विरेचन सिद्धांत: अरस्तू
विरेचन (कैथारसिस)
त्रासदी की परिभाषा में अन्तिम
किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विवादास्पद कथन विरेचन सम्बन्धी ही है। अरस्तू ने
विरेचन (केथारसिस) शब्द की काव्यशास्त्र में न तो परिभाषा दी है और न ही व्याख्या
ही की है ।यही नहीं, उन्होंने काव्यशास्त्र में
केवल एक बार इस शब्द का प्रयोग त्रासदी की परिभाषा देते हुए किया है। अपने ग्रंथ
राजनीतिशास्त्र में उन्होंने विरेचन शब्द का दूसरी बार प्रयोग किया है, किन्तु
वहाँ पर पूर्ण विचार व्यक्त नहीं किये और यह कहकर छोड़ दिया कि इसकी विशद चर्चा
काव्यशास्त्र में की जायेगी। खेद है कि काव्यशास्त्र अधूरा है। राजनीतिशास्त्र में
उनके विचार इस प्रकार है-
"करुणा और त्रास अथवा आवेश कुछ
व्यक्तियों में बड़े प्रबल होते हैं........ किन्तु हम देखते हैं कि धार्मिक रागों
के प्रभाव से वे शान्त हो जाते हैं, मानो उनके आवेश का शमन या विरेचन हो गया है। करुणा और त्रास से
आविष्ट व्यक्ति इस विधि से एक प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते हैं और उनकी आत्मा
विशद् (निर्मल) और प्रसन्न हो जाती है।"
अरस्तू ने करुणा एवं त्रास (Pity and fear) सम्बन्धी मनोभावों के विरेचन की बात कहीं है, क्योंकि अरस्तू करुणा एवं त्रास को ही ट्रैजिक (Tragic) मनोभाव (Emotions) मानते हैं। वस्तुत: करुणा एवं त्रास को एक साथ युगल रूप में प्रस्तुत करने को परम्परा ग्रीक साहित्य में पहले से ही थी। अरस्तू ने इसी परम्परा का सहारा लिया है। ग्रीक आलोचक गौर्जियास ने भी इनका प्रयोग किया था। अरस्तू इन दोनों मनोभावों को अन्योन्याश्रित मानते हैं। मानव के मन में करुणा का उद्रेक अपात्र (Undeserved) नायक के पतन के कारणवश होता है तथा भय का उद्रेक अपने मित्र अथवा स्वयं के सम्बन्ध में वैसी ही दुर्घटना होने की आशंकावश। उन्होंने 'Rhetoric' में लिखा -A Sort of pain at an evident evil of a destructive or painful kind in the case of somebody who does not deserve it, the evil being one which we might expect to happen to ourselves or to some of our friends, and this at a time when it is said to be near at hand. " इस प्रकार अरस्तू करुणा एवं त्रास को आत्मचिन्तारत अथवा आत्मनिष्ठ (Selfregarding) मनोभाव मानते हैं।
विरेचन शब्द की व्याख्या में
विद्वानों मतैक्य नहीं है। अब तक लगभग चार प्रकार से विरेचन शब्द को परिभाषित किया
जा चुका है।
भोज्य पदार्थ के अर्थ में- वैद्य-पुत्र होने के कारण यह अनुमान
अरस्तू ने इस शब्द को आयुर्विज्ञान से ग्रहण करके काव्यशास्त्र में इसका लाक्षणिक
प्रयोग किया होगा। अतः विद्वानों ने “कैथारिसस”विरेचन को ‘परेश्गन’ माना। पेश्गन
से तात्पर्य रेचक औषधियों द्वारा शरीर के माल या अनावश्यक पदार्थ को बहार निकालने
से है । त्रासदी में भी मनोविकारों (करुणा
और तरस) का दमन न होकर उद्रेक होता है । इस
उद्रेक से मनोविकार शमित अथवा शांत हो जाते हैं । अतः त्रासदी के अनुशीलन में
मनोविकारों के उद्रेक की यह प्रक्रिया विरेचन हुई ।
धार्मिक संगीत के अर्थ –राजनीतिशास्त्र के आठवें अध्याय
में अरस्तू ने दो प्रकार के संगीत की चर्चा की है –शैक्षणिक संगीत औए विरेचानात्मक
संगीत । अतः विद्वानों ने अनुमान लगाया कि अरस्तू को विरेचन सिद्धांत की प्रेरणा
धार्मिक संगीत से ही मिली होगी ।यूनान में धार्मिक संगीत का उपयोग मानसिक शुद्धि
के लिए उस समय भी किया जाता था । अतः मान्यता स्थिर की गई कि जिस प्रकार धार्मिक
भावनाओं से ओत-प्रोत होकर उद्दाम संगीत द्वारा मानसिक शुद्धि हो जाती है , उसी
प्रकार मनोविकारों का शुद्धिकरण त्रासदी देखने या पढ़ने से हो जाता है ।
नीतिपरक अथवा मनोवैज्ञानिक अर्थ में – विरेचन की नीतिपरक व्याख्या के अनुसार
प्रेक्षक जब प्रेक्षागृह में करुणा और तरस को अतिरंजित करने वाले दृश्यों को देखता
है तो उसके मन में भी त्रास और करुणा के भाव पहले तो अपारवेग से उद्वेलित होते हैं
और तत्पश्चात् उपशामित हो जाते हैं। किन्तु यह सब प्रेक्षागृह में हो सम्भव है, क्योंकि वहीं पर प्रेक्षक अपने
मनोभावों की स्वच्छन्द अभिव्यक्ति कर सकता है। इस प्रकार विरेचन का नीतिपरक अथवा
मनोवैज्ञानिक अर्थ हुआ मनोविकारों (जोकि वासना रूप में हमारे मन में रहते हैं) के
उत्तेजन के उपरान्त उद्वेग का शमन और तदुपरान्त मानसिक विशदता।
नायक के पतन में भी दर्शकों को गौरव की अनुभूति होती है। त्रासदी के नायक को किसी भूल के कारण होने वाले पतन में प्रेक्षक गरिमा का अनुभव करता है। उदाहरणार्थ कहा जा सकता है कि नेपोलियन और सुभाष चन्द्र बोस आदि के पतन में भी गरिमा है, भव्यता है. गौरव है।
इसी प्रकार बूचर यह भी मानते हैं कि किसी की असफलताओं की कहानी देखने, पढ़ने अथवा सुनने में दर्शक ,पाठक या श्रोता को मानसिक सुख मिलता है ,रूचि पैदा होती है और उसकी आत्मा का विस्तार होता है। यह स्वयं मन को सहज वृति है कि हम किसी की सफलताओं की कहानी उतनी रूचि से नहीं सुनते ,जितनी रूचि उसको असफलताओं को कहानी सुनते हैं।
उपर्युक्त व्यख्याओं को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि विरेचन एक ऐसी त्रासिक सुख प्रदान करने वाली प्रक्रिया है जो मनोभावों (करुणा और त्रास) का त्रासदी के पठन,श्रवण अथवा प्रेक्षण से अन्तर्निहितता की स्थिति से क्रियात्मकता को ओर उद्रेक करती है और उद्रेक किये हुए मनोभावों को पुनः उनकी गगर्भित स्थिति प्रतिष्ठित करती है। इस प्रकार करुणा और त्रास के मनोभावों के उद्रेक और शमन की प्रक्रिया हो विरेचन अथवा कैथारिसस' हुई। इस प्रक्रिया से मनोभाव एक प्रकार से शमित और प्रशिक्षित हो जाते हैं और प्रेक्षक का मानसिक संतुलन यथावत् बना रहता है।
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