खुदा सही सलामत है का मर्म : रवीन्द्र कालिया

  स्वाधीनता आन्दोलन एवं स्वाधीन भारत सामान्य मध्यवर्गीय जीवन के द्वारा देखा जाने वाला स्वप्न है। इस स्वप्न के पूर्ण होने और उसके बाद मोह भंग की स्थितियों ने आम आदमी की व्यापक स्तर पर प्रभावित किया। स्वाधीनता आन्दोलन में आम आदमी ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया स्वाधीनता आन्दोलन व्यापक रूप ग्रहण कर जमीनी हकीकत बना तो उसके पीछे इस मध्यवर्ग की संवेदन शीलता ही थी, मध्यवर्ग एक ऐसा वर्ग है जो सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी होता है। समाज की कोई भी घटना इस वर्ग को व्यापक स्तर पर प्रभावित करती है। इस वर्ग को समाज का सबसे चेतनशील वर्ग कहें तो अतिश्योक्ति न होगा। उपन्यास के आरम्भ में ही लेखक आजादी के बाद की स्थितियों का चित्रण करता है     ‘‘इस बीच देश ने बहुत बड़ा तरक्की की। मगर इस गली का ही दुर्भाग्य कहा जाय कि देश में हो रहे विकास कार्यों का बहुत हल्का प्रभाव पड़ रहा था। गली के औसत आदमी के घर में आज भी न पानी  का नल था, न बिजली का कनेक्शन। शाम होते ही घरो में जगह-जगह जुगुनुओं की तरह ढिबरीयाँ टिमटिमाने लगती। अगर भूले-भटके गली में दो जगह सड़क के किनारे बल्व लगा भी दिये  जाते तो बच्चे लोग तब तक अपनी निशानेबाजी की आजमाइश करते रहते जब तक बल्व टूट न जाते। दरअसल गली के लोग सदियों से अंधेरे में रह रहे थे और अब अंधेरे में रहने के आदी हो चुके थे। अब उजाला उनकी आँखों में गड़ता था। यही वजह थी की अगर बच्चों से बल्व फोड़ने में कोताही हो जाती तो कोई रोशनी का दुश्मन चुपके से बल्व फोड़ देता।’’ 

        उपरोक्त पंक्तियों में देश का तरक्की करना, गली का दुर्भाग्य, पानी बिजली का कनेक्शन न होना, अंधेरे में रहने का आदी होना, उजाला आँखों में गढ़ना, जैसे निवर्सन जीवन जीना आदि विशेषण आम आदमी की संवेदना को व्यक्त करते है। इससे बड़ी त्रासदी  और क्या हो सकती है। ‘‘खुदा सही सलामत है’’ उपन्यास में लेखक ने उस गली परिधान को बताते हुए बताया है, कि - ‘‘टाट इस गली का राष्ट्रीय परिधान था। दरअसल टाट चिलमन भी था और चादर भी। टाट पायजामा भी और लहँगा भी। टाटबिस्तर था और कम्बल भी। अक्सर लोग सोते ओढ़ते थे। टाट के साइज-बेसाइज के परदे छोटी-छोटी कोठरियो के बाहर जैसे सदियों से लटक रहे थे। टाट के उन पर्दो पर टाट की ही थिगलियाँ लगी रहती थी।’’


          टाट का गली का राष्ट्रीय परिधान होना यह हमारी व्यवस्था पर व्यंग्य है। उपन्यास में वर्णित गली सामान्य गली नही आजादी के बाद आम आदमी के जीवन का स्थल है। जहाँ टाट वस्त्र के नाम पर खानापूर्ति है। टाट ही पर्दा है, चादर है, पैजामा और लहँगा है, बिस्तर एवं कम्बल है, ओढ़ना और बिछैाना है यह कितनी बडी त्रासदी है। टाट उन लोगों के लिए बहुउद्देश्यीय वस्त्र है या यों कहें कि परिधान के मामले वहां के लोग केवल टाट को ही जानते है। आगे लेखक उस गली की और विशेषताएं बताता है जो आम आदमी के जीवन की त्रासदी है।

         शिवलाल इस उपन्यास का जीवन्त पात्र है। शिवलाल का घर गली के मुहाने पर है और उस माध्यम से लेखक ने ऐसे व्यक्ति को प्रस्तुत किया है। जिसका जीवन ही विडम्बनाओं का दस्तावेज है। शिवलाल को न सिर्फ गली के लोगों को पता मालूम है, वरन् हर आदमी का इतिहास भी मालूम है लेकिन यह विचारक भी है, बेचैन भी है। जिन्दगी को वह ड्रामा मानता है लेकिन उत्कृट जिजिविषा भी उसमें है। वह किसी को अपना दोस्त खुले हृदय से स्वीकार नहीं करता। उसके चरित्र को उद्घटित करते हुए लेखक ने लिखा है कि - ‘‘शिवलाल की आत्मा हमेशा सन्तप्त रहती थी। अपने आस पास किसी गैरत वाले आदमी को देखकर उसे बहुत तसल्ली होती। उसे सारी दुनिया एक शोषक के रूप में नजर आती थी। उसे लगता पूरे समाज की आँख उसकी छोटी-सी जमा-पूँजी पर है, चाहे उसकी अम्मा की नजर हो या भाई की। मैालाना शफी उसें ऐसा व्यक्ति लगता था। मगर मौलाना की बातों से उसे बहुत उलझन होती,डर भी लगता। कोई उसके  पीछे न लग जाये। क्या भरोसा इस दुनिया का कौन कब किसके पीछे पड़ जाये, कौन जानता है। वह बहुत देर तक इस समस्या पर विचार करता रहता। जब उसका मन न मानता तो  वह हुक्के का एक लम्बा कस खिंचता और पूछ बैठता, ‘मगर वे क्यो आपके पीछे पड़े है ?’’ लेखक ने शिवलाल के रूप में जो चरित्र प्रस्तुत किया है, वह चरित्र अनेकों भारतीयों में देखने को मिलती है। लेखक कहता है कि उसें सारी दुनिया शोषक के रूप में नजर आती थी।

