मैला आँचलः लोक जीवन का आख्यान
मैला आँचलः लोक जीवन का आख्यान
हिन्दी कथा साहित्य अपने आरम्भिक काल से ही समाज के व्यापक यथार्थ को अभिव्यक्त करने की दिशा में उन्मुख रहा है। भाव, भाषा एवं शिल्प सभी स्तरों पर हिन्दी कथा साहित्य में विविधता दृष्टिगत होती है। समाज के सभी वर्गों एवं सभी क्षेत्रों के जीवन स्थितियों के अंकन की दृष्टि से हिन्दी कथा साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। हिन्दी साहित्य के इतिहास का अवलोकन करें तो हमें यह देखने को मिलता है कि भक्ति काल के बाद आधुनिक काल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। साहित्यिक विधाओं के साथ-साथ भाषा की दृष्टि से भी आधुनिक काल का योगदान महत्वपूर्ण है। आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रयासों से भाषा एवं साहित्य का नया स्वरूप विकसित हो रहा था। भाषा एवं साहित्य पर नये सामाजिक जनजागरण का प्रभाव भी प्रतिबिम्बित हो रहा था। जनता की चिŸावृŸिायों में होने वाले परिवर्तन का प्रभाव व्यापक रूप से साहित्य को प्रभावित करता है, यह प्रभाव आधुनिक काल के साहित्य में देखने को मिलता है।
आधुनिक काल में साहित्य का व्यापक रूप से जनतंत्रीेकरण हुआ, पूर्ववर्ती काल तक साहित्य का नायकत्व समाज के विशिष्ट वर्ग तक ही सीमित था, लेकिन आधुनिक काल में नायकत्व की अवधारणा बदल गयी। हिन्दी कथा साहित्य में समाज के अन्तिम छोर पर स्थित व्यक्ति एवं क्षेत्र को अपने विषय-वस्तु में प्रमुख स्थान दिया। लाला श्री निवासदास कृत परीक्षा गुरू (1982) को हिन्दी का पहला मौलिक उपन्यास माना जाता है। इससे पूर्व श्रद्धाराम फुल्लौरी ने भाग्यवती (1877) शीर्षक सामाजिक उपन्यास लिखा था। हिन्दी के आरम्भिक उपन्यासों पर बंगला के उपन्यासों का प्रभाव देखने को मिलता है। भारतेन्दु-काल में सामाजिक, ऐतिहासिक, तिलस्मी-ऐय्यारी, जासूसी उपन्यासों की रचना व्यापक रूप से की गयी।
हिन्दी उपन्यास साहित्य को व्यापक सामाजिक धरातल पर उतारने का कार्य मुंशी प्रेमचन्द ने किया। इसी कारण इन्हें उपन्यास सम्राट भी कहा जाता है। हिन्दी उपन्यास साहित्य अपने आरम्भिक काल से ही सामाजिक ताने-बाने पर रचा जा रहा था, सामाजिक जीवन से जोड़ने और अंकन करने का कार्य प्रेमचन्द ने किया। प्रेमचन्द और उनके युग के अन्य उपन्यासकारों को सामाजिक यथार्थ को कथा साहित्य के व्यापक फलक पपर उकेरने का कार्य किया। इन उपन्यासकारों के प्रयासों के परिणामस्वरूप हिन्दी उपन्यास साहित्य को व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिली। हिन्दी साहित्य में हिन्दी उपन्यास साहित्य के महत्व को रेखांकित करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है कि - ‘‘वर्तमान जगत् में उपन्यास बड़ी शक्ति है। समाज जो रूप पकड़ रहा है, उनके भिन्न-भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्त्तियाँउत्पन्न हो रही है, उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते, आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकते है।’’1
