जायसी का सूफी दर्शन और भक्ति :डॉ0 विजय आनन्द मिश्र सहायक आचार्य (हिन्दी)



निर्गुण भक्ति के प्रेम मार्गी काव्य धारा के कवि और सूफी दर्शन के व्याख्याता मलिक मुहम्मद जायसी की भक्ति-भावना हिन्दू और मुस्लिम धर्म के दर्शन के उचित समन्वय से युक्त है जिसमें वो हिन्दू रीति-रिवाज को सूफी दर्शन से देखतें हैं जहाँ पर भावनात्मक रहस्यवाद और परम्परागत रहस्यवाद के बीच भी समन्वय स्थापित करतें है। मध्यकालीन प्रेम अचानक कार्यो का एक सूत्र फारसी की सूफी काव्य परंपरा से भी जुड़ता है। सूफी साधक भी पुराण के ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं, पर वे अन्य मुसलमानों की भांति यह नहीं मानते कि ईश्वर दृश्य जगत से परे है, अपितु वे यह स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर इस जगत में व्याप्त हैं और वह सत्य और सुन्दर है। उनकी दृष्टि में सृष्टि असत् है, परमात्मा ही परम सत्ता के रूप् में सत्य है। मनुष्य में सृष्टि में सत् औार असत् दोनों अंश है। सत्य ही परमात्मा है और असत् नाशवान है। इसीलिए साधक को स्वतः नष्ट करके अपने को स्वच्छ बनाकर परमात्मा के साथ एक हो जाना है। यह कार्य साधना द्वारा पूरा होता है। यह साधन पथ ही सूफी मार्ग है। 

प्रेम भावना सूचियों की विशिष्ट उपलब्धि है। इस प्रेम में विरह विरूद्ध को महत्वपूर्ण माना, जिसमें जीव ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक योग से गुजरता है, विद्वानों ने सूफियों की इस प्रेम भावना तथा भारतीय भक्ति भावना में समानता देखी है। सूफियों में प्रिया-प्रियतम के सम्बन्धों की सर्वाधिक चर्चा हुई है। शराब ईश्वर प्रेम की मदिरा में रूपांतरित हुई, और खुदा को स्त्री पात्र के रूप में चित्रित किया गया। यहां प्रेम ही सर्वस्व है और उसे ही मनुष्य को अमरत्व प्रदान करने वाला तत्व माना गया है। इस प्रेम में शारीरिक पक्ष गौण हो जाता है और मानसिक पक्ष प्रधान हो जाता है। सूफी ंसतों के अनुसार ईश्वर एक है, जिसे हक कहते हैं। ईश्वर और आत्मा में कोई अंतर नहीं है, प्रिय मार्ग से जियो हद तक पहुँचता है प्रेम मार्ग में गुरू कृपा आवश्यक होती है। गुरू कृपा से वह शैतान से ही बचता है। सूफी दर्शन में मलिक मुहम्मद जायसी प्रेम के इश्क मज़ाही से इश्क हकीकी तक के सफर को तय करते हैं और संपूर्ण भक्ति चेतना को प्रेम के माध्यम से इन्हें इश्क मज़ाही और इश्क हकीकी के बीच की दार्शनिक यात्रा अपने सूफी दर्शन के अंतर्गत तय करते हैं।

सूफी दार्शनिक चिंतन जब विस्तार योजना में रूपांतरित हुआ तब कवियों ने सर्वाधिक प्रेरणा उसके मानवीय आधार से प्राप्त की। सभी सूफी कवियों ने पुरूष के उत्कट प्रेम और प्रियतमा को प्राप्त करने की साधना का उल्लेख किया है। जब भारत में सूफी मत का प्रवेश हुआ तब चितंन तथा कार्य के क्षेत्र में वह ऊचाँई तक पहुंच चुका था। भारत में सूफी मत के प्रचार-प्रसार के संबंध में पर्याप्त लिख गया है। हुज्बेरी के भारत आगमन के साथ सूफी मत का प्रवेश माना जाता है पर सूफी का क्रमबद्ध इतिहास ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के भारत आगमन के साथ मिलता है। ये चिश्तिया संप्रदाय के प्रवर्तक थे। इसके अतिरिक्त सुहरावर्दी संप्रदाय, कादरिया संप्रदाय और नक्शबंदी संप्रदाय प्रमुख सूफी संप्रदाय हैं।?

