बाल मनोविज्ञान का संवेदन:पाजेब (डॉ. अंगद कुमार सिंह असिस्टेंट प्रोफेसर , जवाहरलाल नेहरू पी.जी. कॉलेज, बासगाँव ,गोरखपुर)
कहानी या कथा अनादिकाल से सम्पूर्ण जगत में सर्वत्र विद्यमान रही है। प्रागैतिहासिक साहित्य से गुज़रते हुए कहानी कभी धार्मिक रूप में मिली तो कभी वीरगाथा रूप में, कभी उपदेशात्मक गाथा का दामन पकड़ा तो कभी पुराणों व बाह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध हुई। संस्कृत-वाङ्मय में कहानी को कथा या आख्यायिका के नाम से अभिहित किया गया है। हिन्दी में कहानी-सृजन की प्रेरणा का स्रोत संस्कृत कथा या आख्यायिका से माना जाता है।
हिन्दी गद्य की जितनी भी विधाएँ हैं सभी में सबसे सशक्त और प्रभावशाली विधा ‘कहानी’ की रही है। कारण कि वर्तमान समय में हिन्दी कहानी में युगबोध की क्षमता सर्वाधिक दिखायी देती है। कहानी में मानव-जीवन के किसी एक अंग या संवेदना की अभिव्यक्ति होती है। कहानी की मूल आत्मा ‘एक संवेदना या प्रभाव’ है। हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि और कथाकार तथा ‘तारसप्तक’ के सम्पादक ‘अज्ञेय’ की स्थापनामूलक टिप्पणी है कि, ‘‘कहानी एक सूक्ष्मदर्शी यन्त्र है जिसके नीचे मानवीय अस्तित्त्व के दृश्य खुलते हैं।’’ हिन्दी कहानी की विकास यात्रा का आरम्भ ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के साथ सन् 1900 में हुआ, इस पत्रिका में प्रकाशित पहली कहानी किशोरीलाल गोस्वामी कृत ‘इन्दुमती’ थी, परन्तु नवीन खोजों से अब यह सिद्ध हो चुका है कि माधवराव सप्रे द्वारा लिखित कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ जो ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पत्रिका में सन् 1901 में प्रकाशित हुई, हिन्दी की सर्वप्रथम कहानी है।
हिन्दी की पहली कहानी चाहे ‘इन्दुमती’ हो या ‘दुलाईवाली, ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ हो या ‘ग्यारह वर्ष का समय’। इस विवाद में न पड़कर और इससे ऊपर उठकर विचार करने पर पता चलता है कि जो कहानी कभी सामान्य उद्देश्य को लेकर चली थी वह आज अपना उत्तरोत्तर विकास करते हुए विराट उद्देश्य के साथ अनवरत आगे बढ़ रही है। हिन्दी कहानी के विकास को मोटेतौर पर चार भागों में बाँटकर देखा जा सकता है- 1. प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी कहानी 2. प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी कहानी 3. प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कहानी 4. नयी कहानी। यही विभाजन हिन्दी कहानी का रामबाण विभाजन नहीं है, बल्कि कहानी के पूरे समयावधि को यदि कोई बाँटना चाहे तो और भी इसके विभाजन किये जा सकते हैं। यह विभाजन अध्ययन की सुविधा के लिए किया गया है। मैं यहाँ पर विशेष फोकस प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कहानी के कहानीकार जैनेन्द्र पर करना चाहूँगा-
प्रेमचन्द के पश्चात हिन्दी कहानी का जो समय आया उसे प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कहानी के नाम से जाना जाता है। इस काल की कहानी का कोई एक निश्चित उद्देश्य निर्धारित नहीं रहा इसलिए इसका विकास अनेक दिशाओं में हुआ। प्रेमचन्दोत्तर काल में कहानी ने यदि एक ओर प्रगतिवादी विचारधारा का दामन पकड़ी तो दूसरी ओर मनोविश्लेषणवादी विचारधारा का। मनोविश्लेषणवादी कहानीकारों ने व्यक्तिमन के आन्तरिक परतों को खोलकर देखने का प्रयास किया। इस परम्परा के कहानीकारों में अज्ञेय, इलाचन्द जोशी, जैनेन्द्र आदि का नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।