            शोषक होने की वृत्ति भारत में व्यापक पैमाने पर देखी जा सकती है। यदि हम भारतीय अर्थ व्यवस्था पर दृष्टिपात करें तो दुनिया के शीर्ष उद्योगपतियों में अधिकांश भारतीय है। दुनिया के गरीब देशों में जिस देश की गणना की जाती है उस देश में दुनिया का सबसे महँगा महल होना यहाँ की शोषक वृत्ति को दर्शाता है। आम आदमी की इस पीड़ा को लेखक ने बड़े ही सहज रूप में प्रस्तुत किया है। शिवलाल ऐसा प्रतिनिध पात्र है, जो आम आदमी की दुर्बलताओं को प्रस्तुत करता है। आम अदमी की दृष्टि में पूरी दुनिया ही शोषक है। वह लगातार छलाजाते हुए इतना भयभीत है कि वह कह बैठता है- ‘‘क्या भरोसा इस दुनिया का कौन कब किसके पीछे पड़ जाय’’ यह अविश्वास लगातार हो रहे विश्वासघात का प्रतिफल है।

          शिवलाल का चरित्र आम आदमी की दुर्बलताओं का सबल दस्तावेज है। उसे अपनी पत्नी पर भी भरोसा नही है। गुलाब देई शिवलाल की तीसरी पत्नी है, वह उसे भी अविश्वसनीय नजरों से देखता है। गुलाबदेई भी शिवलाल को रास नही आ रही थी। वह सलोनी सी गुड़िया थी। बात-बात पर मुस्करा देती, हिरन की तरह कुलांचे भरती-शिवलाल भौंचक्का सा उसकी तरफ देखता सा रह जाता। उसें लगता था वह उसें छू देगा तो मैली हो जायेगी। एक दिन तो वह दातौन तोड़ने पेड़ पर चढ़ गयी काम करने में भी शिवलाल से उन्नीस न पड़ती थी मुस्कुराते हुऐ ही बीसियों किलों गेहूँ पीस देती और चेहरे पर शिकन तक न लाती। परिश्रम ज्यादा पड़ता तो पीढ़ पर से ब्लाउज भीग जाता जिससे शरीर और भी माँसल नजर आता। गुलाबदेई के आते ही शिवलाल का धंधा भी कुलांचे भरते हुए बढ़ने लगा। हर वक्त ग्राहकों की भीड़ लगी रहती। पास में अब्दुल की चक्की थी, जहाँ हर वक्त सन्नाटा खिंचा रहता।’’ गुलाबदेई अपने यौवन के आरम्भिक काल में है वह सहज ही अपने कार्य व्यापार में व्यस्त है।  यौवन की मादकता एवं सहजता उसके व्यक्तित्व का हिस्सा है शिवलाल को उसकी सहज चंचलता रास नही आती।  शिवलाल पंडित से कहता है कि -‘‘ ऐसी भूल कभी न करियो’ शिवलाल पंड़ित को राय देता, ‘ढ़ोल गँवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’ यह तो ठीक कहते हो भइया, मगर जब गृहस्थ जीवन अपना ही लिया तो जिम्मेदारी से कब तक दूर रह सकता हूँ।’’

          यह औरत जात आदमी का पूरा सुखचैन छीन लेती है। शिवलाल बड़ी नफरत से अपनी पत्नी की ओर देखता। अगर कहीं गुलाबदेई का पल्लू उसके वक्ष पर से हट बया होता तो वह बात बीच में छोड़कर उसके बालों को मुट्ठी में लेकर झँझोड़ते हुए बेकाबू हो जाता, हरामजादी यह नुमाइस किसके लिए लगा रखी है?’’

          तुलसीदास द्वारा दिया गया यह वक्तव्य औरतें के खिलाफ अत्याचार का हथियार बन गया है। जब भी पुरूष अपनी शंकाओं में व्यथित होता है,त बवह पूरा का पूरा दोष अपने कमजोर वर्ग के लोगों पर थोप देता है। आम आदमी की इस विड़म्बना से शिवलाल अछूता नही है। आम आदमी के जीवन की इन्हीं विसंगतियों को रचनाकार ने विभिन्न पात्रों के माध्यम से इस उपन्यास में उठाया है। 

           आम आदमी की समस्त संवेदना को उपन्यास के माध्यम से लेखक ने मूर्तरूप प्रदान किया है। ‘‘खुदा सही सलामत है’’ उपन्यास में आम आदमी के समग्र जीवन को प्रस्तुत किया है। सामाजिक परिस्थितियां, राजनीतिक परिस्थितियां और अर्थ व्यवस्था में होने वाले छोटे-बड़े परिर्वतन आम आदमी को किस प्रकार प्रभावित करते है।, यह भी इस उपन्यास के विषय वस्तु में देखा जा सकता है। छोटी-छोटी घटनाएं कैसे बड़ी दुर्घटनाएं बन जाती है, यह इस उपन्यास में देखा जा सकता है। लतीफ का परिचय लेखक एक स्वतन्त्र विचारों के युवक के रूप में कराता है, और उसे एक कुशल कारीगर भी बताता है।

            ‘‘लतीफ स्वतन्त्र विचारों का नवयुवक था। उसके कारखाने के दूसरे लोग भी जानते थे लतीफ से अच्छा गियर काटने वाला शहर में दूसरा नहीं। वह सिगरेट बहुत पीता था, मगर शराब से बाज था। अभी हाल में वह खराद कर्मचारियों की यूनियन का सेक्रेटरी भी चुन लिया गया था। लतीफ के पिता चूँकि सरकारी कर्मचारी थे। उन्हें लतीफ की यह यूनियन बाजी पसन्द न थी।