जायसी को सूफी संप्रदायों से जोड़ा जाता है, परन्तु विजयदेव नारायण साही के अनुसार ‘‘वे विधिवत किसी सूफी संप्रदाय या गुरू से संबंध नहीं थे बल्कि सूफी मत का प्रभाव उन पर जरूर था कि बहुत कुरूप से एक आंख और एक कान से वंचति चेहरे पर काले दाग परन्तु वे पहले दर्जे के भाव, प्रमाण, नेक दिल और सेकुलर मानस के व्यक्ति थे।’’आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी जायसी के मानस की इस निर्मलता को बेहद सराहा है और मध्यकाल के भक्तों में उन्हें तुलसी और सूर्य के संपूर्ण समकक्ष महत्व दिया है। उनकी मृत्यु वही जायस के पास अमेठी में हुई। ‘‘जायसी ग्रंथावली की भूमिका में उन्होंने उनके पद्यावत की विशद आलोचना की है और उनकी कवि प्रतिभा और सहृदयता की भूरी-भूरी प्रशंसा की है।’’2 जायसी ने सूफी दर्शन के रूप में एक ऐसे आध्यात्मिक विचार को लेकर चल रहे थे जिसमें प्रेम का अथाह सागर हिलोंरें ले रहा था। ऐसा प्रतीत होता है कि सूफी दर्शन के रूप में मलिक मुहम्मद जायसी ने हिन्दू दर्शन और इस्लाम दर्शन के मूल्यवान पक्षों का स्पर्श करते हुए अपनी चिन्तन धारा में समाहित करते है। मलिक मुहम्मद जायसी , खवाजा मैनुद्दीन चिश्ती के शिष्य परम्परा के थे लेकिन ईस्लाम की कट्टरता को और हिन्दू की जड़ता से उपर उठकर एक ऐसे दर्शन को समाज के सामने अपनी कृतियों पद्यमावत अखरावट और आखिरी कलाम में पूरी निष्ठा के साथ व्यक्त किया। कबीर ने अपनी भक्ति चेतना में साधनात्मक और भावात्मक रहस्यवाद को धारण करने के बाद भी साधनात्मक रहस्यवाद को विशेष महत्व दिया लेकिन जायसी ने प्रेम मार्ग को अपनाने की वह से भावात्मक रहस्यवाद की ही प्रतिष्ठा की। प्रेम के सम्बन्ध में जायसी हमेशा कहतें हैं कि - ‘ प्रेम न बारी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय’ अर्थात प्रेम उत्पन्न भले ही भौतिक जगत में होता है लेकिन सिद्ध आध्यात्मिक धरातल पर ही होता है।

