मुक्तिबोध की काव्य भाषा एवं परिचय

मुक्तिबोध :संक्षिप्त परिचय  

जन्म : 13 नवंबर 1917, श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

भाषा : हिंदी
विधाएँ : कहानी, कविता, निबंध, आलोचना, इतिहास
कविता संग्रह : चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल
कहानी संग्रह : काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी
आलोचना : कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी
इतिहास : भारत : इतिहास और संस्कृति
रचनावली : मुक्तिबोध रचनावली (छह खंड)
निधन
11 सितंबर 1964, दिल्ली
मुख्य कृतियाँ
 (मुक्तिबोध की काव्यगत विशेषताओं के लिए देखें )


मुक्तिबोध की काव्य भाषा – मुक्तिबोध की काव्य भाषा उनके कथ्य के अनुरूप ही अपने ढंग की है । इसमें कवि के अनुभूत को संप्रेष्य बनाने की अद्भूत शक्ति है ,और वह जीवन के तथ्यों को उजागर करने में सक्षम है ।अभियक्ति  के समस्त खतरे उठाकर उन्होंने पारंपरिक भाषा शैली के मठों और दुर्गों को तोड़कर अपने अरुण कमल वाले उद्देश्य को भाषिक स्तर पर ही सफलता से प्राप्त किया है । उनकी भाषा में जो वैचित्र्य दिखलाई देता है ,वह इसीलिए है कि एक ओर तो जटिल और त्रासद अनुभवों से जूझ रहे थे ,और दूसरी ओर अभिव्यक्ति के संकट को भी महसूस कर रहे थे । मुक्तिबोध की भाषा उतनी ही मौलिक है ,जितना उनका चिन्तन मौलिक है । यहाँ उन्होंने अपनी और दूसरी भाषा का भेद मिटाकर अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक हर भाषा –अंग्रेजी , संस्कृत , उर्दू ,मराठी आदि किसी भी भाषा के चालू शब्दों को अपना लिया है । ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध का शब्द-विधान बहुत ही डेमोक्रेटिक है । शब्दों के प्रयोग का मुक्तिबोध का अपना ढंग है । वे व्याकरण की परवाह नहीं करते ,बल्कि व्याकरण को अपनी भाषा की परवाह के लिए निमंत्रण देते हैं । कितने ही शब्द-प्रयोग ,कितने ही विशेषण और कितने ही मुहावरे ऐसे हैं ,जो मुक्तिबोध के काव्य में आकर अपना रूप बदल लेते हैं । इस बदलाव से आपके कविता की सम्प्रेषणीयता बढ़ी है ।

रक्तिम के रक्ताल , अंगारमय के लिए अंगारी ,अंधियारी के लिए अंधियाला,रुग्न के रोगीला और अचानक के लिए अचक आदि ऐसे ही प्रयोग हैं ,जिससे कविता की संप्रेषणीयता बढ़ी है विशेषणों के नए प्रयोग भी मुक्तिबोध की भाषा में देखने को मिलते हैं – प्यारी रोशनी , सर्द अँधेरा और चहचहाती साड़ियाँ आदि कितने ही ऐसे प्रयोग हैं ।

मुक्तिबोध की भाषा भागती-सी लगती है ।शब्द इतने तेज और तर्राट हैं कि पाठक भी कई बार भाव को पीछे छोड़कर शब्द के साथ ही भाग जाता है । भाषा में गतिशीलता है । शब्द ध्वनिमूलक हैं और बिम्व सर्जना के लिए बेहद कारगर सिद्ध हुए हैं । चटपट आवाज चांटों की पड़ती , सटर-पटर, धड़-धडाम , अरराकर गिरना और खट-खटाक आदि इसी प्रकार के प्रयोग हैं । शांति , नीरवता और रहस्यमय स्थितियों के निरूपण के लिए भाषा क्रमशः शीतलता व जिज्ञासा के कदमों से चलती हुई , डरावनी स्थितियों के लिए सन्नाटा फैलाती हुई, भय और आतंक का घेरा डालती हुई चलती है –

सामने है ,अंधियाला ताल और

स्याह उसी ताल पर समलाई चाँदनी-

समय का घंटाघर

निराकार घंटाघर गगन में चुपचाप अनाकार खड़ा है

 मुक्तिबोध की भाषा अनेक स्थलों पर बल्कि कहें कि अधिकांशतः स्थलों पर वातावरण-निर्माण में भी सहायक हुई है । इस प्रकार की भाषा को ब्रह्मा राक्षस , चम्बल की घाटियाँ ,अंधरे में जैसी कविताओं में देखा जा सकता है । जहाँ कहीं मुक्तिबोध ने भाषा के सहारे वातावरण खड़ा किया है , वहीँ बिम्व स्वतः ही साकार हो उठे हैं । मुक्तिबोध कभी-कभी तो शब्दों के संयोजन से ऐसा वातावरण तैयार करने में सक्षम हुए हैं कि पाठक अनायास ही रहस्य ,रोमांस और किसी अनजानी भूमि पर पहुँच जाता है , अकस्मात् ,भौचक्का-सा रह जाता है और कुछ समय के लिए अपने को भी भूल जाता है ।

उपेक्षित काल पीड़ित सत्य के समुदाय

लेकर साथ

मेरे लोग

असंख्य स्त्री-पुरुष-बालक भटकते हैं

किसी की खोज है उनको।

अटकना चाहते हैं द्वार-देहली पर किसी के किंतु

मीलों दूरियों के डैश खिंचते हैं

अँधेरी खाइयों के मुँह बगासी जोर से लेकर

यूँ ही बस देख

अनपहचानती आँखों -

खुले रहते।

       मुक्तिबोध की शब्द संयोजना में संस्कृत , उर्दू , अंग्रेजी ,मराठी ,गुजराती –इन सभी भाषाओँ के शब्दों का मिलन दिखाई देता है । लगता है कि हरेक भाषा का शब्द दूसरी भाषा के शब्द को अपना हमराज और हमसफ़र समझता है । कथ्य को सहज संप्रेष्य बनाने के उद्देश्य से मुक्तिबोध ने मुहावरों और कहावतों का प्रयोग भी किया है ।जमाना सांप का काटा, सच्चाई की ऑंखें , दिल की बस्ती उजड़ना, मन टटोलना , मछलियाँ फंसाना , जिंदगी में झोल होना , बौद्धिक सींग निकालना, सिट्टी-पिट्टी गम होना आदि कितने ही मुहावरे आपकी कविताओं में आयें हैं । अनेक स्थलों पर भाषा को प्रभावी बनाने के लिए मुक्तिबोध ने सूक्तियों का प्रयोग भी किया है ।

मुक्तिबोध की शैली में नाटकीयता ,प्रश्निलता और जटिलता तो मिलती तो ही है, व्यंग्याशिलता  भी भरपूर मात्रा में मिल जाती है । अनेक कविताओं में व्यंग्य शैली का सफल प्रयोग देखा जा सकता है । प्रतीक-प्रयोग और बिम्व-प्रयोग की दृष्टि से भी मुक्तिबोध की भाषा पूरी तरह संपन्न दिखाई देती है –

नगर के बीचों-बीच

आधी रात--अंधेरे की काली स्याह
शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कारखाना--अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार--चिह्नाकार--मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
चांद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।

      https://youtu.be/-KkmEkGIXag


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