रैदास का काव्य सृजन :संवेदना और दृष्टि( डॉ0 नरेन्द्र कुमार ,असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर)
‘‘जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपासा।
रामानन्द के शिष्य परम्परा में रैदास का विशिष्ट महत्व है। निगुर्ण संत काव्य परम्परा को अपनी विशिष्ट भंगिमा से एक नया अर्थ दिया और संत काव्यधारा का मनुष्यतावादी चेतना से सम्पन्न किया, उन्होंने स्वयं लिखा है कि -
संत रैदास का फुटकल पद ही ‘बानी’ के नाम से जाना जाता है, जो ‘संतबानी सीरिज’ में संग्रहित है। चालीस पद तो ‘आदि गुरू ग्रन्थ साहब’ में संकलित है, जबकि उनकी अब तक उपलब्ध सामग्री के अतिरिक्त एक और ग्रन्थ ‘प्रह्लाद चरित’ का भी पता लगा है। जिस पर विद्वानों का ध्यान गया और उन्हें लगा कि इतने महत्वपूर्ण पक्ष को छोड़कर, संत रैदास के काव्य का अध्ययन के बिना सम्पूर्ण संतकाव्य का अध्ययन करना अधूरा है। संत रैदास काव्य के मर्मज्ञ अध्येता डॉ0 बी0पी0 शर्मा ने अपने पत्र में लिखा है -‘‘वास्तव में संत रैदास पांडुलिपियों की परतों में दबे रहे, इस चमार को किसी ने देखा ही नहीं, अन्यथा यह चमार विचित्र भक्त था। 130 वर्ष तक जूझता रहा जीवन संघर्ष में। आखिर ‘सकल राजधानी को अगवानी में लेकर’ भारत सम्राट ‘राणा सांगा’ ने चितौड़ दुर्ग की 1800 फुट ऊँची चौहद्दी पर उनका स्वागत किया था।
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि संत रैदास का भारतीय शासकों के द्वारा स्वागत करना उनके महत्ता को दर्शाता है, वहीं दूसरी तरफ व्यापक उपेक्षा का शिकार भी होना पड़ा। आखिर ऐसा क्यों हुआ कि संत शिरोमणि का काव्य शताब्दियों तक यूं उपेक्षित पड़ा रहा। क्या उपेक्षा का कारण नीची जाति से जोड़कर देखा गया, अगर ऐसा है तो यह निन्दनीय है, क्योंकि कवि की कोई जाति नहीं होती है, बल्कि वह जाति, धर्म और सम्प्रदाय से निकलकर मानव धर्म को काव्य का विषय बनाता है, इससे पता चलता है कि जो सम्मान उन्हें मिलना चाहिए वह मिला नहीं, जिसके हकदार थे।
संत रैदास का काव्य हिन्दी काव्य का शुरूआती दौर की सर्जना है। इसलिए उनके काव्य में छन्द-सौष्ठव तथा भाषागत सौन्दर्य की उम्मीद रखना व्यर्थ है। जो चली आ रही काव्य परम्पराएँ देखने को मिलती हैं। वे उनमें एक नया सौन्दर्य रचते है। यही कारण है कि काव्य मूल्यांकन की चली आ रही पुरानी परम्परा ने जो सिद्धान्त बनाये हैं उस कसौटी पर रैदास के काव्य का मूल्यांकन करना उचित नहीं ठहराता है। इस ओर इंगित कराते हुए डॉ0 योगेन्द्र सिंह ने लिखा है -‘‘उनके साहित्य का कलात्मक मूल्यांकन परम्परागत शास्त्रीय दृष्टि से पूरी तरह नहीं किया जा सकता। रैदास की विचारधारा में तत्कालीन भारत में प्रचलित सम्पूर्ण मुख्य साधना पद्धतियों की मूल आत्मा सामान्यतः सदैव विद्यमान रहकर भी उसमें कुछ नव्यता है, जो उनको परम्परा से पृथक् एक मौलिकता प्रदान करती हैं। उनके साहित्य में कलात्मक दृष्टि से शास्त्रीय सौन्दर्य का पूर्ण आनन्द उसको परम्परागत शास्त्रीय चौखट में कसकर नहीं लिया जा सकता।’’ काव्य मूल्यांकन के सिद्धान्त भी समय-समय पर परिवर्तित होते रहे हैं। जो वर्तमान समय में मान्यताओं के बदलते स्वरूप की ओर संकेत करते हुए डॉ0 ओम प्रकाश अवस्थी ने लिखा है -‘‘मूल बात यह है कि अपने युग सन्दर्भ में कविता कितनी गहराई से युग की संवेदना और कवि की अनुभूति को प्रकट कर सकी है तथा अपने युग के पूर्ववर्ती इतिहास में कितनी नई है।’