सूफी काव्यधारा परम्परा मध्यकाल की एक सशक्त काव्यधारा है, जिसका सम्पूर्ण मध्यकालीन साहित्य में अपना सामाजिक, सांस्कृतिक समन्वय के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐसा नहीं है कि उसके पूर्व समन्वय का कार्य किसी ने नहीं किया था। सांस्कृतिक समन्वय के क्षेत्र में रामानन्द और कबीर ने क्रान्तिकारी रूख अपनाया था। कबीर अपना सर्वस्व जलाकर दूसरों को आह्वान कर रहे थे, वे हद और बेहद दोनों छोड़कर जीने वाले मस्त साथक थे। कबीर बनना सबके लिए सहज नहीं था। ऐसे समय में सूफी कवि जायसी ने इससे भिन्न प्रेम का मार्ग अपनाया और हिन्दू-मुस्लिम समुदाय में निकटता स्थापित करने की चेष्टा की। उन्होंने ‘रक्त की लेई’ से समाज को जोड़ने का कार्य किया। सूफी कवियों ने जिस राग चेतना का प्रसार किया, उसका व्यापक प्रभाव पड़ा। इन कवियों का महत्व इस बात में भी है कि मुसलमान होते हुए भी हिन्दू संस्कृति को अपने दर्शन में महत्व दिया। इन कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान सर्वोपरि है। विभिन्न समूहों में भारत आए चार सूफी संप्रदायो की चर्चा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की है- पहला चिश्ती संप्रदाय, सूफी मत के प्रवर्तक मोइनुद्दीन चिश्ती से संबधित है। इसका समय 12वीं सदी हैं। दूसरा, सुहरावर्दी संप्रदाय जिसका समय भी 12वीं सदी है। तीसरा कादरी और चौथा नसबंदी। यह संप्रदाय 15वीं सदी में भारत आए सूफी वस्तु तहसील से जो सादा जीवन जीते थे तथा इस्लाम की शिक्षा के तहत खुदा की राह पर चलना इनका मकसद था। शनैः शनैः इनका झुकाव साधना के मानसिक पक्ष से जुड़ने लगा और इस्लाम के बाहरी विधानों के प्रति उदासीन होने लगा। पैगम्बर मोहम्मद साहब के ढाई सौ वर्ष बाद चिंतन पद्धति का विकास हुआ परिणाम बता इस्लामी बाद के बजाय भारतीय अद्वैतवाद के प्रति उनका झुकाव बढ़ता गया एक तो उस समय तक भारत के अनेक ग्रंथ अरबी में अनुदित हो चुके थे दूसरे जो मुसलमान भारत में बस गए थे भारतीय चितंना के दायरे में उनमें बहुत से आए अद्वैतवादी प्रभाव ने सूफियों की निराकार उपासना को सरस बनाया कारण अद्वैतवाद आत्मा परमात्मा को भी मानता है और दृश्य जगत का आधार ही नित्य तत्व को मानता है जो एकमात्र सत्य है आत्मा और परमात्मा में भीड़ के चलते ही सूफी मत में नवीनता आई और मैं ही ब्रह्म की तरह उसमें भी आत्मा का विचार आया। अद्वैतवाद प्रभाव के नाते ही सूफी परमात्मा को अनंत सौंदर्य और अनंत शक्ति का सागर मानते हैं उनकी उपासना पद्वति भी इस्लाम के रूखे पन के बजाय रमणीय हो जाती है, इन्ही सब कारणों से मुसलमान होते हुए भी भारतीय जनता में स्वीकार हुए उनमें कट्टरता और जड़ता की जगह लोगों ने निर्मल मन और मानवीय संवेदना को देखा। उनके नायक-नायिका (ऐतिहासिक काल जो भी हो) हिन्दू ही थे और भारत में रहने बसने के नाते हिन्दू रीति-नीति, आचार-विचार, विश्वास से सूफी भलीभांति परिचित थे, इसी नाते आचार्य शुक्ल ने कहा है कि ‘‘सामान्य हिंदू मुस्लिम जनता को एक मंच पर लाने का जो काम कबीर की तेज-तर्रार फट-फटी बाणी नही कर सकी उसे सूफियों ने अपनी सहायता की जमीन पर सम्पन्न किया।3 शिवकुमार मिश्र आगे पुनः कहते हैं कि, ‘‘सूफी कवियों का वैशिष्ट्य इस बात  में है कि  उन्होंनें इन अलौकिक प्रेम कथाआंें को अपना विशिष्ट आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया  तभी यह भक्ति काल के दायरे में आएं। इनकी अन्य विशिष्टता यह है कि सभी कथाएं अवधी भाषा में दोहा, चौपाई पद्धति में लिखी गई है भले ही इनकी भाषा फतांसी विशुद्ध है। ये प्रेम कथाएं महाकाव्यों की सर्ग पद्धति में नहीं फारसी की मसनवी शैली में है। कथा का विभाजन सर्गाें में नही प्रमुख घटनाओं के आधार पर हुआ है। आरम्भ में ईश्वर पैगम्बर की प्रशंसा तथा गुरू या पीर का उल्लेख भी हुआ है। प्रेमकथाआंें की चली आ रही रूढ़ियों को पालन भी इसमें हुआ हैं, नायिका के सुन्दरता की बात सुनकर या देखकर प्रेमी का उसकी प्राप्ति के लिए किया गया प्रयत्न दर-दर की खाक छानना सब कुछ खोना तथा उनके साथ ही सक्रिय नायक की ओर से ही विध्न बाधाओं को चीरते हुए नायिका तक पहुंचना, परम्परागत सारी कथा रूढ़ियों का सूफी प्रेमाख्यान में पालन हुआ है।’’

जायसी के दर्शन में अलौकिक प्रेम कथा के माध्यम से आध्यात्मिक प्रेम की व्यजंना की गई है। यही कारण है कि जायसी ने सूफी दर्शन को इस रूप में में व्यक्त  किया है, जिसके अंतर्गत किसी भी रूप में प्रेम की मांसलता के स्थान पर प्रेम की आध्यात्मिकता को व्यक्त किया गया है। डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार- 

‘‘हिन्दी भाषा के प्रबंध काव्य में पद्यमावत शब्द और अर्थ दोनों दृष्टि से अनूठा काव्य हैं। अवधी भाषा का जैसा ठेठ रूप और मर्मस्पर्शी माधुर्य यहां मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है इस कृत्य में श्रेष्ठतम प्रबंध काव्य के अनेक गुण प्राप्त हैं जैसें मार्मिक स्थलों की बहुलता, उदाŸा ऐतिहासिकता, भाषा की विलक्षण शक्ति, जीवन के गंभीर सर्वांगीण अनुभव, सशक्त दार्शनिक चिंतन, यह इसकी अनेक विशेषताएं हैं।’’

अचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने पद्यमावत को अन्योपदेशिक कृति कहा है- 

