कबीर के काव्य में लोक दर्शन :डॉ0 अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव



भारतीय परम्परा में भक्ति की विविध धाराओं का अजस्र प्रवाह अनादि काल से देखने को मिल रहा है। अनेकानेक सांस्कृतिक एवं भौतिक आक्रमणों के बाद भी भारतीय सनातन परम्परा और आध्यात्मिक जीवन संस्कृति का मूल हमारे समाज में आज भी विद्यमान है। सामाजिक विकास एवं चिन्तन की एक निर्धारित प्रक्रिया है। समय के साथ समाज अपने विकास के क्रम में भौतिकता और आध्यात्मिकता की यात्रा तय करता हुआ निरन्तर विकसित होता रहा है। समाज कभी घोर भौतिकता में आकण्ठ डूबता है तो कभी आध्यात्मिक जीवन दर्शन की ओर उन्मुख होता है। आध्यात्मिकता भारतीय परम्परा एवं चेतना का मूल स्वर रहा है। भौतिकता और आध्यात्मिकता के आकर्षण एवं प्रतिकर्षण में हमारा समाज, संस्कृति और सभ्यता विकसित होती चलती है। यदि हम मानव सभ्यता के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हमें यह देखने को मिलता है कि समाज का विकास भौतिकता और आध्यात्मिक के अर्न्तद्वन्द्व से ही गतिमान होता जा रहा है।

यदि हम दुनिया की सभी सभ्यताओं पर दृष्टिपात करें तो यह देखने को मिलता है कि वर्तमान समय में जितनी भी सभ्यताएँ अस्तित्व में हैं, उनमें सर्वाधिक प्राचीन भारतीय सभ्यता है। भारतीय सभ्यता के समकालीन सभ्यताएँ आज समाप्त हो चुकीं हैं। आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के प्रति भारतीय समाज में विशेष आग्रह देखने को मिलता है, जबकि अन्य सभ्यताओं में भौतिकवादी दृष्टि की प्रधानता रही है। आज के समय मेें यदि हम अपने समाज का निरपेक्ष भाव से अवलोकन करें तो हमें यह देखने को मिलता है कि हमारा समाज आध्यात्मिकता से दूर भौतिकतावादी हो चला है। इस भौतिकवादी के कारण हमारे समाज में संास्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों का पतन अत्यन्त द्रुतगति से हो रहा है। वर्तमान समय में उपभोगवादी सभ्यता का प्रचण्ड प्रवाह देखने को मिल रहा है। उपभोगतावाादी संस्कृति ने मनुष्य के मन में यह भाव भर रखा है कि सम्पूर्ण पारिस्थितिक तं़त्र मानव के उपभोग के निमिŸा है। घोर स्वार्थपरता, जातीय संकिर्णता और श्रेष्ठताबोध ने हमारे जीवन से मानवीय मूल्यों के पतन में अहम भूमिका का निर्वहन किया है। भौतिक सुख-सुविधा के अनेकानेक संसाधन भी हमने एकत्र कर लिया है। इतना होने के बाद भी आज को मनुष्य परेशान है। आत्मिक खुशी या आनन्द से आज हम बहुत दूर हैं आत्मिक खुशी और आनन्द की तलाश में हम बैचैन और व्यग्र हैं, किन्तु हम अपने परम्परागत आध्यात्मिक जीवनचर्या पर दृष्टिपात नही करते हैं।

वर्तमान समय में हम जिन स्थितियों-परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, भारतीय समाज मध्यकाल में उन्हीं परिस्थितियों में था। भारतीय समाज के इतिहास में मध्यकाल का समय अनेकानेक विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का समय था। परम्परागत सभ्यता एवं संस्कृति से विमुख होकर भारतीय राज व्यवस्था आपसी संघर्ष और अपने भौतिकवाादी जीवन दृष्टि के कारण अपनी शक्तियाँ खो चुकी थी और बहस आक्रान्ताओं का आक्रमण हमारे सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त कर रहा था। इसी ध्वस्त प्राय ताने-बाने पर भारतीय आचार्यांे एवं सन्तों ने हमारी आध्यात्मिक परम्परा को जीवन्त करने का कार्य किया।

