‘‘मालती जोशी के कथा साहित्य में चित्रित नारी विमर्श’’:डॉ. हेमलता गुप्ता , गोरखपुर


(चित्र साभार : गूगल )

समाज के निर्माण में स्त्री और पुरुष दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोनों ही एक दूसरे के पूरक होते है। कभी भी एक अकेला पुरुष घर व समाज का निर्माण नहीं कर सकता, क्योंकि बिना स्त्री के घर का निर्माण नहीं हो सकता। एक चार दीवारी को घर बनाने में स्त्री की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिस घर में स्त्री नहीं होती है वह घर नहीं बन सकता इसीलिए कहा गया है कि ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’। अतः घर की शोभा बढ़ाने में स्त्री का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। प्रत्येक साहित्यकार अपने आस-पास के परिवेश में अत्यधिक प्रभावित होता है, जिस सामाजिक, आर्थिक परिवेश में वह रहता है, उसकी विशेष घटनाओं का उसके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ता है जिसके आधार पर वह अपने पात्रों को अपनी रचना के द्वारा प्रस्तुत करता है। हर काल में नारी के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदला है। प्रारम्भिक काल में स्त्री और पुरुष में कोई भेदभाव नहीं था, परन्तु समाज में परिवर्तन के साथ-साथ स्त्रियों की स्थिति में भी परिवर्तन प्रारम्भ हो गया। धीरे-धीरे स्त्रियों के सारे अधिकार छिनते चले गये और वह अनेक बन्धनों में जकड़ती चली गयी और परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वहन करना ही उनका सबसे बड़ा कर्त्तव्य माना जाने लगा। और वह पूरी तरह परिवार में ही सिमटती चली गई।

साठोत्तरी हिन्दी कथा साहित्य में मालती जोशी एक सशक्त कथाकार के रूप में उपस्थित हुई। नारी के स्वरूप और उसकी प्रतिभा को सही ढंग से उजागर करने का कार्य इन्होंने अपने कथा साहित्य में किया। मालती जोशी एक ऐसी कथाकार है जिन्होंने नारी मन की गुत्थियों को सुलझाने का भरसक प्रयास अपने कथा साहित्य में किया है। इनके कथा साहित्य में नारी की वास्तविक छवि उभरकर सामने आयी है। मालती जोशी की नारी ऐसे जटिल परिवेश में जकड़ी हुई होने पर भी वह अनेक कठिनाईयों को सहते हुए उनका मुहतोड़ जवाब भी देती है। उनकी प्रमुख कहानियाँ- ‘बोल रही कठपुतली’, ‘मध्यान्तर’, ‘बहुरी अकेला’, ‘आउट साइडर’, ‘मोरी रंग दी चुनरियाँ’, ‘विषपायी’, ‘हमको दियों परदेश’ आदि में ऐसी ही नारी के चित्र उपस्थित है। उनकी नारी आर्थिक क्षेत्र में स्वावलम्बी होने पर भी पारिवारिक रीति-नीति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है तो कई बार उसके अपने पति व परिवार द्वारा प्रताड़ित भी होना पड़ता है। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर नौकरी करती है तो कई बार पति की अकर्मण्यता उन्हें नौकरी करने पर मजबूर करती है परन्तु उनकी नारी घर और बाहर दोनों ही जिम्मेदारियों का भली प्रकार निर्वहन करती है। घर और बाहर दोनों ही जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद भी उन्हें शोषण का शिकार होना पड़ता है। मालती जोशी का नारी के प्रति यथार्थवादी दृष्टिकोण है। समाज द्वारा शोषित किये जाने पर भी स्त्रियाँ हार नहीं मानती और पूरी तरह से संघर्ष करती हैं और अपने में जीने की उम्मीद पैदा करती है। मालती जोशी के नारी पात्रों में इतनी शक्ति है कि वह कहीं भी डगमगाती नहीं है बल्कि अपने जीवन में आशा की किरण जलाती है। इस प्रकार हम कह सकते है कि मालती जोशी के कथा साहित्य की स्त्रियाँ दूसरों के सहारे पर नहीं चलती बल्कि वह आत्मनिर्भर हैं। 