‘‘लोक पक्ष और आध्यात्मक पक्ष दोनों में पद्यमावत की विलक्षणता स्वीकार की है। पद्यमावत लोक संस्कृति का जीवंत दस्तावेज है जो लोक संस्कृति परम्पराएं स्मृतियों की गहराई के साथ संलग्न है। इस प्रेम कथा में संसार का मानसिक पक्ष प्रधान है, शारीरिक पक्ष गौंण है।’’

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी के सूफी दर्शन पर मत व्यक्त करते हुए कहा है कि- ‘‘जायसी ने प्रेमगाथाओं के रूप् में उस प्रेमतत्व का वर्णन किया है जो ईश्वरको मिलाने वाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है’’

जायसी अपने समय के सिद्ध फकीरों में गिने जाते हैं जिन्होंने सूफी दर्शन को जन-जन के हृदय में स्थापित किया। जायसी की पुस्तक अखरावट में वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सिद्धान्त सम्बन्धी तत्वों से भरी चौपाईयाँ कही गयीं हैं। इस छोटी सी पुस्तक में ईश्वर, सृष्टि, जीव, ईश्वर प्रेम आदि विषयों पर विचार प्रकट किये है। आखिरी कलाम में कयामत का वर्णन है। जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है ‘पद्यमावत’ जिसके पढ़नें से यह प्रकट हो जाता है कि- 

‘‘जायसी का हृदय कैसा कोमल और प्रेम के पीर से भरा हुआ था। क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्मपक्ष में, दोनों ओर उसकी गूढ़तम , गंभीरता और सरसता विलक्षणता दिखाई देती है।’’

जायसी के सूफी दर्शन से युक्त भक्ति में प्रेम के मार्ग में आने वाली रूकावटों का साधना के मार्ग  में आने वाली बाधाओं के रूप में व्यक्त किया है। इश्क मजाही की यात्रा मेें जीवन संघर्ष को जायसी ने जिस प्रकार से अपनी सूफी विचारधारा के अन्तर्गत पद्यमावत में दिखाया है और अंत में पद्यमावती और रत्नसेन के मिलन को प्रस्तुत किया है, वह इश्क हकीकी है जहाँ प्रेम की सार्थकता सिद्ध होती है जिसकी हिन्दू धर्म मे मोक्ष के रूप में गणना की जाती है। इस सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी कृति ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में  लिखते हैं कि- 

‘‘प्रेमगाथा की परम्परा में पद्यमावत सबसे प्रौढ़ और सरस है। प्रेममार्गी सूफी कवियों की और कथाओं में से इस कथा में यह विशेषता है कि इसके ब्यौरें से भी साधना के मार्ग, उसकी कठिनाइयों और सिद्धियों के स्वरूप आदि की जगह व्यजंना होती है, जैसा कि कवि ने स्वयं ग्रंथ की समाप्ति पर कहा है कि-

तन चितउर मन राजा कीन्हा। हिस सिंघल, बुघि पदमिनि चीन्हा।।

गुरू सुआ जेई पंथ देखावा। बिनु गुरू जगत को निरगुन पावा।।

नागमती यह दुनिया ध्ंाधा। बाँचा सोई न एहि चित बंधा।।

राघव इूत सोई सैतानू। माया अलाउद्दीन सुल्तानु।’’

इस चौपाई में जायसी ने ब्रह्म, जीव, जगत और माया, दर्शन के चारें स्तम्भों को व्यक्त किया है जिसमें हिन्दू धर्म दर्शन के तत्वों को सूफी दर्शन की दृष्टि से देखने का जायसी द्वारा सफल और सार्थक प्रयास किया गया है। ब्रह्म और जीव के पारस्परिक सम्बन्ध को जायसी ने प्रेमी और प्रेमिका के रूप् में चित्रित किया है। यहाँ प्रेमिका की भूमिका में जीव रत्नसेन हैं और प्रेमी के रूप में ब्रह्म पद्यमावती हैं संसार को नागमती के रूप में और माया को सुल्तान अलाउद्दीन के रूप में दिखाया गया है। यहाँ सूफी दर्शन और हिन्दू धर्म दर्शन का समन्वय देखने को मिलता है।

इसी प्रकार योगी रत्नसेन के कठिन मार्ग के वर्णन में साधक के मार्ग विघ्नों (काम, क्रोध आदि विकारों) की व्यंजना की है-

‘‘ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई। तब हम कहब पुरूष भल सोई।।

है आगे परबत कै बाटा। विषम पहार अगम सुठि घाटा।।

बिच बिच नदी खोह औ नारा। ठॉवहि ठॉव बैठ बटपारा।।’’

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सूफियों के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि - 