मध्यकालीन सामाजिक एवं राजनितिक अव्यवस्थाओं के बीच आध्यात्मिकता के पुनरूत्थान एवं प्रचार-प्रसार का कार्य प्रातिभ आचार्यों  ने किया। आध्यात्मिक जीवन दृष्टि को भक्ति-दर्शन एवं परम्परा के साथ जोड़कर लोक जीवन में प्रसारित करने का कार्य आचार्यों ने किया। भारत में विचारों एवं आस्थाओं के समन्वय की सुदीर्घ परम्परा रही है। धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक आस्थाओं ने हमारे समाज के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भक्ति और आध्यात्म के क्षेत्र में हमारी चिन्तन परम्परा में दो धाराएँ प्रचलित रही हैं-

एक परम्परा ऐसी रही जो ब्रह्म के निर्गुण एवं निराकार रूप की उपासना पर जोर दे रहा था।

दूसरी परम्परा ऐसी रही जो ब्रह्म के सगुण एवं साकार रूप की उपासना पर जोर दे रहा था।

भारतीय भक्ति परम्परा में वेदों, उपनिषदों और पुराणों के समग्र्र सार को संचित कर लोक में प्रवाहित करने का श्रेय मध्यकालीन धार्मिक आन्दोलनों को है। मध्यकालीन धार्मिक आन्दोलन को अधिक तीव्र और व्यापक बनाने में तथा उसे नया स्वरूप प्रदान करने में दक्षिण के आचार्यो का विशेष योगदान रहा है। दक्षिण भारत के आचार्य रामानुजाचार्य ने भक्ति परम्परा के प्रसार की दिशा में विशेष प्रयास किया। रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। वह ऐसे वैष्णव सन्त थे, जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। ‘रामानुजाचार्य’ के दर्शन में सत् या परमसत् के संबंध में तीन स्तर माने गये है’- ब्रह्म अर्थात् ईश्वर, चित् अर्थात आत्मतत्व और अचित् अर्थात् प्रकृति तत्व। वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्व तथा अचित् अर्थात प्रकृति तत्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं। वस्तुतः यही रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है। जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नही है तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं। वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर है तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं।’

रामानुजाचार्य के साथ-साथ माध्वाचार्य, निम्बार्क, बल्लभाचार्य आदि ने भी भारतीय समाज में भक्ति परम्परा के प्रचार-प्रसार में विशेष योगदान दिया। उत्तर  भारत में भक्ति को प्रतिष्ठित करने का कार्य रामानुचार्य के शिष्य रामानन्द ने किया। श्री रामानन्द मध्यकालीन उदार चेतना के जन्मदाता, भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक एवं धार्मिक और सामाजिक चेतना के मार्गदर्शक के रूप में जाने जाते हैं। रामानन्द ने भारत की सांस्कृतिक जीवन धारा को प्रवाहित करने में विशेष योगदान दिया। मध्यकाल के प्रसिद्ध सन्तों के गुरू के रूप में आपने ख्याति अर्जित की। रामानन्द ने रामभक्ति के माध्यम से सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। सामाजिक विषमताओं और बाहरी दिखावे में जड़ हुए समाज में पुनरुत्थान की ओर पहला कदम उठाने वाले रामानन्द ही थे। रामभक्ति के माध्यम से उन्होनें समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक समरसता तथा समन्वय की भावना पैदा करने का कार्य किया।