............. दूसरी बात यह है कि कविता में प्राण शक्ति कितनी है। समय के कितने थपेड़े खाकर वह अपना स्वरूप स्थिर नहीं रख पाई, वरन् कितनी और प्रांजल तथा साफ होती गई है।’ कवि के समसामयिक परिवेश एवं काव्य के प्राणशक्ति और आत्मचिंतन को समझे बगैर कुछ कहना उचित नहीं है। एक कवि को कविता की सर्जना में गोताखोर की भाँति समुद्र के अतल गहराई में जाना पड़ता, तब जाकर उसे मोती प्राप्त होता है। ठीक उसी प्रकार संत रैदास को जानने के लिए उपलब्ध सामग्री के रास्ते से गुजरना पड़ेगा।
मध्यकाल में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बराबर लड़ाईयाँ हुआ करती थीं, जिसका कारण वर्चस्व और सीमा विस्तार रहा। हिन्दू-मुसलमान दोनों के बीच टकराहट इतना बढ़ा की दोनों एक दूसरे को श्रेष्ठ साबित करने के लए लड़ते-झगड़ते रहते, संत रैदास के तत्कालीन समाज में धार्मिक पाखण्ड का बोल-बाला बढ़ गया था, पण्डे, पुरोहित और मुल्ला खुद को ईश्वर का दूत समझने लगे थे, जो समाज में रह रहे लोगों को धर्म के नाम पर पाखण्ड की शिक्षा-दीक्षा देने लगे, जससे समाज में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की दूरियाँ घटने के बजाय बढ़ती चली गई, इतना ज्यादा बढ़ी की दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये, इसी कट्टरता और संकीर्णता के कारण समाज में असंन्तुलन की स्थिति बनती गई, जिसके कारण कुरीतियों एवं कुप्रथाओं को फलने-फूलने का अवसर प्राप्त हुआ, दोनों समुदायों के बीच खाई बन गई जिसे मिटाने का प्रयास संत रैदास ने किया। यह सही है कि संत रैदास में कबीर जैसी निर्भीकता नहीं रही, परन्तु अपने समय के चुनौतियों से निरन्तर संघर्ष करते रहे, जिनमें हिन्दू-मुस्लिम समाज में धर्म के नाम पर व्याप्त ऊँच-नीच, छूआ-छूत, जाति-पाति के भेद को मिटाकर सदाचार का उपदेश देकर आपसी वैमनष्यता को दूर कर सामाजिक समानता की स्थापना की। संर रैदास का विचार था कि हिन्दू-मुस्लिम एक दूसरे से प्रेम एवं भाई-चारे का भावना से एक साथ मिलकर रहें, तभी तो मित्र की भवना का सन्देश देते है -
संत रैदास के समय में मन्दिर-मस्जिद के झगड़ें आज की तरह थे, जिसके कारण हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच टकराहट होती रहती थी। संत रैदास को कहना पड़ा किसके लिए तुम लोग लड़ रहे हो, यह जो कुछ है वह परम पिता परमात्मा का धर्मस्थल है, दोनों एक समान है, इनमें कोई अन्तर नहीं है, दोनों को आपसी लड़ाई-झगड़े से बचने की सलाह देते हैं। उनका विचार है-
उपरोक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है कि रैदास व्यक्ति-व्यक्ति के समानता के पक्षधर थे, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति उसी परमपिता परमात्मा का ही रूप है, जैसे ‘कंगन’ और ‘कनक’ के रूपक द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों में एकरूपता स्थापित करने का प्रयास किया है -