‘‘सूफियों का असर कुछ और कृष्ण भक्तों पर भी पूरा-पूरा पाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु में सूफियों की प्रवृत्तियाँ साफ झलकती हैं। जैसे सूफी कौव्वाल गाते-गाते हाल की दशा में हो जाते हैं वैसे  ही महाप्रभु जी की मण्डली भी नाचते-नाचते मूर्छित हो जाती थी। यह मूर्छा रहस्यवादी सूफियों की रूढ़ि है। इसी प्रकार मद, प्याला, उन्माद तथा प्रियतम ईश्वर के विरह को दूरारूढ़ व्यंजना भी सूफियों की बँधी हुई परम्परा है। इस परम्परा का अनुसरण भी कुछ पिछले कृष्ण भक्तों ने किया। नागरीदास जी इश्क का प्याला पीकर बराबर झूमा करते थे। कृष्ण की मधुर मूर्ति ने आजाद सूफी फकीरों को भी आकर्षित किया। नजीर अकबराबादी ने खड़ी बोली के अपने बहुत से पद्यों में श्रीकृष्ण का स्मरण प्रेमालंबन के रूप में किया है।’’

वे आगे कहते हैं कि - 

‘‘भारतवर्ष में साधनात्मक रहस्यवाद ही हठयोग, तंत्र और रसायन के रूप् में प्रचलित है। जिस समय सूफी यहाँ आए उस समय उन्हें रहस्य की प्रवृत्ति हठयोगियों, रसायनियों और तांत्रिकों में भी दिखाई पड़ी। हठयोग की तो अधिकांश बातों का समावेश उन्होंनें अपनी साधनापद्धति में कर लिया।  पीछे कबीर ने भारतीय ब्रह्मवाद और सूफियों की प्रेमभावना को मिलाकर जो निर्गुण संत मत खड़ा किया, उसमें भी इला, पिंगला सुषमना नाड़ी तथा भीतरी चक्रों की पूरी चर्चा रही। हठयोगियों या नाथपंथियों  की दो मुख्य बातें सूफियों  और निर्गुण मत वाले संतो को अपने अनुकूल दिखाई पड़ी- 

(1) रहस्य की प्रवृत्ति 

(2) ईश्वर को केवल मन के भीतर सनझना और ढूँढ़ना।’’

जायसी द्वारा स्वीकार्य रहस्यवाद उपनिषदों के समय से प्रचलित है लेकिन उस रहस्यवाद में सरलता नहीं थी। जायसी ने भावनात्मक रहस्यवाद के आधार पर ही सूफी साधना और दर्शन को अपने साहित्य में स्थान दिया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल यह स्वीकारते हुए कहते है कि - 

‘‘जायसी कवि थे और भारतवर्ष के कवि थे। भारतीय पद्धति के कवियों की दृष्टि फारसवालों की अपेक्षा प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों पर कहीं अधिक विस्तृत तथा उनके मर्मस्पर्शी स्वरूपों को कहीं अधिक परखने वाली होती है। इससे उस रहस्यमयी सत्ता का आभास देने के लिए जायसी बहुत ही रमणीय और मर्मस्पर्शी दृश्य संकेत उपस्थित करने में समर्थ हुए। कबीर के चित्रों (इमैजरी) में न वह अनेकरूपता है, न वह मधुरता। देखिए उस परोक्ष ज्योति और सौंदर्यसत्ता की ओर कैसी लौकिक दीप्ति और सौन्दर्य के द्वारा जायसी संकेत करतें हैं-

बहुतै जोति जोति ओहि भई।

रवि, ससि, नखत दिपहिं ओहि जोती।

रतन पदारथ मानिक मोती।।

जहँ जहँ बिहँसि सुभावहिं हँसी। तहँ 

तहँ छिटकि जोति परगसी।

नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर।

हँसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर।’’

प्रेमिका को ब्रह्म के रूप में दिखाने के लिए जायसी ने अतिशयोक्ति विधान को अपने पद्यमावत में प्रस्तुत किया है। सूफी दर्शन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। कबीर ब्रह्म को जीव के अन्तःकरण में निहित मानते हैं और जायसी भी अपनी भक्ति दर्शन में ब्रह्म को प्रेमी जीव के मन में अवस्थित मानते हैं....- कबीर कहते है-

‘‘मो को कहॉ ढूँढै बंदे मै तो तेरे पास में।

न मै देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलाश में।।’’

जायसी भी उसे भीतर ही बताते हैं-

‘‘पिउ हिरदय महँ भेंट न होई। को रे मिलाव, कहाँ केहि रोई!’’