आचार्य शुक्ल के उपरोक्त वक्तव्य से स्पष्ट है कि उपन्यास साहित्य के माध्यम सामाजिक यथार्थ के अंकन के साथ-साथ सामाजिक सुधार पर भी विशेष जोर था। सामाजिक यथार्थ और समाज में नये आदर्श के निर्माण की दृष्टि से प्रेमचन्द का कथा संसार विशिष्ट है। अपने रचनात्मक जीवन के अधिकांश समय में प्रेमचन्द सामाजिक यथार्थ के अंकन के साथ-साथ आदर्श के निर्माण पर बल दे रहे थे। उनके उपन्यास ‘गबन’ तक में आदर्शवादी यथार्थ का चित्रण मिलता है। लेकिन ‘गोदान’ उपन्यास तक आते-आते उन्होंने सामाजिक जीवन यथा तथ्य-यथार्थ की प्रस्तुति पर बल दिया। जिसका प्रभाव प्रेमचन्द के बाद के उपन्यासकारों में देखने को मिलता है।
प्रेमचन्द के पश्चात् सामाजिक यथार्थ के अंकन की दृष्टि से फणीश्वर नाथ रेणु का योगदान विशिष्ट है। फणीश्वर नाथ रेणु हिन्दी उपन्यास साहित्य में आंचलिक उपन्यास लेखन की परम्परा में एक मजबूत कड़ी के रूप में जाने जाते हैं। अपने पहले उपन्यास ‘मैला आँचल (1954)’ की भूमिका में वह स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि- ‘‘यह है मैला आँचल, एक आंचलिक उपन्यास। कथानक है पूर्णिया। पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है; इसके एक ओर नेपाल तो दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल। विभिन्न सीमा-रेखाओं से इसकी बनावट मुकम्मल हो जाती है, जब हम दक्खिन में सन्थाल परगना और पश्चिम में मिथिला की सीमा रेखाएँ खिंच देते हैं। मैंने इसेे एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँव का प्रतीक मानकर इस उपन्यास कथा का क्षेत्र बनाया है।’’
कथा क्षेत्र को नायकत्व प्रदान करने वाला यह हिन्दी का अपनी तरह का एकलौता उपन्यास है। साथ ही लेखक यह भी घोषित करता है कि यह एक आंचलिक उपन्यास है। फणीश्वर नाथ रेणु कृत मैला आँचल में हीं वरन् उनकी अन्य कृतियों में भी अंचल का जीवन्त रूप देखने को मिलता है। रेणु ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से अंचल के रीति-रिवाज, रंग-रूप, लोकगीत एवं भाषा को साहित्यिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने का कार्य किया। मैला आँचल की भूमिका में ही रेणु ने यह भी कहा है कि - इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी, मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। रेणु के वक्तव्य से स्पष्ट संकेत मिल जाता है कि रेणु उस अंचल की कथा को उसकी समग्रता में प्रस्तुत कर रहे थे और वो भी पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ। मैला आँचल की इन्हीं विशेषताओं को रेखांकित करते हुए आचार्य रामविलास ने लिखा है कि -‘‘मैला आँचल में नई चीज है, लोक संस्कृति का वर्णन। लोकगीतों और लोकनृत्यों के वर्णन द्वारा लेखक ने एक अंचल विशेष की संस्कृति का चित्र अंकित किया है। इसके साथ-साथ कथा कहने की उसकी नई पद्धति है। वह सिनेमा के चित्रों के समान बहुत से शाट इकट्ठे कर देता है, ये शाट एक-दूसरे में कितने विभिन्न हैं, इसका ध्यान नहीं रखता, एक ही अध्याय में तीन-चार बार ‘कट’ लगाकर पाठक को चौधियाँ देता है।’’
आँचलिक संस्कृति के चित्रण में माहिर फणीश्वर नाथ रेणु एक सफल किस्सागो भी हैं। कहानी कहने की उनकी शैली निराली है। जैसा कि आचार्य रामविलास शर्मा ने भी अपने उपरोक्त कथन में कहा है। वर्णनात्मक लेखन शैली के साथ-साथ रेणु ने पात्रों के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का अंकन अत्यन्त सहज रूप में किा है। अपने कथा साहित्य में उन्होंने आंचलिक जीवन के हर धुन, गंध, लय, ताल, सुर को शब्दबद्ध कर भाषा के एक ऐसे वातायन का सृजन किया है, जिसमें पाठक अपने आपको भूलकर कथा भाव में डूब जाता है। ग्राम्य जीवन के लोकगीतों का उन्होंने अपने कथा साहित्य में बहुत सर्जनात्मक प्रयोग किया है।