संत रैदास हिन्दू-मुसलमान दोनेां के बीच किसी भी प्रकार का कोई अन्तर नहीं मानते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः एक समान। सबमें एक ही रंग का रक्त, एक प्रकार मास और अस्थियाँ हैं, फिर इस संसार में आकार व्यक्ति धर्म, जाति और वर्ण आदि के नाम पर आखिर क्यों बँट जाता है? संत रैदास ने बुनियादी सवाल पर अपना मत व्यक्त किया है -
भारतीय समाज विभिन्न जाति में विभाजित रहा है, जाति व्यवस्था को लेकर भारतीय समाज में समय-समय पर विभिन्न वर्गों में प्रतिक्रियाएँ होती रही है। जाति भारतीय धर्म व नीति के विमर्श के केन्द्र में रही है। शासक, सत्ता की बागडोर सम्हालने के लिए प्रभावशाली जातियों की भूमिका महत्वपूर्ण हुआ करती थी, जिन्हें राजा नाराज करके सत्ता स्थापित नहीं कर सकता था। इसलिए जाति व्यवस्था को तोड़ने के बजाय मुस्लिम शासकों ने जाति प्रथा को मजबूती प्रदान की और अंग्रेजों ने भी साथ दिया। अंग्रेज जो तमाम आधुनिक प्रगति का दावा करते रहें, उन्होंने भी जाति प्रथा को यथावत कायम रखा, बल्कि कह सकते हैं अधिक मजबूत किया - यह सच है कि ‘‘अंग्रेजी राज्य में जाति प्रथा अधिक कठोर हुई। यह तो इस बात से देखा जा सकता है कि व्यक्ति के नाम के साथ उसकी जाति के नाम जोड़ने का सिलसिला जितने बड़े पैमाने पर 19वीं सदी और फिर 20वीं सदी में देखा गया उतने बड़े पैमाने पर ऐसा सिलसिला भारत में कभी था ही नहीं। वर्ण का महत्व अधिक था। वर्ण के अन्तर्गत छोटी-छोटी जातियों का महत्व नहीं था। तीन-चार जाति वाचक शब्द शर्मा, भट्ट, मिश्र आदि संस्कृत ग्रन्थों में पण्डितों के नाम के साथ मिलते हैं। लेकिन आधुनिक काल में व्यक्ति के पचासों नये जाति सूचक शब्द जोड़े जाने लगे। तो अंग्रेजी राज्य की परिस्थितियों में यह सब हुआ। ऐसा अकारण नहीं हुआ। अंग्रेज इस बात को प्रोत्साहन देते थे कि लोग अपनी जाति का नाम बराबर लिखे। सरकारी नौकरी के लिए आवेदन-पत्र देना हो तो उसमें जाति का उल्लेख करना जरूरी होता था। शिक्षा संस्था में भर्ती होना हो तो वहाँ भी जाति का नाम लिखना आवश्यक था। अंग्रेजों ने एक काम और किया। कुछ बिरादरियों को उन्होंने अधिक शूरवीर मान लिया, इनको फौज में विशेष रूप में नौकरी मिलनी चाहिए। कुछ जातियाँ शूरवीर हो गयीं, कुछ अन्य जातियाँ विद्या के लिए विशेष योग्य मानी गयीं। शेष जातियाँ केवल सेवा करने के योग्य रह गई। इस तरह अंग्रेेजी राज में जाति-प्रथा को नया जीवन मिला।’’10
उपर्युक्त कथन से बात स्पष्ट हो जाती है। संत रैदास के तत्कालीन शासक जाति व्यवस्था के समर्थक में मजबूती से खड़े हैं, वहीं दूसरी तरफ समाज सुधारकों ने इसके विरूद्ध संघर्ष किया और जाति व्यवस्था के खिलाफ महात्मा बुद्ध, महावीर जैन का मुख्य स्वर उनके आन्दोलन में देखने को मिला। आगे की कड़ी में सिद्धों, नाथों से होते हुए कबीर, नानक, रैदास आदि संतों तक की वाणियों में भी मिलता है। संतों ने अपने समय के समाज का भली-भाँति पहचान लिया था, जिस समाज में जाति व्यवस्था का रोग फैला होगा, उस समाज में मानवता स्थापित नहीं हो सकती, क्योंकि ये एक दूसरे के विलाम जो ठहरे।