जायसी के पद्यमावत में प्रेम की अलौकिकता को ब्रह्म की विराटता के रूप में देखा गया। यहाँ तक कि वियोग को भी प्रेमी-प्रेमिका वियोग के माध्यम से जीवात्मा और परमात्मा के विक्षोभ को प्रस्तुत किया गया है, जिस प्रकार प्रिय के साथ रहने से सारा संसार सुखमय दिखता है उसी प्रकार ब्रह्म के साक्षात्कार के बाद सारे दुःख विस्मृत हो जाते हैं और जीवात्मा या प्रेमी के जीवन में सुख और संतोष की स्थापना हो जाती है। जायसी कहते हैं कि पृथ्वी और स्वर्ग, जीव और ईश्वर, दोनों एक थे, बीच में न जाने किसने इतना भेद डाल दिया-

‘‘धरती सरग मिले हुत दोऊ। केई निनार कै दीन्ह बिछोऊ।’’

जायसी को रहस्यवादी कवि कहा गया है। जिस दर्शन को उन्होंने अपनाया था वे सूफी दर्शन था जिसमें उनकी अद्वैतवादी भावना निहित है जो हिन्दू दर्शन से आता है। प्रारम्भ मे ही कहा जा चुका है कि जायसी ने हिन्दू दर्शन को सूफी दर्शन से देखने और विश्लेषित करने का प्रयास किया है, जिसमें दार्शनिक स्तर पर भक्ति के क्षेत्र में समन्वय दिखायी देता है। ईस्लाम और हिन्दू संस्कृति को एकता के सूत्र में बाँधने में जायसी का योगदान अनुकरणीय है। उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए जब मध्यकाल में व्याप्त था, जायसी नें दर्शन के दोनों मार्गो को एक तीसरे मार्ग में परिवर्तित करके मानवता की श्रेष्ठता को शीर्ष पर रखा गया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जायसी की भक्ति और दर्शन पर विचार करते हुए लिखतें हैं कि- 

‘‘रहस्यवादी भक्त परमात्मा को अपने प्रिय के रूप में देखता है और उससे मिलने के लिए व्याकुल रहता है। जिस प्रकार मेघ और समुद्र के पानी में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं, उसी प्रकार भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं है। फिर भी मेघ का पानी नदी का रूप धारण करके समुद्र के पानी में मिल जाने को आतुर रहता है। उसी श्रेणी की की आतुरता भक्त में भी होती है। सूफी कवियों ने अपने प्रेम-कथानकों की प्रेमिका को भगवान का प्रतीक माना है। जायसी भी सूफियों की इस भक्ति भावना के नुसार अपने काव्य में परमात्मा को प्रिया के रूप में देखते हैं और जगत के समस्त रूपों को उसकी छाया से उद्भासित बताते हैं उनके काव्य में प्रकृति उसी परमप्रिय के समागम के लिए उत्कंठित और व्याकुल पाई जाती है।’’11

यहाँ द्विवेदी जी के कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति नदियों के समान है और सूफी दर्शन एक विशाल समुद्र के समान है जहाँ इन दोनों संस्कृतियों का मिलन होता हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी के सूफी दर्शन और भक्ति के सम्बन्धों में कहा हैं कि- 

‘‘जायसी का झुकाव सूफी मत की ओर था जिसमें जीवात्मा और परमात्मा में पारमार्थिक भेद न माने जाने पर भी साधको के व्यवहार में ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में की जाती है।’’

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- 

‘‘अद्वैतवाद के दो पक्ष हैं- आत्मा और परमात्मा की एकता तथा ब्रह्म और जगत् की एकता। दोनों मिलकर सर्ववाद की प्रतिष्ठा करते हैं। सर्ववाद खल्विद ब्रह्म। यद्यपि साधना के क्षेत्र में सूफियों और पुराने ईसाई भक्तों, दोनों की दृष्टि प्रथम पक्ष पर ही दिखाई देती है। पर भावक्षेत्र में जाकर सूफी प्रकृति की नाना विभूतियों से भी उनकी छवि का अनुभव करते आए है।’’

रहस्यवाद या रहस्यभावना किसी भी दर्शन का मूल होता है, जिसमें परमात्मा को ढूँढने और प्राप्त करने का नियोजन किया जाता हैं। आचार्य शुक्ल इस सम्बन्ध में कहते है- 

‘‘रहस्यभावना किसी विश्वास के आधार पर चलती है, विश्वास करने के लिए कोई नया तथ्य या सिद्धान्त नहीं उपस्थित कर सकती। किसी नवीन ज्ञान का उदय उसके द्वारा नहीं हो सकता। जिस कोटि का ज्ञान या विश्वास होगा उसी कोटि की उससे अद्भूत भावना  होगी।’’