         लतीफ बहुत अच्छा कारीगर है और इसी कारण वह यूनियन का सेक्रेटरी चुन लिया जाता है। लतीफ के जीवन में नया मोड तब आता है जब वह हसीना को लेकर गायब हो जाता है। उसका हसीना के साथ गायब होना और जिन्दगी को नया रंग देना यह आम भारतीय युवक की विशेषता है जो लतीफ में देखा जा सकता है। ‘‘ लतीफ ने अचानक हसीना के साथ गायब हो जाने के लिए अम्मा और साहिल दोनों से मुआफी मांगी थी और लिखा था कि वह हसीना को उस गलीज और सड़ी जिन्दगी से निकालकर फख्र महसूस कर रहा है। उसने हसीना पर कोई अहसान नहीं किया महज अपने दिल की आवाज सुनकर यह कदम उठाया है और अब हसीना उसकी ‘प्राइड बीवी‘ है। वह जानता है कि उसके अब्बा आग-बबूला हो उठे होंगे मगर उसे उनकी परवाह न थी और न है। हसीना को पाकर उसकी जिन्दगी की एक बहुत बड़ी हसरत पूरी हो गई है। वह शायद इतनी बड़ी नेमत का हकदार नहीं था। हसीना खुश है मगर अम्मा और साहिल को याद करके कभी-कभी रोने लगती हेै। वह कब मिल पाएगा, कह नहीं सकता। अल्लाह ने साथ दिया तो शायद ईद तक मुलाकात हो। पता न लिखने के लिए उसने फिर माजरत चाही थी।

       लतीफ हसीना को लेकर भाग जाता है, लेकिन वह ऐसा नहीं महसूस करता कि उसने कोई गलत काम किया है वह यह सोचता है कि उसने हसीना को सड़ी-गली जिन्दगी से बाहर लाया है। इसके साथ-साथ वह यह भी मानता है कि उसने अपने दिल की आवाज सुनी है ।

         उपरोक्त पंक्तियों में जो कुछ भी देखने को मिलता है वह आम आदमी के जीवन का हिस्सा है। इसी तरह सिद्दकी साहब के साथ-साथ और भी अनेक ऐसे पात्र हैं जिनका जीवन आम आदमी के विडम्बनाओं की अभिव्यक्ति है। लेखक ने आम आदमी के इसी जीवन को बड़े ही सहज एंव  स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत किया है।

        आम आदमी के जीवन की अभिव्यक्ति में जिस भाषा की महती आवश्यकता लेखक को थी उसे रचनाकार ने बखुबी अभिव्यक्ति किया है। भाषा के स्तर पर लेखक ने खड़ी बोली हिन्दी में अंग्रेजी, हिन्दी, अरबी,फारसी एवं देशज एंव शब्दों का प्रयोग बड़े ही सहज एव स्वाभाविक रूप में किया है। उपन्यास की भाषा उपन्यास की प्रभावोत्पादकता को बढ़ाने में सक्षम है। उपन्यास के पात्रों की जुबान के अनुरूप लेखक ने कथा की जुबान का रूख अख्तियार किया है। भाषा पात्रों के जीवन का अंग है ऐसी भाषा का प्रयोग इस उपन्ययास में देखने को मिलता है जिसमें आम आदमी के जीवन के मुहावरे एवं गालियंा सब कुछ शामिल हो गये हैं। इस उपन्यास की भाषा और उपन्यास के पात्र दोनों आम आदमी के जीवन को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं उपन्यास के पात्र और आम आदमी का जीवन एक दूसरे के पर्याय हो गए हैं।

           समीक्ष्य उपन्यास में पात्रों की अनेक कोटिया हैं समाज के सभी वर्गों के पात्र इस उपन्यास में देखेने को मिलते हैं। तवायफ, मजदूर, नेता, पंडित, प्रोफेसर एंव कारीगर सभी वर्गों के चरित्र उपन्यास में प्रस्तुत किए गए हैं। विद्यार्थियों की प्रतिनिधि के रूप में गुलबदन, शोभा, सूमा, गीता आदि महिला पात्रों के साथ-साथ पुरूष पात्रांे को भी रचनाकार ने स्थान दिया है। समाज उदण्ड वर्ग को भी इस उपन्यास में प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है।

          सिद्दकी साहब आम मध्यवर्गीय राजनीतिक लोगों के प्रतिनिधी पात्र हैं। उनका पूरा जीवन ही संघर्षेां की गाथा है, आरम्भ से लेकर अन्त तक उनका संघर्ष देखा जा सकता है। सिद्दकी साहब इस उपन्यास के जीवन्त पात्र हैं। सिद्दकी साहब का परिचय कथाकार एक ऐसे रूप में कराता है जैसा कि एक सहज जमीनी आदमी हो दरअसल सिद्दीक साहब बहुत व्यस्त किस्म के नेता थे। राजनीति में उन्होंने यह सोचकर कदम रखा था कि एक दिन वे प्रदेश मुख्यमंत्री बनेंगे। मगर मुख्यमन्त्री तो क्या वे कॉपरेटिव भी न हो पाए।