मालती जोशी ने नारी जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपने कथा-साहित्य में प्रस्तुत किया। इन्होंने नारी उत्पीड़न, संत्रास के प्रति विद्रोह का भाव तो व्यक्त किया ही साथ बदलते मानवीय जीवन मूल्यों के कारण नारी समस्याओं को चित्रित किया हैं इनके कथा साहित्य में दाम्पत्य जीवन के टूटने, प्रेम सम्बन्धों में बदलाव, वैवाहिक जीवन में आने वाली समस्याएँ तथा आर्थिक दबावों में संयुक्त परिवार का विघटन, अर्थ के दबाव में नारी के भीतर से प्रेम सहानुभूति के चिरपोषित सम्मोहन को उठाया है। अर्थात् नये परिवेश में संघर्ष के रास्ते पर चलने वाली नारी के न जाने कितने चेहरे उन्होंने प्रस्तुत किये हैं। मालती जोशी ने नारी के आधुनिक स्वरूप को उभार कर समाज में स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया है। मालती जोशी ने आधुनिक नारी के वास्तविक स्थिति से परिचय कराया है तथा नारी हृदय की आशा-अकांक्षाओं, मानसिक ग्रन्थियों एवं समस्याओं का मार्मिक चित्रण अपने साहित्य में किया। घर और परिवार दोनों ही सीमाओं में विचरण करती हुई नारी अस्मिता बोध से युक्त है तथा अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठापित करने के लिए नौकरी करती है। ‘बोल रही कठपुतली’ कहानी की नौकरी पेशा पत्नी आभा घर और बाहर दोनों ही जिम्मेदारियों का अच्छे से निर्वाह करती है। आधुनिक युग में अर्थ के बढ़ते महत्व के कारण स्त्री-पुरुष का साथ देने लगती हैं। विवाह होते ही आभा के हाथों में नियुक्ति पत्र पकड़ा दिया जाता है। ‘‘उसकी हाथों की मेंहदी अभी उतरी भी नहीं थी कि उसके हाथों में नौकरी का नियुक्ति पत्र थमा दिया गया।’’1 स्त्री भी अन्य मानव के समान एक स्वतन्त्र और स्वायत्त जीव है। समाज में नारी आज भी अपना सहयोग देकर उन्नति एवं सुखमय जीवन व्यतीत करना चाहती है, परन्तु आभा का पति उसे कभी समझ नहीं पाता। जब पति ही अपनी पत्नी को न समझ पाएं तो उससे क्या उम्मीद की जा सकती हैं। ऐसे में नारी को ही अपने परिवार की बागडोर सम्भालनी पड़ती हैं तो कई बार पति के कर्मशील न होने पर पत्नी अपने परिवार व बच्चों के प्रति अपने कर्त्तव्यों को निभाती है।

‘कडु़वा सच’ कहानी में रजनी के पति की अकर्मण्यता उसके परिवार के लिए कष्टदायक बन जाता है। तब रजनी स्वयं नौकरी कर के अपने परिवार की देख-रेख करती है। रजनी अपनी सहेली से कहती है, ‘‘नौकरी छोड़ दे तो खाएँगें क्या? उसके स्वर में अजीब-सी वेदना थी (रजनी की सहेली) मैंने हौले से पूछा- कोकिल जी क्या सचमुच कुछ नहीं करते।वास्तव में आज नारी की परम्परागत छवि में परिवर्तन आया है। भौतिकता के युग में स्वयं स्वावलम्बी बनकर स्त्रियाँ अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करती है। जिसके कारण स्त्रियों के समक्ष कई बार शोषण का शिकार होना पड़ता है। ‘परम्परा’ कहानी की अम्मा अपनी बेटी से कहती है, ‘‘अपनी मनमर्जी क्या होती है, यह तो कभी जाना नहीं बेटी। बचपन में अपने बाबूजी की करते रहें। शादी के बाद तुम्हारे बाबूजी की कमान में रहे उनकी हर बात माथे ली।’’ इस प्रकार अम्मा ने कितने सीमित शब्दों में नारी जीवन को परिभाषित कर दिया। ‘रानियाँ’ कहानी में वंदना अपने मित्र कुमार द्वारा उपेक्षित होने पर कहती है, ‘‘जनाब हम बीसवीं सदी के अन्तिम छोर पर खड़े है...... और नारी इतनी सक्षम है कि वह एक साथ सभी भूमिकाएँ निभा सकती है, वह एक ही समय गृहिणी भी हो सकती है, सखी भी और सचीव भी पर उसके मौका तो दे।’’ बदलते परिवेश में नारी की स्थिति में काफी बदलाव आया है। आज प्रत्येक स्त्रियाँ शिक्षित होकर अपनी नयी पहचान समाज के समक्ष बना रही है। 