जायसी ने भक्ति के मार्ग  को प्रेम के साधन द्वारा प्राप्त करना चाहते थे इसीलिए वे निर्गुण के प्रेममार्गी काव्यधारा को अपनी साधना के लिए स्वीकार किया। जिसमें उन्होंने सूफी दर्शन को मूल आधार के रूप में अपने दृष्टिकोण में सम्मिलित किया।

इस प्रकार जायसी के सूफी दर्शन और भक्ति पर विचार करने के उपरान्त एक सामान्य धारणा बनती है कि हिन्दू धर्म दर्शन और ईस्लाम दर्शन का समन्वय उनके सूफी दर्शन में देखी जा सकती है। इस दर्शन के तार उपनिषदों से जुड़ें है, जिसमें भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति के ऐतिहासिक चिह्न साकार रूप में देखें जा सकते हैं सूफी काव्यधारा के समानान्तर प्रेम कथाआंें को आधार बनाकर सूफी प्रेमाख्यानों का भी प्रणव प्रारम्भ हुआ जिससे सूफी काव्य और प्रेमाख्यानों ने अपने दर्शन के रूप में सूफी संस्कृति को अपनाया जिस जिस में प्रेम के ऐतिहासिक एवं अलौकिक वातावरण के साथ पारलौकिक प्रेम के आदर्श स्वरूप को प्रस्तुत किया जो कहानियों का रूप धारण करके काव्य के रूप में हमारे सामने आती रही।

सूफी काव्य परम्परा के नींव पर बात करते हुए एवं उसे एक दर्शन का स्वरूप् देते हुए डॉ0 कन्हैया सिंह लिखते हैं कि-

‘‘ एक ओर विस्फोटक सूफी काव्य की परम्परा चली और दूसरी ओर प्रचलित प्रेम कथाओं को आधार बनाकर सूफी प्रेमाख्यानों का प्रणयन प्रारम्भ हुआ, जिनमें संपूर्ण लोक कथा और वर्णन के अवगुंठन में अलौकिक सौन्दर्य और प्रेम के रूप में सूफी तत्व छलकते हैं। दाऊद की ‘चंदायन’ (रचनाकाल 1379 ई0)  इस परम्परा की प्रथम ज्ञात रचना है। प्रेमाख्यान और इस स्फुट रचनाओं की दोनों ही परम्पराएं दक्षिण की रियासतों में दकनी भाषा में भी मिलती हैं।’’

इस प्रकार सूफी काव्य की दो परम्पराएं हिन्दी में प्राप्त है- पहली उत्तरी भारत की अवधी सूफी परम्परा और दूसरी दक्षिण भारत की दकनी सूफी परम्परा। इस मत के  आधार पर उन्होनें सूफी संस्कृति के विस्तार के आरम्भिक समय को व्यक्त किया साथ ही इसमें इस्लाम का ऐसा रूप् हमारे सामने लाया जिसमें मुस्लिम संतो की एक लम्बी परम्परा मिलती है। कन्हैया सिंह का मानना हैं कि इस्लाम दर्शन में भी सगुण ब्रह्म का यह रूप हमें मिलता है। जैसे कुरान में उसे सृष्टि का निर्माता, पालक और संहारक कहा गया है। कुरान में कहा गया है कि- 

‘‘वह (ईश्वर) जिसने भूमि में जोे कुछ है (सबको) तुम्हारे लिए बनाया (कुरान 2, 4, 9) वहाँ ब्रह्म के लिए कहा गया है कि वह आदि है, अंत है, बाहर है, भीतर है, वह सब चीजों का जानकार है। मुण्डकोउपनिषद में कहा गया है कि ब्रह्म हमारे सामने, पीछें, बायी तथा दायीं ओर है। वही एक ब्रह्म ऊपर और नीचे है तथा वही श्रेष्ठतिश्रेष्ठ है (श्लोक 215)। इस प्रकार सगुण ब्रह्म का यह रूप हिन्दू और इस्लाम दर्शन में अविरोधी रूप में मिलता है।’’

सूफी दर्शन में पहली बार ईश्वर पृथ्वी पर पद्यमावती के रूप में अवतरित होता है इसीलिए जायसी की भक्ति और सूफी दर्शन में निर्गुण ब्रह्म सगुण अवस्था में पहुँचने का सफर प्रारम्भ करता है। सूफी ब्रह्म और सगुण ब्रह्म में प्रकृति में कोई अन्तर नहीं है अर्थात धर्म के रूप में ब्रह्म और पैगम्बर में इसलिए कोई अन्तर नहीं हैं क्योंकि दोनों का स्वरूप एक ही है बस दृष्टिकोण का अन्तर है, नाम का अन्तर है। इस प्रकार सूफी संस्कृति ईरान से भले ही आयी हो लेकिन भारतीय वातावरण में आकर एक दूसरे में रच बस गयी। इनमें अन्तर केवल संकेतों का है, स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। इन वर्णनों में निश्चित ही सूफी कवियों नें अपने इस्लामी ब्रह्म को निरूपित करने के लिए उपनिषदों की हिन्दू प्रणाली को आत्मसात किया है।