रेणु के रचनात्मक यात्रा का आरम्भ ‘तबे एकला चलो रे’ से होता है। यह कहानी, 1952-53 के दौर की है, जब वे गंभीर रूप से बीमार थे। 1954 में उनका बहुचर्चित उपन्यास मैला आँचल प्रकाशित हुआ। रेणु को जितनी प्रसिद्धी हिन्दी साहित्य में उनके उपन्यास मैला आँचल से मिली, उसकी मिशाल दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातों-रात हिन्दी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। मैला आँचल हिन्दी कथा साहित्य में मील का पत्थर है। आंचलिक जीवन के बहुआयामी व्यक्तित्व को रेणु ने आंचलिक भाषा एवं आंचलिक संस्कृति के साथ समग्रता में कथा कैनवस पर उभार कर ऐतिहासिक कार्य किया। ‘मैला आँचल’ हिन्दी उपन्यास को नयी दिशा प्रदान करने वाला उपन्यास है। मैला आंचल आंचलिक संस्कृति, कला, संगीत एवं धुनों को आंचलिक भाषा में प्रस्तुत किया है। संास्कृतिक परिवेश के साथ-साथ भौगोलिक हलबन्दी एवं सामाजिक संरचना को समग्रता में प्रस्तुत किया है। मेरीगंज की भौगोलिक परिवेश को प्रस्तुत करते हुए रेणु ने लोक की जीवन्तता को भी प्रस्तुत किया है- ‘‘ऐसा ही एक गाँव है मेरीगंज। रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब, बूढ़ी कोशी को पार करके जाना होता है। बूढ़ी कोशी के किनारे-किनारे बहुत दूर तक ताड़ और खजूर के पेड़ों से भरा हुआ जंगल है। इस अंचल के लोग इसे ‘नवाबी तडबन्ना’ कहते हैं। किस नवाब ने इस ताड़ के वन को लगाया था, कहना कठिन है, लेकिन वैशाख से लेकर आषाढ़ तक आस-पास के हलवाहे-चरवाहे भी इस वन में नवाबी करते हैं। तीन आने लबनी ताड़ी, रोक साला मालगाड़ी। अर्थात् ताड़ी के नशे में आदमी मोटर गाड़ी को भी सस्ता समझता है। तड़बन्ना के बाद ही एक बड़ा मैदान है, जो नेपाल की तराई से शुरू होकर गंगा जी के किनारे खत्म हुआ है। लाखों एकड़ जमीन! बंध्या धरती का विशाल अंचल। इसमें दूब भी नही पनपती है। बीच-बीच में बालूचर और कहीं-कहीं बेर की झाड़ियाँ।’’
उपरोक्त पंक्तियों में रेणु ने उस गाँव के बाह्य परिवेश का अंकन किया है, जिसे उसने कथा नायक के रूप में प्रस्तुत किया है। परिवेश की मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत करते हुए ताड़, खजूर, दूब, बालूचर सभी का अंकन बड़ी ही सहज रूप में कथा फलक पर उभारा है। वैशाख से आषाढ़ तक ग्रीष्म ऋतु होने के कारण अंचल के लोग अधिकांश समय बाग-बगीचों में भी व्यतीत करते हैं। इसके साथ ही साथ लाखों एकड़ भूमि के उर्वर न होने की भी बात करते हुए रेणु मेरीगंज गाँव में पाठक का प्रवेश कराते हैं। गाँव में प्रवेश कराने के साथ ही अंचल के भूगोल के साथ-साथ इतिहास से भी परिचित कराते हैं। इतिहास बताने के पश्चात् रेणु अंचल के सामाजिक ताने-बाने को प्रस्तुत करते हैं। रेणु लिखते हैं कि - ‘‘मेरीगंज एक बड़ा गाँव है, बारहो बरन के लोग रहते है।’’ आगे जातियों के शक्ति सन्तुलन को स्पष्ट करते हैं -‘‘राजपूतों और कायस्थों में पुश्तैनी मन-मुटाव और झगड़े होते आए हैं। ब्राह्मणों की संख्या कम है, इसलिए वे हमेशा तीसरी शक्ति का कर्तव्य पूरा करते हैं। अभी कुछ दिनों से यादवों के दल ने भी जोर पकड़ा है। जनेऊ लेने के बाद भी राजपूतों ने यदुवंशी क्षत्रिय को मान्यता नहीं दी। इसे विपरीत समय-समय पर यदुवंशियों के क्षत्रित्व को व्यंग विद्रुप के बाणों से उभारते रहें। एक बार यदुवंशियों ने खुली चुनौती दे दी। बात तूल पकड़ने लगी थी। दोनों ओर से लोग लगे हुए थे। यदुवंशियों को कायस्थ टोली के मुखिया तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद मल्लिक ने विश्वास दिलाया, मामले-मुकदमें की पूरी पैरवी करेंगे। जमींदारी कचहरी के वकील वसन्तों बाबू कर रहे थे, ‘‘यादवों को सरकार ने राजपूत मान लिया है।’’ इसका मुकदमा तो धूमधाम से चलेगा। इसका मुकदमा खुद वकील साहब कर रहे थे।’’
जाति व्यवस्था लोक जीवन को अभिन्न अंग है। गांव में बारहों बरन के लोग से आशय यह है कि गांव में प्रचलित सभी जातियों के लोगों से हैं। ग्रामीण समाज में जातिय संतुलन के लिए संघर्ष होना लोक की नियुक्ति है। क्षत्रिय, कायस्थ, ब्राह्मण हमारी समाज व्यवस्था के केन्द्र में सदियों से रहे हैं। जाति सूचक शब्दों का भी भारतीय सामाजिक परिवेश पर प्रभाव देखने को मिलता है। क्षत्रियों और यदुवंशियों में सघर्ष का कारण भी जातिय व्यंगविदु्रप है।
सामाजिक परिवेश के साथ-साथ अंचल की भाषा एवं संस्कृति को भी रेणु ने इस उपन्यास में संजोया है। लोक की कला, संगीत, संस्कृति के प्रति कथाकार का गहरा अनुराग उनके समग्र कथा, साहित्य में देखने को मिलता है। मैला आँचल में मेरीगंज की संस्कृति एवं जीवन स्थितियों को हमारे समक्ष रेणु ने प्रस्तुत किया है।
मैला आँचल लोक आख्यान को लोकभाषा में प्रस्तुत करने वाला उपन्यास है। साहित्यिक भाषा के बने बनाये ढाँचे के दायरे में औपन्यासिक कथा वस्तु प्रस्तुत करना संभव नही है। कथा भाषा और सामाजिक यथार्थ रचनात्मकता का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसे रेखांकित करते हुए प्रो0 केशरी कुमार ने लिखा है कि- ‘‘भाषा यथार्थ का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक पहलू है। भाषा नहीं तो यथार्थ की पहचान नहीं। भाषा के द्वारा ही, भाषा के माध्यम से ही हम यथार्थ को जानते, मानते, पहचानते हैं। भाषा यथार्थ को एक नाम देती है, और इस नाम से ही वह पहचाना जाता है। जिसके पास वस्तु है, पर नाम नही है, उसके पास यथार्थ है, पर यथार्थ का बोध नहीं है, कसौटी नही है। भाषा की उपेक्षा यथार्थ की उपेक्षा है। यथार्थ समाज-जीवन द्वार है, तो भाषा उससे भीतर-बाहर करने का रास्ता है। एक के बिना दूसरे का अर्थ नही।’’
उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि सामाजिक यथार्थ और भाषा एक दूसरे से बहुत ही गहरे स्तर पर जुड़े हुए हैं। मैला आँचल की भाषा सामाजिक यथार्थ के साथ कदम ताल मिलाते हुए चलने वाली है। रेणु लोक के बहुत बड़े रचनाकार हैं, लोक की जीवनानुभवों का रचानात्मक प्रयोग उन्होंने बखूबी किया है। लोक में प्रचलित बोली-बानी, गीत-संगीत, कला एवं धुनों का औपन्यासिक भाषा में बड़ा ही सर्जनात्मक प्रयोग मैला आँचल में देखने को मिलता है। लोक जीवन एवं परम्परा अभिन्न अंग के रूप में लोक गीतों की एक सुदीर्घ एवं सुदृढ़ परम्परा हमारे समाज में रही हैं। इस परम्परा का निर्वहन मैला आँचल में देखने को मिलता है। लोक में प्रचलित निर्गुण गीत, विवाह गीत, श्रम गीत, तीज-त्यौहारों एवं अन्य प्रचलित गीत सहज ही इस उपन्यास की भाषा के अंग बन गये हैं-
‘‘हाँ रे, बड़ा रे जतन से सुगा एक हे पोसल,
माखन दुधवा पिलाए।
हाँ रे, से हो रे सुगना बिरिछी चढ़ि बैठल,
पिंजड़ा रे धरती लोटाए......?’’