रामानन्द की शिष्य परम्परा क्रान्तिकारी कबीरदास का नाम विशेष उल्लेखनीय है। कथनी एवं करनी का एकात्मभाव का प्रभाव रामानन्द के शिष्य कबीरदास में देखने को मिलता है। रामानन्द की शिष्य परम्परा में कबीरदास का व्यक्तित्व धार्मिक एवं सामाजिक एकात्म भाव की सन्धि स्थल पर स्थित है। कबीर के सन्दर्भ में हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक एवं इतिहासकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपना विचार व्यक्त किया है कि- ‘‘जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचार पद्धति में  ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था, उसी को कबीर ने सूफियों के ढ़र्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद  का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी बानी में ये सब अवयव स्पष्ट लक्षित होते हैं।’’

कबीरदास की साधना पद्धति में लगभग उन सभी साधना पद्धतियों का समावेश देखने को मिलता है जो पद्धतियाँ उस समय भारतीय समाज में प्रचलित थीं। कबीरदास के विराट व्यक्तित्व में लोक का सहज मन निवास करता है। लोक का मन बहुत ही सहज और उदार होता है। लोक मन की उदारता के परिणाम स्वरूप  कबीरदास के विराट व्यक्तित्व निर्मित होता है। सूफी परम्परा और प्रेम, हठ योगियों की साधना और ब्रह्मवाद की भावनात्मकता कबीर के व्यक्ति में सहज ही देखने को मिलती है। कबीर के व्यक्तित्व के निर्माण उनके गुरू रामानन्द का विशेष योगदान है। आचार्य शुक्ल ने कबीरदास के सन्दर्भ में लिखा है कि- "कबीर में ज्ञानमार्गी की जहाँ तक बातें है वे सब हिन्दू शास्त्रों की हैं जिनका संचय उन्होंने रामानन्द जी के उपदेशों से किया। माया, जीव, ब्रह्म, तत्वमसि, अष्ट मैथुन, त्रिकुटी, छहरिपु इत्यादि शब्दों का परिचय उन्हें अध्ययन द्वारा नहीं, सत्संग द्वारा ही हुआ।"

कबीर के बारे में यह प्रचलित है कि वो पढ़े-लिखे नही थे। उनका समग्र ज्ञान सत्संग एवं गुरू कृपा द्वारा अर्जित किया हुआ है। उन्होनें बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा-मसि कागज छुयौ नहीं, कलम गह्यौ नहिं हाथ। अर्थात् कबीरदास जी पढ़े लिखे नही थे, कबीर के विचारों का संकलन उनके शिष्यों ने किया। कबीरदास भारतीय परम्परा में एक क्रान्तिकारी सन्त कवि के रूप में जाने जाते है। क्योंकि वे ज्ञान को लोक से प्रसूत स्वीकार करते हैं न कि  शास्त्र से वे कहते है कि-मैं कहता हूँ आंखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।

भारतीय परम्परा में कबीरदास एक ऐसे समाज सुधारक, कवि एवं भक्त के रूप में प्रतिष्ठत हैं, जिनका व्यक्तित्व एवं कृतिव लोक में निर्मित हुआ है। मुखर अभिव्यक्ति के लिए कबीरदास जी विख्यात हैं। कबीर की भक्ति भावना एवं उनके लोक दर्शन पर विचार से पूर्ण भक्ति दर्शन के संबंध में भारतीय परम्परा में किये गये विचारों पर दृष्टिपात करेंगे।

सामान्यतः धर्म का आशय हिन्दू, इस्लाम, जोरेस्ट्रियन, बौद्ध, ईसाई आदि ऐतिहासिक धर्मांे से समझा जाता है। परन्तु धर्म अपने मूल रूप में इससे भिन्न है। दुनिया में जितने भी धर्म हैं, उनके कुछ न कुछ आधार होते हैं, उनकी मान्यताएँ होती हैं। धर्म-दर्शन उस दार्शनिक क्रिया का नाम है, जो धर्म का बौद्धिक विवेचन करता है। धर्म और दर्शन एक दूसरे से  अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। धर्म दर्शन विश्व के विभिन्न धर्मों के इतिहास, मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन,धर्म-मनोविज्ञान आदि विषयों से धर्म के अलग-अलग तथ्यों को एकत्र करता है। इन एकत्र तथ्यों का समाज एवं लोक की जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने का कार्य धर्म-दर्शन करता है।