हिन्दी कहानीकारों में जैनेन्द्र का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। ये ऐसे कहानीकार हैं जिनका नाम प्रेमचन्द के समान अपने आप में अद्वितीय है। प्रेमचन्द और जैनेन्द्र की कथादृष्टि पर तुलनात्मक विचार करते हुए श्याम गोविन्द ने कहा है कि, ‘‘जैसे प्रेमचन्द जैसा कोई नहीं है, वैसे ही जैनेन्द्र जैसा कोई नहीं। प्रेमचन्द ने मनुष्य और उसकी परिस्थिति को जहाँ पकड़ा और छोड़ा था, जैनेन्द्र ठीक उसके विपरीत छोर पर जाकर वही काम करते हैं। वह प्रेमचन्द के सबसे बड़े आलोचक भी हैं, भले ही उन्होंने प्रेमचन्द की व्यवस्थित आलोचना न लिखी हो, लेकिन वह प्रेमचन्द के सबसे बड़े अनुयायी भी हैं। एक मायने में जो प्रेमचन्द से कहने से छूट गया था, उसे उन्होंने पूर्ण किया। हमें यह नहीं भूलना होगा कि जैनेन्द्र कुमार प्रेमचन्द की अर्थी को जिन मात्र छः लोगों ने कन्धा दिया था, उनमें से एक थे। ये अकारण ही नहीं हो सकता था। वह प्रेमचन्द को अपने गुरु स्थान पर रखते थे।’’1 जैनेन्द्र की कहानियों में जहाँ व्यक्ति मनोविज्ञान के दर्शन होते हैं वहीं मानवीय दुर्बलताओं का यथार्थ चित्र भी प्रकट हुआ है। वे प्रसाद के समान आदर्श पात्रों का सृजन नहीं करते बल्कि यथार्थता की धरती से उठाकर पात्रों को अपनी कहानी का विषय-वस्तु बनाते हैं। उनके पात्र वायवी न होकर आस-पास, पास-पड़ोस के बीच से ही उठाये हुए मानव-चरित्र होते हैं। जैनेन्द्र की कहानियों का शिल्प अलग तरह का है क्योंकि उनकी कहानी की मूल संवेदना अपनी ऊष्णता के साथ अन्त तक व्याप्त रहती है।
‘पाजे़ब’ जैनेन्द्र कुमार द्वारा लिखित बालमनोविज्ञान की कहानी है जो आत्मकथात्मक शैली में सृजित है। इसमें ‘पाज़ेब’ और आशुतोष के माध्यम से मध्यवर्गीय परिवार के मनोविज्ञान, घरेलू बोलचाल, क्रिया-प्रतिक्रिया को इस प्रकार सहज और सरल ढंग से उकेरा गया है कि पाठक कहानी पढ़ते हुए या सुनते हुए इसे पढ़ता या सुनता नहीं है बल्कि वह इसको अनुभव करता है। इस कहानी के बारे में जैनेन्द्र की स्वयं धारणा रही है कि, ‘‘काल का कुछ स्पन्दन, कुछ तनाव अनुभव हो, वही तो कहानी का रस है। यह घटना द्वारा अनुभव कराया जाय या चाहे तो बिना घटना के ही अनुभव करा दिया जाय। चुनांचे ऐसी भी सफल कहानियाँ हैं जिनमें खोजो तो घटना तो है नहीं, फिर भी रस भरपूर है।’’(साहित्य का श्रेय और प्रेय) ‘पाजे़ब’ कहानी में जैनेन्द्र ने स्थूल घटनात्मकता पर ध्यान न देकर भावानुभूति, मनःस्थिति या मनोवैज्ञानिक सत्य और उसकी उलझनों एवं जटिलताओं को व्यक्त करने में सहज कलात्मक कुशलता का परिचय दिया है। इनकी कहानियों में न घटना की प्रधानता होती है और न ही उद्देश्य की, बल्कि उनकी इच्छा मानवीय मन के सूक्ष्म रहस्यों के भेदन की है-जिसके लिए घटनाओं की योजना कर ली जाती है। फिर भी घटना एवं कथातत्त्व के अभाव होने के बाद पात्रों के स्वभाव, संस्कार एवं परिवेश के सूक्ष्म, जटिल तथा रहस्यपूर्ण सम्बन्धों को उजागर करने के बावज़ूद जैनेन्द्र की कहानियाँ बोझिल नहीं होती, बल्कि उनमें अधिक सफाई और सहजता बिना किसी आवश्यक विस्तार, बिना लेखकीय हस्तक्षेप, बिना उलझन के स्पष्ट दिखायी देती है। ‘पाजे़ब’ और इसी तरह की अन्य कहानियों में बुद्धि और हृदय एक साथ सक्रिय रहते हैं- चिन्तन एक प्रवाह होता है इसलिए कहानी मनोवैज्ञानिक होते हुए भी शास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रतिपादन के आग्रह से मुक्त होती है।