निर्गुण गीत अचंल जीवन में सुबह-सुबह ही गाया जाता है। जिसे लोक में इसे प्रभाती कहा जाता है। निर्गुण के साथ-साथ विवाह के गीतों को भी रेणु के इस उपन्यास में देखा जा सकता है-
‘‘अरे फागून मास रे गवना मोरा होइत
कि पहिरू वसन्त रंग हे
बाट चलैत-आ केशिया संभारि बान्हू
अँचरा हे पवन झरे हे ए ए ए!’’
उपरोक्त गीत में गौने से संबधित एक नव-युवती की आकांक्षा का चित्र रेणु खिंचते हैं। यह लोक में प्रचलित बारहमासा का एक हिस्सा है। बारहमासा वर्ष के सभी महीनों से संबधित होता है। वर्ष के सभी मास लोक मन पर अपना-अपना प्रभाव छोड़ते हैं। डॉक्टर प्रशान्त लोक में प्रचलित गीतों को बहुत ही ध्यान से सुनता है, और उसमें इस तरह लीन हो जाता है कि किस-हिस्ट्री लिखना ही भूल जाता है। सुबह के सोनाय गीत गाता है। सोनाय अकेला नहीं है, सैकड़ों कंठो में एक-एक विरहिन मैथिली बैठी हुई कूक रही है-
‘‘आम जो कटहल, तूत जो बड़हल
नेबुआ अधिक सूरेब!
मास आषाढ़ हो रामा! पंथ जनि चढ़िहऽ
दूरहि से गरजत मेघ रे मोर!
अऽरे मास आ सा ढ़ हे! गरजे घन
बिजूरी-ई चमके सखि हे ए ऐ!
मोहे तजी कन्ता जाए परदेसा आ...आ
कि उमड़ कमला माई हे!
हँऽरे! हँऽरे......।’’
बारहमासा और निर्गुण के साथ-साथ लोक में प्रचलित गीतों का प्रयोग भी प्रचुरता से इस उपन्यास में देखने को मिलता है। रेणु का लोकगीतों के साथ-साथ लोक धुनों से भी बहुत लगाव देखने को मिलता है। अंचल में ध्वनियों के माध्यम से धुनों का बनाने की परम्परा रही है। लोग अपने मुख-विवर द्वारा ही कोयल, झिंगुर या अन्य वाद्य यंन्त्रों की ध्वनि को उच्चरित करते हैं। मैला आँचल की भाषा में ऐसे ध्वनि बिम्बों का व्यापक प्रयोग दृष्टिगत होता है। उदाहरण द्रष्टव्य है-
‘‘रात में मेढ़कों की टरटराहट के साथ असंख्य कीट-पतंगों की आवाज शून्य में एक अटूट रागिनी बजा रही है- टर्र! मेंकू टर्ररर...............मेंकू!............झि-झि-चि.......किर-किर्र............सि, किटिर-किटिर! झि....टर्र...........।
उपरोक्त पंक्तियाँ प्रकृति में व्याप्त-ध्वनियों का बिम्व भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं। इसके साथ-साथ लोक में प्रचलित वाद्य-यन्त्रों के ध्वनियों का बिम्वात्मक प्रयोग भी देखा जा सकते है-
टन्-टनाक्, टन्-टनाक्! सजाई हुई मोकनी हथिनी जा रही है
ढन-ढन, ढनॉग-ढनॉग! कीर्तनियों का घड़ी घंट बोल रहा है।
धू-ऊ-ऊ-तू-तू-तू! शंखनाद।
भों-भों-पों!........भो................पों.........पों! अँगरेजी बाजा।
तक-तक-तक-तक धिनाग-धिनाग! टमहरा का चानखोल (एक तरह का बाजा) बजा।
पीं पीं पीं ई ई ई पीं पीं.............। चान खोल वालों की पीपही गा रहा है।’’...........................................