        राजनीति के चक्कर में सर के आधे बाल सफेद हो गए और वे कुँआरे रह गए। दो मकान गिरवी पड़े हैं और उपर से उनके बारे में मशहूर है कि बिना पैसा लिए छोटा सा भी काम नहीं करवाते। यह भी नहींे कि इस बात में सच्चाई न हो। बहुत से लोग यह कहते सुनाई पड़ते हैं कि सिद्दकी साहब ने मकान के एलाटमेंट के लिए पाँच सौ रूपये लिए थे, ट्रांसफर के लिए एक हजार, नौकरी दिलाने के लिए दो हजार। सिद्दकी साहब के निकटतम दोस्तों का  विश्वास था कि उन्हें कोई ऐब नहीं है-- किसी को उनकी साँस से कभी शराब की बू नहीं आई, किसी ने उन्हंे कभी कोठे पर नहीं देखा। ताश तो दूर, वे लूडो तक खेलना नहीं जानते थे। तब फिर वह पैसा जाता कहाँ था? उनकी चप्पले, उनका कुर्ता-पायजामा इस बात की दुहाई देते थे कि वे एक ईमानदार शख्स हैं।

        कथाकार द्वारा यह कहना कि दरअसल सिद्दकी साहब बहुत व्यस्त किस्म के नेता थे इस पंक्ति में जो किस्म विशेषण उपन्यासकार ने प्रयुक्त किया है, वह संचित व्यंग है। सिद्दकी जी जमीनी नेता हैं और यहां तक की उनकी छवी भी साफ-सुथरी है। लेकिन फिर भी उनका जीवन एक आम नेता का जीवन बनकर रह जाता है। आगे कथाकार यह भी बताता है कि सिद्दकी साहब बुरे नेता तो हैं लेकिन फिर भी लोग उनके पीछे लगे रहते हैं। यह लेखक भी समझ नहंी पाता, अन्ततः लेखक कहता है एक जान हजार बवाल सिद्दकी जी के लिए एक मात्र शीर्षक है। कथाकार सिद्दकी साहब के व्यक्तित्व को लोहा मानते हुए कहता है कि- सिद्दकी साहब विधायक थे न सांसद, फिर काम कैसे करवा लेते थे यह लोगों के लिए कोैतुक का विषय था। कई बार तो ऐसा भी हुआ था कि सांसद, विधायक आदि ने क्षमा मांग ली थी और सिद्दकी साहब काम करवा लाए।

          लेखक सिद्दकी साहब की काम करवाने की क्षमता का कायल है लेखक उपरोक्त पंक्तियों में यह बताता भी है जो कार्य सांसद, विधायक नहीं करवा पाते थे वह काम सिद्दकी जी करवा लेते थे        सिद्दकी साहब के नेतागिरी के जो मूल सिद्धान्त थे उसमें यह भी था, कि नगर में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या अन्य किसी राजनेता के आने पर आगवानी में सबसे पहले वे नजर आते थे। सिद्दकी साहब के चऱित्र में आम जन से जुड़े राजनेताओं के चरित्र की जेनुइन विशेषताएं मौजूद हैं।- ‘‘मंत्रीजी से हाथ मिलाते समय ते बड़े फख्र के साथ उन अफसरों की तरफ देखते जैसे कह रहे हों कि देख रहे हो तुम्हारे विभाग का मंत्री मुझसे हाथ मिला रहा है। अच्छी तरह से देख लो, कहीं ऐसा न हो कि मैं तुम्हारे दफतर में आऊँ और तुम मुझे पहचानने से इनकार कर दो। अगर उन्हें लगता कि सम्बन्धित अफसर इनकी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा है तो वे मंत्री जी का हाथ तब तक न छोड़ते जब तक अफसर की निगाह न पड़ जाती।

           आम आदमी के बीच सामान्यतः जा नेता लेाकप्रिय होते हैं उनकी सभी विशेषताएं सिद्दकी साहब में देखने को मिलती हैं। सिद्दकी साहब के माध्यम से कथाकार ने भारतीय राजनीति के उस चरित्र को प्रस्तुत किया है, जिसे हम अपने गली-कूचों, नगर-कस्बों में देख एवं जाना सकते हैं। सिद्दकी साहब जैसे सहज एवं जनप्रिय नेता को खोजना चाहें तेा सिद्दकी साहब के जीवन में विडम्बनाएं भी हैं। आजीवन संघर्ष करते हैं और राजनीति के जमीनी हकीकत से रूबरू होने के कारण भी बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाते यहां तक की अपने लिए टिकट मांगते समय एक तवायफ के पास पहुंचकर अपनी वकालत करते हैं। वह अजीजनबी के पास जाते हैं और कहते हैं-

          ‘‘मुहल्ले के लिए मैंने क्या -क्या नही किया। गली में पानी भर जाता था, सड़क तीन फीट ऊँची करवा दी। किसी की हिम्मत नही, मेरे मुहल्ले से किसी को बेकसूर पकड़ ले जाएै सैकड़ों तो राशन कार्ड मैने बनवा डाले, बीसियों लोगो की सीमेन्ट दिलाया, कैरोसिन के परिमिट दिलाए, पुलिस की ज्यादातियों से कितनो को बचाया।’

          अजीजन बहुत अच्छे मूड़ में थी। इतने सारे नोट एकाएक पाकर उसका मन बेहद उदार हो गया था। श्यामसुन्दर मुख्यमंत्री हो गया तो बीसियों का आया।

       ‘‘सिद्दकी साबह, आप जज्बाती हो रहे है। मेरे दिल में आपके लिए बहुत इज्जत है। मैं आप के किस काम आ सकती हूँ ?’