‘पाजे़ब’ जैनेन्द्र की प्रमुख कहानियों में से एक है जिसकी रचना जीवन के मात्र कुछ विशेष अंगों के आधार पर की गयी है जो मानव-जीवन को विशिष्ट रूप में तीव्र अभिव्यक्ति कराने में सफलता प्राप्त की है। ‘पाजे़ब’ कहानी सर्वप्रथम ‘पाज़ेब’ संग्रह में प्रकाशित हुई। पुनः इसे ‘जैनेन्द्र की कहानियाँ’ के दूसरे भाग में संकलित किया गया जो पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली से 1953 ई. में छपा। छः दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी यह कहानी आज और भी प्रासंगिक एवं महत्त्वपूर्ण लगती है।
‘पाजे़ब’ जैनेन्द्र कुमार प्रणीत उन कहानियों (जैसे- अनन्तर, इनाम, आत्मशिक्षण, फोटोग्राफी, खेल, किसका रुपया, चोर, अपना-अपना भाग्य, तमाशा, दिल्ली में, जनता में, दो चिड़िया, अपना-पराया, रामू की दिल्ली आदि) में से एक है जो बालमनोविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यह कहानी मनोवैज्ञानिक तो है ही साथ ही साथ उसमें गहन संक्रान्त मनः स्थितियों को दिखाने का प्रयास भी किया गया है, जिसमें सामाजिक परिवेश के अन्तर्गत व्यक्ति की मानसिक स्थिति का यथार्थ चित्रण हुआ है। कहानी के आरम्भ में ही बुआ द्वारा मुन्नी और आशुतोष के लाड़-प्यार के वर्णन हुआ है। मुन्नी को बुआ एक विशेष प्रकार का पाज़ेब देती है जिसका उस समय काफ़ी प्रचलन है। मुन्नी पाज़ेब पाकर बहुत खुश होती है और सबको घूम-घूम कर दिखाती है तो उसके साथ उसका भाई आशुतोष भी जाता है तथा उसकी प्रसन्नता और प्रशंसा में खूब सहभागिता करता है, परन्तु कुछ समय के बाद उसकी प्रसन्नता ईर्ष्या में बदल जाती है और अपने लिए साइकिल की माँग करता है। बुआ जन्मदिन पर उसको साइकिल दिलाने को कहती हैं तो वह खुश हो जाता है। अन्त में पाज़ेब खो जाने के डर से माँ उसे उतारकर सुरक्षित रख देती है। रात में मुन्नी की माँ उसके पिता जी से पूछती है कि, ‘‘तुमने पाजेब तो नहीं देखी? एक तो उसमें की है, पर दूसरे पैर की मिलती नहीं है।’’2 इसके बाद नौकर बंशी पर शक की सूई घूमती है और फिर पुत्र आशुतोष पर। आशुतोष से पूछे जाने पर वह कभी अपने मित्र छुन्नू का नाम लेता है तो कभी पतंग बेचने वाले का। इसी बीच बुआ का पुनः आगमन होता है। वह इधर-उधर की बातचीत करने के पश्चात एक छोटा-सा वाक्स आशुतोष के पिता की ओर खिसकाकर कहती है कि, ‘‘इसमें वे काग़ज हैं जो तुमने माँगे थे।’’3 इसके बाद अपने पाकेट से पाजे़ब निकालकर सामने रख देती है तो आशुतोष के पिता भयभीत भाव से कह उठते है-यह क्या? तब बुआ बोली-‘‘उस रोज़ भूल से यह एक पाज़ेब मेरे साथ चली गयी थी।’’4
‘पाजे़ब’ जैनेन्द्र के सुखात्मक अनुभव की कहानी है, जिसमें पाजे़ब गायब होती है और संयोगवश अकस्मात् मिल जाती है। पर, एक शंकालु स्वभाव के व्यक्ति द्वारा घर के वातावरण को विषाक्त बना दिये गये और उसमें भयग्रस्त बालकों पर पड़ने वाले प्रभाव को यह कहानी बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील ढंग से प्रकट करती है तथा बताती है कि बालकों के मन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है। इसमें पाज़ेब के गायब