धू-धू-धू-धू-धू-तू धुत-धुत करनाल बोलता है।’’ (संघा बाजा)
शब्दों के माध्यम से धुनों के बिम्बों की प्रस्तुति के साथ-साथ रेणु ने गंध बिम्बों का भी प्रस्तुतिकरण किया है। उदाहरण द्रष्टव्य है- ‘‘लछमी के शरीर से एक खास तरह की सुगन्ध निकलती है। पंचायत में लछमी बालदेव के पास ही बैठी थी। बालदेव को रामनगर मेला के दुर्गा मन्दिर की तरह गन्ध लगती है-मनोहर सुगन्ध! पवित्र गन्ध।’’
लोक गीतों एवं लोक धुनों के साथ-साथ लोक में प्रचलित कथा को प्रस्तुत करते हुए रेणु ने देशज भाषा की भदेशी शब्दावली का भी प्रयोग किया है। यह भाषा उस अंचल के यथार्थ जीवन को हमारे सम्मुख ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने की अद्भूत क्षमता से सम्पन्न है। भाषा का देशीपन इस हद तक का है कि कथाकार देशज शब्दों का अर्थ पद-टिप्पणी द्वारा स्पष्ट किया है। उदाहरण-
चुमैना-सगाई, बिलटा-आवारा, बलाय-बलाय-घूस देकर, मटकी-कनखी, मोकनी हथिनी-जवान हथिनी, दामुल हौज-आजीवन कारावास, कनिा-दुलहिन, भनसार घर-रसोई घर, पुआल के टालों-घास की ढे़री,भैंसधर मन बाबू-वाइस चेयरमैन, आँगगनवाली-पत्नी, राय बरेली-लायब्रेरी, तुक ताक-टोटका इत्यादि।
उपन्यास के लगभग आधे पृष्ठों पर इस तरह की पाद-टिप्पणी द्वारा रेणु ने शब्दों के भावार्थ स्पष्ट किये हैं। पात्रों के परिवेश एवं भाव भंगिमा के अंकन की दृष्टि से भी रेणु जी ने बेजोड़ भाषा-शैली का प्रयोग किया है। संवेदानशीलता और सहजता रेणु की सम्प्रेषणीयता को प्राणवान बना देती है। पात्रों के संवादों में संवेदना देखते ही बनती है-
‘‘मौसी!’’
‘‘कौन?’’
‘‘मैं हूँ। डाक्टर। गनेश कहाँ है?’’
‘‘डागडर बाबू! आप? आइए बैठिए। गनेश सो रहा है।...............मैं तो अकचका गई, किसने मौसी कहकर पुकारा?’’ बूढ़ी की आँखें छलछला आती हैं।
सहज संवेदना के साथ-साथ लोक मन में उपजने वाले आक्रोश का चित्र भी इस उपन्यास में देखने को मिलता हैं। लोक के मन में जितनी सहजता देखने को मिलती है, उतना ही आक्रोश भी लोक मन में मौजूद रहता है। लोक के मन में प्रेम और क्रोध पानी के बुलबुले की तरह होते हैं। संवेदना और प्रेम उमड़े तो सब कुछ लुटा दे और आक्रोश भी लोक मन उपजे तो सब कुछ छीन लेने पर आमदा हो जाता है। प्रस्तुत उदाहरण में हम लोक के आक्रोश को देख सकते हैं-
‘‘हम जानते हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि रामदास इस मठ का चेला है। उसको महन्थी का टीका न देकर, आप एक नम्बरी बदमास को महन्थ बना रहे हैं। .....................मठ में हम लोगों के बाप-दादा ने जमीन दान दी है, यह किसी की बपौती सम्पŸिा नहीं।.......’’
