आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ‘चीफ की दावत’: एक अध्ययन -मधुबाला (भाषा अध्यापिका) रा0व0मा0 पाठशाला ,पंजाई, हि0प्र0
भीष्म साहनी नयी कहानी के सशक्त हस्ताक्षर हैं, जो नवीन-जीवन मूल्यों, नयी मान्यताओं को रेखांकित करने हुए मानवीय संबंधों का विश्लेषण करते हैं। भीष्म साहनी को हिन्दी सहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वे मानवीय मूल्यों के लिए हिमायती रहे और उन्होंने खोखली विचारधारा को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। विचारधारा और साहित्य के रिश्ते को स्पष्ट करते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में लिखा है, “विचारधारा यदि मानव मूल्यों से जुड़ती है, तो उसमें विश्वास रखने वाला लेखक अपनी स्वतंत्रता खो नहीं बैठता, विचारधारा उसके लिए सतत प्रेरणास्रोत होती है, उसे दृष्टि देती है, उसकी संवेदनाओं में ओजस्विता भरती है। साहित्य में विचारधारा की भूमिका गौण नहीं महत्वपूर्ण है। विचारधारा के वर्चस्व से इंकार का सवाल ही कहां है? विचारधारा ने मुक्तिबोध की कविता को प्रखरता दी है, ब्रेख्त के नाटकों को अपार ओजस्विता दी है। यहां विचारधारा की वैसी ही भूमिका रही है जैसी कबीर की वाणी में, जो आज भी लाखों लाख भारतवासियों के होठों पर है”।
भीष्म साहनी में गद्य विधाओं में उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, जीवनी और आत्मकथा आदि सभी विधाओं में अपना वर्चस्व स्थापित किया है। इनके उपन्यासों में ‘तमस’ सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय उपन्यास है। यह भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी को लेकर लिखा गया है। इस उपन्यास पर भीष्म साहनी को 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। कड़ियाँ, झरोखे, बंसती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू-नीलिमा-नीलोफर इनके अन्य उपन्यास है। इनके नौ कहानी संग्रह हैः- भाग्य रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियां, शोभायात्रा, निशाचर, पाली और डायन। नाटक विधा में कबीरा खड़ा बाजार में, हानूश, माधवी, मुआवजे। इसके अतिरिक्त ‘बलराज माय ब्रदर’ जीवनी और आत्मकथा के रूप में ‘आज के अतीत’ इत्यादि रचनाएं है।
विष्णु प्रभाकर भीष्म के रचनाकर्म का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि, “भीष्म का रचना संसार आम आदमी का रचना संसार है, महानायकों का नहीं। उनकी रचनाएं सच्चाइयों का दस्तावेज है। वह वक्त की चेतना के सहज प्रवक्ता है”। भीष्म की कहानियों में प्रमुखतः मध्यवर्गीय जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक स्थितियों का सूक्ष्मता से विश्लेषण किया गया है। ये कहानियां मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं को लेकर चलती है और पाठकों को सोचने पर बाध्य करती है। भीष्म की शैली में विवेचना, विवरण, व्यंग्य और आक्रोश देखने को मिलता है जिससे विषय वस्तु की भीतरी वास्तविकता को समझने में देर नहीं लगती। भीष्म साहनी मध्यम वर्ग की विडम्बनापूर्ण परिस्थितियों का गहन अध्ययन कर उनके जीवन के तीव्र विरोधाभासों को यथार्थवादी दृष्टि से उभारते हैं।
