सामाजिक परिवर्तन और हिन्दी भाषा : डॉ. अमरेन्द्र श्रीवास्तव

 इक्कसवी सदी में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नित, नये प्रयोग एवं आविष्कार हो रहे है। संचार के साधनों का तेजी से प्रचार-प्रसार हो रहा है, ऐसे समय में एक नये तरह के समाज का विकास निरन्तर तीव्र गति से हो रहा है। इस समाज के वैचारिकी एवं जीवन स्थितियों को जानने, समझने के लिए नये प्रकार के समाज विज्ञान का निर्माण हो रहा है। समाज में परिवर्तन के साथ-साथ एक नये सामाजभाषिकी की चिन्तन परम्परा भी विकसित हो रही है।

भाषा हमारे सामाजिक सह-अस्तित्व एवं सांस्कृतिक संवहन का एक सशक्त माध्यम है। मनुष्य की आदिम-व्यवस्था से लेकर अब तक अनेकों सामाजिक, संास्कृतिक एवं भाषाई परिवर्तन हुए हैं। समाज एवं संस्कृति से भाषा अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ तथ्य है। हमारी संास्कृति स्थितियों में परिवर्तन ने अनेकों भाषा रूपों का निर्माण किया है। साहित्य, चिन्तन, विज्ञान, विधि एवं चिकित्सा के क्षेत्र में सामाजिक दशाओं  के परिवर्तन से भाषा का रूप एवं स्वरूप बदलता रहा है। ग्रन्थ चाहे ज्ञान की किसी भी शाखा का हो उसकी भाषा सदा से बदलती रही है। चाहे वह यात्रा संस्कृत से लेकर हिन्दी तक ही हो, या रोम, लैटिन से लेकर अंग्रेजी या आधुनिक यूरोपियन भाषा का आधुनिक भारतीय भाषाएं हो।

समाज विकास के साथ-साथ भाषाई चेतना में परिवर्तन दृष्टिगत होता है। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के आरम्भ के साथ-साथ एक नये तरह की वैचारिकी, सामाजिक परिवर्तन और भाषाई चेतना का विकास आरम्भ होता है। प्रख्यात लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी लिखते है कि- ‘‘हिन्दी नयी चाल में ढली’’ यह हिन्दी का नये चाल में ढलना अकारण नहीं था। इसके पृष्ठभूमि में विभिन्न प्रकार के समाज सुधार आन्दोलन भी चल रहे थे। हिन्दी भाषा के नये रूप निर्माण में जितना योगदान भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एवं उनके मण्डल के लेखकों का है, उतना ही योगदान तत्कालीन समाज के समाज सुधारकों एवं स्वाधाीनता आनदोलन का भी रहा है। हिन्दी भाषा के विकास में विभिन्न सामाजिक आन्दोलनों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है।

सामाजिक एवं राजनितिक आन्दोलनों ने हिन्दी भाषा के विकास एवं परिष्कार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जैसे-जैसे शिक्षा के क्षेत्र में नये प्रयोग होते गये, वैसे-वैसे भाषा का रूप संस्कार भी होता गया। वीसवीं सदी के आरम्भ में हिन्दी भाषा का स्वरूप स्थिर हुआ। जिसके कारण हिन्दीं भाषा को सार्व देशीक स्वीकृति मिली। समाज-व्यवहार एवं मानव-व्यवहार में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव हमारी भाषा में भी देखने को मिलता है। भाषा, व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से गहरे स्तर पर जुड़े हुए है।

भाषा के सन्दर्भ में यह अध्ययन स्वाधीनता के बाद सामाजिक आन्दोलन और भाषा के समाज भाषिकी से जुड़ा हुआ है। हमने देखा कि हिन्दी के निर्माण में भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग और छायावादी युग के समाज और परिवेश ने विशेष योगदान दिया है। स्वाधीन चेतना और स्वाधीनता के आह्वान ने खड़ी बोली हिन्दी का प्रसार पूरे देश में किया और हिन्दी भाषा स्वाधीनता आन्दोलन की भाषा बनी और इसके राष्ट्रीय स्वरूप  के कारण ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया। 1850 में खड़ी बोली हिन्दी के रूप परिष्कार एवं संस्कार का जो उपक्रम आरम्भ हुआ वह 1949 को राष्ट्र भाषा बनने तक रहा और कमोवेश आज भी चल रहा है।

