सामाजिक भाषा के विविध सन्दर्भों की अभिव्यक्ति : नाच्यौ बहुत गोपाल

 हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में उपन्यास साहित्य को एक विशेष उपलब्धि के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है।  कथा सम्राट के रूप में प्रेमचंद ने जिस परंपरा का आरंभ किया उसे परवर्ती कथाकारों ने आगे ले जाने का कार्य किया। प्रेमचंद समाजवादी कथाकार के रूप में जाने जाते हैं, उनकी परंपरा में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में अमृतलाल नागर का महत्व सर्वस्वीकृत है। अमृतलाल नागर ने प्रेमचंद की परंपरा को  आगे बढ़ाने का कार्य किया। अमृतलाल नागर हिन्दी के  ऐसे कथाकार हैं ,जिन्होंने अपने समाज का बहुत ही गहन अध्ययन और साक्षात्कार किया और उसे अपने कथा साहित्य के माध्यम से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया। नागर जी द्वारा रचित नाच्यौ बहुत गोपाल उपन्यास अपने आप में विशिष्ट है। अपने शिल्प और विषय वस्तु के आधार पर इस उपन्यास को हिन्दी का विशिष्ट उपन्यास कहा जा सकता है। 

नाच्यौ बहुत गोपाल में सामाजिक संदर्भों का व्यापक संस्पर्श देखने को मिलता है। नागर जी के लगभग सभी उपन्यासों में नये ढंग का भाषिक कलेवर देखने को मिलता है। नाच्यौ बहुत गोपाल में भी अवधी मिश्रित खड़ी बोली के साथ-साथ अन्य भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग परिवेश के अनुरूप देखने को मिलता है। इसी का अध्ययन एवं विवेचन नाच्यौ बहुत गोपाल का भाषिक अधिग्रहण शीर्षक से करते हुए भाषा के वैविध्यपूर्ण प्रयोग का अध्ययन करते हुए भाषिक अधिग्रहण और कथावस्तु के अन्तः सम्बंधों को विवेचन किया गया है। 

नाच्यौ बहुत गोपाल की भाषा मूलत अवधी मिश्रित खड़ी बोली है। इसमें शिष्ट एवं लोकभाषा के साथ - साथ नागर जी ने भाषा को सन्दर्भाे के अनुसार यथा स्थान से सीधे ग्रहण किया है। विवेच्य उपन्यास में भाषिक बहुलता आसानी से दृष्टिगत होती है।

साहित्यकार का अपने जीवन मे.कथ्य भाषा से सरोकार होता है। यही उसके संस्कार की भाषा होती है। इसका अधिगम उसके लिए सहज होता है क्योंकि वह इसे समाज में सीखता है। यही भाषा ज्ञान उसकी अभिव्यक्ति क्षमता को भाषा के विभिन्न प्रयोग सन्दर्भाे से जोड़ता है। इसलिए साहित्यकार जिस भाषा में रचता है, उसकी तमाम प्रयुक्तियों को ग्रहण करता है, और जब इससे उसका कार्य नही चलता है, तो उसे अन्य भाषा स्रोतों की सहायता भी लेनी पड़ती है। प्रयुक्ति की दृष्टि से भाषा के शब्द और उनकी प्रयोग पद्धतियाँ भाषा से अधिक कार्य की होती हैं। यही कारण है कि बोलचाल की भाषा के आधार पर तो साहित्य की भाषा निर्मित की जा सकती है। किन्तु इस भाषा में रचना सम्भव नहीं होती है। इस तरह साहित्यकार के भाषिक अधिग्रहण का मूल स्रोत उसकी अपनी भाषा होती है, किन्तु अन्य भाषाओं से भी उसे भाषिक तत्व और अभिव्यक्ति-रीतियाँ हासिल करनी होती है। 

नागर जी के समाज में कथ्य भाषा के रूप में हिन्दी और उसकी बोलियाँ प्रचलित थी। नागर जी के विवेच्य उपन्यास में हिन्दी भाषा और अवधी बोली का प्रयोग प्रचुरता से देखा जा सकता है। नागर जी के क्षेत्र में अवधी भाषा का स्पर्श है। साथ ही साथ नागर जी भाषा को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करते है। वे जिस समाज को अपनी कृतियों में प्रस्तुत करना चाहते थे, व्यापक स्तर पर उसकी अभिव्यक्ति के निमित्त भाषा को विविधता से सम्पृक्त्र करते है।

‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ में भाषिक अधिग्रहण दो माध्यमों से दृष्टिगत होता है - प्रत्यक्ष और परोक्ष। अनेक बोलियों और भाषाओं के शब्द हिन्दी में सामाजिक भाषा व्यवहार के स्तर पर घुल मिल गये हैं। ये तत्व विवेच्य उपन्यास की भाषा में परोक्ष रीति से अधिग्रहीत हैं। विरल अनुभूति, चरित्र की स्वाभविकता, और परिवेश की जरूरतों के अनुसार उपन्यास में अन्य भाषाओं के तत्वों को प्रत्यक्षत. भी ग्रहण किया गया है। नागर जी के उपन्यास साहित्य की भाषा में हमें प्रेमचन्द का भाषिक विकास दिखायी देता है। प्रेम चन्द ने स्वयं अधिग्रहण के सन्दर्भ में लिखा है कि - सजीव भाषाएँ हमेशा दूसरी भाषाओं से अपना कोश बढ़ाती रहती है। हमारे देखते-देखते हिन्दी में हजारों अंग्रेजी के शब्द आ मिले तथा मिलते जा रहे हैं।

नागर जी बोली जाने वाली भाषा के परम पारखी रहे है। उनकी गणना हिन्दी के ऐसे लेखकों में की जाती है, जिनका भाषा सम्बन्धी ज्ञान पर्याप्त व्यापक है। नागर में एक प्रधान गुण यह भी है, कि वे किसी भी क्षेत्र या व्यक्ति की भाषा को उसके अविकल रूप में ही व्यक्त कर देते हैं साथ ही नागर जी को विविध भाषाओं का पूर्ण ज्ञान है।।

‘नाच्या बहुत गोपाल’ की भाषा-सघटना में जिन भाषाओ के शब्द मिलते हैं उनमें सामाजिक प्रयुक्त की दृष्टि से अंग्रेजी, देशी, अवधी, खड़ी बोली संस्कृतनिष्ठ शब्द प्रमुख है। इनमें सन्दर्भाे और परिवेशों के अनुसार भाषिक अधिग्रहण दृष्टिगत होता है।


अंग्रेजी शब्द -वर्तमान समय में हमारे समाज में अंग्रेजी के शब्द रच-पच गये हैं। विवेच्य उपन्यास में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग तीन स्तरों पर दृष्टिगत होता है।

हिन्दी भाषा में रचे-पचे शब्द -अंग्रेजी भाषा के कुछ ऐसे भी शब्द हैं जिनका हिन्दी रूप नही है, वे अपने उसी रूप में हिन्दी भाषा में स्वीकृत हो गये है। नाच्यौ बहुत गोपाल की भाषा में लेखक ऐसे शब्दों का प्रयोग करते है। जैसे - वी0आई0पी. फोटोग्राफर, व्हिस्की, सोफासेट. सीलिंग फैन, टांजिस्टर रेडियो फ्रीज, सूट, वैण्ड, स्टोव, ट्रे. मूड, रिक्शे, पेग, टेलीविजन, ड्राइंगरूम, सिनेमा घर, फिल्म, टेलीफोन, नम्बर, ट्राजिस्टर, कलेन्डर, फैशन, बाथरूम, केक. मोटर साइकिल, इसके अतिरिक्त भी लेखक ने अपनी भाषा में ऐसे शब्दों का प्रयोग अन्य स्थलों पर भी किया है।

 देशज सन्दर्भाे में प्रयुक्त अंग्रेजी के शब्द -नागर जी विवेच्य उपन्यास में सन्दर्भाे के अनुसार अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग तो करते है, लेकिन उसमें पात्रों के स्तर के अनुसार अंग्रेजी शब्दों को भी प्रयोग में लाते है। उदाहरणार्थ- कुइन विक्टोरिया, लोडियो”, क्लबों, डिपोटीशन, बिजनिस, सुसाइटी. बूटीफुल।


शिष्ट जनों द्वारा प्रयुक्त अंग्रेजी के शब्द -जब कथा प्रसंग शिष्ट समाज या शिष्ट पात्रों के माध्यम से विकास ग्रहण करता है तो इस प्रकार के शब्द दृष्टिगत होते हैं -

