्डेय ने लिखा है - "हमारा वर्तमान सामाजिक परिदृश्य अनेक प्रकार की विसंगतियों के कारण विकृत हो चुका है। हरिशंकर परसाई युगीन मानव-समाज के सभी पक्षों में व्याप्त कुरीतियों पर बेवाक प्रहार करते हैं और लोक कल्याण की भावना से समाज में नई चेतना का संचार करना चाहते हैं। परसाई जी की संवेदनापूर्ण निष्पक्ष और विवेकोचित अभिव्यक्तियां व्यंग्य को आम जन से जोड़ती हैं और प्रभावशाली अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है।" अपनी रचनाओं में इन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, साहित्यिक, शिक्षा आदि विविध समस्याओं पर व्यंग्य किया है।
अंग्रेजों के शासन से देश जब आजाद हुआ तब इसके विकास के लिए कई योजनाएँ बनाई गयी। लेकिन देखा यह गया कि जितनी तेजी से योजनाएँ बनाई गई उतनी ही तेजी से राजनेताओं का स्वार्थ और उनकी गलत नीतियाँ भी बढ़ती गई। और इसके साथ ही समाज में भ्रष्टाचार का शुरूआत हुआ जिसमें भाई-भतीजावाद, लालफीताशाही, सूदखोरी, सिफारिश, अवसरवादिता आदि न जाने कितनी विसंगतियाँ। इसी संदर्भ में डॉ० इतु सिंह लिखती है - "स्वातन्त्र्योत्तर काल में सरकारी क्षेत्र एवं राजनीति में पनपी बुराइयों का सीधा प्रभाव प्रशासनतन्त्र और नौकरशाही में दिखाई देता है। अँग्रेजों के जाने के बाद भी प्रशासनिक व्यवस्था और नौकरशाही ज्यों-की-त्यों बनी रही। जिस सिद्धान्त एवं शैली में गुलामों पर शासन किया जाता था, उसी का अनुकरण आजाद भारतीयों के लिये किया जाने लगा। स्वाभाविक ही है कि इन क्षेत्रों में नित्य नयी विसंगतियाँ पनपती जा रही हैं। आजादी के बाद प्रशासन और भी निर्मम और कठोर हो गया। वहाँ अधिकार भावना तो लगातार बढ़ती गयी मगर कर्तव्य या दायित्व-बोध लुप्त होता गया। सार्वजनिक क्षेत्र जिसका गठन जन सेवा के निमित्त किया गया वहाँ सबसे अधिक भ्रष्टाचार है। स्थिति इतनी अराजक हो गयी है कि बिना रिश्वत के छोटे-से-छोटा काम करवा लेना भी असम्भव है। भ्रष्टाचार का यह रोग निम्न अधिकारी से लेकर उच्च पदासीन तक फैला हुआ है।" जिसमें देश की आम जनता आज भी पिस रही है। मानवीय संवेदनाएँ समाप्त हो चुकी है और आम जनता इसे देख और सुन रही हैं। इसी संदर्भ में परसाई जी की कहानी ‘भोलाराम का जीव’ की चर्चा करें तो यह कहानी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में फैली हुई भ्रष्ट नीतियों का पर्दाफाश करती है। जिसके घेरे में आम जनता की दशा बद से बदतर हो गयी है।
‘भोलाराम का जीव’ शीर्षक कहानी में परसाई जी ने सरकारी कार्यालयों में हो रहे भ्रष्टाचार, अफसरों की लापरवाही और रिश्वत नीति को दिखलाते है। इस कहानी में लेखक ने लोककथा, पुराण और फैंटेसी के द्वारा प्रशासनतंत्र और नौकरशाही पर व्यंग्य किया है। इसी संदर्भ में डॉ० इतु सिंह ने भी लिखा है - "परसाई ‘भोलाराम का जीव’ फैण्टेसी कथा के माध्यम से रिश्वतखोरी की अमानवीयता को सामने लाते है।" सरकारी नौकरी में रिटायर होने के बाद पेंशन पाना हर व्यक्ति के लिए बड़े भाग्य की बात होती है। सरकारी पेंशन दफ्तरों में भ्रष्टाचार किस कदर फैला हुआ है कि साठ साल के उम्र में रिटायर व्यक्ति भाग-दौड़ करते हुए मर जाता है लेकिन उसे उसकी पेंशन नहीं मिलती। इसी भ्रष्टाचार का शिकार कहानी का नायक भोलाराम भी है। जो पेंशन न पाने के कारण अभाव में उसकी मुत्यु हो जाती है।