होने के बाद और उसको खोजने के क्रम में मन में बैठी हुई गाँठों को अनेक नुस्खों का सहारा लेकर परत-दर-परत उघाड़ते हुए एक झूठ को विश्वास योग्य सच के नज़दीक प्रत्येक बार पहुँचाया जाता है, उससे कहानी में एक महत्त्वपूर्ण प्रतीकात्मकता विकसित होती है। पाजे़ब के गायब होने की साधारण घटना परिवार और पाठक के मस्तिष्क को ऐसे उठापटक के धरातल पर पहुँचाती है जहाँ झूठ ही सच के समान व्यवहार करता नज़र आता है तो इस व्यवहार में जो द्वन्द्व और तनाव का सृजन किया गया है वह बहुत ही अर्थपूर्ण और संकेतधर्मी है। राजेन्द्र यादव ने जैनेन्द्र और उनकी कहानी ‘पाज़ेब पर अर्थगर्भी टिप्पणी करते हुए कहा है कि, ‘‘वैचारिक स्तर पर यह झूठ नाम की उस प्रतीकात्मक पाज़ेब की कहानी है जिसकी कड़ियाँ आपस में ऐसी लचक के साथ एक-दूसरे के साथ जुड़ी रहती हैं कि जिस पाँव में पहना दो, उसी का आकार ले लेती हैं। इस सूक्ति को जैनेन्द्र जी ने बड़े कलात्मक, कौशल और स्वाभाविकता के माध्यम से कहानी का रूप दिया है।’’ तो मारकण्डेय जी ने भी जैनेन्द्र के सम्बन्ध में स्पष्टतः माना है कि, ‘‘जैनेन्द्र उस मदारी की तरह हैं जो हथेली पर पैसा रखकर उसे मन्त्र फूँक कर गायब करते हैं और फिर हथेली पर ला देते हैं। उन्हें स्वयं अपनी हथेली पर भी सन्देह है कि वह है या नहीं।’’
‘पाजे़ब’ ऐसी कहानी है जो मानव-जीवन की यथार्थता से सम्पृक्त है तो मनोवैज्ञानिकता से परिपूर्ण भी। इसमें प्रमुख रूप से निम्न पात्र हैं-मुन्नी के पिता, मुन्नी की माँ, मुन्नी, आशुतोष, मुन्नी के चाचा, बुआ, छुन्नू और बंशी आदि। आशुतोष इस कहानी का केन्द्रीय पात्र है और उसी के इर्द-गिर्द पूरी कहानी घूमती है। बालक आशुतोष ‘पाजे़ब’ की चोरी नहीं करता फिर भी वह अपने आपको दृढ़तापूर्वक बचाने में असमर्थ पाता है और न चाहते हुए भी पिता के बार-बार डराने और धमकाने पर अपने मित्र छुन्नू का नाम लेता है तो कभी पतंग बेचने वाले का। बालमनोविज्ञान के द्वारा उसके पिता ‘पाज़ेब’ के बारे में पता लगाना चाहते थे पर उनको सफलता हाथ नहीं लगती और अनेक शंकाओं के पैदा हो जाने के बीच बुआ जब अपने घर से आती हैं तो ‘पाजे़ब’ प्राप्त होता है। इस कहानी में पात्रों के जीवन में व्याप्त कुण्ठा, घुटन, विसंगति, विषमता, विवशता आदि का चित्रण लेखक ने बड़े ही प्रभावशाली ढंग से किया है। चरित्र-चित्रण में जैनेन्द्र बेजोड़ हैं और उनका कोई सानी नहीं है।
संवाद किसी कहानी या कथा के प्राण-समान होते हैं। बेहतर और प्रभावशाली संवाद के बिना कहानी पाठक पर वह प्रभाव नहीं छोड़ पाती है जो उसका ध्येय होता है। ‘पाज़ेब’ संवाद के स्तर पर सफलता के चरम प्रकर्ष की कहानी है। जैनेन्द्र के संवाद संक्षिप्त, सोद्देश्य, मनोवैज्ञानिक, यथार्थ, सहज, लाक्षणिक एवं भावपूर्ण हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-
‘‘अन्त में हारकर मैंने कहा कि वह कहीं तो होगी। अच्छा तुमने कहाँ से उठायी थी?’’
‘‘पड़ी मिली थी।’’
‘‘और फिर नीचे जाकर तुमने छुन्नू को दिखायी?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘फिर उसी ने कहा कि इसे बेचेंगे?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘कहाँ बेचने को कहा?’’
‘‘कहा मिठाई लायेंगे।’’
‘‘नहीं पतंग लायेंगे।’’
‘‘अच्छा पतंग को कहा?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘सो पाजे़ब छुन्नू के पास रह गयी?’’