क्षेत्रीय आकांक्षाओं के उदय और तुष्टीकरण की नीति के कारण हिन्दी भाषा को वह महत्व नहीं प्राप्त हो सका जो महत्व स्वाधीनता आन्दोलन के समय में था। राजनैतिक उपेक्षा एवं क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने हिन्दी भाषा के मार्ग को रोक लिया। एक भाषा के रूप में हिन्दी भाषा विकास अत्यन्त रोचक है। विचार-विनिमय के साथ-साथ हिन्दी भाषा अपने सामाजिक सरोकारों से हमेशा से जुड़ी रही है। क्षेत्रियता की आकांक्षाओं ने हिन्दी भाषा के विकास में कुछ व्यवधान अवश्य खड़े किये, लेकिन सामाजिक परिवर्तनों ने हिन्दी भाषा के विकास में अपना विशेष योगदान हमेशा से दिया है। सत्रह के दशक में हमारे देश में भाषा आन्दोलन हुए जिसके परिणाम स्वरूप हमारी राष्ट्र भाषा राजकीय कार्यो पूर्णतः प्रयुक्त होने से रह गयी, लेकिन हिन्दी भाषा की प्रकृति प्रवाहमान एवं निरन्तर विकसनशील रहा है और इसी कारण हिन्दी भाषा विरोधों से दूर नये क्षेत्रों में निरन्तर विकसित होती जा रही है।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से खड़ी बोली हिन्दी ने एक भाषा के रूप में जो यात्रा आरम्भ की, वह आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप से स्वीकृत हो चुकी है। हिन्दी भाषा एवं साहित्य आज विश्व के अनेक देशों में बोली, समझी, लिखी एवं पढ़ी तथा पढाई जाती है। हिन्दी के इस विकास में हिन्दी साहित्य का जितना योगदान है, उतना ही योगदान हिन्दी भाषियों  एवं हिन्दी सिनेमा, धारावाहिक एवं मीडिया का भी है। हिन्दी भाषी अपने साथ अपनी भाषा एवं संस्कृति को लेकर विदेशों में गये, जिसके परिणाम स्वरूप हिन्दुस्तानी भाषा और संस्कृति वैश्विक स्तर पर अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

भाषा के संबध में यह तथ्य भी है कि भाषा यदि उदारता से अन्य भाषा के शब्दों को अपने भाषा संचार में स्थान देती है, तो उस भाषा की प्रवाहमानता बनी रहती है। बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में उदारीकरण और बाजारवाद का उदय हुआ। यह वह समय था जब दूरी दुनिया विश्व ग्राम की अवधारणा की ओर अग्रसर हो रही थी। उदारीकरण और भूमण्डलीकरण का व्यापक प्रभाव हिन्दी भाषा पर भी पड़ा। इस अवधारणा ने देश की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थिति को भी गहरे रूप में प्रभावित किया। समाज में होने वाले इन परिवर्तनों ने हमारी भाषा को भी बहुत गहनतर रूप से प्रभावित किया। जिससें एक नये तरह की सामाज भाषिी का उदय हुआ। सामाजिक क्षेत्र में होने वाले नये परिवर्तनों ने हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय ही नही वरन् अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्रदान की। एक भाषा के रूप में हिन्दी भाषा की वाक्य रचना एवं सम्प्रेषण क्षमता कुछ ऐसी है कि हिन्दी भाषा वैश्विक स्तर पर बहुतायत बोली एवं समझी जाने वाली भाषाओं में अपना स्थान रखती है।

हिन्दी भाषा के विकास में इक्कीसवी सदी में आरम्भ होने वाली संचार क्रांति का विशेष योगदान है। उदारीकरण एवं संचार क्रान्ति के द्वारा एक नये तरह की भाषा अस्तित्व में आयी संचार क्रान्ति के परिणाम स्वरूप भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता में व्यापक परिवर्तन देखा जा सकता है। उदारीकरण और संचार क्रांन्ति के परिणाम स्वरूप संस्कृतियों एवं भाषा का सम्मिलन हुआ जिसके कारण एक नये तरह की संस्कृति एंव भाषाई चेतना अस्तित्व में आयी। जिसका अपना कोई विशेष निजी स्थायी वरित्र नही है। परिवेश, समाज एवं समय के अनुसार उदारता और परिवर्तनशीलता इसमें बनी रहती है। भाषा के इस स्वरूप में देशज जीवन की ठसक भी है, संस्कृत निष्ठता का अभिजात्य भी है और भाषाई नवीनता एवं ताजगी भी है। सामान्य सा व्यक्ति का नाम-‘हल्दीराम’ एक विशिष्ठ ब्राण्ड बन जाता है। सामान्य सा पेशा- ‘मोची’ एक अन्तरराष्ट्रीय कम्पनी बन जाती है। यह देखने में अत्यन्त साधारण सी लगने वाली बात है, लेकिन इसमें व्यापक भाषाई नवीनता भी है।

