ईदगाह: बाल मनोविज्ञान आत्मीय संवेदना का आख्यान:सरिता देवी (प्रवक्ता-,हिन्दी ) वल्लभ स्नातकोत्तर महाविद्यालय मण्डी (हि.प्र.)
सन् 1906-1936 के बीच में लिखा गया उनका साहित्य उन तीस वर्षों का सामाजिक, सांस्कृतिक दस्तावेज है जिसमें उस दौर के समाज सुधार आंदोलन, सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट रूप से चित्रण किया गया है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छुआछूत, जातिवाद, विधवा विवाह, आधुनिक, स्त्री-पुरूष समानता आदि उस दौर की प्रमुख समस्याओं का चित्रण किया गया है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में सन् 1918-1936 तक के काल खण्ड को ‘प्रेमचंद युग’ कहा जाता है।
प्रेमचंद ने लेखन कार्य की शुरूआत ‘जमाना’ पत्रिका से की थी। पहले वे धनपतराय के नाम से लिखते थे। इनकी पहली कहानी ‘सौत’ ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इन्होंने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी थी। इन्होंने मात्र 13 साल की आयु में ‘होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात’ नामक नाटक की रचना की। सन् 1898 में एक उपन्यास लिखा, इसी समय ‘रूठी रानी’ नामक दूसरा उपन्यास लिखा, जिसका विषय इतिहास था। सन् 1902 में प्रेमा और सन् 1904-1905 में ‘हंसखुर्मा’ व ‘हम सवाब’ नामक उपन्यास लिखे गये, इनमें प्रेमचंद जी ने विधवा जीवन और विधवा सभ्यता का चित्रण बडे अच्छे ढंग से किया है। प्रेमचंद ‘मानसरोवर बहिष्कार’ में कहते है- “बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती ।”यह कथन मानवीय जीवन पर पूरी तरह चरितार्थ होता है। मानव को मेहनत, परिश्रम, लगन के बिना कभी भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। इनकी रचनाओं में तात्कालीन इतिहास बोलता है।
सन् 1930 का दशक एक तरह से भारतीय परिप्रक्ष्य में सांप्रदायिकता के उभार का दौर था, जिसकी चरम परिणति सन् 1947 के विभाजन पर जाकर होती है। प्रेमचंद लिखते है- “सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है, उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह एक गधे की भांति है जो सिंह की खाल ओढ़कर रोब जमाता फिरता है ।”
प्रेमचंद की कहानियाँ समाज को एक नया व सच्चा पथ दिखलाती है। इनकी कहानियाँ अपने आप में अद्भूत एवं अनूठी है। विद्वानों ने इन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ की संज्ञा दी है। प्रेमचंद हिन्दी के महान् कथाकारों में से एक थे। उन्होंने बड़ों के लिए तो विपुल साहित्य रचा, उसके साथ-साथ उन्होंने बच्चों के लिए विशेष रूप से लिखा। उस समय एक ओर स्वतंत्रता संग्राम पूरे जोरों पर था दूसरी तरफ भारतीय बच्चे-बच्चे में राष्ट्रीयता के भाव जगाए जा रहे थे। प्रेमचंद ने बच्चों के लिए लिखा, उस पर चर्चा करने से पूर्व यह जानना आवश्यक हो जाता है कि वे बच्चों के विषय में क्या सोचते थे? निश्चित रूप से उनकी वही सोच कहानी में झलकती है। प्रेमचंद ने सन् 1930 में ‘हंस’ पत्रिका के संपादकीय लेख ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ शीर्षक से लिखा था। इस लेख में बच्चों के प्रति समकालीन विचार लिखे थे, उन्होंने लिखा “बच्चों को प्रधानताः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वे जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे हर काम के गुण दोष को भीतर से देख सकें ।” उनकी एक पुस्तक ‘जंगल की कहानियाँ’ में वे कहानियाँ है जो विशेष रूप से बच्चों के लिए लिखी गयी है।
‘ईदगाह’ कहानी बालमनोविज्ञान पर आधारित है, यह कहानी भावात्मक एवं बालमनोवैज्ञानिक मानी गयी है। इस कहानी का मुख्य पात्र हामिद है जो अपनी दादी अमीना के साथ गाँव में रहता है। इस चरित्र के माध्यम से एक अभावग्रस्त निर्धन बच्चे का वर्णन किया गया है जो समय से पूर्व समझदार हो चुका है। वह अपनी इच्छाओं का दमन किस प्रकार करता है, यह भी कहानीकार ने उसके चरित्र के माध्यम से बखूवी दर्शाया है। किस प्रकार वह अपने जीवन की परिस्थितियों से समझौता करना सीख जाता है, यह भी कहानी में दर्शाया गया है।
ईद के अवसर पर गाँव में ईदगाह जाने की तैयारी हो रही है। लोग अपना काम जल्दी निपटाकर मेले में जाना चाहते है। सबसे ज्यादा खुश बच्चे है क्योंकि उन्हें घर की चिंताओं से कोई सरोकार नहीं होता। उन्हें क्या पता कि उनके अब्बाजान पैसे का इंतजाम किस प्रकार कर रहे है? गाँव में सभी लोग चौधरी कयामत अली से उधार लेते है यदि उसने पैसे नहीं दिये तो त्योहार कैसे बनेगा? हामिद 4-5 वर्ष का नन्हा सा लड़का है जो अपनी दादी अमीना के साथ गाँव में रहता है। गत वर्ष उसके माता-पिता गुजर चुके है, उसे बताया गया है कि उसके अब्बाजान पैसे कमाने गये है और उसकी अम्मीजान अल्लाह मियां के घर से उसके लिए अच्छी-अच्छी चीज़ें लाने गयी है। हामिद आशावान है और प्रसन्न है। अमीना सवैयां (मीठा पकवान) बनाने के इंतजाम में घर पर ही रहती है और हामिद को तीन पैसे देकर मेले में भेज देती है। हामिद के साथ उसके मित्र नूरे, महमूद, मोहसिन और सम्मी भी है। मेले में जाते समय रास्ते में वे बहुत सी चीजें देखते है, उन पर टिप्पणी भी करते है। पुलिस विभाग को लेकर उनके मन में अलग-अलग विचार है।
ईदगाह में नमाज़ पढ़ने के बाद उसके दोस्त चरखी पर झूलते है, कुछ मिठाइयाँ लेकर उसे चिढ़ाते है, कुछ खिलौने खरीदते है, तब भी उसका मन स्थिर है। उसके मित्र उसका मज़ाक बनाते है, हामिद पर हंसते है। उस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता वह मेले की अंतिम दुकान में जाता है और दुकानदार से पूछता है यह चिमटा कितने का है?
दुकानदार उसकी तरफ देखता है और उसके साथ कोई आदमी न देखकर कहता है-तुम्हारे काम का नहीं है जी।
“बिकाऊ है या नहीं?”
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाये है?’
‘तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
“छः पैसे लेगेगे ।”
हामिद का दिल बैठ गया।
‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो तो लो, नहीं चलते बनो।’
“हामिद ने दिल मजबूत करते हुए कहा-तीन पैसे लोगे?”