         ‘‘आप जानना चहती है’ तो बताय देता हँू। चुनाव सर पर आ रहे है। श्यामसुन्दर जी आपको बहुत मानते है। चाह लेंगें तो पार्टी का टिकट दिला देंगे’ सिद्दकी साहब कुर्सी से उतरकर जमीन पर बैठ गये, ’आपके के एक इशारे से मेरी जिन्दगी को किनारा मिल जाएगा। मैं भ्रष्ट नही ह। इतना अच्छा काम करूंगा कि अगली बार लोकसभा के लिए आप खुद मेरा नाम सुझाएँगी।

       सिद्दकी साहब जनप्रिय नेता हैं, लेकिन इसे भारतीय राजनीति की त्रासदी ही कहेंगे कि वे अपने लेखा-जोखा अजीजन के सम्मुख करतें हैं, और उससे अपनी सिफारिस करने के लिए कहते हैं, इसे लेखक ने बड़े ही सहज रूप में कथानक का हिस्सा बनाया है। सिद्दकी साहब टिकट पाने के लिए क्या कुछ नही करते  लेकिन हर तरफ से उनको निराशा ही लगती है। सिद्दकी साहब ढ़ाई लाख मुस्लिमों का नेतृत्व करते हैं, यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था के उस चरित्र को उद्घटित करता है जिसमें जाति, धर्म, और सम्प्रदाय के नाम पर इतने पर भी सिद्दकी साहब को टिकट नहीं मिलता वे अजीजन से बताते है, अजीजन बी श्यामसुन्दर जी को पत्र लिखती है।, जिसे लेकर स्वयं ही लखनऊ जाते हैं -‘‘मेरा बायोडाटा आपके पास है। प्रार्थना पत्र आपके पास है। याद दिलाने चला आया,’ सिद्दकी साबह ने अत्यन्त विश्वासपूर्वक अजीजन बी का लिफाफा श्यामसुन्दर जी को थमा दिया, ’आपके लिए एक सिफारिशी चिट्ठी भी लाया हूँ।’ 

     श्यामसुन्दर ने लिफाफा खोला। वे चिट्ठी पढ़ते जा रहे थे और उनका चेहरा गम्भीर होता जा रहा था। चिट्ठी पढ़कर उन्होने मेज पर रख दी, चश्मा उतार कर उसके ऊपर रख दिया और आँख मलते हुए बोले, यह किसकी चिट्ठी है ?

‘‘अजीजन बी की।’’

‘‘कौन अजीजन बी ?’’

      नेता जी परेशान हो उठे। समझते देर न लगी कि बुड्ढा जानबूझकर अनजान बन रहा है।

      ‘आप अजीजन बी को नही जानते ?

          यह भारतीय राजनीति का वास्ततिक चरित्र है, व्यक्ति जिसे भली भांति जानता है, पहचानता है, समय व्यतीत करता है, उसे ही जानने से अनभिज्ञ हो जाता है।

          भारतीय राजनीति की आम आदमी विषयक इस अवधारण को लेखक बड़े पुष्ट रूप में इस उपन्यास में अभिव्यक्त कियाा है। आम भारतीय राजनीति के चरित्र को उद्घटित करने की दृष्टि से यह उपन्यास बेजोड़ है। भारतीय राजनीति के साथ-साथ शिक्षा जगत की स्थितियों का भी चित्रण लेखक ने अपने इस उपन्यास में किया है, इस स्थितियों के उद्घाटन के लिए सरकार ने जितेन्द्र शर्मा के चरित्र की सृष्टि की है। जितेन्द्र शर्मा एक माध्यम पात्र है, जो जिसके माध्यम से लेखक हमारे समक्ष उन विसंगतियों को प्रस्तुत किया है जिसमें हम तमाम प्रगतिशिलता के बाद भी पड़े हुए है। जितेन्द्र शर्मा का परिचय लेखक गूल के माध्यम से करवाता है। गूल एक तवायफ की पुत्री है। गुलबदन के सौन्दर्य का चित्रण भी लेखक ने किया है। गुलबदन अजीजन की बेटी है, वह उस मुहल्ले की पहली स्नातक है। इसके  साथ-साथ गुलबदन इकबाल गंज में पहली लड़की थी जिसने दिल्ली से अपने विश्वविद्यालय के लिए ट्राफी जीत कर लायी थीं लेखक उसके बारे में बताता है, कि वह मुहल्ले की एक मात्र लड़की थी जो रिक्से पर बैठ कर आती जाती थी। गुलबदन की प्रतिभा से उनका अध्यापक जितेन्द्र मोहन शर्मा बहुत प्रभावित था, गजल और शेर का शौकीन जितेन्द्र शयर प्रेम  जौनपुरी से बहुत प्रभावित था। गुलबदन को दिल्ली यूथ फेस्टिवल में जाना था, लेकिन उसकी अम्मा को यह बात पसन्द न थी। गुलबदन अपने माँ से भरोसा दिलाती है, तो उसकी माँ कहती है, कि -‘‘तुम एक शर्त पर जा सकती हो। मै तुम्हारे साथ चलूँगी।

       माँ का यह सुझाव गुलबदन को अच्छा न लगा, यह इसे खारिज भी न कर सकी लेकिन उसने इस बात को यह कह कर टाल दिया कि वह विश्वविद्यालय से पूछकर बताएगी। इसके साथ-साथ उसने यह भी बता दिया उसके साथ अन्य लड़कियां भी जा रही हैं, जब कि उनकी माँ जा रही है न ही किसी की माँ ने ऐसा प्रस्ताव न रखा है। वह प्रोफेसर जितन्द्र शर्मा को चाय पर आमंत्रित करती है, और अपनी माँ से कहती है तुम्हीं प्रोफेसर साहब से बात कर लेना।

         प्रोफेसर शर्मा गुल का आमन्त्रण पा कर उसके घर पहूँचता है, गुल को लेकर उसके मन में भी अनेक ख्याल है,’ वह उसके घर पहुँच कर घर लगी तस्वीरेां को देखने लगता है, और सोचता है - ‘‘अजीजन कमरे में आयी तो प्रो0 शर्मा दीवारो पर टँगी अजीजन की तस्वीरे देखने में मशगूल था। किसी तस्वीर में अजीजन गा रही थी तो किसी में नाच रही थी। श्रोताओं और दर्शको  में बड़े-बड़े लोग थे। उसकी यूनिवसिटी के एक भूतपूर्व कुलपति भी दिखाई दे गये। कुछ लोग अपनी पोशाक से राजा-महाराजा लग रहे थे। प्रोफेसर का दिमाग घूमने लगा। इस माहौल में गुल पैदा हुई और कैसे विश्वविद्यालय तक पहँुची ? यह औरत जरूर कोई गैर मामूली औरत है।’’