प्रत्ययों के बिना संवेदना अन्धे हैं, इसीलिए धर्म दर्शन में धर्म से संबंधित विभिन्न तथ्यों के संकलन द्वारा धर्म का मूल्यांकन होता है। धार्मिक तथ्यों के विश्लेषण से सामान्य सिद्धान्तों की खोज करना धर्म दर्शन का प्रमुख उद्देश्य है। धर्म दर्शन पर विचार करते हुए प्रो0 ब्राइटमैन ने कहा है कि-धर्म दर्शन, धर्म की बौद्धिक व्याख्या की खोज का एक ऐसा प्रयास है, जो धर्म का संबंध अन्य अनुभूतियों से बताकर धार्मिक विश्वासों की सत्यता, धार्मिक मनोवृŸिायों एवं आधारों का मूल्य स्पष्ट करता है। मूलतः धर्म दर्शन धार्मिक अनुभूति के स्वरूप, व्यापार, मूल्य तथा सत्यता की दार्शनिक खोज है। ईश्वर के संबंध में किसी व्यक्ति विशेष की जो अनुभूति होती है, उसे धार्मिक अनुभूति माना जाता है। धर्म दर्शन का मुख्य विषय ईश्वर के संबंध में विचार है। ईश्वर तत्वशास्त्रीय प्रत्यय है। धर्म-दर्शन, ईश्वर पर केंन्द्रित विचार है। धर्म दर्शन में इन प्रश्नों पर विचार किया जाता है-ईश्वर क्या है? ईश्वर के अस्तित्व के क्या प्रमाण है? ईश्वर व्यक्तित्व पूर्ण है या व्यक्तित्व शून्य है? मनुष्य और ईश्वर का क्या संबंध है? धार्मिक ज्ञान का स्वरूप क्या है? आदि-आदि।

भारतीय चिन्तन परम्परा में ‘नारद’ एवं शाण्डिल्य ने भक्ति दर्शन एवं भक्ति के विविध पक्षों पर सर्वाधिक सर्वांगपूर्ण विवेचन एवं विश्लेषण किया है। नारद ने भक्ति पर विचार करते हुए लिखा है कि -सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा।4 

अर्थात् भक्ति ईश्वर के प्रति प्रेम रूपा है। इसकों पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है और तृप्ति भी प्राप्त करता है। शाण्डिल्य ने अपने भक्ति सूत्र में भक्ति पर विचार करते हुए लिखा है-सा परानुरक्तिरीश्वरे।5 

अर्थात् ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति ही भक्ति है। भक्ति क्रिया रूप नहीं ज्ञान रूपा है। प्रेम की पराकाष्ठा और परम अनुरक्ति ही भक्ति है। कबीरदास हृदय में अगाध प्रेम के साथ-साथ परम अनुरक्ति भी है। रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में आनेवाले रामानन्दाचार्य से भक्ति की दीक्षा प्राप्त करने वाले कबीरदास ने भारतीय समाज में प्रचलित सभी जीवन पद्धति एवं साधना पद्धति से प्रभाव ग्रहण करते हुए लोक में भक्ति के प्रचार-प्रसार का मार्ग प्रशस्त किया। कबीरदास ने भारतीय सनातन परम्परा एवं इस्लाम दोनों की कट्टरवादीयों को नकारते हुए एवं उदार मानवता वादी जीवन के विकास पर विशेष जोर दिया।

