असाध्य वीणा : महामौन और भावानुप्रवेश की स्थिति का आख्यान

अज्ञेय हिन्दी प्रयोगवादी काव्य परम्परा के प्रवर्तक कवि के रूप में सर्व-स्वीकृत हैं । 1943 में आपने तार सप्तक का प्रकाशन कर हिन्दी साहित्य में एक नए तरह की संवेदना और शिल्प का विकास किया । प्रयोगवाद और प्रयोग के सन्दर्भ में अज्ञेय ने स्पष्टीकरण भी दिया लेकिन यह नाम चल पड़ा और चल पड़ने के कारण प्रयोगवाद काव्य परम्परा आज भी अपने प्रयोगों के लिए जानी एवं मानी जाती है ।अज्ञेय सिर्फ कवि या संपादक ही नहीं वरन एक बहुआयामी व्यक्ति हैं । आप कवि, आलोचक, उपन्यासकार ,संपादक होने के साथ-साथ एक क्रांतिकारी भी हैं । आपने स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता भी की और देश को पराधीनता से मुक्ति के निरंतर संघर्षरत रहे । मुक्ति आपके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है ।


असाध्य वीणा अज्ञेय द्वारा रचित एक बहुत ही विशिष्ट कविता है ,लम्बी कविता होने के बाद इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह कविता हमें आदि से अंत तक बांधे रहती है , एक वीणा जो एक साधक की साधना थी ,उसे साधा जाये यह गुफा-गह केश कम्बली के माध्यम से अज्ञेय ने प्रस्तुत किया है। यह कविता आगन के पार द्वार कविता संग्रह में संकलित छ: खण्डों में है । कथात्मक कलेवर में रचित इस कविता का आरम्भ होता है एक ऐसी वीणा को बजाने की प्रक्रिया से जिसे साधने में बड़े-बड़े कलावंत हार गये हैं –

मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,

वज्रकीर्ति की वीणा प्रियंवद को देते हुए राजा कहते हैं कि अभी तक कलावंत इस वीणा से स्वर नहीं निकाल पाये पर आप जैसे सच्चे स्वर सिद्ध के आने से मेरे मन में यह विश्वास हो गया है कि यह वीणा बोलेगी , और कविता के अंत में वीणा के स्वरों में पूरी सभा लीन हो उठती है ,फिर जब वीणा मूक होती है, तो सभा साधू भाव में अनुप्रवाशिष्ट हो जाती है -

वीणा फिर मूक हो गयी ।
साधु ! साधु ! "
उसने
राजा सिंहासन से उतरे --
"
रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य ! "
संगीतकार
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक -- मानो
गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
हट जाय, दीठ से दुलारती --
उठ खड़ा हुआ ।
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
बोला :
"
श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था --
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है ।"
नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। लेकर कम्बल गेह-गुफा को चला गया ।
उठ गयी सभा । सब अपने-अपने काम लगे ।
युग पलट गया ।
प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी
मौन हुई ।

और केश कम्बली श्रेय समय को देता है , उस महाशून्य और महा-मौन का सब कुछ था जो सब में व्याप्त है ,और इस तरह मौन होती है- सभा एवं पूरी राज सभा  

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