भारतीय समाज में नारी दो प्रमुख रूपों में दृष्टिगत होती हैं। एक परम्परागत और दूसरा शिक्षित आधुनिक व नौकरी पेशा रूप में। मालती जोशी ने नारी के दोनों रूपों से परिचय कराया है। ‘परम्परा’ कहानी में अम्मा नारी की परम्परागत छवि को प्रकट करते हुए कहती है, ‘‘उसका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं वह हमेशा पुरुष के अधीन रही हैं, यह त्रासदी है और यही परम्परा।’’ ऐसा लगता है जैसे यह परम्परागत रूढ़ियाँ केवल स्त्रियों के लिए ही बनी हों। स्त्री इन सब रूढ़ियों से मुक्त होकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना चाहती है, परन्तु समाज उसके समक्ष न जाने कितनी बंदिशे लगा देता है। ‘मोरी रंग दी चुनरियाँ’ की नायिका जया भी समाज की परम्पराओं, रूढ़ियों और मान्यताओं में अपने आप को असहाय एवं निर्बल महसूस करती है। जया के पति की मृत्यु के बाद समाज में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार उसे अछूत करार दे दिया जाता है। उसे अपनो के द्वारा यातना का शिकार होना पड़ता है। उसे घर में बन्द कर दिया जाता है, ‘कॉलेज नहीं जाने देते, टी0वी0 नहीं देखने देते, रेडियो नहीं सुनने देते! पानी भी मांगकर पीना पड़ता’’। उसके रंगीन परिधान, घूमने-फिरने तथा उसके व्यवहार सभी पर बन्धन का बोझ डाल दिया जाता हैं वह इन रूढ़ियों व परम्पराओं से मुक्त होना चाहे तो भी नहीं हो पाती है। समाज द्वारा नारी के लिए बनाई गई इन परम्पराओं के समक्ष आँसू बहाने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता। ‘पाषाण युग’ उपन्यास की नायिका नीरजा को भी परम्पराओं की भेंट चढ़नी पड़ती है। नीरजा के विधवा होने पर उसके बेटे के विवाह में होने वाले सभी मांगलिक कार्यों से उसे अलग कर दिया जाता है। बुआ जी द्वारा उसके इस अपमान को और बढ़ा दिया जाता है और उसे विवश होकर इन परम्पराओं का निर्वाह करना पड़ता है, ‘‘थाल की तरह हाथ बढ़ाया ही था कि जैसे कुछ याद करके बुआ जी बोली, बंकुल पड़ोस से मथुराइन को टेर न ले जरा।’’ इस तरह समाज में आज भी नारी की स्थिति बहुत दयनीय हैं जिससे वह मुक्त होना चाहती है। ‘पिया पीर न जानी’ कहानी में मालती जोशी ने नारी की ऐसी पीड़ा से परिचय कराया है जो अमानवीय है। रमा के बार-बार कन्या के जन्म होने पर सास और बहू के रिश्ते में अनबन उत्पन्न हो जाता है। तब रमा कहती है, ‘‘कन्या के होने पर अर्थात् चौथी कन्या होने पर अम्मा जी का कहना था कि दुःख ने उन्हें पत्थर बना दिया था। पर सच तो यह है कि पत्थर तो वह शुरू से ही थी, पर इस पत्थर दिल इंसान के लिए अपनी कन्याओं का गर्भ में ही गला घोंट दिया था।’’ इस तरह अपनी सास की खौंफ से रमा अपनी दोनों कन्याओं को जन्म से पूर्व ही मार डालती है। आधुनिक युग में शिक्षित स्त्री को भी इस यातना का शिकार होना पड़ता है। समाज में पुत्र को जन्म दिया जाता है जिसके कारण स्त्रियों को इस पीड़ा को भी भोगना पड़ता है। यदि लड़की हो तो उसे समाज व परिवार द्वारा ताने सुनने पड़ते है। ‘कुलदीप’ कहानी में आशा की सास ने तो कह दिया था कि, ‘‘जी नहीं, कहलवाया है कि लड़का होगा तो आएँगी।’’ दोनों पति-पत्नी न जाने कहाँ गये क्या-क्या उपाय किये, ‘‘एक पुत्र का जन्म जैसे दोनों के जीवन का सबसे बड़ा प्रश्न, सबसे बड़ी चुनौती बन गया है कितने ही साधु सन्तों के पैर पूजे गये है। बीसियों जगह कुण्डलियाँ दिखाई गई। व्रत-उपवासों की तो कोई सीमा ही नहीं। पर यह पुत्र रूपी नक्षत्र उनके भाग्याकाश में उदय होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मानों उनके धैर्य की परीक्षा ले रहा था।’’ इस प्रकार अपने वंश को चलाने के लिए क्या-क्या प्रयत्न करने पड़ते है। इस तरह परम्परा से बंधा रहने के कारण नारी के अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, परन्तु आधुनिक युग में नारी ने अपनी परम्परागत छवि से बाहर निकलकर अपने व्यक्तित्व से परिचय कराया है। किन्तु मालती जोशी के साहित्य में हमें नारी की परम्परागत छवि के भी दर्शन होते है। एक ओर वह सास बनकर शोषण करती है तो दूसरी ओर बहू बनकर शोषित होती है।

मालती जोशी ने अपने कथा साहित्य में नारी को आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बताया है। ‘मोहभंग’ कहानी में सुनीता की ननद अपने छोटे भाई-बहन को सँभालती है तथा घर की बड़ी लड़की होने के नाते माँ की गृहस्थी में भी सहयोग देती है। ‘‘विवाह के पश्चात् अपने ससुराल का घर भी भरा-पूरा था। अपने तो तीन ही बच्चे है, पर ननद देवर ढेर सारे थे। कोई न कोई पढ़ाई के लिए हमेशा पास बना रहा है।’’ इस तरह सुनीता की ननद घर की सभी जिम्मेदारियों का अच्छे से निर्वाह करती है। यदि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न हो तो नारी ही सारी भागदौड़ करती है। 

‘अग्निपथ’ कहानी में चंदा का प्रति अकर्मण्य हैं तथा निठल्ला बैठा रहता हैं। जिससे उसके परिवार की स्थिति दिन-प्रतिदिन डगमगाने लगी तब चंदा अपने परिवार का भार सँभालती हुई कहती है, ‘‘मैंने श्रीमान जी से कहा कि जब तक आपके मन लायक काम नहीं मिल जाता, मुझे नौकरी करने दीजिए। आज शिक्षित नारी अपनी डिग्रियों को किसी भी तरह जंग नहीं लगने देना चाहती।’’ ‘मोरी रंग दी चुनरियाँ’ कहानी में जया की सहेली आधुनिक स्वतन्त्र व स्वावलम्बी नारी है वह कहती है, ‘‘नौकरी मेरे लिए मजबूरी नहीं थी। एक भरी-पूरी गृहस्थी थी मेरी। दो बच्चे थे, पति अच्छे ओहदे पर थे। लेकिन मैं अपनी डिग्रियों पर जंग नहीं लगने देना चाहती थी। दो बच्चों के बाद ही मैंने विराम ले लिया था और कैरियर की शुरूआत की थी।’’ अर्थात् जया की सहेली स्वतन्त्र विचारों से युक्त नारी है जो अपने आपको आर्थिक रूप से मजबूत करती है। 