‘पहला पाठ’ उनका दूसरा कहानी संग्रह है इसमें 15 कहानियां है। इस कहानी संग्रह में भीष्म जी ने जीवन की विषमता, खोखलेपन व निरर्थकता को उजागर किया है। ‘चीफ की दावत’ इस कहानी संग्रह की प्रथम कहानी है जो सर्वप्रथम 1956 में श्रीपतराय के कहानी विशेषाकं में छपी थी। यह कहानी नए मध्यवर्ग के आर्थिक व सांस्कृतिक अन्तर्द्वन्द्व को चित्रित करती है। यह कहानी उसी नए मध्यवर्ग की है जो अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु नैतिक मूल्यों, ममता, सबंधों और भावनाओं की बलि देने के लिए भी तत्पर है। यह वही मध्यमवर्ग है जो उच्चवर्ग के प्रति आकर्षण प्रथा निम्न वर्ग के प्रति तिरस्कार भाव रखता है व आर्थिक उन्नति के बदले अपनी संस्कृति, परिवार और मानवीय संवेदनाओं से शून्य होता जा रहा है। इस कहानी में माँ के प्रति पुत्र के बदलते हुए व्यवहार के संवेदनात्मक चित्र के साथ-साथ मध्यवर्गीय जीवन के अन्तर्विरोध, स्वार्थ, महत्वकांक्षा, अवसरवादिता, संवेदनहीनता, मानवीय मूल्यों का विघटन, प्रदर्शन-प्रियता, अपनों से दूर होते जाने की प्रक्रिया, आधुनिकता और पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण को बहुत की सूक्ष्मता से उद्घटित किया है। शामनाथ एक मध्यवर्गीय परिवार का मुखिया है जिसका पालन-पोषण उसकी माता ने किया है। अब वह एक कम्पनी में कार्यरत है। शामनाथ की महत्वकांक्षाएं अनंत है। वह कम्पनी में उच्च पद पाने की महत्वकांक्षा रखता है और उसकी पूर्ति के लिए वह चीफ की खुशामद करता है। शामनाथ चीफ को खुश करने के लिए उसे अपने घर दावत पर बुलाता है। दावत की सारी तैयारियां शुरू हो जाती है। शामनाथ और उसकी पत्नी घर की सजावट को लेकर विशेष चिंतित है। ‘‘कुर्सियां, मेज, तिपाइयां, नैपकिन, फूल सब बरामदे में पहुंच गए, ड्रिंक का इंतजाम बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खडी हो गई, मां का क्या होगा?’’
निर्जीव वस्तुओं का हल तो निकल आता है किंतु अनपढ़ बूढ़ी मां की समस्या शामनाथ को विचलित कर देती है। न ही वह मां को छिपा पा रहा है और न ही घर से बाहर भेज पा रहा है। समाज के डर से वह मां को उनकी विधवा सहेली के यहां नहीं भेज पा रहा है। क्योंकि इस बात से वह समाज में हंसी का पात्र बनेगा। वह मां को घर में भी नहीं रखना चाह रहा क्योंकि उसे लगता है यदि मां चीफ के सामने आ गई तो चीफ को उनसे मिलकर बुरा न लगे और उसकी पदोन्नति रूक न जाए। आधुनिक समाज में धन का महत्व इतना बढ़ गया है कि मनुष्य उसके लिए संबंधों और भावनाओं को भूलता जा रहा है। शामनाथ की नजर केवल पदोन्नति पर है। जिसके लिए वह मां के रिश्ते को भी ताक पर रख देता है। वह मां को उसकी विधवा सहेली के यहाँ भी नहीं जाने देना चाहता और न ही उन्हें सोने देना चाहता है कि कहीं उनके खर्राटों से चीफ को गुस्सा न आ जाए इसलिए अंत में निर्णय लिया जाता है कि मां को नहला-धुलाकर सफेद कपड़े पहनाकर बाहर की बरामदें में कुर्सी पर बिठा दिया जाए। मां को बैठने का सलीका सिखाया जाता है। घर में ड्रिंक्स का दौर शुरू होता है। शामनाथ उसकी पत्नी और अन्य दोस्त हर तरीके से चीफ को लुभाने का प्रयास करते है। शामनाथ नहीं चाहता है कि उसकी मां चीफ के सामने आए किंतु अनायास ही चीफ की नजर बूढी मां पर पड़ जाती है तो शामनाथ आदेशात्मक लहज़े से मां को पाश्चात्य सभ्यता के अनुसार चीफ से हाथ मिलाने को कहता