उदाहरण- इण्टरव्यू, माण्टे सरी स्कूल, फर्नीचर, पोजश् पर्सनाल्टी, इमरजेन्सी, बिजनेस, प्रोग्रेसिव, एरिस्टोक्रेट, पी0आई0वी0 स्टोनो पोस्टेड, लव अफेयर प्रोटेस्ट, न्यू जनरेशन शेड्यूल्ड कास्ट, क्रिश्चियन, रेलिजस राइट्स. पावर फुल, सोर्सेज, ड्राइवर, डिमाक्रेसीय, ऐशट्रे नेशनल मिनिस्टर, सेन्टर अप्लीकेशन आर्ड्स, सर्विसेज ट्रांसफर ।

स्माल, मैटर, मैडम, लार्ड, व्युटीफुल, फिफ्टी, हन्ड्रेड, डियर, स्वीट, इन्सल्ट कम आन लेटस गो, फाइन. गुड मानिंग, सर्वेन्ट, फाइन, वाइफ, सिस्टर, बैरिस्टर, कन्डक्टर, फासिज्म, इलेक्शन, आदि।

सामाजिक प्रयोग सन्दर्भाे की दष्टि से ये सभी शब्द मुख्यतः दो प्रकार के दृष्टिगत होते है। इनमें से अधिकांश शब्द ऐसे हैं, जिनका प्रयोग हिन्दी भाषा समुदाय में व्यापक स्तर पर होता है। समाज का अल्प शिक्षित व्यक्ति भी जिसका व्यवहार करता है। अनेक अशिक्षित व्यक्ति भी जो अपने पेशा या काम में प्रयुक्त होने वाले शब्दों को सुनते सुनते जान लेते हैं। इसी वर्ग में ऐसे भी लोग देखे जाते है जो अंग्रेजी के शब्दों को अपनी जुबान के अनुसार तोड़कर देशज स्पर्श प्रदान करते हैं। 

दूसरे प्रकार के शब्द उच्च या मध्य वर्ग के शिक्षित जन अपने नित्य व्यवहार में प्रयुक्त करते हैं। ये उनके वाक्यों में प्रायः कहीं-कहीं उपस्थित रहते है। नागर जी के विवेच्य उपन्यास में समाज की बहुआयामी प्रस्तुति हुई है। इसलिए उच्च, मध्य, और निम्न वर्ग के अनेक पात्रों के कथनों में इन अंग्रेजी के शब्दो का प्रयोग हुआ है।

  विवेच्य उपन्यास में पात्र के चरित्र के अनुसार और परिवेश की जरूरत को देखते हुए लेखक ने आवश्यकता अनुसार देशज शब्दों का प्रयोग किया है।

उदाहरण -इस्त्रिरियों, परशासक, उप्परशासक, इतवार, उमर, खड़जन्त्र, सुतत्रता, परशाद, बम्हनों, समत, सियाराम, आसै, रमायन, जनम, सरदी हुदक हुदककर, हडिया, माई रूपिया, मूरख, समै किसिमय भौजाई पारी धरम, जिसमा, राक्कश, दरद, जात, इस्कूल, स्वीकार, प्रविचन, बपौती, लाक्षन।

देशी शब्दों के भाषा-स्रोत पूर्णत. ज्ञात नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि ये मूलतः भारतीय आर्य भाषा से भिन्न प्रदेशी भाषाओं के हैं। नागर जी की भाषा में इनके अधिग्रहण की प्रक्रिया परोक्ष रही है। उन्होंने इन्हें किसी भाषा विशेष से नही लिया है। इनका आगमन हिन्दी और उसकी बोलियों में पहले ही हो चुका था। नाच्यौ बहुत गोपाल के चरित्रो में ये शब्द परिचित भाषा के हैं। इनमें से अनेक संस्कत परम्परा की भाषाओं के शब्द है जो समय के अनुसार बदलकर उपर्युक्त रूपों में दृष्टिगत होते है।