नारी आज घर से बाहर अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए प्रयासरत है। आज शिक्षित स्त्री अपनी अस्मिता व स्वतन्त्रता के प्रति जागरूक है आज स्त्रियाँ अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की कामना करती है। क्योंकि उन्हें यह बोध होने लगा है कि त्याग, बलिदान, समर्पण और सहनशीलता जैसे गुणों में स्त्री असम्भव है जिसके कारण स्त्री के मन में विद्रोह के लिए स्वर मुखरित हुआ। नारी की अस्मिता अन्तर्विरोध व असमानता के प्रति बदलाव लाना चाहती है जिसके कारण उनके व्यवहार में परिवर्तन आया फिर भी उसने अपनी भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को महत्व दिया और उदात्त मूल्यों के कारण सहनशीलता व त्याग के पाठ को कभी नहीं छोड़ा। ‘हमको दियों परदेश’ कहानी की नायिका कुसुम अपने अस्तित्व से परिचय करते हुए अपने परिवार व भाई के लिए पूरी तरह समर्पित होती है। ‘‘उसका पूरा लालन-पालन उसकी पढ़ाई उसकी शादी सब कुछ उसके त्याग का प्रतिफल।’’ कुसुम अपने भाई के प्रति पूरी तरह कर्त्तव्य निष्ठ होकर माँ और पिता की भूमिका निभाते हुए अपने अस्तित्व का परिचय देती है। 

‘कोउ न जाननहार’ कहानी की नायिका मनु अपने परिवार की समस्त जिम्मेदारियों को निभाते हुए अपने परिवार के प्रति सभी कर्त्तव्यों को पूरा करती है। अपने भाई-बहन के लिए वह पूरी तरह अभिभावक की भूमिका निभाती है। नारी अपने ही घर में अपने अस्तित्व का परिचय कराती है अर्थात् वह अपने ही घर वालों को बताती है कि मेरा भी कुछ अस्तित्व और सम्मान है जो आप लोगों से न मिलकर मुझे समाज के द्वारा प्राप्त होता है। 

मालती जोशी के कहानियों की स्त्रियाँ समाज में फैली सभी रूढ़ियों व परम्पराओं के प्रति विद्रोह ही नहीं अपितु समाज में फैली फिजूल मान्यताओं को हटाकर नयी मान्यताओं का निर्माण करना चाहती है। नारी का यह विद्रोही रूप न्याय की लड़ाई के लिए है, वह भी समाज में पुरुष के समान अधिकार प्राप्त करना चाहती है। समाज में फैली मान्यताओं जैसे-दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, परित्याग, विधवा विवाह जैसे परम्पराओं में सुधार लाने के लिए अग्रसर हो सके। इन रूढ़िवादी मान्यताओं से निजात पाने के लिए ही स्त्रियों ने विद्रोही रूप धारण किया। ‘मन न भये दस बीस’ कहानी की नायिका रेखा को सगाई से विवाह तक उसके ससुराल वाले हर बात पर टोकते रहते है। रेखा को अपने आपको बंदिशों में रहना पसन्द नहीं था परन्तु उसके भावी पति कार्तिक का मत है कि, ‘‘पापा जी, अब यह जिम्मेदारी आपकी रही। शहर में हमारे रिश्तेदार भरे पड़े है। अगर वे कहीं जाती भी है तो शिखा को या भाई को साथ ले लिया करें। यों अकेले जाना ठीक नहीं लगता।’’ इस प्रकार समाज नारी पर किसी न किसी रूप में अपनी मान्यताएँ थोपता रहता है, तब रेखा गुस्से में कहती है, ‘‘मेरा अच्छा-खासा तमाशा बना रहा है इन लोगों ने हर तीसरे दिन कोई चला आ रहा है खानदान न हुआ मुगलिया सल्तनत हो गई।’’ इस प्रकार रेखा उनके इस व्यवहार से दुःखी हो जाती है। परम्पराओं व रूढ़ियों से मुक्त होने के लिए वह पूरी तरह अपने आपको मजबूत बनाते हुए अपने अधिकारों की मांग करती है। मालती जोशी ने समाज में फैली कुरीतियों में से एक दहेज प्रथा को भी उद्घाटित किया है। समाज में चली आ रही परम्परा के कारण नारी को अत्यधिक अपमान व संघर्ष करना पड़ता है। ‘कन्यादान’ कहानी की नायिका सुम्मी के घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर परिवार वालों को उसके विवाह की चिन्ता लगी रहती है मध्यवर्गीय परिवार वालों के लिए दहेज की रकम इकट्ठा करना बहुत मुश्किल होता है जिसके कारण सुम्मी की माँ अत्यन्त परेशान होती है। सुम्मी के दद्दू अपने बेटे से कहते है, ‘‘तुम अगर सोचते हो कि कोई नारियल सुपारी के साथ तुम्हारी बेटी ब्याह कर ले जाएगा तो भइये, हिन्दुस्तान में अभी पचासों साल तक वह दिन नहीं आयेगा।’’ किन्तु सुम्मी इन प्रथाओं का विरोध करती है। 