विज्ञापन, सिनेमा एवं धारावाहिक की भाषाओं ने भाषा में एक नव्यता एवं सर्जनात्मकता से सम्पन्न किया है। उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण हमारी भाषा के विकास एवं प्रसार में विशेष योगदान दिया है। भाषा अन्तर्बोध के स्तर पर व्यापक होती जा रही है। आज की हिन्दी भाषा में नवीन शैली के प्रयोग  ने अनुभूतियों को विकसित किया है। भाषा केवल वाचिक परम्परा नही है, भाषा कायिक परम्परा भी है। आज के समय में आप क्या कहते है? और कैसे कहते है? दोनों  तथ्य महत्वपूर्ण हैं।  बातें कैसी कहनी है- यह क्षमता विज्ञापन, सिनेमा एवं संचार माध्यमों ने प्रभावी ढंग से विकसित  किया है। 

सामाजिक परिवर्तन और भाषा के स्वरूप् निर्धारण दोनों का सह-अस्तित्व है। हिन्दी भाषा सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ निरन्तर परिवर्तित एवं परिष्कृत होती चली जा रही है। सामाजिक परिवर्तन के साथ भाषा  सवरूप के परिष्कार एवं विकास को निम्नलिखित विकास के चरणों में लक्षित किया जा सकता है-

1. स्वाधीनता एवं समाज सुधार आन्दोलनों की हिन्दीं

2. स्वाधीन चेतना एवं राष्ट्रीय चेतना की हिन्दीं

3. स्वाधीनता के बाद हिन्दी भाषा का स्वरूप

4. भाषाई आन्दोलन के समय की हिन्दीं

5. डदारीकरण के दौर की हिन्दी भाषा

6. संचार क्रान्ति एवं उत्तर आधुनिक समय की हिन्दी

हिन्दी भाषा सामाजिक आन्दोलनों एव सामाजिक परिवर्तनों के साथ निरन्तर बदलती एवं परिवर्तित होती गयी है। यहाँ यह ध्यातव्य हैं कि हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का आधार ही स्वाधीनता आन्दोलन एवं समाज सुधार आन्दोलन है। खड़ी बोली हिन्दी अपने विकास के क्रम में एक भाषा और फिर वैश्विक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी है। हिन्दी भाषा के क्षेत्र विस्तार की दृष्टि से विश्व के सर्वाधिक क्षेत्र में बोली जाने वाली दूसरी भाषा है।

क्षेत्र विस्तार की परिधि में देखें तो अंग्रेजी भाषा सर्वाधिक क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा  है। अंग्रेजी भाषा का ऐतिहासिक विकास हिन्दी भाषा से बहुत पहले का है, और आज के समय में हिन्दी भाषा के अनकों  शब्द अंग्रेजी शब्द भण्डार में शामिल हो चुके है।

हिन्दी भाषा निरन्तर विकसित एवं परिष्कृत होने वाली भाषा है। हिन्दी भाषा में प्रचुर मात्रा में नये सर्जनात्मक कार्य हो रहे हैं। सिनेमा, साहित्य, मीडिया आर विज्ञापन के क्षेत्र में  यदि हिन्दी भाषा को देखें  तो एक ओर हिन्दी का संस्कृतनिष्ठ स्वरूप  देखने को मिलता है तो दूसरी ओर अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं के शब्द भी पर्याप्त रूप से प्रयुक्त हो रहे है। हिन्दी भाषा का ये सामर्थ्य हमारे सामाजिक परिवेश एवं सांस्कृतिक आचार-विचार के कारण है। आज का हमारा समाज एक ओर तो पाश्चात्य संस्कृति से व्यापक रूप सें प्रभावित है और दूसरी ओर हमारा समाज अपनी श्रेष्ठ परम्परा और आध्यात्मिकता से गहरे स्तर पर जुड़ा हुआ है।

समाज, संस्कृति एवं भाषा एक दूसरे से गहरे स्तर पर जुड़े हैं, जो भाषा सांस्कृतिक, सामाजिक परिवर्तन सेे सामंजस्य स्थापित नही कर पाती, वह भाषा लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकती है। हिन्दी एक जीवन्त, प्रवाहमान एवं उदार भाषा है। अपनी उदारता, प्रवाहमानता एवं विकसनशीलता प्रवृŸिा के कारण यह भाषा राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत होती जा रही है।


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