अपने समय की समस्त प्रचलित रूढ़ियों पर संत रैदास ने दृष्टिपात किया है। यह लोक प्रचलित है कि वर्ण व्यवस्था को हिन्दू धर्म का कोढ़ माना जाता रहा है। वर्ण व्यवस्था का अभिशाप चौथे वर्ण अर्थात् ‘शूद्र’ को सहना पड़ा। प्रारम्भ में वर्ण जन्मतः नहीं कर्मतः निर्धारित किए जाते थे। किन्तु मध्यकाल तक आते-आते स्वस्थ्य मान्यता ने रूढ़ रूप ले लिया। चूँकि संत रैदास इसी वर्ण व्यवस्था से सम्बन्ध रखते थे। इसी कारण उन्हें उच्च वर्ण का उपहास तो सहना पड़ा, कभी-कभी प्रतिशोध का शिकार भी होना पड़ा। इसलिए उन्होंने इन सड़ी-गली मान्यताओं के पुनर्मूल्याकंन का सैद्धान्तिक स्तर पर विरोध किया -
रैदास एक बूंद सौ, सब ही भयो वित्थार।
रैदास एक ही नूर ते जिमि उपज्यों संसार।
ऊँच-नीच किहि विध भये, ब्राह्मण और चमार।।
उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि ‘कोई व्यक्ति जन्म के कारण ऊँच-नीच नहीं हो सकता, क्योंकि संसार के सभी प्राणी एक ही मिट्टी (तत्व) से निर्मित है। इन सबका रचनाकार भी एक ही ब्रह्म है, अर्थात् सभी मानव का शरीर एक जैसा रक्त, हाड़ और मांस से बना है। सभी की उत्पत्ति भी एक ही बिन्दु से होती है। तो आपस में भेद कैसा? ब्राह्मण-अब्राह्मण व वर्ण-अवर्ण की बात कहाँ रह जाती है? इसमें जन्माधारित श्रेष्ठता का सवाल ही कहाँ उठता है? श्रेष्ठ व्यक्ति तो शुद्धाचारण, उत्तमविचार और उत्तम कर्मों से होता है। इसलिए जाति भेद और वर्ण भेद की यह व्यवस्था व्यवहारिक नहीं, बल्कि निंदनीय है। जो किसी भी व्यक्ति और समाज के लिए दुःखदाई है, जिसके विेषय में रैदास का मत है -
वर्णव्यवस्था तो थी ही, जाति तो उससे बड़ा कोढ़ है। जब तक इस देश से जाति-प्रथा समाप्त नहीं हो जाती तब तक इसमें किसी भी प्रकार के सुधार की बात करना बेबुनियादी है, इसलिए संत रैदास को ऐसा लगता है, जाति के भेदभाव के कारण मानव का तो जन्म हुआ परन्तु उसके अन्दर मानवता का जन्म नहीं हो पाया। जाति-पाति के भेद के कारण मानव को कत्लेआम तक पहुँचाया गया, जिससे मानवता कलंकित हुई। जबकि संत रैदास प्रत्येक व्यक्ति के समानता के पक्षधर थे, तभी तो वह ‘कँगन’ और ‘कनक’ के रूपक द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों में एकरूपता स्थापित करने का प्रयास किया।
संत रैदास तत्कालीन जीवन में जाति-पाति समाज के लिए कोढ़ बनकर उभर चुका था, जो एक आदर्श समाज के लिए अत्यन्त दुःखद है। जाति-पाति के नाम पर लोग एक-दूसरे से भेदभाव, समाज का एक वर्ग खुद को श्रेष्ठ, दूसरे को छोटा समझता, इन्हीं सभी पचड़ों में उलझे रहे। जिसके कारण समाज में समानता नहीं आ पायी। जिसके विषय में संत रैदास ने कहा है कि -
इस कथन से पता चलता है कि संत रैदास जाति-पाति के झगड़े में उलझे हुए लोगों को सचेत करते हैं। इस जाति-पाति के रोग से निकलना होगा। तभी स्वच्छ और स्वस्थ समाज का निर्माण सम्भव है, जो आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि जाति-पाति समाज की ऐसी व्यवस्था है कि जातियों में जातियाँ और उपजातियों में उपजातियाँ देखने को मिलती हैं, इसी वजह से समाज में समानता नहीं बन पाती है। जाति-पाति वाली इस समाज व्यवस्था की तुलना संत रैदास केले के पत्ते से करते हैं। जिस प्रकार केले के एक पत्ते के बाद पत्ते का अंतहीन सिलसिला चलता रहता है। ठीक उसी प्रकार हमारे समाज में जातियों और उपजातियों का एक के बाद क्रम बना रहता है। संत रैदास कई वर्गों में बँटे समाज को एकरूपता देने का प्रयास करते हैं। ताकि मानव को केवल मानव समझा जाय। ऊँची-नीची, जाति-पाति के वर्ग में न बाँटा जाय, तभी उनके बीच बन्धुत्व और भाई चारे की भावना का विकास होगा।