‘राग-विराग’ उपन्यास में बेरोजगार पति के कारण कल्याणी अपनी सभी जिम्मेदारियों को निभाती है परन्तु उसके नौकरी करने पर सभी उसके चरित्र पर संदेह करने लगते है। तब उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ता है - 

‘‘शरण में अपनी बुला ले ओ सांई

दुविधा मन की मिटा दे ओ सांई

तन के सौ दुःख झेल गई मैं

मन के हाथों हार गई मैं

अपनों से ही छली गई मैं

अपनो पर ही भार हुई मैं

दीप जला आशा का या फिर

मुझे जग से उठा ले सांई।’’

इन निराशाजनक विचारों के बाद भी कल्याणी हार नहीं मानती हैं। वह अपने परिवार वालों से विद्रोह करके घर से निकल कर स्वयं को संगीत सेवा में लगा लेती है। 

इस प्रकार आज नारी शिक्षित होकर समाज की थोथी मान्यताओं के प्रति विद्रोही रूप में खड़ी हो गई है। मालती जोशी के कहानियों और उपन्यासों में ऐसी अनेक नारियाँ है जो व्यर्थ की परम्पराओं का विरोध करती है। 

नारी जीवन और उसकी समस्याएँ सदा से ही साहित्यकारों की विषय-वस्तु रही है। बदलते परिप्रेक्ष्य में अधिकांश कथाकारों ने अपने-अपने नजरिये से स्त्री की समस्याओं को देखा है तथा उस समस्या को परखने की कोशिश की है। मालती जोशी ने अपने कथा साहित्य में बदलते परिप्रेक्ष्य में नारी जीवन की अनेक समस्याओं से अवगत कराया है तथा परिवारिक, आर्थिक, सामाजिक सभी प्रकार की समस्याओं को अपने साहित्य में समाहित किया है। आधुनिक युग में धन ने व्यक्ति को अपनी गिरफ्त में ले लिया हैं अर्थात् अपना दास बना लिया है। आज के समय में इंसान की सोच उसकी संवेदना और उसके रिश्ते नाते सब पैसे पर केन्द्रित हो गया है। जिसके कारण मनुष्य की सभी संवेदनाएँ पंगु हो गई है उनके जीवन के सारे सम्बन्ध निर्मूल हो गये है। बढ़ती मँहगाई, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण बेकारी और अनिश्चितता ने व्यक्ति को व्यर्थ ही निःसहाय और अजनबी बना दिया है। अर्थ अभाव के संकट के कारण मानव जीवन दुभर होता जा रहा है तथा शहरों में व्यक्ति अत्यन्त दयनीय जीवन जीने को मजबूर हो जा रहा है और यही आर्थिक दबाव स्त्रियों के जीवन में अनेक समस्याओं को जन्म देती है। अपने परिवार की इच्छा पूर्ति के लिए उसे स्वयं की इच्छाओं का दमन करना पड़ता है और यही आर्थिक विषमता विवाह और दाम्पत्य जीवन में बिखराव की स्थिति ला देती है। ‘मन धुआँ-धुआँ’ कहानी में आर्थिक विषमता के कारण परिवार को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सुचित्रा की अम्मा व पिता की मृत्यु के पश्चात् घर के सारे कर्त्तव्य बड़े भैया पूरी तरह से निभाते हैं। वे चाहते तो छोटे भाई अनिल की तरह सभी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर अलग हो सकते थे परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर भी वह सुचित्रा का विवाह बहुत ही अच्छी तरह करते है सुचित्रा अपने बड़े भैया को बाबूजी कहकर संबोधित करती है। ‘‘वैसे अपनी समझ में बाबूजी ने अच्छा ही घर देखा था उस समय उनकी हैसियत ही क्या थी। गाँव के मिडिल स्कूल के हेडमास्टर को तब मिलता ही क्या था। वह तो पुरखों का बनाया मकान और थोड़े से खेत थे। इसलिए इज्जत से गुजर हो जाती थी बस।’’18 इस तरह से मध्यवर्गीय नारी को धन के अभाव में अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। 

भारत पुरुष प्रधान देश है। ‘‘पुरुष प्रधान संस्कृति का अनुपालक पुरुष अपनी इच्छा से जिससे चाहे जितनी चाहे शादियाँ कर सकता है। समाज के सभी सामाजिक बन्धन तो केवल स्त्रियों के लिए ही है, शादी के पश्चात् स्त्री को अपने पिता का घर छोड़कर अपने पति के घर ससुराल में आना होता है।’’ ससुराल में भी नारी की ही जिम्मेदारी समझी जाती है कि वह पारिवारिक सदस्यों के बीच मेल-मिलाप बनाएं रखे। उनकी खुशी का ध्यान रखे। यदि स्त्री द्वारा कही भी चूक होती है तो उसे पति और उसके परिवार के क्रोध का सामना करना पड़ता है। गलती अगर पुरुष की ही हो तो स्त्री को दोषी मानकर अपमानित किया जाता है। ‘पाषाण युग’ उपन्यास की नायिका नीरजा का अपने से दूने उम्र के प्रोफेसर से विवाह करने पर उसे अपने पति व बच्चों से उपेक्षा, अनादर प्राप्त होता है, फिर भी अपने दाम्पत्य जीवन को बचाने के लिए वह चुपचाप सब कुछ सहती रहती है।