हामिद ने चिमटा खरीद लिया उसको वह कंधे पर रखकर अपने दोस्तों में शामिल हो गया। सब बच्चे उसका मज़ाक बनाने लगे, हामिद ने चिमटे को लेकर विभिन्न तरह के तर्क दिये। उसके तर्कों से प्रभावित होकर बच्चे उसको छूने के लिए बेचैन होने लगे। हामिद ने उसको ‘रूस्तमें हिन्द’ की संज्ञा दी।
जब रात के ग्यारह बजते है तो मेले में गये हुए सभी लोग वापिस अपने लगते है। तभी हामिद की आवाज़ सुनकर अमीना दौड़कर उसे अपनी गोद में उठा लेती है। उसके हाथ में चिमटा देखकर वह हैरान रह जाती है, उसे गुस्से से डांटते हुए कहती है। मेले में तुझे ओर सामान नहीं मिला। जब दादी हामिद से चिमटे के विषय में पूछती है जो वह दादी से कहता हैः
“यह चिमटा कहाँ था?” (अमीना)
“मैंने मोल लिया है ।” (हामिद)
“कै पैसे में?” (अमीना)
“तीन पैसे दिए” (हामिद)
तभी हामिद अपनी दादी से भावुकता और समझदारी भरी बातें करता है। हामिद अपनी बूढ़ी दादी से कहता है कि अकसर रोटियाँ सेकते समय आपके हाथ जल जाया करते थे इसलिए मैं यह खरीद लाया। अब अमीना का गुस्सा प्रेम में बदल चुका था। वह ईद के सुअवसर पर हामिद के लिए दुआ मांगने लगती। हामिद को समझ नहीं आ रहा था कि अब तो वह दादी के लिए चिमटा भी खरीद लाया है परन्तु फिर भी दादी रो रही है शायद इस भावात्मक संबंध को समझने के लिए वह अत्याधिक छोटा था। उसको स्वयं नहीं मालूम कि उसने कितना बड़ा व महान कार्य किया है। उसकी मासूमियत भरी बातें सुनकर दादी का क्रोध, प्रेम व स्नेह में परिवर्तित हो जाता है। दादी तो उसके त्याग को देखकर आश्चर्य चकित थी। वह भावात्मकता अपने आप में अद्भुत थी।
विद्वानों का मानना है कि यह कहानी ‘सुख की उपभोक्तावादी परिभाषाओं के विरूद्ध है।’ इस कहानी को पढ़कर पहला विस्मय मुख्य पात्र हामिद के बारे में होता है। ऐसा बच्चा सचमुच हो सकता है क्या? उम्र 4-5 वर्ष, गरीब सूरत, दादी का एकमात्र सहारा, सारा दिन-भर मेले में घूमना, भूखे-प्यासे पूरा दिन काट देना और अंत में अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदना। यह संपूर्ण कहानी बाल मनोविज्ञान और स्वाभाविकता के इर्द-गिर्द घूमती है
किसी कृति पर हम टिप्पणी करते समय हम उसे बिना किसी आत्म सजगता के अंतिम और संपूर्ण मान लेते है, और उसी आधार पर फैसला सुना देते है। कहानी में चित्रित मुख्य पात्र हामिद का चरित्र अन्य बच्चों से मेल नहीं खाता। उसका चरित्र अपने आप में अनुपम और अनूठा है। कहानी में चित्रित उसके मित्र भी मध्यवर्गीय परिवार से संबंधित है परन्तु उनकी सोच हामिद से मेल नहीं खाती है। वे सब स्वयं तक सीमित है। मात्र अपना सुख देखते हैं जबकि हामिद स्वयं के बारे में न सोचकर अपनी बूढ़ी दादी के विषय में सोचता है और उसको सुख पहुँचाने के लिए दिन भर मेले में भूखा-प्यासा घूमता है। उसमें परोपकार एवं त्याग की भावना है जो उसको दूसरे बच्चों से अलग करती है। वह स्वयं कष्ट उठाकर दूसरे व्यक्ति को खुश देखना चाहता है। वह सदैव अपनी दादी को प्रसन्न देखना चाहता है। बच्चे सब समझते हैं और सब कुछ जानते हैं। कई प्रकार हम उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाकर उनका दिल दुखाते हैं, उन्हें डांटते फटकारते हैं। बच्चे अपने आस-पास के वातावरण में जिसको भी देखते हैं उस भी घटनाओं का उनके मन में तर्कशक्ति उत्पन्न होती है, वे तर्क करते हैं। बच्चे जो देखते हैं उसका अनुभव करके वे तर्क वितर्क करते हैं, उनकी संवेदनाएँ संजीव हो उठती हैं।