संत रैदास कर्मकाण्डों एवं वेद-शास्त्रों के सैद्धान्तिक ज्ञान से ऊपर उठकर व्यवहारिक बातों में विश्वास करते थे। बगैर श्रम के धन कमाने की इच्छा समाज में अंधविश्वास भी पैदा करती है। लोग नाना प्रकार के कर्मकाण्डों, अनुष्ठान, बलि तथा मनौती के माध्यम से धनी बनने के लिए नाना प्रकार के देवताओं को प्रसन्न करने में समय, ऊर्जा और धन नष्ट कर देते हैं। संत रैदास एक भ्रमणशील संत कवि थे, वे समाज के प्रत्येक वर्ग, धर्म, और जाति के लोगों में व्याप्त ऐसे मिथ्या-विश्वास से पूर्णतः अवगत थे तथा इससे उपजी सामाजिक असंतुलन के गम्भीरता को भी समझते थे इसलिए उन्होंने ‘श्रम को ईश्वर रूप’ जानकर इसकी साधना के लिए समाज को प्रेरित किया। उनका कहना था -
स्रम करि ईसर जानि कै, जउ पूजही दिन रैन।
रविदास निन्हहि संसार मंह, सदा मिल ही सुख चैन।।
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जिह्वा से ओंकार भज, हथ्थन सो कर कार।
राम मिलही घर आई कर कह रविदास चमार।
संत रैदास को अपने श्रम पर इतना विश्वास था कि श्रम को ही ईश्वर का रूप कहते है। जीवन में ईमानदारीपूर्वक की गई कमाई, सुख और शान्ति’ लाती है। संत रैदास अपने जीवन में इसको करके दिखाया भी।
संत रैदास कहते है कि लोग घर का श्रेष्ठ कार्य छोड़कर बाहर ही निकृष्ट कार्य की ओर आकर्षित होते है परन्तु सत्य तो यह है कि जो नेक नियत से कमाई करता है उसे दर-दर भटकना नहीं पड़ता है, उसे तो घर में ही इतना काम मिल जाता है जिससे उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। ऐसे कर्मशील पुरुष जो बगैर राग-द्वेष, लोभ-मोह के साथ अपनी आजीविका के साथ प्रभु-भक्ति का सुन्दर समन्वय अपने जीवन में स्थापित करते हैं, उनको तो उनके गृह में ही प्रभु दर्शन का लाभ प्राप्त होता है। यथा -
नेक कमाई जौ करय, गृह तजि वन न जाय।
रविदास हमारो राम राय, यह मंहि मिलहि जाय।
उपरेक्त कथन से स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्य के प्रति ईमानदार होना चाहिए, जिससे दर-दर भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। संत रैदास के इस सन्देश से आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा मिलती है, जिसे वे समाज के हर वर्ग तक पहुँचाना चाहते थे। सद्भाव एवं सहिष्णुता का प्रसार उनकी सर्जना का महत्वपूर्ण पक्ष है। मनुष्य की महत्ता का प्रतिपादन उनका लक्ष्य है और विवेकवान मनुष्य का निर्माण उनकी साधना का निकष है। संत रैदास की साहित्य-साधना एवं जीवन साधना का उद्घोष है कि प्रत्येक मनुष्य एक ही मिट्टी (तत्व) से निर्मित है, जिसको जीने के लिए आक्सीजन, ऊर्जा के लिए प्रकाश, खाने के लिए अन्न, पीने के लिए जल और रहने के लिए आसमान जैसी छत की जरूरत पड़ती है, इसलिए वे किसी भी प्रकार के भेद-भाव को उनके यहाँ कोई जगह नहीं है, सभी को आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देना उनका स्वभाव है।
‘‘ऐसा चाहों राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोटा बड़ो सभ सम बसैं, ‘रविदास’ रहैं प्रसन्न।।’’
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