भारतीय समाज में बांझ नारी को हेय दृष्टि से देखा जाता है उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता, जिससे वह स्वयं को अत्यन्त अकेला एवं अधूरा समझने लगती है। सन्तान के अभाव में उसे हर जगह अपमानित होना पड़ता है। मालती जोशी ने इन नारियों की पीड़ा व मनोदशा को अपने साहित्य में उजागर किया है। ‘ममता तू न गई मेरे मन से’ की नायिका अपने पति द्वारा उपेक्षित महसूस करती है। उसकी सन्तान न होने पर उसके जीवन में अकेलापन रहता है। अपने जीवन के अकेलापन को भरने के लिए वह अपने पति के भाई के बच्चों को अपने पास ले आती है, परन्तु वह बच्चे उसे माँ के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते है, तब वह कहती है, ‘‘जीवन का सारा रस जाता रहा घर उस दिन बोर्डिग स्कूल की तरह हो गया है उसमें कर्त्तव्य तो सभी निभा रही हूँ पर प्राणों का संचार कहीं नहीं है।’’20 इस तरह वह बच्चों के आने पर भी वह सदैव बच्चों के लिए तरसती रही। सन्तानहीन नारी को अपमान व एकाकीपन पूरे जीवन भर झेलना होता है। सास, पति एवं पारिवारिक सदस्यों द्वारा उसे यह अत्याचार एवं अपमान सदैव प्राप्त होता है। मालती जोशी ने नारी की इस पीड़ा को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है।

भारतीय समाज आज भी पुरानी प्रथाओं एवं मान्यताओं से ग्रस्त है, हिन्दू समाज में विधवा का शोषण एवं उसके अनेक विषमताओं से गुजरना होता है। ‘‘मध्यवर्गीय समाज ने स्त्री की वैधष्यपूर्ण स्थिति को सबसे बड़ा अभिशाप माना है, यहाँ तक कि उसका मुँह देखना भी अमंगल माना है।’’विधवा स्त्री अपने ही परिवार वालों द्वारा ही आश्रय पाने के लिए मजबूर हो जाती है तथा समाज द्वारा कई प्रतिबंध लगा दिये जाते है, जैसे- हँसते, बोलते, चलते, फिरते सभी बातों में बार-बार टोक कर एवं ताने देकर उनका जीवन अत्यधिक कष्टदायक बना दिया जाता है। मालती जोशी ने शहरी एवं मध्यवर्गीय विधवा नारी जीवन की इस समस्या का यथार्थ चित्रण किया है। ‘कोउ न जाननहार’ कहानी में परिवार वालों ने अपनी बेटी का विवाह बड़ी धूमधाम से किया, किन्तु परिस्थितियाँ ही उनके विरूद्ध हो जाती है। मनु की बहन कहती है, ‘‘भाग्य की बात......... इतने धूमधाम से ब्याही गयी दीदी ससुराल में सालभर भी नहीं रह पायी दो-दिन की ना मालूम सी बीमारी में जीजाजी अचानक चल बसे और सूनी माँग लिए दीदी पुराने घर में लौट आयी। साथ में था दो महीने का गर्भस्थ शिशु और ससुराल की ढेर सारी लांछनाएँ।’’ जहाँ यह दुःख माँ-बाप के ऊपर कहर बनकर गिरता है तो वहीं ससुराल वाले उसे बोझ मानकर उसका तिरस्कार करने लगते है और उससे अपना रिश्ता तोड़ लेते है। मनु के घर में कदम रखते ही कुछ दिन बाद उसके पिता की मृत्यु हो जाती है तो उसकी माँ भी उसे ताने मारने लगती है कि, ‘‘खसम को खाकर मरने यहाँ आ गयी और बाप को भी खा गयी। दोनों घर उजाड़ कर अब महारानी चैन से बैठी है।’’ इस प्रकार अपने ही पराये लगने लगते है। इस प्रकार विधवा नारी को मध्यवर्गीय समाज में कई प्रकार की समस्याओं व कष्टों को सहना पड़ता है। 