आज हमारे समाज में इस प्रकार के पात्र विद्यामान है परन्तु आज का साहित्यकार उसका वर्णन नहीं कर पाता है। गाँव में आज भी लोग साहूकारों के यहाँ कर्जा लेने जाते है, कर्जा लेकर आजीवन भर वे उनके चंगुल में फंस जाते है। अशिक्षित, भोले-भाले लोग साहूकार की नीतियों को समझ नहीं पाते, उनके जाल में फंस जाते है। इस कहानी के माध्यम से कहानीकार ने सामाजिक विषमता का सजीव चित्रण किया है। समाज में ऊँच-नीच, जातिप्रथा, छुआछूत, बाहृीय आडम्बर, दिखावा करना, कृत्रिमता आज भी विद्यमान है। यह कहानी जब रचित की गयी, तब भी ये प्रासंगिक थी, आज भी ये प्रासंगिक है और आने वाले समय में भी ये प्रासंगिक रहेगी। जब तक मानवीय समाज में सामाजिक वैषम्य, अमीर-गरीब, ऊँच-नीच का भाव रहेगा तब तक ये अपनी प्रासंगिकता बनाये रखेगी। निर्धनता का कितना मार्मिक वर्णन किया गया है, यदि चौधरी उधार नहीं देगा तो त्योहार नहीं मना पाएगा। इस प्रकार की सामाजिक वैषम्य की खाई ने एक मानव को दूसरे मानव से दूर कर दिया है। मानवीय संवेदनाओं को समाप्त कर दिया है, भावात्मक अनुभूतियों को समझने वाला कोई नहीं है।
शिक्षित होने के बावजूद भी समाज पौराणिक रूढ़ियों से विलग नहीं हो पाया है, जो मानवीय संबंधों को घुटन प्रदान करता है। मानव भावात्मक रूप से दूसरे मानव से जुड़ नहीं पा रहा है। ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े की खाई आज भी उन्हें अलग किये हुए है। वर्तमान समय इन खाइयों को पाट नहीं पा रहा है। ‘ईदगाह’ में इस असमानता का वर्णन पूर्णतः किया गया है।
बाल मनोविज्ञान को अभिव्यक्त करने में प्रेमचंद का कोई सानी नहीं है। अमर स्वनाकार ने अपनी काहनी ईदगाह के मुख्य पात्र हामिद से बड़ी-बड़ी बातें कहलवा दी है। हामिद दादी के सानिध्य में रहकर समय से पूर्व परिपक्व हो चुका है। इनकी कहानियों में कृषि प्रधान व्यवस्था, जातिप्रथा, महाजनी व्यवस्था, रूढ़िवादिता की जो गहरी समझ देखने को मिलती है, उसका कारण बहुत-सी परिस्थितियाँ है जो उन्होने स्वयं भोगी हुई है। उनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा घोर निर्धनता में व्यतीत हुआ है। बाल मनोविज्ञान से लेकर व्यस्क, स्त्री पात्रों से समाज का हाल बयां करने वाले प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में इतना वैविध्य भरा कि आज भी उसका कोई सानी नहीं है। उन्होने आठ दशक पूर्व जो लिखा वह आज भी उतना ही लोकप्रिय और प्रसिद्ध है जितना की उस समय था। उन्होने समाज के यथार्थ को छुआ और उसे अपने साहित्य में पिरोया है। उनकी कहानियों में ग्रामीण, शहरी शिक्षित, अशिक्षित, पूंजीपति वर्ग, सर्वहारा वर्ग का भी चित्रण हुआ है। जनवादी कहानी परंपरा को समृद्ध करने वाले और उसे विकास के पथ पर ले जाने वाले रचनाकारों के रूप में प्रेमचंद की अनन्य भूमिका रही है। कहानी मानव के जीवन की गाथा मानी गयी है। मानव की दुःखात्मक अनुभूतियाँ कहानी के रूप में परिवर्तित होकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जाती है। प्रेमचंद मानवता के उपासक थे वे भीतरी मन में छिपी हुई मानवता को प्रकाशित करने में कुशल थे। ईदगाह इसका उदाहरण है।
प्रेमचंद की यह कहानी अमर कहानी के साथ-साथ चर्चित व प्रसिद्ध कहानी मानी जाती है जिसमें उन्होंने समाज का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है। समाज के निम्न वर्ग की वास्तविक निर्धनता, उनकी विवशता, लाचारी, उधार लेने की प्रवृत्ति, सामाजिक आंडबर, बनावटीपन, सामाजिक विषमता, शोषक द्वारा शोषित करने की प्रवृत्ति का यथार्थ वर्णन किया है। यह कहानी अपने छोटे से कथानंक को अपने भीतर समेटे हुए बाल-मनोविज्ञान को दर्शाती है, जो अपने आप में अनुपम एवं अनूठा है।
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