‘‘हाँ!’’5
‘‘शाम को दफ़्तर से लौटा तो श्रीमती ने सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है। ग्यारह आने पैसे में वह पाजे़ब पतंग वाले को दे दी है। पैसे उसने थोड़े-थोड़े करके देने को कहा है। पाँच आने जो दिये वह छुन्नू के पास हैं। इस तरह रत्ती-रत्ती बात उसने कह दी है।
कहने लगीं कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट में से निकाला है। दो-तीन घण्टे मैं मगज मारती रही। हाय राम! बच्चे का भी क्या जी होता है?’’6
‘पाजे़ब’ कहानी में देशकाल और वातावरण का सफल संयोजन जैनेन्द्र जी ने किया है। इस कहानी में मनोवैज्ञानिक स्वरूप के अन्तः और बाह्य तथा मानसिक वातावरण को उभारने का सफल प्रयास लेखक ने किया है। एक नमूना- ‘‘मैं कुछ बोला नहीं। मेरा मन जाने कैसे गम्भीर प्रेम के भाव से आशुतोष के प्रति उमड़ रहा था। मुझे ऐसा मालूम होता था कि ठीक इस समय आशुतोष को हमें अपनी सहानुभूति से वंचित नहीं करना चाहिए। बल्कि कुछ अतिरिक्त स्नेह इस समय बालक को मिलना चाहिए। मुझे यह एक भारी दुर्घटना मालूम होती थी। मालूम होता था कि अगर आशुतोष ने चोरी की है तो उसका इतना दोष नहीं है; बल्कि यह हमारे ऊपर बड़ा भारी इल्जाम है। बच्चे में चोरी की आदत भयावह हो सकती है। लेकिन बच्चे के लिए वैसी लाचारी उपस्थित हो आयी, यह और भी कहीं भयावह है। यह हमारी आलोचना है। हम उस चोरी से बरी नहीं हो सकते।’’7 इस कहानी में कहीं-कहीं मानसिक द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, यथा-‘‘मेरे मन में उस समय तरह-तरह के सिद्धान्त आये। मैंने स्थिर किया कि अपराध के प्रति करुणा ही होनी चाहिए। रोष का अधिकार नहीं है। प्रेम से ही अपराध-वृत्ति को जीता जा सकता है। आतंक से उसे दबाना ठीक नहीं है। बालक का स्वभाव कोमल होता है और सदा ही उससे स्नेह से व्यवहार करना चाहिए इत्यादि।’’8
जैनेन्द्र ने अपनी कहानी पाजे़ब में सरल, सुबोध एवं स्वाभाविकता से पूर्ण बोलचाल की साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया है। उन्होंने अपनी कहानी ‘पाजे़ब’ में संस्कृत के शब्दों (सन्ध्या, हर्ष, उल्लास, क्षोभ, प्रतीत, लक्षण, उद्यत आदि) को अपनाया तो बोलचाल में प्रयुक्त उर्दू, अरबी-फ़ारसी के प्रचलित शब्दों (खै़र, मेज़, काग़ज़, खु़द, ज़रूर, दफ़्तर, नाराज़, सज़ा, इनाम, ज़िद, हज़रत, चीज़, तल्लाफिक्र, शौक, बारीक़, फ़रिश्ते, हजामत, इल्ज़ाम, अगरचे, उम्मीद, लिहाज़ इत्यादि) को भी। अपभ्रंश और ग्राम्य शब्दों (रुकमिन, छीं-छीं, टटोलना, झल्ला, छँटे, बरजते, गुमसुम, छुन्नू, तैने, पवन, तेजा-तेजी, मगज, हड़बड़ाकर आदि) को अपनी कहानी में स्थान दिया तो अंग्रेजी (बाईसिकिल, टैंक इत्यादि) के प्रचलित शब्दों को भी। इसके अलावा आपने लोकोक्तियों एवं मुहावरों का बखूबी प्रयोग किया। जैसे- सिर चढ़ना, मुँह फुलाना, गुमसुम बैठना, पेट में से निकालना, डर के मारे पीला हो जाना आदि। शैली की दृष्टि से इन्होंने भावपूर्ण शैली को अपनाया तो आलंकारिक शैली को भी, सूक्तिपरक शैली पर नज़र टिकायी तो भावपूर्ण शैली पर भी।