धार्मिक उदारता और समन्वय के क्षेत्र में जो कार्य महान संत कबीरदास ने किया, वह शायद ही अन्य किसी संत या समाज सुधारक ने किया हो। कबीर भारतीय इतिहास के ऐसे संत पुरूष है, जिन्होंने ‘धारते इति धर्मः’ की उक्ति को अपने आचार विचार एवं व्यवहार से चरितार्थ किया। कबीरदास के व्यक्तित्व में भारतीय साधना पद्धति की समस्त विचारधारओं का प्रभाव देखने को मिला है। नाथ, सिद्ध, जैन, बौद्ध, इस्लाम, सूफी एवं सनातन हिन्दू धर्म मानो सभी ने मिलकर कबीरदास के व्यक्तित्व को गढ़ा एवं परिष्कृत किया है। कबीरदास मानवता के शान्त, सनिग्ध एवं निर्मल रूप की स्थापना पर बल देने वाले युग पुरूष संत हैं। कबीरदास ने समस्त धार्मिक दुरूहता एवं कट्टरता के खिलाफ अपना अभियान चलाया और आत्मीय शुद्धता एवं उपयोगितावादी धर्म की स्थापना पर जोर दिया जिसमें लोक एवं उससे जुड़े तत्वों का समावेश कबीरदास जी ने किया है। इस सन्दर्भ में कबीरदास ने लिखा है कि-

पाथर पूजै हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहार,
घर की चाकि कोई न पूजै, जेहि का पीसा खाय।

धार्मिक कट्टरता एवं अन्ध विश्वास के विरुद्ध कबीर ने ऐसे समय में इस्लाम धर्म  की जड़ मान्यताओं का विरोध  किया, जब भारत में कट्टर इस्लामिक राजाओं का शासन था-

काकड़ पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय
त चढ़ि मुल्ला बाग दे का बहरा हुआ खुदाय।
धार्मिक कट्टरता और धार्मिक उपयोगिता के साथ-साथ भक्ति एवं प्रेम अनन्यता कबीर की वाणियों मे देखने को मिलती है। कबीर के भक्ति में सरलता, विश्वास और भरोसें का वह रूप देखने को मिलता है, जो हम सामान्य लोक जीवन में नित्य-प्रति जीते एवं देखते हैं-
कबीर कूता राम को, मुतिया मेरा नाउॅ
गले राम की जेवड़ी, जित खैचें तित जाउॅ।
तो तो कर तो बाहुडौं, दुरि दुरि करैतो जाउॅ
ज्यूॅ हरि राखै त्यूॅ रहौं, मो देवै सों खाउॅ।।

कबीर के भक्ति एवं आस्था की अनन्यता तो देखिए वे गोपियों के समान अपने आराध्य से उपालम्भ नहीं देते। वे राम के कुŸो के रूप में अपना परिचय देते नहीं लजाते। कबीर राम का कुŸाा है, नाम उसका मुतिया है। राम ने ही इस मुतिया के गले में एक रस्सी बॉध दी है। सो वह जिधर खींचता है, मुतिया भी उधर ही जाता है। ज बवह तो -तो कर पुकारता है तो मुतिया उसके पास चला जाता है।

न जाने क्यूँ कबीरदास ने ‘मुतिया’ नाम पसन्द किया। क्या अनुमान किया जाय कि उनका बचपन का मुतिया था? असंभव नहीं पर मुतिया नाम है, बड़ा जानदार है, इस नाम में ही कुत्ते की सारी निरीहता मानो दुम हिलाती हुई सामने खड़ी हो जाती है। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि क्या यह वही आदमी है जो बीसियों बार गगन-गुफा का चक्कर लगा लेने के बाद उधर के कोने-कोने से ऐसा परिचित हो गया कि बड़े से बड़े अवधूत को ललकार सकता है, जो शास्त्र और परम्परा के जटिल जाल में घुसकर इस सफाई के साथ उसकी ग्रन्थियॉ शिथिल कर देता है कि जाल फैलानेवाला ही आश्चर्य भरी मुद्रा से देखता रह जाता है, जो क्षणभर के लिए भी अपने ज्ञान को भूलना और जिसकी उक्तियॉ प्रतिपक्ष के उपर सीधा आघात करती हैं। कबीरदास निर्गुण ज्ञान मार्गी कवि हैं, वह ज्ञान की मर्यादा जानते हैं, और लोक परम्परा के विस्तार से भलिभाँति परिचित भी हैं। कबीर योग और ज्ञान के गहरे अवगाहन करने के बाद ही लोकजीवन के विस्तृत वनस्थली से रूबरू होते हैं। लोक से रूबरू होने के कारण उनके स्वभाव में फक्कड़पन आया। कबीरदास जी स्वभाव से फक्कड़ थे। अच्छा  हो या बुरा, खरा हो या खोटा, जिससे एक बार चिपट गये उससे जिन्दगी भर चिपटे रहों, यह सिद्धान्त उन्हें मान्य नहीं था।