है। चीफ जब मां से गाना सुनाने को कहते हैं तो शामनाथ जबरदस्ती मां को गाने के लिए बाध्य करता है। चीफ को जब मां की फूलकारी पसंद आती है तो बिना मां से पूछे ही व चीफ को मां से फूलकारी बनवाने का वादा कर देता है। मां के विरोध करने पर वह उनको पदोन्नति का प्रलोभन दिखाकर मना लेता है। जब तक मां निरर्थक लग रही थी उनको छिपाने की बात हो रही थी किंतु जैसे ही चीफ को मां से मिलकर अच्छा लगा तो शामनाथ यूं दिखा रहा था जैसे वह मां से बहुत प्रेम करता हो। जैसे की दावत शुरू हुई मां अपनी कोठरी में चली गई और बहुत देर तक रोती रही। दावत समाप्त होते ही सभी मेहमान चले गए और शामनाथ मां के पास आ गया। बेटे की आवाज सुनकर मां का दिल दहल गया। उसने सोचा कि कहीं कोई भूल तो नहीं हो गई। अपने बेटे की तरक्की को सुनकर मां की आंखों में आंसू छलकने लगे किंतु घर में घुटन महसूस होती है इसलिए वह उसे हरिद्वार भेजने की बात करती है तो शामनाथ चिढ़ जाता है और कहता है कि आप समाज में मुझे अपमानित करना चाहती हैं।
‘चीफ की दावत’ कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी बल्कि यूं कहें कि यह कहानी समय के साथ और भी सार्थक हो गई है क्योंकि जिस समय यह कहानी लिखी उस समय से ही शायद घर में बजुर्गों की उपेक्षा और निरादर की शुरूआत तो हो चुकी थी किंतु वर्तमान समय में स्थितियां और भी भयानक हो चुकी है। वृद्धाश्रम इसी परम्परा की व्यवस्था है। डा0 गोपालराय ‘चीफ की दावत’ के बारे में लिखते है कि, ‘इस कहानी में मुख्य रूप से सांस्कृतिक हृास का अंकन किया गया है, जो मध्यवर्ग में औपनिवेशिक प्रभाव की देन है। पदोन्नति के लिए बडे अधिकारी की बेहद निम्न स्तर की चाटुकारिता, युरोपीय संस्कृति की भौंडी नकल की चेष्टा, झूठी शान का दयनीय प्रदर्शन, उच्च पदाधिकारी के सामने भीगी बिल्ली और मातहतों के सामने शेर जैसा व्यवहार करने की मानसिकता, पुरानी पीढी के प्रति अमानवीय व्यवहार आदि मध्यवर्गीय अंतर्वेधी अंकन इस कहानी में हुआ है, वह दूसरी कहानी में देखने को नहीं मिलता’।
यह कहानी पारिवारिक जीवन-मूल्यों के विघटन को स्पष्ट करने के उदे्श्य से लिखी गई है लेकिन मां की ममता और उसके महत्व की स्थापना के माध्यम से लेखक ने मां के रूप तथा स्वस्थ पुरानी परम्परा का महत्त्व सिद्ध किया है। भीष्म की सूक्ष्मदर्शिता और सामाजिक चेतना अवर्णनीय है।
कलात्मक पक्ष- कहानी की कथा-वस्तु जितनी प्रमाणिक होगी उतनी ही पाठकों को प्रिय होगी किंतु कथा का कलात्मक पक्ष यदि मजबूत न हो तो वह टिक नहीं पाती है। भीष्म साहनी कहानी का सबसे बडा गुण उसकी प्रामाणिकता को ही मानते है। उनके अनुसार, “कहानी का सबसे बड़ा गुण प्रामाणिकता ही है, उसके अंदर छिपी सच्चाई जो हमें जिंदगी के किसी पहलू की सही पहचान कराती है तभी वह जीवन के यथार्थ को पकड पाती है”। भीष्म साहनी की रचना का यथार्थवाद एक ओर तो सामाजिक जीवन की वास्तविकताओं को प्रभावशाली रूप प्रदान करता है तो दूसरी ओर चेतना का संस्कार देता है। इनके कथा-यथार्थ में वस्तुओं, घटनाओं और पात्रों के आन्तरिक संबंधों का निर्वाह हो सका है इसलिए संदर्भ-संगठन और दृष्टांत-संयोजन में कहीं कोई त्रुटि नजर नहीं आती।