नागर जी समाजवादी रचनाकार है। समाज की रचना करते हुए उन्होंने समाज के धड़कन को प्रखरता से अनुभव किया। यह समय था, हिन्दी खड़ी बोली के स्तर पर नवीन भाषा प्रयोग का। जिसके परिणाम स्वरूप नवीन भाषा सृष्टि हुई। और तत्सम शब्दों का प्रयोग कम होने लगा। कविता की भाषा तो तत्सम शब्दावली के अतिशय प्रयोग से कृत्रिम होने के साथ व्यवहारिक भाषा से सर्वथा भिन्न होने लगी थी। उसका भी परिष्कार इस युग में हुआ।

नागर जी की भाषा इस तरह की संस्कृत निष्ठता से मुक्त हैं। उनका कथय जिस समाज से लिया गया था, उसमें भाषा के इस रूप का चलन नही था। यही कारण है कि उस समाज से लिए गए चरित्रों की भाषा में तत्सम शब्दावली का प्रयोग अधिक नही है। संस्कृत भाषा के वे ही शब्द दृष्टिगत होते जो नागर जी के समाजभाषा में घुलमिल गए हैं। इनमें से कुछ शब्द इस प्रकार हैं

संस्कृति, आभिजात्यश्, रामायण, आकर्षण, कर्तव्य, स्पष्ट, षडयन्त्र, संभ्रान्त, घृणा, पाशविक शाम, राज्याभिषेक, प्रजा वत्सल, मर्यादा, सभ्य, मनुष्य, ब्राहमण, साक्षात प्रज्ञा लक्ष्मी, व्यक्तित्वशालिनी कुण्ड।

इन शब्दों का विरल प्रयोग इस बात का प्रमाण है कि विवेच्य उपन्यास में नागर जी ने जान बूझकर अथवा सायास अपनी भाषा में संस्कतनिष्ठ शब्दों को स्थान नही दिया है।

विवेच्य उपन्यास में नागर जी ने यथा स्थान अरबी-फारबी के शब्दों को भी जरूरत

के अनुसार इस्तेमाल किया है। यथा -

वास्ते, हाकिम, इन्सानियत, उम्दा, फरमाबरदारी, लायक, निकाह, गुलजार, सलामत, हुकुम, अजब, बाजार, शायद अंसारी-पसारी नादिर-शादिर नीयत जिल्ददार. आवाज, महफिल, कसूर, मजहब, नफरत”, माशूक, कुरबान, चीजों, रजामन्द, नजरे।

विवेच्य उपन्यास में भाषिक विविधता उपर्युक्त रूपों में दृष्टिगत होती है। नागर की भाषिक समृद्धि पर प्रकाश डालते हुए ‘डा0 नागेश राम त्रिपाठी कहते है कि - अपनी बात कहने के लिए नागर जी दूर नहीं जावे, बल्कि विभिन्न भाषाओं के शब्द उनके शब्द-भण्डार में मोती की तरह झलकते है, और नागर जी उन्हें यथा स्थान पिरो देते हैं।

ये शब्द निम्नांकित विभागों द्वारा स्पष्ट किये जा सकते है

 लेखक द्वारा प्रयुक्त भाषिक विविधता

 नागर पात्रों द्वारा प्रयुक्त भाषिक विविधता

 अंग्रेज पात्रो द्वारा प्रयुक्त शब्द

 अप्रचलित एवं अल्प प्रचलित शब्द

अधिग्रहण का स्वरूप

नागर जी की अधिग्रहण दृष्टि उदार और उपयोगितावादी है। उन्होंने अपने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में आवश्यकता से अधिक कुछ नहीं ग्रहण किया। किसी लोम से परिचालित संकीर्णता न तो उनके विचारों में है और न भावों में। वे मसीहा सुधारक अथवा उपदेशक नही थे। किन्तु वे समाज को स्वस्थ और प्रसन्न अवश्य देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने हर प्रकार की सामाजिक हीनताओं और कमजोरियों पर चोट की है। मृत प्राय परम्पराओं को तोड़ने की चेष्टा की है। 

यही कारण है कि जैसे उन्हें त्याग में कोई द ख नहीं था वैसे ही ग्रहण में संकोच भी नहीं। भाषा के सम्बन्ध में भी उनकी यही प्रवृति परिलक्षित होती है। उन्होंने अपनी भाषा को सक्षम और सहज अभिव्यक्ति के योग्य विकसित करने के लिए अपेक्षित भाषा तत्वों का अधिग्रहण किया है। यही कारण है कि उनकी भाषा संरचना में शब्दों के अतिरिक्त हिन्दीत्तर वाक्यांश, महावरे भी ग्रहीत है। अधिग्रहण के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए इन्हें अलग-अलग विश्लेषित करना समीचीन होगा।