वे सत्य के जिज्ञासु थे और कोई मोह-ममता उन्हें अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती थी। वे अपना घर जलाकर हाथ में मुराड़ा लेकर निकल पड़े थे और उसी को साथी बनाने को तैयार थे जो उनके हाथों अपना भी घर जलवा सके-

हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ।

अब घर जारों तासुका, जो चलै हमारे साथ।।

कबीरदास सिर से पैर तक मस्त-मौला थे। मस्त जो पुराने कृत्यों को हिसाब नहीं रखता, वर्तमान कर्मों को सर्वस्व नहीं समझता और भविष्य में सब कुछ झाड़ फटकार निकल जाता है। जो दुनियादार किया कराए का लेखा-जोखा दुरूस्त रखता है, वह मस्त नहीं हो सकता। जो अतीत का चिट्ठा खोले रहता है, वह भविष्य का क्रांतिदर्शी नहीं बन सकता। कबीर - जैसे फक्कड़ को दुनिया की होशियारी से क्या वास्ता? कबीर की यह घर फूॅक मस्ती, फक्कड़ाना लापरवाही और निर्मम अक्खड़ता और उनके अखण्ड आत्मविश्वास का परिणाम थी। उन्होंने कभी अपने ज्ञान को, अपने गुरू को और अपनी साधना को संदेह की नजर से नहीं देखा।

कबीर लोक जीवन एवं लोक चेतना के कवि हैं, समाज को रूढ़ियों से मुक्त करने के लिए नूतन लोक चेतना दी। भगवान का प्रेम बड़ी चीज है, पर उस बड़ी चीज को पाने की साधना भी बड़ी होनी चाहिए। प्रेम का यह व्यापार खाला का घर नहीं हैं कि बात-बात पर मन मचल जाए और मनमानी चीजे मिल जाय। यहॉ तो वही प्रवेश पाने का हकदार है जो पहले सिर उतारकर धरती पर रख दे-

कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहि।
सीस उतारे हाथि करि, सो पैठे घर मांहि।
कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम-अगाध।
सीस उतारि पगतलि धरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद।

यह प्रेम किसी खेत में नहीं उपजता, किसी हाट में नहीं बिकता, फिर भी जो चाहेगा, पा लेगा। वह राजा हो या प्रजा, उसे सिर्फ एक शर्त माननी होगी, वह शर्त है सिर उतारकर धरती पर रख ले। जिसमें साहस नहीं, जिसमें इस अखण्ड प्रेम के ऊपर विश्वास नहीं। उस कायर की यहाँ दाल नही गलेगी। हरि से मिल जाने पर साहस दिखाने की बात करना बेकार है, पहले हिम्मत करो, भगवान आगे आकर मिलेंगे। अपने आराध्य पर अखण्ड विश्वास ही इस प्रेम की कुंजी है और इसी प्रेम को कबीरदास जी पाण्डित्य और ज्ञान का आधार का आधार मानते हैं-

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ।
पण्डित हुआ ना कोय।
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़ै से पण्डित होय।

दरअसल कबीरदास जी ‘ढाई आखर प्रेम का’ पढ़ने से अधिक जीवन में उतारने और जीने में अटूट आस्था रखतेे हैं।