आज के समय में महानगरीय जीवन और यान्त्रिक सभ्यता के कारण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में पूरी विशृंखलता, अकेलापन, निराशा, कुष्ठा व असुरक्षा की भावना घर कर गयी है। नारी जीवन भी इन विसंगतियों से अछूता नहीं है। शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण नारी पुरुष में अपना सहारा ढूँढ़ती है, विवाह के पश्चात् पति के सहारे अपनी सभी खून के रिश्ते-नातों को छोड़कर अनेक स्वप्नों को सजाएँ हुए ससुराल चली आती है और अपना घर बसाती है परन्तु कई बार स्थितियाँ उसके अनुकूल नहीं हो पाती और उसका जीवन नाटकीय बन जाता है। यह प्रताड़ना उसकी सास, ननद, जेठानी, देवरानी द्वारा पुत्र न होने के कारण, दहेज न लाने के कारण रंग रूप में अन्तर होने तथा बांझ होने आदि कई कारणों से दी जाती है। मालती जोशी के स्त्री पात्रों को हम परिवार में इन समस्याओं को झेलते हुए देखते है। ‘संवदेना’ कहानी में सोनाली की माँ उसे जन्म देते ही स्वर्गवासी हो जाती है। आठ-दस दिन तक जब कोई रिश्तेदार नहीं आते है तो सिस्टर पाल उसे अपने घर ले आती है। जब यह बात उसकी सहेली शुचि को पता चलता है तो उसके पिता कहते है, ‘‘ऐसी वैसी लड़कियों से दोस्ती ना किया करें।’’ क्योंकि इससे इनकी प्रतिष्ठा पर प्रहार होता है। वही भारतीय समाज में पुत्र न होने पर भी नारी को बार-बार मानसिक प्रताड़ना सहनी पड़ती है। ‘‘आप तो खुद इस की गवाह रही फिर अपने भाग्य से लड़ने में क्या तुक है और यहाँ कौन सी इस्टेट रखी है, जिसके लिए वारिस चाहिए।’’ ‘ऋणानुबन्ध’ उपन्यास में प्रतिमा के पिता द्वारा घर की नौकरानी मंदा से शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर उसकी अवैध सन्तान के भविष्य को लेकर प्रश्न खड़ा हो जाता है तब उनकी पत्नी उनसे कहती है, ‘‘बताइये ऐसा कौन सा सुख मैंने आपको दिया है जो उसने नहीं दिया? फिर भी उसे दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक देंगे?’’ पुरुष नारी के रूप सौन्द्रर्य पर इस तरह आकर्षित हो जाते है कि उन्हें अपने परिवार वालों की इज्जत का भी ख्याल नहीं रहता। परन्तु इस पुरुष प्रधान समाज में नारी की सुनने वाला कोई नहीं। सारी गलती स्त्रियों में निकाल दी जाती है और उसी पर लांछन भी लगा दिया जाता है। पाषाण युग उपन्यास की नायिका सहनशीलता की मूर्ति है, जिसे पग-पग पर बलिदान करने के उपरान्त परिवारजनों से उपेक्षा ही मिलती है। विधुर एवं दुहाजू प्रोफेसर अपनी शोध छात्रा नीरजा से ब्याह करते है किन्तु उसे मातृत्व सुख से वंचित रखते हुए उसका मानसिक शोषण करते है, साथ ही उसकी शैक्षिक गतिविधियों तथा शोध कार्य पर रोक लगाकर उसका बौद्धिक शोषण करते है, तब नीरजा कहती है, ‘‘इनके पिता के रंगमहल में बौद्धिक कक्ष खाली था मेरी नियुक्ति वहीं हुई है।’’ ऐसे में उसकी स्थिति बड़ी ही दयनीय व विवश होने लगती है। ‘‘ये अकेलापन आज का नहीं है, तुम्हारे पिता के घर रहकर और सीखा ही क्या है? बचपन में तुम लोगों ने उस जादूगर की कहानी तो सुनी होंगी, जो एक राजकुमारी को वश में कर लेता है दिनभर तो बेचारी पत्थर की मूर्ति बनकर रहती है और रात में............।’’ मालती जोशी ने इस उपन्यास के माध्यम से नारी को शारीरिक व मानसिक दोनों रूपों में शोषित दिखाया है। 

आधुनिकता के चलते आज विवाह जैसी पवित्र प्रथा में व्यापार होने लगा है। विवाह अब दो परिवारों का मेल न होकर लड़की पक्ष की तरफ से दहेज के रूप में पैसे माँगना सरल रास्ता बन गया है। इस कुप्रथा के कारण विवाह जैसी महत्वपूर्ण संस्था अब वर खरीदने और बेचने का जरिया बन गयी है। आए दिन समाचार पत्रों में दहेज के कारण लड़कियों पर हो रहे अत्याचार और उनकी हत्या की घटना सामने आ रही है। आज नारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बावजूद इस कुप्रथा की भागीदार बन रही है। शादी के बाद वधू की ससुराल में प्रतिष्ठा उसके द्वारा लाये गये दहेज से है। इसी कुप्रथा के कारण ही बेटियों को जन्म देने से पहले ही मार दिया जा रहा है। ‘बोल री कठपतुली’ कहानी में आभा रंग दबा होने पर भी उसके ससुराल वाले इस रिश्ते के लिए तैयार हो जाते है क्योंकि वह नौकरी करती है। तब आभा कहती है, ‘‘मुझे मालूम है कोई मेरे रूप, रंग पर नहीं रीझा। बारह तोला सोना और पच्चीस हजार नकद की बात सुनकर आपके मुँह में पानी भर आया था। ये पच्चीस हजार तो आपने अपनी लड़की की शादी के लिए उठाकर रख दिये। पच्चीस पैसे भी मुझ पर खर्च नहीं किये। उल्टा मेरी एम0ए0 की डिग्री को जिन्दगी भर भुनाते रहे।’’ लड़की अपने विवाह में अनेक सपने देखती है। उसी तरह आभा ने अपने विवाह को लेकर सपने बुनी थी परन्तु आभा के हाथों से मेंहदी अभी उतरी भी नहीं थी कि उसके हाथों में नौकरी का नियुक्ति पत्र थमा दिया जाता है। ‘‘हनीमून को ताक पर रखकर फौरन वहाँ ज्वाइन करना पड़ा। पति की सारी छुट्टी उसके लिए घर ढँूढ़ने में उसे ठीक से सेटल करने में बीत गयी। ससुर बोले अभी ज्वाइन कर लो। आगे-पीछे ट्रांसफर करवा लेंगे।’’ इस प्रकार विवाह पश्चात् नारी एक कठपुतली बनकर रह जाती है। उसे जैसा कहा जाता है वैसा ही करना पड़ता है। लड़के वाले लड़की बाद में देखते है पहले दहेज और नौकरी पूछते हैं। मालती जोशी दहेज की इस समस्या को उजागर करने का प्रयास की है। इसके कारण नारी को बार-बार अपमानित होना पड़ता है। इसी के कारण नारी अपमानित, शोषित, दयनीय जीवन जीने को विवश हो जाती है और अन्त तक इस पीड़ा को अपने जीवन का भाग्य समझकर सहन करती है। 