(क) शब्द मूलक-

शब्दों के दो रूप मुख्यतः उपलब्ध होते है - मूल और विकृत। मूल रूपों का प्रयोग सुसंस्कृत और उच्च भाव तथा विचार व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त है। विवेच्य उपन्यास में नागर जी ने एक समाज जीवन को एक व्यापक फलक पर चित्रित किया है। समसामायिक जीवन सन्दर्भाे का भी अंकन किया गया है। एक वर्ण विशेष के जीवन को समग्रता में प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक सामाजिक व्यवस्था का सहारा लिया है।

इस क्रम में लेखक ने अनेक स्रोतों से शब्द ग्रहण किया है। लेकिन यह पाठक को कहीं भी खटकता नही है। अपने उपन्यास को सहज करने के प्रयोजन को प्रतिफलित करने में भाषा का जो रूप निर्मित हुआ है, उसमें मूल शब्द रूपों का प्रयोग अधिकतर हुआ है। विकारी रूपों का प्रयोग व्यापक स्तर पर हुआ है। उदाहरण के लिए स्रोतों के अन्तर्गत विश्लेषित शब्द देखे जा सकते हैं।

(ख) वाक्यांश मूलक

किसी भाषा विशेष में दूसरी भाषाओं के वाक्यों का प्रयोग तो संभव नहीं है किन्तु वाक्यांशों का ग्रहण विवेच्य उपन्यास में मुखरता से देखा जा सकता है। नागर के भाषा के निर्माण में हिन्दी खड़ी बोली के साथ ही साथ अवधी, अंग्रेजी, उर्दू-फारसी, का भी योगदान रहा है। नाच्यौ बहुत गोपाल के भाषिक फलक पर वाक्यांश का प्रयोग देखा जा सकता है। 

उदाहरण

अंग्रेजी-

ए टीचर टाट इंगलिश, देन आई मैरिड दिस इंगलिश मैन्स सर्वेन्ट।

ओ, आई होप दैट शैल बी लीविंग दिस कन्ट्री बाइ द एण्ड आफ नेक्स्ट मन्थ।

“पापा आई मेक दिस इंडियन डिस फार यू।

इफ ही नाट माई ब्रदर, देन व्हाट आई काल हिम नाऊ?

डोस्ट-डोस्ट

अवधी-

श्माला लक्कर, पोठी बक्कर, गंगा बुरबक पानी।

रामाकृष्ण झठे बैया, चारो बेड कहानी।।


देशज वाक्य

अरे सच्ची खा हमाई कसम।

यही कि डाकखाने में मेरे सर्गवासी पहले पती का पैसा मेरे नाम से जमा है और ये घर मैन दो कपिये भाड़े पर तुमसे ले लिया हैगा। रकम किराये में कटती रहेगी। बात खतम हो जाएगी।

संस्कृत-निष्ठ वाक्य-

भाषा अधिग्रहण में लेखक ने विवेच्य उपन्यास में संस्कृत के पुरे-पूरे श्लोकों को अपनी भाषा में लिया है। जो कही भी आप्रासांगिक से नही महसूस होते हैं -

अतुलित बलधामं हेम शैलाभदेह,

दनुजवन कृशानं ज्ञानिनाम ग्राणियम् ।

सकल गुण निधानं वावरानामधीश,

रघुपति प्रिय भक्तं वातजातं नगामी।।

अरबी-फारसी के वाक्य-

जि-हां मुंसी जी, आप तो रहमदिल हैं. लगा देंगे पर वो आपका मोहनवा रजामन्द नही होता हैगा सरकार।

मामू ने बड़ी मुश्किल से खुशामद-दरामद करके आखो में आंसू लाकर मोहन को जाने से रोका।