धर्मराज, चित्रगुप्त और यमराज इस चिंता में डूबे हुए है कि पाँच दिन पहले प्राण त्यागने वाले भोलाराम का जीव को लेकर यमदूत को आने में इतने दिनों का समय क्यों लग रहा है। तभी यमदूत वहाँ पहुँचता है और वह धर्मराज से कहता है कि भोलाराम का जीव उसे चकमा देकर भाग गया। नारद इस समस्या के समाधान के लिए पृथ्वी लोक आते है। भालेराम के जीव की तलाश करते हुए उन्हें यह पता चलता है कि पेंशन न पाने के अभाव में उसकी मुत्यु हो गयी। तब नारद सरकारी दफ्तर पहुँचते है और वहाँ जाकर वह यह देखते है कि सरकारी कर्मचारी बिना रिश्वत के कोई काम नहीं करते। बस भोलाराम से यही भूल हो गई कि उसने अपने पेंशन के लिए सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत नहीं दी। उसने अपने दरख्वास्तों पर वनज नहीं रखा। यहाँ लेखक ने रिश्वत के लिए ‘वजन’ शब्द का प्रयोग किया है जो सरकारी कर्मचारियों के अनुसार कितना भारी या हल्का होगा। दफ्तर के बड़े साहब नारद जी से कहता है - "आप हैं वैरागी। दफ्तरों के राति-रिवाज़ नहीं जानते। असल में भोलाराम ने ग़लती की। भई, यह भी एक मन्दिर है। यहाँ भी दान-पुण्य करना पड़ता है। आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैैं। भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं, उन पर वज़न रखिए।" भोलाराम के दरख्वास्त पर नारद वनज के बदले अपनी वीणा रख देते है। वीणा रखते ही नारद भोलाराम की आवाज सुनते हैं और उससे कहते है कि मेरे साथ चलो मैं तुम्हें यमलोक ले जाने के लिए आया हूँ। यह सुनते ही भोलाराम का जीव अपनी मजबूरी को प्रकट करते हुए कहता है कि - "मुझे नहीं जाना। मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों में अटका हूँ। यहीं मेरा मन लगा है। मैं अपनी दरख्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता।" लेखक यहाँ प्रशासनतंत्र और नौकरशाही पर व्यंग्य करते हुए उसके भ्रष्टाचार और संवेदनहीन आचरण पर करारा प्रहार करते है। साथ ही इन आचरणों से एक व्यक्ति की कितनी दयनीय स्थिति हो सकती है, इस ओर भी संकेत करते है। भोलाराम की पत्नी इस भ्रष्टाचार का खुलासा करते हुए नारद से कहती है - "क्या बताऊँ ग़रीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गये, पेंशन पर बैठे। पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता, तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गये। फिर बरतन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। फाके होने लगे थे। चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दी।" आज देश की ऐसी अवस्था है कि आम जनता की मुत्यु के पहले ही मुत्यु हो जाती है। भोलाराम की पत्नी कहती है - "पचास-साठ रूपये महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गये और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।“11 मरने के बाद भी भोलाराम की हालत इस कदर त्रस्त हो चुकी है कि वह अपनी दरख्वास्तों को छोड़कर स्वर्ग जाने के लिए तैयार नहीं होता है। लेखक ने पूरे समाज के हृदय में समाये चुप्पी को तोड़ने की कोशिश की है। न जाने समाज में भोलाराम के जैसे कितने लोग है जिनकी आत्माएँ साकारी दफ्तरों के फाइलों में बन्द है। ‘चूहा और मैं’ शीर्षक कहानी में भी परसाई जी ने आम जनता की चुप्पी को तोड़ते हुए चुहे के माध्यम से कहते है - ”आदमी क्या चूहे से भी बद्तर हो गया है? चूहा तो अपनी रोटी के हक के लिए मेरे सिर पर चढ़ जाता है, मेरी नींद हराम कर देता है। इस देश का आदमी कब चूहे की तरह आचरण करेगा?"