        प्रोफेसर शर्मा गुल की अम्मा के व्यक्तित्व से पूर्णतः प्रभावित होते है। और जब अजीजन उनके सामने आती है, तो शर्मा जी की स्थिति देखते ही बनती है,- ‘‘प्रोफेसर ही टाँगें काँपने लगीं। उसकी समझ में न आ रहा था वह क्या कहे। अजीजन का प्रोफेसर जैसे कई लोगों से जिन्दगी में पाला पड़ चुका था। वह इससे अधिक अनुभवी और अधिक व्यवहार-कुशल थी, बोली, ‘आप इस नाचीज के यहाँ तशरीफ ला सके, यह मेरे लिए फक्र की बात है।’’

        शर्मा ने कोई जबाब नही दिया। पसीने से तर हथेलियों को अपनी पवतलून पर रगड़कर रह  गया। ‘बिटिया दिल्ली जाने का जिक्र कर रही है। मैने सोचा आपसे मशवरा कर लूँ। ‘ आप भरोसा रखिए। मैं हूँ मैं साथ जा रहा हूँ।ण्ण्ण्उसने प्रोफेसर को एक ही नजर में परख लिया।

          ‘मैं गुल को शबनम की तरह पवित्र रखना चाहती हँू। मैं आपको  भी तो ज्यादा नहीं जानती।’ अजीजन में मन की बात एक ही वाक्य में कह दी। प्रोफेसर और अधिक घबरा गया। प्रोफेसर ने अपने अन्दर की पूरी ताकत को संजोते हुए कहा, ‘आप यकीन रखिए। गुल जैसी होनहार छात्रा मेरे इतने वर्षों के अध्यापन में नही आई। वह समझदार है। वह, वह, वह---। प्रोफेसर पुनः हकलाने लगा।

        प्रोफेसर शर्मा अजीजन को पर्णतः  आश्वस्त करते है, और मन ही मन वह सोचते हैं, कि वह गुल को ,इस नरक से इस घिनौनी दुनिया से एक बाज की तरह झपटकर उठा लेगा। उसे बहुत दूर एक नये संसार में ले जायेगा .इसी बीच अजीजन ने गुल से प्रोफेसर साहब के लिए चाय बनाने के लिए कहा। 

‘अपने बहुत इनायत फरमाई कि हमारे यहाँ तशरीफ लाए,’ अजीजन बोली, ‘आपसे मैं बेहद मुतआसिर हुई। आप की निगरानी में गुल दिल्ली जायेगी।

           उपरोक्त पंक्तियों  में लेखक प्रोफेसर की मनः स्थिति के साथ-साथ गुलबदन के सौन्दर्य का भी वर्णन करता है। और गुलबदन का यह सौन्दर्य ही कथा को आगे बढ़ाता है। इसके साथ-साथ अजीजन प्रोफेसर से प्रभावित होती है, और उसे दिल्ली जाने की अनुमति दे देती है। गुल भी खुश है,। वह धीरे-धीरे दोनो के बीच प्रेम पनपने लगता है, गुल के साथ-साथ कालेज की कुछ और लड़कियां भी प्रोफेसर से प्रभावित हैं। वे प्रोफेसर शर्मा से गुल के बारे में उठे अफवाह के बारे में बाताती है, इन लड़कियों के विचार पूर्णतः सामन्ती विचार है। आम आदमी के विचार कैसे है इसका परिचय निम्नलिखित पंक्तियों में देखने को मिलता है- ‘गुल ने पूरी यूनिवर्सिटी का वातावरण दूषित कर दिया है।’ शुभा ने कहा। ‘यहाँ तवायफें पढ़ेगी या हम! सुधा बोली। ‘महारानी जी सिर पल्ला लेकर क्यों चलती हैं जैसे कोई सती-सावित्री चली जा रही हो। मैं आप लोगों की क्या मदद कर सकता हँू ? प्रोफेसर शर्मा ने पूछा शर्मा को वहाँ उपस्थित तमाम लड़कियांे से घिन आने लगी। उसे यूनिवर्सिटी का महौल सामन्ती और पुनरूत्थानवादी लग रहा था। स्नातक लड़कियों की मानसिकता और आई0 क्यू0 हाईस्कूल की लड़कियां से बेहतर नही था।

           उपरोक्त पंक्तियो में हमारे समाज के उस चेहरे को प्रस्तुत करती है, जिसमें तमाम विसंगतियाँ एवं विडम्बनाएं मौजूद हैं। प्रोफेसर शर्मा को यह बात काफी नगावार गुजरी। शर्मा को आगे की स्थितियां और भी विकट लगीं वह इन स्थितियों का सख्त विरोधी है।

            शुभा जो शर्मा जी की शिष्या है और वह मजिस्ट्रेट की लड़की है, मन ही मन वह प्रोफेसर शर्मा को पसंद करती है। वह उस समय शर्मा के यहाँ पहुचती है, जब शर्मा पूर्णतः गुल के ख्यालों में खोया होता है। गोपाल जो प्रोफेसर शर्मा का लगभग शर्मा सब कुछ है वह आता है। और बताता है -‘जींस वाली लड़की आई है। यानी शुभा। शर्मा की की शुभा से मिलने की इच्छा नही थी। शुभा से उसें खास तरह की वितृष्णा हो गई थी कि जब देखो साए की तरह पीछे लगी रहती है।