(ग) मुहावरा मूलक -

मुहावरा भाषा विशेष में प्रचलित एक विशिष्ट प्रयोग है। मुहावरों का महत्व रूप अथवा व्याकरण की दृष्टि से न होकर अर्थ की दृष्टि से होता है। इसका अर्थ अमिधार्थ से भिन्न और लक्षणा तथा व्यंजना पर आधारित होता है। इस प्रकार मुहावरा भाषा का लाक्षणिक या व्यंजनात्मक प्रयोग है। नागर जी समस्त उपन्यासों के अनुरूप ही नाच्यौ बहुत गोपाल में भी मुहावरों का प्रयोग दृष्टिगत होता है। विवेच्य उपन्यास में उर्दू या बोलियों से प्रभावित मुहावरे अधिक है। ये चरित्रों की भिन्न-भिन्न मनःस्थितियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त हैं -

रंग या वर्ण भी नही करिया ब्राह्मण गोर चमार भी होता है।

आजकल दिल के आइने में तस्वीरे यार की तरह इस बस्ती को बार-बार देखना मुझे सुहाता है।

पानी में रहकर मगर से बैर कब तक करेंगे।

मुह लागई डोमिनी गावै ताल बेताल ।

लोकोक्तियों के साथ नागर जी ने अपनी भाषा को निखारने के लिए सूक्तियों लोकगीतों और विभिन्न प्रकार के शायरी के साथ दोहों का मुखरता से प्रयोग करते हैं। नाच्यौ बहुत गोपाल में लोकगीतों, सूक्तियों, और दोहो का भी प्रयोग किया है - 

दोहा -

राम ते अधिक राम कर दासा।

सूक्ति

सुधर्मे निधनम् सेयाह परधरमो भयावहा।

दोहा

लहकि-लहकि आवै ज्यों-ज्यौं पुरवाई पौन,

दहकि-दहकि त्यौ-त्यौं तन तॉवरे तचौ ।।


लोक गीत -

अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल ।

काम क्रोध को पहिरि चोलना कण्ठ विषय की।ष्


जैसे उड़ि जहाज कौ पछी पुनि जहाज पै आवै। 


फिल्मी गीत-

मोरे सैयाँ जी हैं कुतवाल.

हमार कोऊ का करिहै।

शायरी

फना का होश आना जिन्दगी का दर्देसर जाना।

अजल क्या है, खुमारे बाद-ए-हस्ती उतर जाना।।


विवेच्य उपन्यास के भाषिक अधिग्रहण की समग्र विवेचना से स्पष्ट है कि नागर जी भाषा को सजीवता प्रदान करने के लिए भाषा को विविधता की छटा से समपृक्त करते हैं। नागर जी की भाषा के सन्दर्भ में डा0 नागेश राम त्रिपाठी ने उचित ही कहा है

नागर जी उपन्यास साहित्य की भाषा में हमें प्रेमचन्द की सरल सहज बोलचाल की भाषा परम्परा का विकास लक्षित होता है। उसमें व्यापकता के साथ-साथ स्पष्टता और सहज आत्मीयता भी है। नागर जी को अपने युग के भाषा में ही अपनी बातें प्रभावशाली ढंग से कहने में सफलता प्राप्त है।


नागर के भाषा भण्डार के स्रोतों और उनके सामाजिक सरोकारों के सन्दर्भ में श्डा0 राम विलास शर्मा ने बड़े विस्तार से लिखा है

वे गली कूचों में वर्षों रहे और घूमें है। इन्होंने चारों ओर के जीवन को देखा ही नहीं, उसका रंग बिरंगा कोलाहल भी सुना है यहाँ एक शैली और एक व्याकरण का प्रयोग करने वाले पात्र नही है। प्रायः जितने पात्र है उतनी तरह की शैलियां और उनके अपने-अपने व्याकरण है।ष्? इसी में वे आगे लिखते है कि अभी तक किसी भी देशी-विदेशी भाषा में एक नगर की इतनी-बोलियो-होलियों का निदर्शन करने वाला उपन्यास मेरे देखने में नही आया।

भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाेत्तम माध्यम है किन्तु वह सार्थक तभी हो सकती है। जब उसके माध्यम से व्यक्ति समाज से जुड़ता है। विवेच्य उपन्यास के भाषा में व्यक्ति का उसके सामाजिक सरोकारो के साथ उभारने शक्ति है।


Comments

  1. Fabulous
    Mind blowing👏👏🤯🤯

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  2. गहन अध्ययन का बोध कराता है यह लेख।बहुत सारगर्भित।

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