किसी भी कहानी, उपन्यास, निबन्ध, नाटक, कविता आदि का शीर्षक ही है जो पाठक को अपनी ओर आकर्षित करता है तथा उसे पढ़ने के लिए बेचैन कर देता है। इसीलिए यदि शीर्षक में आकर्षण है तो कोई भी पाठक उसे पढ़े बिना नहीं रह सकता लेकिन यदि शीर्षक बेजान, आकर्षणहीन है तो बेहतर से बेहतर कहानी बिना पढ़े ही आँखों के सामने से ओझल हो जाती है। दूसरे शब्दों में शीर्षक लगाना एक कला है, परन्तु यह कला आसान न होकर कठिन है, इसके लिए प्रतिभा और अभ्यास दोनों की जरूरत होती है। इसीलिए ‘लीडर’ के यशस्वी और प्रसिद्ध सम्पादक सी. वाई चिन्तामणि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि, ‘‘हैडिंग इज़ ए हैडक’’ अर्थात् शीर्षक लगाना सिरदर्द के समान है तो टी. जे. एस. जार्ज ने भी माना है कि, ‘‘शीर्षक बनाना एक सुखद सन्ताप (स्वीट एगौनी) है।’’ शीर्षक का महत्त्व इसी बात से समझ में आता है कि बड़े-बड़े लेखकों को भी ‘शीर्षक लगाने में काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। कहा जाता है कि अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार और एक युग के प्रवर्तक महान साहित्यकार शेक्सपीयर को भी इस समस्या का सामना करना पड़ा, नाटक का उचित शीर्षक न मिलने पर उन्होंने कह दिया ‘एज़ यू लाइक इट’ (जैसा कि तुम पसन्द करते हो) और यही नाम नाटक का चल पड़ा।9
जैनेन्द्र अपनी कहानी ‘पाजे़ब’ का शीर्षक लगाने में सफल हुए हैं, क्योंकि उन्होंने शीर्षक को लघु, आकर्षक और जिज्ञासापूर्ण बनाया है। यह शीर्षक इतना लालित्यपूर्ण और व्यंजक है कि इसको पढ़ते ही पाठक के मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के प्रश्न पैदा होने लगते है जैसे- कौन सा पाजे़ब? कैसा पाजे़ब? इत्यादि, जो मन को कौतूहल से भर देता है। यह कहानी पाजे़ब से शुरू होती है और उसी के इर्द-गिर्द घूमती हुई अन्त में पाजे़ब के मिलने पर कौतूहलता लिए हुए समाप्त भी हो जाती है। इस प्रकार यह शीर्षक आकर्षक और नाटकीयता से भरा हुआ है।
जैनेन्द्र कुमार को प्रतिष्ठा व्यक्तिमन के यथार्थवादी कहानीकार के रूप मिली है। इनका प्रमुख उद्देश्य जीवन के घटनाक्रम और परिवेश को अपनी रचना का विषय बनाते हुए मानव की मनःस्थिति को सूक्ष्मता के साथ प्रस्तुत करना रहा है। ‘पाजेब’ एक शंकालु स्वभाव वाले व्यक्ति के द्वारा घर में निर्माण किये गये वातावरण और उसमें दबे आशुतोष के बालमनोविज्ञान को यथार्थता के धरातल पर उजागर करने की कहानी है जो लगभग प्रत्येक मध्यवर्गीय कुटुम्ब में देखी जा सकती है। इन्हीं अर्थों में मैंने ‘पाजे़ब’ को बालमनोविज्ञान के यथार्थबोध की कहानी कहा है। वस्तुतः ‘पाजे़ब’ कहानी बालमनोविज्ञान और यथार्थ के मध्य स्थित ‘छायामूर्ति’ का आभास करानेवाली अद्भुत-बेजोड़ कहानी है।
सन्दर्भ:
1. हिन्दी कहानी: बीसवीं सदी, श्याम गोविन्द, पृष्ठ 47, आत्मरचना प्रकाशन, उज्जैन, प्रथम संस्करण, 2009
2. कथास्वर, पाजेब, सं. प्रो. सुरेन्द्र दुबे, प्रो. अनिलकुमार राय, नीलकमल प्रकाशन, गोरखपुर, 2012, पृष्ठ 40
3. वही, पृष्ठ 52
4. वही, पृष्ठ 52
5. वही, पृष्ठ 44
6. वही, पृष्ठ 46-47
7. वही, पृष्ठ 43
8. वही, पृष्ठ 42
9. आधुनिक पत्रकारिता, डा मुश्ताक अली, साहित्य संस्थान, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, 2004, पृष्ठ 24
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