‘भोलाराम का जीव’ कहानी में परसाई जी ने न केलव प्रशासनतंत्र और नौकरशाही पर ही व्यंग्य किया है बल्कि उन्होंने यह भी दिखलाया है कि आज वर्तमान समय में किस तरह मनुष्य के जीवन से मूल्यों का विघटन हो रहा है। उन्होंने कहानी के पात्र चित्रगुप्त के माध्यम से यह दिखलाते है कि भ्रष्टाचार के कारण आम जनता की दशा कितनी दयनीय हो चुकी है। धर्मराज से चित्रगुप्त कहते है - "महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है। लोग दोस्तों को कुछ चीज़ भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवे वाले उड़ा लेते हैं। होज़री के पार्सलों के मोजे़ रेलवे अफ़सर पहनते हैं। मालगाड़ी के डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं। एक बात और हो रही है। राजनीतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ा कर बन्द कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी तो किसी विरोधी ने मरने के बाद खराबी करने के लिए नहीं उड़ा दिया?" परसाई जी ने ठेकेदारों, इंजीनियरों, ओवर-सीयरों के पदों पर नियुक्त कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को भी दिखलाते है। धर्मराज नारद जी से कहते है - "नरक में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आ गये हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैंसे लेकर रद्दी इमारतें बनायी। बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गये हैं, जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया। ओवर-सीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़िरी भर कर पैसा हड़पा, जो कभी काम पर गये ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं।" ऐसी नीतियों से परसाई जी का हृदय उन्हें व्याकुल करता है कि विकास की ऐसी परंपरा में ईमानदारी और नैतिकता का पतन हो रहा है। वह इस पतन को बचाने के लिए इसकी समीक्षा करते हैं। वह हँसते हँसाते इन नीतियों पर प्रहार करते हैं लेकिन फिर भी उनका हृदय बेईमानी की घटनाओं से व्याकुल है कि हमारे भारत जैसे महान देश का भविष्य किस दिशा की ओर बढ़ रहा है। इसी संदर्भ में डॉ० इतु सिंह लिखती है कि - "प्रशासन एवं नौकरशाही की भ्रष्टता आज के युग में जग जाहिर है। रिश्वत, सोर्स और अनैतिक मार्ग अपनाये बिना कोई भी काम नहीं हो पाता है। आजादी के बाद से लालफीताशाही और भी भयावह हो गयी, विकास योजनाओं का सारा पैसा कागज पर ही लिखा रह गया। कागज पर ही खेती हुई, पुल बने, साक्षरता मिशन सफल हुए और सारा धन व्यवस्था द्वारा सोख लिया गया। आम आदमी भी अब सारी भ्रष्ट व्यवस्था को चुपचाप स्वीकार चुका है। परसाई के व्यंग्य इस चुप्पी को तोड़ने के लिये लिखे गये हैं। जैसा है उसे वैसा ही रहने देने की वकालत वे नहीं करते हैं। उनका व्यंग्य बदलाव की चेतना उत्पन्न करता है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं को कोई भी पाठक हँसकर नहीं टाल सकता, उसके भीतर चिन्ता एवं क्षोभ की लहर अवश्य ही दौड़ जाती है।"
निष्कर्षतः परसाई जी की लेखनी उनके अपने जीवन की अनुभूतियों की उपज है। जिसका केवल एकमात्र उद्देश्य है समाज में फैली विसंगतियों का पर्दाफाश करना। इनका सम्पूर्ण साहित्य वर्तमान में व्याप्त हर विसंगतियों से जूझता हुआ नजर आता है। इनकी दृश्टि विश्व समाज तक फैली हुई है। ये अतीत, वर्तमान और भविष्य को व्याख्यायित करते हुए अपनी रचनाओं में नजर आते है। यह कबीर की तरह स्पष्टवादिता में विश्वास रखते है। ‘भोलाराम का जीव’ शीर्षक कहानी में सरकारी संस्थानों, दफ्तरों में व्याप्त भ्रष्टाचार, नौकरशाही और लालफीताशाही का खुलासा किया गया है। जो आज भी वर्तमान समय में जीवंत है। लेखक इस कहानी में पाठकों को समाज के उस यथार्थ से रूबरू करवाते है, जहाँ अनैतिक कर्म करने में अब किसी को भी ग्लानि नहीं होती। अनैतिक कार्यों का इतना बोलबाला हो गया है कि आज के समय में हर व्यक्ति इसे नैतिक कार्य समझ कर इस परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। कहानी में परसाई जी ने कभी तेज तो कभी मन्द स्वर के साथ इन अनैतिक कार्यों के प्रति विद्रोह का स्वर उठाया है। उनका मानना है कि समाज से इस भ्रष्टाचार को अगर मिटाना है तो व्याप्त पूरी व्यवस्था को ही जड़ से उखाड़कर एक नए समाज का निर्माण करना होगा।
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