     प्रोफेसर जितेन्द्र मोहन शर्मा के चरित्र के माध्यम से उपन्यासकार प्रगतिशील युवा प्रोफेसर के विचारो क साथ-साथ विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाली लड़कियों के चरित्र को प्रस्तुत है। प्रोफेसर शर्मा  का चरित्र बिड़म्बनाओं का पुंज है। प्रोफेसर शर्मा का चारित्रिक विशेषताए आम प्रगतिवादी बुद्धिजीवी की विडम्बना है। तवायफों के सम्बन्ध में उसके विचार  सम्मनजन है। वह शुभा से कहता है कि -‘‘मै तथाकथित उच्च संस्कार वाली बहुत सी महिलाओं को जानता हूँ, तुम भी जानती होगी जो वेश्याओं से भी गई गुजरी है।’

          शुभा के दिमाग में ऐसी बहुत सी औरते का खाका उभर आया। उसके पड़ोस में ही कुछ सभ्य लोगों की पत्नियों को लेकर अक्सर अफवाहें उड़ती थी। वह उठते हुए बोली ‘ न बाबा, मैं बहस न करूँगी आपसे कौन पार पाएगा। किसी दिन  पापा ‘डिवेट करवाऊँगी।’

         तुम्हारे पापा तुम्हारी तरह संकीर्ण विचारों के नही होगें मुझे विश्वास है।, शर्मा ने कहा। शुभा बिल्कुल निरूत्साहित हो गई। उसे वह सच-मुच संकीर्ण विचारो की है। 

          प्रोफेसर शर्मा उच्च संस्कारो वाली महिलाओं का कच्चा चिट्ठा शुभा के सामने रख देता है, शुभा के मन में अपराध भावना उत्पन्न होती है और वह चुप-चाप चली जाती है। प्रोफेसर शर्मा गुल को पत्र लिखने बैठ जाता है। अगले दिन सुबह प्रोफेसर शर्मा गुल को बुलवाता है, और अन्ततः गुल के सम्मुख अपने प्रेम का प्रस्ताव रखता है-

शर्मा खिड़की से बाहर देखते हुए बोला, ‘‘मैं बहुत बेचैन हूँ, जब से अम्मा से बात कर लौटा हँू।’ गुल जिधर से आई थी उधर ही देख रही थी। बाहर  कोयल बोल रही थी और धूप में पत्ते सरसरा रहे थे। ‘अम्मा ने तुमसे कुछ कहा ?’

गुल ने गर्दन घुमाकर शर्मा की तरफ देखा और वापस सड़क की ओर देखने लगी।

‘मैं नहीं जानता तुम मेरे बारे में क्या सोचती हो, मगर मैं........मुझे लगता हैं, तुम्हारे बिना बहुत अकेला गुल के होंठ फड़फड़ाए।

‘तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं ? बोलों चुप क्यों हो। कह दो, तुम मुझसे नफरत करती हो, मगर जुबान तो खोलो।’ शर्मा बेहद उतावला हो रहा था।

‘आपके लिए मेरे दिल में बेइन्हिा इज्जत है।’ गुल दरवाजे की ओर देखती हुई बोली।

‘तुम्हें फैंसला करना होगा।’

‘मगर मैं एक तवायफ की लड़की हूँ।’

‘मुझे मालूम है।’

गुल की आँख नम हो गई। उसके हाथ में एक नन्हा-सा रूमाल था, वह आँखों की कोरें पोंछने लगी।

प्र्रोफेसर शर्मा उस आदर्शवादी अध्यापक वर्ग का प्रतिनिधि है, जो समाज में क्रांति लाना तो चाहता है, लेकिन सामाजिक बन्दिशें उसे ऐसा करने से रोकती है। प्रोफेसर शर्मा अपने निणर्य में अटल है। वह गुल के जाने के बाद अपने पिता का पत्र लिखता है, यद्यपि उसे पता है उसके पिता के संस्कार इसे स्वीकार कर न सकेंगे, लेकिन वह साफ-साफ सारी बातें अपने पिता से कह देता है ।

प्रोफेसर शर्मा के पिता को यह निर्णय पसन्द नहीं आता हैं, और वह पत्र के जबाब में इसे स्पष्ट भी कर देते हैं। यह आम आदमी के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है, वह करना तो बहुत कुछ चाहता है, लेकिन समय आने पर उसके संस्कार, उसकी परम्पराएं ऐसा करने से उसे रोकती हैं।

लतीफ के प्रसंग में लेखक ने यह दिखाया हैं कि किस प्रकार समाज के उच्चस्थ ठेकेदार नऐ लोगों को आगे नहीं बढ़ने देते। मजदूर युनियन के चुनाव में लतीफ प्रत्याशी है, और मील मालिकों के एजेंट तरह-तरह से अडंगे बाजी करते हैं। एक सामान्य से चुनाव को साम्प्रदायिकता के आग में झोंक देते है।

भोर का समय था। हल्की-हल्की ठंड थी। सड़के सुनसान पड़ी थी। किसी-किसी घर के अँगीठी का धुँआ उठ रहा था। भजन मंडली ने प्रातः कालीन कीर्तन से पूरी कालोनी को जगा दिया और भजनमय कर दिया। खंजरी-खड़तालें बज रही थी। आगे-आगे गर्दन में हारमोनियम डाले श्यामबाबू का टाईपिस्ट सुन्दरलाल आँखें ूमंदे गर्दन हिलाते हुए चल रहा था। कालोनी की स्त्रियां खिड़की-दरवाजें से झाँकने लगी।

इस आकस्मिक हलचल से छोटे बच्चे भी उठ गए थे। अत्यन्त मधुर स्वर में कोई गा रहा था:-

श्रीरामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भवभय दारूणं।

नवकंज लोचन, कंज मुख कर कंज, पद कंजारूण।।

ढोल, मँजीरे और हारमोनियम के साथ पूरा समूह पंक्तियों को दोहराता। समूह की ओर मुँह करके गायक अगली पंक्ति पर उतर आता:-

