मेरी दो कविताएँ

तहखाना 

 एक तहखाना है, 

मेरे मन में 

जिसमें दफनाया है मैंने 

अपने बहुत से ज्जबात

और, बहुत सी अपनी 

और अपनी दुनिया में आये लोगों की 

कही अनकही बातों को 

उसी तहखाने में दफन हैं 

मेरी बहुत सी छोटी-बडी ख्वाहिशें, 

जो हमेशा मेरे मन में उठतीं गिरतीं रहतीं हैं 

ठीक उसी तरह जैसे समन्दर में 

लहरें उठती-गिरतीं हैं.



थकान


थककर चूर होने पर भी 

अपने बदन को सम्भालना 

और फिर 

एक हाथ से दूसरे हाथ के दर्द को दबाना 

खुद से खुद की मरम्मत करना 

तपती धूप में चमकते सिर के लिए, 

उसी धूप में झूंडू बाम लाना 

उम्मीदों से टूटना और टूटते ही जाना 

नियत्ति हो चली हो जिनकी 

उन्हें फर्क नहीं पड़ता 

और वो हो जाते हैं 

मशीन से, लोहा से 

और फिर होते हैं 

बेतहाशा मजबूत  

अपने तन और मन से.

Comments

  1. Fabulous 🥰🥰

    ReplyDelete
  2. हृदयस्पर्शी रचना

    ReplyDelete
  3. वाह बहुत सुंदर कविता

    ReplyDelete
  4. ✌️✌️❤️❤️

    ReplyDelete
  5. सुन्दर,मार्मिक,दिलकश इन कविता ओं की भावभंगिमा एक अलग किस्म की है। इनमें ठंडक नहीं तपित है। मगर ये कविताएं आज के कूट माहौल से बचकर अपने शील की इस कदर रक्षा करती हैं मानो बाहर से कोई खतरा है। वर्तमान का सच क्या एक स्वस्थ कविता के लिए इससे बड़ा कुछ और आयाम हो सकता है? इनकी पंक्तियां पढ़कर एक गहरा अनुभव होता है कि यहां कविता को वो 'श्रेष्ठ' है जो वर्तमान की हदों पर नहीं ठहरता, बल्कि भूत और भविष्य की ओर इशारा करता है। वस्तुतः ये कविताएं हृदय से निकली शब्दों की असली ध्वनियां हैं।बधाई।

    ReplyDelete
  6. बहुत खूब गुरुजी।

    ReplyDelete
  7. बहुत बढ़िया सर जी। 👌🙏👍

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला": काव्यगत विशेषताएं

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व