जायसी के अनुसार-

 ‘‘यह दृश्यमान जगत असत् के दर्पण में प्रतिबिम्बत होने वाला उस परम सत्ता का प्रतिबिम्ब है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश जल में पड़ता है और उसका प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार परमात्मा, सूर्य के समान असत में प्रतिबिम्बवत होता है। जल में पड़ने वाले सूर्य के प्रतिबिम्ब से सूर्य को देखा जा सकता है, उसी प्रकार असत् के दर्पण में पड़ने वाले परमात्मा है, जल के समान असत् का दर्पण है और प्रतिबिम्ब के समान दृश्यमान जगत है। इस भाव का निरूपण करते हुए जायसी ने संकेत किया है कि मनुष्य के हृदय रूपी दर्पण में परमात्मा को देखा जा सकता है कि सूर्य के समान परमात्मा है, जल के समान असत् का दर्पण है और प्रतिबिम्ब के समान दृश्यमान जगत है। इस भाव का निरूपण करते हुए जायसी ने संकेत किया है कि मनुष्य के हृदय रूपी दर्पण में परमात्मा का दर्शन होता है। मनुष्य तो उसी ब्रह्म की छाया है। कवि ने प्रतिबिम्ब वाद की इस भावना को अच्छा विस्तार दिया है। पद्यमिनी परमात्मा के रूप में चित्रित की गई है और उसके सम्बन्ध में कहा गया है कि उसी एक ज्योति से सारे संसार में ज्योति मिली हैं। जहाँ-जहाँ वह स्वाभाविक रूप से हँसी वहाँ ही उसकी ज्योति छिटक कर प्रकाशित हो गई।’’

सूफी दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए डॉ0 कन्हैया सिंह लिखते हैं- 

‘‘हिन्दी के सूफी कवियों ने फारसी  काव्य परम्परा से प्रेम तत्व को ग्रहण किया और उसी को सांसारिक कल्याण का साधन माना। फारसी के सूफी कवियों ने संसार की नश्वरता पर दृष्टिपात किया है। लौकिक सौंदर्य को मृत्यु में परिवर्तित होते हुए उन्होंने देखा। हर पीढ़ी मृत्यु और नश्वरता से मुक्ति पाने का मार्ग ग्रहण करती।’’

सूफी शब्द की व्युत्पत्ति  के सम्बन्ध में अनेक मत प्रकट किए जाते हैं। एक मत के अनुसार - 

‘‘पैगम्बर हजरत मुहम्मद के द्वारा निर्मित करायी गई मदीना की मस्जिद के सामने एक चबूतरा था जिसे सुफ्फा कहते हैं। इस पर आकर बैठने वाले कुछ पवित्र जीवन वाले तथा खुदा की इबादत में लीन रहने वाले मुहम्मद साहब के समसामयिक व्यक्तियों को अह्ल-अल-सुफ्फाह कहा जाता था। इसी सुफ्फा या सुफ्फाह शब्द से सूफी शब्द बना। इसके प्रतिकूल कुछ अन्य लोग ग्रीक शब्द सोफिया या सुफ्फाह या सोफी से इस शब्द का निष्पन्न होना मानते हैं। कुछ बनू सूफा नामक अरब की भ्रमणशील जाति से इसका शाब्दिक सम्बन्ध जोड़ते हैं। कश्फुल महजूब के योग्य लेखक अलहुज्वेरी ने सूफी शब्द का सफा से बना हुआ माना है। इस्लामी विचारकों के अतिरिक्त निकोलसन आदि कुछ यूरोपीय लेखकों  ने भी इस मत का समर्थन किया है।’’

सूफी शब्द, सूफी इतिहास, सूफी दर्शन और सूफी भक्ति के सम्बन्ध के साथ जायसी पर विचार करते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इन प्रवृŸिायों के अनुकूल ही जायसी ने अपने भक्ति-दर्शन को व्यक्ति, समाज और संस्कृति के दायरे में प्रस्तुत किया है। साथ ही जायसी की भक्ति जो सूफी दर्शन के आधार पर वर्णित होती है वह समय और परिथितियों के साथ समन्वय करती हैं। अन्त में जायसी की सूफी दर्शन युक्त भक्ति निर्गुण और सगुण के बीच सेतु का कार्य करती है।


Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला": काव्यगत विशेषताएं

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व