स्त्री आज बदलते परिवेश में जिस तरह पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही है जो समाज के लिए गर्व की बात है प्राचीनकाल से लेकर अब तक स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में बहुत परिवर्तन आया है। आज स्त्री घर और बाहर दोनों जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभा रही है। आधुनिक युग में नारी शिक्षित होने पर न केवल नौकरी करती है बल्कि घर की देखभाल भी अच्छी तरह करती है और अपने परिवार के प्रति भी अपनी पूरी भूमिका निभाती है। परन्तु नारी की इस सक्षम स्थिति ने पुरुषों को हीन बना दिया है। कई बार कामकाजी स्त्रियों के समक्ष ऐसी समस्या उत्पन्न हो जाती है कि उन्हें विचार कर पाना मुश्किल हो जाता है। यदि ससुराल में देवर, ननद है तो पति अपनी पत्नी की नौकरी से आए पैसे को अपने भाई-बहन की पढ़ाई या विवाह के लिए इकट्ठा करवाता है जिसके कारण कई बार स्त्रियों के मन में ये विचार उत्पन्न होते है कि क्या वास्तव में स्त्रियाँ यंत्र मशीन है? जो केवल दूसरों के लिए काम करती है। स्वयं के लिए उनके पास कुछ भी नहीं होता। मालती जोशी ने कामकाजी महिलाओं की समस्या को बहुत ही सूक्ष्मता से अपनी रचनाओं में दर्शाया है। ‘मध्यान्तर’ कहानी में विमल के माध्यम से नारी की पीड़ा को मार्मिकता के साथ उभारा है। विमल को अपनी शादी से पूर्व अपने भाई-बहन तथा अपने दहेज की रकम जुटाने के लिए नौकरी करनी पड़ती है फिर ससुराल में आई तो उसे अपनी तीन ननदों के विवाह के कर्त्तव्य को निभाने के लिए नौकरी करनी पड़ती है। तब उसका पति कहता है, तुम्हीं एक औरत नहीं हो जो नौकरी कर रही हो। सभी औरतें नौकरी करती है पर वो बिल्कुल तुम्हारी तरह नहीं होती है। तब विमल चीखकर कहती है, ‘‘जालिम! औरत कहलाने को कुछ बाकी भी रहने दिया तुमने! सब तो निचोड़ लिया है, पैसे कमाने की मशीन भर रह गई हूँ मैं, इसलिए तो मेरा रोना कल्पना भी सबकी आँखों में आता है। मशीन हूँ न रोने का हक थोड़े ही है मुझे और फफककर रो पड़ी।’’ इन सबके बाद भी पति को पत्नी से अपेक्षा होती है पत्नी उसे उसी आवेग के ग्रहण करें जैसे शादी के तुरन्त बाद करती थी। ‘‘यह नहीं सोचते कि शरीर से मन से थककर चूर हो जाने के बाद बस यह जी चाहता है कि आँख मूंदकर पड़ी रहूँ।’’ इस तरह विमल आर्थिक शारीरिक और मानसिक शोषण से संतस्त्र जीवन जीने को विवश होती है। ‘बोल री कठपुतली’ की आभा मानसिक एवं शारीरिक स्तर पर अपने परिजनों द्वारा शोषित होती है। वह अपने ससुराल वालों की आवश्यकताओं की पूर्ति में पूर्ण रूप से सहयोग करती है तब आभा का पति कहता है कि अब तुम्हारे आराम के दिन है। ‘‘बहुत खट चुकी तुम। अब घर बैठो अपने बच्चों को देखों।’’ उस दिन भी हजार गिले शिकवे आभा के होठांे पर आकर वापस लौट जाते है। उसका मन बार-बार कलप रहा था ‘‘अमित तुमने मुझे कोई चाभी का खिलौना समझ रखा है, कोई मोम की गुड़िया हूँ मैं? क्या मेरी आशा, कोई आकांक्षा नहीं.....।

मालती जोशी ने अपने कथा साहित्य में नारी जीवन की अनेक समस्याओं से अवगत कराया है। उन्होंने मध्यवर्गीय परिवार तथा उस परिवार में नारी के जीवन तथा उसकी पीड़ा को स्पष्ट किया है। नारी आज भी भारतीय संस्कृति व परम्पराओं से जुड़ी हुई है। इसलिए वह अपनी सहनशीलता का पाठ नहीं भूलती। आज स्त्रियाँ पुरुषों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर उसके बराबर खड़ा होना चाहती है। आज स्त्रियाँ फिजूल परम्पराओं और रूढ़ियों को तोड़कर आगे बढ़ रही है। मालती जोशी ने नारी को चारदीवारी तक सीमित नहीं रखा अपितु उनकी नारी अपने व्यक्तित्व की पहचान में जुटी है। यदि पति द्वारा उपेक्षा या अनादर होता है तो वह स्वयं अपनी अस्मिता की तलाश व पहचान के लिए खड़ी होती है चाहें उन्हें इसका विरोध ही क्यों न करना पड़े।





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