कन्दर्प अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुन्दर।

प्रभातफेरी ने सचमुच समा बाँध दिया था। बरसों बाद लोगों ने इस प्रकार की चहल-पहल देखी थी। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में जरूर लोगों में इस प्रकार का उत्साह देखा जाता था। आजादी के बाद जैसे पहली बार आज लोग नींद से जागे थे।

जुलूस लोगों की प्रशंसा बटोरता आगे बढ़ रहा था, तथी अचानक भजन मंडली ने अचानक गाना बन्द कर दिया और लोग इधर-उधर घरों में घुसने लगे। सुरेश बाबू के सिर से खून की धारा बह रही थी।

‘लगता है यह लतीफ के लोगों की बदमाशी हैं, जगदीश बाबू ने कहा, ‘पत्थर गुलाम मुहम्मद के घर की तरफ से आया है।’ 

आम आदमी के जीवन को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से यह उपन्यास हिन्दी उपन्यास साहित्य के इतिहास में मील का पत्थर है। यह उपन्यास आम आदमी के जीवन की विडम्बाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाला उपन्यास है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों समाज की विवश्ताओं पीड़ाओं एवं संवेदनाओं को लेखक ने बड़ी ही गहनता से महसूस किया है। इसे लेखक जीवन्त रूप में अनुभव करता है और सहज रूप  में अभिव्यक्त करता है।

खुदा सही सलामत की भाषा आम आदमी के जीवन को अभिव्यक्त करने में पूर्ण रूपेण सक्षम है। भाषा के स्तर पर हिन्दी उपन्यास साहित्य ने अत्यन्त प्रवणता अर्जित कर ली है। जिस भाषायी विविधता को फणीश्वर नाथ रेणु ने आरम्भ किया। बाद के हिन्दी के उपन्यासकारों ने आगे बढ़ाने का कार्य किया। इसी परम्परा में खुदा सही सलामत उपन्यास को भी रखा जा सकता है। इस उपन्यास की भाषा में लोक जीवन की शब्दों का प्रयोग, अरबी, फारसी के शब्दों का प्रयोग एवं जीवन में प्रचंिलत मुहावरों को स्थान दिया गया है। आम आदमी के जीवन से जुड़ी गलिया एवं जीवन में जो विश्वास प्रचलित है वे भी देखने को मिलते है।

तवायफों का जीवन अभिव्यक्त करते हुए लेखक ने उस वर्ग की भाषा को सहल अभिव्यक्ति प्रदान की है। हुसना भाई का भाषण इस उपन्यास में तवायफों के संक्षिप्त इतिहास को प्रस्तुत करता है,ए और लेखक ने यह भी बताया है कि फारसी में जिसे तवायफ कहते है। संस्कृत में उसे गणिका कहते है। हुसना भाई अपने भाषण में तावयफों के गौरवशाली इतिहास के बारे में भी बताती है। इस उपन्यास में अरबी, फारसी के दोहों का भी खुब प्रयोग किया गया हैं -

जर्रे-जर्रे में नजर आता हैं, रूसवा कोई।

यह भी छिपना हैं कोई, यह भी परदा हैं कोई।।

उपन्यास भाषीय समाजशास्त्र को अभिव्यक्त करने वाला हैं, जिस तरह एक साथ रहते हुए दो विभिन्न समुदायों के लोग भाषीय आग्रहों -दुराग्रहों को भूलकर एक दूसरे की भाषा को अपनाते हुए जीवन जीते हैं उसका यह उपन्यास बेहतरीन नमूना है, भाषा अधिग्रहण की दुष्टि से देखें तो यह उपन्यास व्यापक भाषीय अधिग्रहण को अपने अन्दर समेटे हुए है। हिन्दी अरबी, फारसी आदि सभी भाषाओं के शब्द इस उपन्यास की भाषा में सहज रूप में मिल जायेगें। लेकिन यह भाषिक अधिग्रहण उपन्यास की भाषा में आरोपित प्रतीत नहीं होते। ये उपन्यास के भाषा के अंग के रूप में विकसित हुए हैं। कथावस्तु की व्यापकता के कारण ऐसे भाषीय प्रयोग औपन्यासिक शिल्प के लिए अनिवार्य है, यदि लेखक इतनी व्यापक और बैविध्यपूर्ण भाषा का प्रयोग न करता तो यह उपन्यास आम आदमी की संवेदना को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं होता। आम आदमी के जीवन को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से यह उपन्यास पूर्णतः सफल है।

समग्रता कई तो यह उपन्यास आम आदमी के जीवन को अभिव्यक्त करने वाला प्रमाणिक दस्तावेज है। उपन्यास के पात्र शिवलाल, गुलाब, दंेहि, अजीनन बी, सिद्दकी साहब, लतीफ, हसीना, चमेली, श्यामसुन्दर बाबू, लक्ष्मीधर, उमा आदि। सभी पात्र आम जीवन के प्रतिनिधि पात्र है। लेखक ने बीडी के माध्यम से एवं टाट के माध्यम से आम आदमी के जीवन का समाजशास्त्र प्रस्तुत किया है। आम आदमी के जीवन को अभिव्यक्ति प्रदान करने की दृष्टि से इस उपन्यास का कथानक और भाषा अतिमहत्वपूर्ण है। यदि लेखक ने इतना व्यापक कथावस्तु और इतनी वैविध्यपूर्ण भाषा न चुना होता तो शायद आम आदमी का वह यथार्थ इस उपन्यास का हिस्सा न बन पाता जिसे लेखक अभिव्यक्त करता है।




Comments

Popular posts from this blog

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला": काव्यगत विशेषताएं

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व