मुक्तिबोध की काव्यगत विशेषताएं

 मुक्तिबोध मूलतः कवि हैं. तार सप्तक के प्रकाशन से मुक्तिबोध साहित्य के व्यापक धरातल पर उदित हुए. तार सप्तक में प्रकाशित उनकी कविताएँ हैं - आत्मा के मित्र मेरे, दूरतार , खोल आंखें, अशक्त, मेरे अंतर, मृत्यु और कवि, पूंजीवादी समाज के प्रति, नाश देवता, सृजन क्षण, अंतदर्शन, आत्म संवाद, व्यक्ति और खण्डहर, मैं उनका ही होता इत्यादि. 

इसके अतिरिक्त आपकी प्रकाशित कृत्तियां हैं- चांद का मुंह टेढा, और भूरी - भूरी खाक धूल. दूसरे संग्रह की कविताएँ पहले संग्रह से पहले लिखी गईं हैं. अभिनव संशोधन का प्रारम्भिक काल है. इसकी कविताएँ चांद का मुह टेढा है की भूमिका तैयार करतीं हैं. इसके क्षसरल भाव बोध विरल बिम्बवालियां चांद का मुह टेढा है में जटिल और सघन हो जातीं हैं. इस संग्रह की कविताओं पर छायावाद का संस्कार दृष्टिगत होता है. वे अपनी परिणतियों में आशावादी हैं.

चांद का टेढा है की रचनाओं में उसके खण्डित व्यक्तित्व और भी सघन हो उठा है. सर्वहारा क्रान्ति की सम्भावनाओं में और भी तेजी आ गई है. इस संग्रह की कविता अंधेरे में की व्याख्या करते हुए प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने अस्मिता की खोज की बात उठायी है. राम विलास शर्मा ने अपने दो लेखों में मुक्तिबोध के काव्य का ऐतिहासिक विवेचन करते हुए उन पर अस्तित्ववाद और रहस्यवाद के प्रभाव का आरोप किया है.

इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुक्तिबोध की कविताएँ गहरे आत्म संघर्ष का आख्यान हैं. अन्यथा उनके शब्दों में इतना तनाव न होता. उसमें ही एक वर्ग संघर्ष चल रहा है. उनका व्यक्तित्व अंधकार और प्रकाश के द्वन्दात्मक वृत्तों में बंटा हुआ है.एक ओर पूंजीवादी व्यवस्था, साम्राज्यवाद, ब्यूरोक्रेट्स, अवसरवादी बुद्धिजीवी आदि हैं तो दूसरी ओर संकल्पधर्मा चेतना का रक्त प्लावित स्वर है. 

मुक्तिबोध के काव्य में भाव और शिल्प की नवीनता देखने को मिलती है. भाव या विचार तत्व को कविता का प्राण स्वीकार किया गया है. उससे संवेदना का सम्प्रेषण सम्भव होता है. कविता केवल कल्पना का विकास न होकर, विशेषत: आज के सन्दर्भों में अन्तर्द्वन्द का उदाहरण है. फिर जिसे नई कविता कहा जाता है, वह तो इन सब के सिवाए और कुछ है ही नहीं. अत: मुक्तिबोध के काव्य और उसके भाव पक्ष पर विचार करने से पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि नई कविता की  ये सभी विशेषताएँ मुक्तिबोध के काव्य में कहाँ है.

मुक्तिबोध अपने काव्य में अपने विविध अनुभवों के परिप्रेक्ष्य को आकार देना चाहते थे और यही कारण है कि वे छोटी- छोटी कविताएँ नहीं लिख सके उनकी जो छोटी कविताएँ हैं वे अपनी भाव सृष्टि में उस पूर्णता को न पा सकीं हैं जो लम्बी कविताओं में देखने को मिलता है. उनका मानना है कि कविताएँ कभी पूरी नहीं होतीं. इस संबंध में उनका एक कथन है - वास्तविकता का एक साक्षात्कार कवि को दूसरे साक्षात्कार तक पहुँचा देता है और यह प्रक्रिया कभी खत्म नहीं होती, चलती रहती है. इस तथ्य को उन्होंने अपनी कविता में व्यक्त किया है-

नहीं होती, कभी भी खत्म कविता नहीं होतीं, 

कि वह आवेग की त्वरित कालयात्री हैं.



एक समय मुक्तिबोध की यह इच्छा थी कि वह अपनी हर कविता पर एक कहानी लिखें. संभवतः वे यह अनुभव करते थे कि वे इसी प्रकार से कविताओं की आत्मा को मान्यता दिला सकेंगे या अपनी अधूरी कविताओं को सार्थक परिणामों तक ले सकेंगे. निम्नलिखित पंक्तियों में इस प्रयास को देख सकते हैं-

विवाद में हिस्सा लेता हूँ मैं 

सुनता हूँ ध्यान से 

अपने ही शब्दों का नाद, प्रवाह  और पाता हूँ अकस्मात् 

स्वयं के स्वर में औरांग ऊटांग की 

बौखलायी हुंकृत ध्वनियाँ 

एकाएक भयभीत पाता हूँ

पसीने से सिंचित 

अपना यह नग्न मन...

मुक्तिबोध के काव्य में इस आंतरिक संत्रास के साथ- साथ बाह्य परिस्थितियों से उद्भूत संत्रास भी देखने को मिलता है. इसके कुछ विशेष पक्ष कुछ इस प्रकार हैं- भौतिक अभाव की त्रासदी, वैज्ञानिक विकास और मनुष्यता की चेतना,, अतिशय विरोध और यांत्रिक प्रभुत्व.


Comments

Popular posts from this blog

सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला": काव्यगत विशेषताएं

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व