‘चीफ की दावत’ में मध्यवर्गीय व्यक्ति की मानसिकता उसके व्यवहार और शब्दों के माध्यम से व्यक्त हुई है जिससे यथार्थ चित्रण में मनोवैज्ञानिकता का समावेश भी हो गया है। इस कहानी में मुख्य पात्र शामनाथ और उसकी पत्नी के व्यवहार के पीछे छिपे स्वार्थों और अन्तर्विरोधों को लेखक ने कुशलता से सूचित किया है। उपेक्षित मां की घुटन उसके संक्षिप्त संवादों और विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से स्पष्ट हो जाती है। समग्रतः कहा जा सकता है कि जीवन के यथार्थ और पात्रों के मनोविज्ञान का कुशल समन्वय इस कहानी में प्रस्तुत किया गया है।
भीष्म साहनी मिलीजुली भाषा के प्रयोग में सिद्धहस्त है। भाषा के बारे में उनका दृष्टिकोण शुद्धतावादी नहीं है। भाव स्थितियों के मूर्तिकरण के लिए उन्हें जिस किसी स्त्रोत की आवश्यकता पड़े वे ले लेते हैं। यह कहानी आधनिक मध्यवर्ग को प्रस्तुत करती है। इसलिए अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग हुआ है जैसे:- ड्रैसिंग गाऊन, पाउडर, मिस्टर, नैपकिन, ड्रिंक और चीफ इत्यादि। मां को पुरानी परम्परा और ग्रामीण परिवेश से जुड़ा हुआ बताया है इसलिए वैसी ही भाषा का प्रयोग भीष्म साहनी ने मां से करवाया है। वह चीफ से हाथ मिलाते हुए सकुचाते हुए पूछती है:- हो डू डू
और गाने की फरमाइश पर पंजाबी संस्कृति और भाषा का गाना
हरिया नी माये, हरिया नी भैणे
हरिया ते भागी भरिया है।
भीष्म साहनी के पात्र और उनका व्यवहार, भाषा पात्रानुसार ही है यहां तक कि पात्र का नाम शामनाथ सही मायने में भारतीय परिवार जीवन मूल्यों की शाम को ही दर्शाता है और पाश्चात्य सभ्यता की दासता को जीवन में स्वीकार करता है। चीफ विदेशी सभ्यता और पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक है इसलिए किसी भी नाम से अभिहित नहीं किया गया। बूढी मां भारतीय परम्पराओं का प्रतीक स्वरूप है। ममता, वात्सल्य, सर्म्पण का भाव उनमें भरा हुआ है किन्तु आधुनिकतावाद के आधिक्य से घुटन, भय, संत्रास, अकेलापन उनके जीवन में भर गया है। एक तरफ भीष्म सहानी ने जहां मध्यवर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थितियों को उद्घाटित किया है तो दूसरी तरफ व्यक्ति मनोविज्ञान का भी सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है। आत्मकेन्द्रित और स्वार्थी व्यक्ति किस प्रकार भावनाओं से शून्य हो जाता है और शोषित माँ में घुटन, भय, अकेलापन किस प्रकार प्रभावी हो जाता है, इस कहानी में चित्रित है। भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ का सामाजिक पक्ष जितना मजबूत है उतना ही कलात्मक पक्ष भी। भीष्म साहनी की कहानियों के संदर्भ में बड़ी विशेषता यह है कि वे सीधे और सरल वाक्यों में एक गूढ़ विषय पर कहानी लिख जाते हैं और ऐसे में यह पता ही नही चल पाता कि पाठक और रचना के बीच एक लेखक भी मौजूद है। इसी के संबंध में कमलेश्वर लिखते है, ‘‘ भीष्म साहनी का नाम बीसवी शताब्दी के हिंदी साहित्य के क्षेत्र में इस तरह लिख गया है जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता है। स्वतन्त्रता से लेकर 2003 तक यह नाम हिंदी कहानी का पर्यायवाची बना रहा....इस तरह का महत्व या तो प्रेमचंद को मिला या हरिशंकर परसाई के बाद भीष्म साहनी को। जो प्रसिद्धि उन्होंने प्राप्त की वास्तव में यह स्वयं हिंदी साहित्य की प्रसिद्धि है।
Comments
Post a Comment