‘‘तेरी जात को मच्छड़ काटे, चुप साले! कुŸो के बच्चे! अभी कुल्हाड़े से तेरा.............! तेरी माँ को...............।’’
‘‘चुप रह बदमास!’’ कामरेड वासुदेव उछकर खड़ा होता है।
‘‘पकड़ो सैतान को!’’ कामरेड सुन्दर चिल्लाता है।
‘‘भागने न पावे!’’
‘‘मारो!’’
मुहावरे और गाली भाषा के अनिवार्य अंग हैं। मनुष्य की मनोदशा का प्रतिबिम्बन उसकी भाषा में होता है। भाषा-भाव का एक दूसरे से गहतर स्तर पर जुड़े हुए भावानुरूप भाषा के प्रयोग से ही मुखर अभिव्यक्ति संभव है। रेणु ने आंचलिक कथा को प्रस्तुत कर नये तरह के कथा शिल्प का आविष्कार किया। अंचल की मनोदशा को अभिव्यक्त करते हुए कथाकार ने लोक के सभी पक्षों को साथ-लिया है। मैला आँचल के अभिनव प्रयोग एवं शिल्प को रेाखांकित करते हुए नेमीचन्द्र जैन ने लिखा है कि-
‘‘उसके शिल्प में नवीनता है। विभिन्न भावों, मनोदशाओं और घटनाओं को तथा बहुत से व्यक्तियों और समूहों के कार्यों और भाव वेगों को एक नये ढंग से बार-बार ‘टेलस्कोप’ करने की पद्धति से एक साथ ही गति का और स्थिरता का, दूरी और समीपता का प्रभाव उत्पन्न होता है। पूरा उपन्यास एक फिल्म-जैसा लगता है, जिसके पार्श्व-संगीत में मादल और ढोल, लोक -गीेतों के मादक स्वर निरन्तर सुनायी पड़ते रहते है।’’
हिन्दी कथा साहित्य की परम्परा में कथा शिल्प के स्तर पर जिन कथाकारों ने नवीन शिल्प एवं भाषा का सृजन किया, उनमें फणीश्वर नाथ रेणु का स्थान विशिष्ट है। रेणु प्रेमचन्द परम्परा के एक ऐसे कथाकार के रूप में जाने जाते हैं, जिनके द्वारा आंचलिक कथा लेखन की परम्परा अपने शीर्ष पर पहुँचती है। रेणु आंचलिक संस्कृति की समग्रता के आचार्य है। लोक जीवन एवं सस्ंकृति को जीवन्त करते हुए लोक की समस्त परम्पराओं का रेणु ने भाषा की सर्जनात्मक शक्ति का बखूबी प्रयोग किया है। लोक जीवन का आख्यान प्रस्तुत करते हुए रेणु ने आंचलिक जीवन के सभी पक्षों, उनकी सीमा, शक्ति और सामर्थ्य के साथ अभिव्यक्ति प्रदान की है। मैला आँल की रागात्मकता और भाषिक शिल्प के महत्व पर विचार करते हुए कथा समीक्षक मधुरेश ने लिखा है कि- ‘‘भाषा और शिल्प के स्तर पर मैला आँचल ग्राम-समाज के वर्णन बहुल इतिवृत्तात्मक उपन्यासों की परम्परा से काफी भिन्न है। छोटे-छोटे चित्रात्मक-ब्यौरे और लोक तत्वों का अबाध उपयोग, शब्दों को तोड़-मरोड़कर उन्हें एक खास स्थानीय रंग में ढालने का आग्रह आदि ‘मैला आँचल’ को एक भिन्न प्रकार की रचना के रूप में प्रस्तुत करते हैं।’’
लोक जीवन के यथार्थ को समग्रता में अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से कथा फलक पर उभारने का प्रयास मैला आँचल में देखने को मिलता है। आंचलिक जीवन की अद्भूत छटा से परिपूर्ण यह उपन्यास हिन्दी औपन्यासिक परम्परा में अपनी आंचलिकता के कारण मील का पत्थर साबित हुआ।
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