महादेवी वर्मा के कविता संबंधी विचार : परिक्रमा से उद्घृत
साहित्य की अनेक प्राचीन- नवीन विधाओं में कविता ही ऐसी विधा है, जिसके अनेक और वादों की कभी न समाप्त होने वाली श्रृंखला बनती रही है। प्रत्येक युग में इसमें कहाँ जुड़ जाती है, दूटती नहीं।
आधुनिक युग के सात दशकों में कविता के तत्व तथा शिल्प को लेकर जितने अधिक आयोजन हुए हैं, वे इसकी शक्ति और दर्बलता दोनों के प्रमाण माने जा सकते है।
उपवास, चन्द्रकाता की चाकार- रोगास की धरती को करनोविज्ञान के मुक्त उड़ने लगाया कर मनुष्य के वन में आवृत्ति-पर-आवृत्ति बनाने लगी। आलोचना शास्त्रीयता की लक्ष्मणरेखा पार कर पूर्व-पश्चिम का काल हो गई। वस्तुत साहित्य की सभी विधाओं में सहज कम से परिवर्तन होते रहे। किन्तु संघर्षशील आन्दोलन और उसका मानसपुत्र 'वाद' कविता का ही वायभाग रहा।
प्रत्येक युग में साहित्य की अन्य विधायें भी कियाशील रही, किन्तु युग को परिचय-पत्र काव्य से ही प्राप्त हुआ।
जहाँ तक व्यावसायिक तुला का प्रश्न है, कविता उस पर 'किस्सा तोता मैना की स्पर्धा का विषय भी नहीं बन सकती।
वस्तुतः उसकी शक्ति संवेगात्मक होने में ही निहित है। आज के मनोविज्ञान और नृतत्वविज्ञान भी संवेगों में व्यक्ति से समष्टि तक सबको आन्दोलित करने की क्षमता स्वीकार करते हैं। खमनुष्य का भी सवेगों का पूजभूत सरकार है और जिल्लाका जितना प्रेरक सम्बन्धात्मक मन से रहता है, उतना बौद्धिक प्रकिया से नहीं।
भाषा भी मानव की संवेगात्मक अभिव्यक्तिप्रवृतियों का सृजन है, जिस किम में भाषा की सब शक्तियों से मन को एक होना पड़ता है, उसकी प्रभविष्णुता स्वाभाविक है। मन्त्र शक्ति का भी वही रहस्य है, उसमें शब्द का महत्व नहीं है, वरन शब्द से मन की एकात्मता अर्थात मनोयोग का महत्व है।
होमियोपैथिक औषधि में जैसे औषधि की शक्ति बढ़ाने के लिए मूलद्रव्य का अंश उसी शक्ति के अनुपात में घटाना पड़ता है, काव्य का शब्द विधान भी बहुत कुछ ऐसा ही है। इस क्रम में प्रत्येक शब्द से बहुत-सी व्यावहारिक भूल यह जाती है और शब्द अपने मूल भावरनात रूप में मन की एकात्मता के लिए प्रस्तुत हो जाता है।
कविता का विषय चाहे प्राचीन हो चाहे नवीन कवि तो युग-विशेष में ही जीवित रहता है उसके विचार से अन्य व्यक्ति सहमत न हो तो चिन्तनीय नहीं माना जायगा, किन्तु उसके काव्य में व्याप्त अनुभूतियाँ यदि सबके हृदय में वही प्रतिध्वनि न जगा सके तो उसे असफल ही कजा जायेगा।
नाट्य विधा मंच पर परखी जा सकती है। कथा साहित्य, आलोचना आदि की तार्किक कसौटी हो सकती है, किन्तु कविता की परीक्षा मनोजगत् में ही होती है। उसके लिए कोई बाहय और तार्थिक निकय सम्भव नहीं है। स्फटिक जैसी दिखनेवाली मिश्री की डली जब जल में घुल कर अपना अस्तित्व मिटा देती है तभी उसे मधुर की संज्ञा मिलती है।
इसी प्रकार काव्य जब मनोजगत से एकरस हो जाता है, तब उसे गुणात्मक संज्ञा प्राप्त होती है। ऐसे काव्य के लिए आलोचनाएँ अनावश्यक परम्परा मात्र है। कविता यदि अन्य के मनोजगत् में अपने अस्तित्व को खोकर उसका संवेग न बन सकी तो और अधिक आलोचनीय हो जाती है।
सफल कविता की आलोचना कम होती है। फिर भी कुछ धारणाएँ वा मान्यताएँ काव्य के साथ जुड़ी चली आ रही है, जिनमें कुछ दर्शन से सम्बन्ध रखती है, कुछ सौन्दर्यशास्त्र से और कुछ नीति संहिता से यह भी परस्पर भिन्न होने के कारण विवादों को जन्म देती रहती है।
काव्य के निक के रूप में 'सत्यं शिव सुन्दर' विशेष महत्व पा गया है, परन्तु ये • तीनों ही अपनी भिन्नता के कारण काव्य को खण्ड-खण्ड कर के ही उसकी परीक्षा कर सकते है, उसकी समग्र अस्मिता की नहीं।
सत्य और यथार्थ भी सर्वथा भिन्न तत्त्व है। यथार्थ इन्द्रियों से जाना जा सकता किन्तु सत्य इन्द्रियातीत है और मनुष्य की पराचेतना या प्रतिभान से ही उस तक पहुंचा जा सकता है। यदि कवि परा या अतिवेतना से प्राप्त सत्य देता है तो इन्द्रियग्राह्य न होने के कारण, अन्य उसे कल्पना कहेंगे और यदि वह यथार्थ या इतिवृत्त मात्र देता है तो उसे इतिहास या अपूर्ण भौतिक-शास्त्र माना जा सकता है।
सुन्दर भी सत्य के समान ही परिभाषातीत है। बाहूय दृष्टि से सारा विश्व रंग-आकृतिमय है जिसमें संख्यातीत विविधता है। मनुष्य अपनी परिस्थिति तथा संस्कार वश ही किसी को सुन्दर तथा किसी को असुन्दर की कोटि में रखता है।
कभी-कभी मनुष्य की सुखदुः खात्मक व्यक्तिगत परिस्थितियाँ और अनुभूतियाँ ही सुन्दर - असुन्दर की निर्णायक बन जाती है। फिर आकृतियों से उत्पन्न अनुभूतियों या संवेगों के सुन्दर-असुन्दर का तो कोई मापदण्ड सम्भव ही नहीं है।
शिवं उस आचार धर्म से सम्बन्ध रखता है जो व्यष्टि से समष्टि तक सबके मंगल या शुभ का पर्याय है। यह मंगल भी व्यक्ति और परिस्थिति सापेक्ष रहता है।। युद्ध के लिए खड़े वीर, समाधिस्य योगी और हल चलाते हुए कृपक का शुभ भिन्न होना अनिवार्य है।
मानवीय सकेगों का उदात्तीकरण ही कवि का सत्य है, उससे उत्पन्न मूल्यात्मक भावना हो उसके लिए सुन्दर और उससे मानव संस्कृति का जो उत्कर्ष होता है वही उसके निकट शिव है।
मन्दिर की परिक्रमा करते हुए भक्त जैसे देवता को ही सब ओर से देखता है, मन्दिर की दीवारों को नहीं, वैसे ही सच्चा कवि जीवन को हो केन्द्र में देखता है।
- महादेवी
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