कबीरदास की भाषा पंचमेल खिचड़ी है, लेकिन कबीर की भाषा का आधार लोक है। लोक को ही आधार बनाकर कबीरदास अपनी भाषा को गढ़ा। उनके भाषा के सन्दर्भ में कबीर साहित्य के मर्मज्ञ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि-‘संस्कृत के कूप जल’ को छुड़ाकर उन्होंने भाषा के बहते नीर में सरस्वती को स्नान कराया। उनकी भाषा में बहुत सी बोलियों का मिश्रण है, क्योंकि भाषा उनका लक्ष्य नहीं था और अनजाने में वे भाषा की सृष्टि कर रहे थे। 

 अधिकांशतः कबीरदास जी ने लोक में प्रचलित शब्दों को अपनी भाषा में स्थान दिया है भाव एवं संवेदना के अनुरूप कबीर ने भाषा का प्रयोग किया है। इनकी भाषा झकझोर देने वाली है, जितनी सादी उतनी ही तेज। कबीर को पढ़ते समय साफ मालूम होता है कि कहने वाला अपनी तरफ से एकदम निश्चित है।

कबीरदास के जीवन का अधिकांश समय वाराणसी और उसके आस-पास के क्षेत्रों में व्यतीत हुआ और इसका प्रभाव उनकी भाषा में भी दृष्टिगत होता है। कबीरदास के पदों में भोजपुरी के शब्दों का प्रयोग भी देखने को मिलता हैं-

झीनी झीनी बीनी चदरिया।
काहै कै  ताना काहे कै भरनी,
कौन  तार से बीनी चदरिया।
चली है कुल बोरनी गंगा नहाय।
सतुवा कराइन बहुरी भुँजाइन,
घुॅघुट ओटे भसकता जाय।
गठरी बाँधिन, मोटरी बाँधिन,
खसम के मूॅडे  दिहिन धराय।

कबीरदास एक ऐसे क्रान्तिकारी कवि हैं जिनके काव्य में लोक का व्यापक विस्तार और प्रसार देखने को मिलता है। इसी कारण उनके विचारों और बानियों में भी व्यापकता दृष्टिगत होती है। प्रेम की अनन्यता, भक्ति में सर्वस्व अर्पित करने की उत्कण्ठा धार्मिक ऐक्य स्थापित कर सुन्दर समाज की आकांक्षा करने वाला कवि जब धार्मिक, सामाजिक, पाखण्डों और कुरीतियों पर बात करता है तो उसका तेवर अत्यन्त आक्रामक हो जाता है। इन्हीं विशेषताओं को दृष्टिगत रखते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि- 

वे, (कबीर) सिर से पैर तक मस्त-मौला थे, बेपरवाह, दृढ़, उग्र, कुसुमादपि, 

कोमल, वज्रादपि कठोर।

कबीरदास भारतीय संत परम्परा में विशेष स्थान के अधिकारी हैं। लोक में विचरण करने वाले कबीरदास का व्यक्तित्व धार्मिक सीमाओं की परिधियों से परे मानवतावाद की भूमि पर विकसित हुआ है। इनके व्यक्तित्व और कृतिव के महत्व पर विचार करते हुए डॉ0 तारक नाथ बाली ने डॉ0 नगेन्द्र द्वारा संपादित हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है कि- भारतीय धर्म साधना के इतिहास में कबीरदास ऐसे महान विचारक एवं प्रभावशाली महाकवि हैं, जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घ काल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थो में जनजीवन का नायकत्व किया।


 कबीर के काव्य में लोक मन एवं जीवन की अभिव्यक्ति हुई है। भाव, भाषा, रीति एवं परम्परा सभी स्तरों पर समन्वय की विराटता कबीर के साहित्य एवं व्यक्तित्व में विद्यमान है। लोक जीवन की विविध प्रसंगों से कबीर का साहित्य भरा पड़ा है। लोक जीवन की विविधता को अंकित करते हुए कबीर की बानी भी विविधताधर्मी हो गया है, कबीर उस लोक मानस को रच रहे थे जिसकी बानी का स्वरूप निरन्तर बदलता रहता है।


(चित्र साभार :गूगल )

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