साहचर्य जनित प्रेम की अभिनव कथा :आकाशदीप : डॉ. मधुलिका श्रीवास्तव
आधुनिक हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने वाले रचनाकारों में जयशंकर प्रसाद का
नाम बड़े ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है । भारतेन्दु हरिश्चंद हिन्दी को जिस तरह नयी चाल में ढाल
रहे उससे हिन्दी साहित्य के लिए एक विस्तृत भूमि तैयार हो राही थी । इस नयी भाषा
ने हमारे समाज में एक नए तरह के जागरण का बोध निर्मित किया । जिसने हिन्दी साहित्य
में वैविध्यपूर्ण लेखन की परम्परा के विकास में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाई ।
हिन्दी भाषा के नये रूप ने साहित्य की विविध विधाओं में लेखन का मार्ग प्रशस्त
किया । जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य के एक ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने हिन्दी
साहित्य को बहुविध समृद्ध किया । कविता ,नाटक ,निबंध ,उपन्यास ,कहानी और आलोचना
सभी विधाओं में आपने अपनी लेखनी चलाई । जयशंकर प्रसाद को कवि एवं नाटककार के रूप
में विशेष ख्याति मिली है ,लेकिन उनका अन्य विधाओं में लेखन में भी कम महत्वपूर्ण
नहीं है ।
कहानी के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की
कहानियों के आरंभकर्ता के रूप में स्वीकृत हैं । सन् 1912 ई. में 'इन्दु' में आपकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई।
उनके
पाँच कहानी-संग्रहों में कुल मिलाकर सत्तर कहानियाँ संकलित हैं। आपके कहानी संग्रह हैं –प्रतिध्वनी ,छाया ,आकाशदीप ,आंधी और इंद्रजाल
।
कहानी के सम्बन्ध में प्रसाद जी
की अवधारणा का स्पष्ट संकेत उनके प्रथम कहानी-संग्रह 'छाया' की भूमिका में मिल जाता है। 'छाया' नाम का स्पष्टीकरण देते हुए वे
जो कुछ कहते हैं वह काफी हद तक 'कहानी' का परिभाषात्मक स्पष्टीकरण बन गया है। प्रसाद जी का मानना है
कि छोटी-छोटी आख्यायिका में किसी घटना का पूर्ण चित्र नहीं खींचा जा सकता। परंतु, उसकी यह अपूर्णता कलात्मक रूप
से उसकी सबलता ही बन जाती है क्योंकि वह मानव-हृदय को अर्थ के विभिन्न आयामों की
ओर प्रेरित कर जाती है। प्रसाद जी के शब्दों में "...कल्पना के विस्तृत
कानन में छोड़कर उसे घूमने का अवकाश देती है जिसमें पाठकों को विस्तृत आनन्द मिलता
है।"1 'आनन्द' के साथ इस 'विस्तृत' विश्लेषण में निश्चय ही अर्थ की
बहुआयामी छवि सन्निहित है; और
इसीलिए छोटी कहानी भी केवल विनोद के लिए न होकर हृदय पर गम्भीर प्रभाव डालने वाली
होती है। आज भी कहानी के सन्दर्भ में प्रसाद जी की इस अवधारणा की प्रासंगिकता
अक्षुण्ण बनी हुई है, बल्कि
बढ़ी ही है। कहानी के विषय में प्रसाद ने जो भी विचार व्यक्त किये हैं ,उनकी
प्रासंगिकता समय के साथ बढाती ही जा रही है । कवि एवं नाटककार के रूप में आधुनिक
हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर अधिष्ठित होने के कारण प्रसाद जी की
कहानियों पर लम्बे समय तक समीक्षकों ने उतना ध्यान नहीं दिया, जितना कि अपेक्षित था । जयशंकर
प्रसाद की कहानियों पर विचार करते हुए डॉ.विजय मोहन सिंह ने लिखा है कि -
"साहित्य की
प्रायः सभी विधाओं में समान प्रतिभा तथा क्षमता के साथ अधिकार रखने वाले प्रसाद जी
ने सर्वाधिक प्रयोगात्मकता कहानी के क्षेत्र में ही प्रदर्शित की है। मुख्य रूप से
उनके शिल्प प्रयोग विलक्षण हैं।"2
जयशंकर
प्रसाद मानवीय संवेदन के विलक्षण सर्जक हैं ,आपके साहित्य में प्रेम और संवेदना
मूल विषय वस्तु के रूप में देखि जा सकती है । इसके साथ-साथ आपने सामाजिक
जीवन की विसंगतियों को भी अपनी रचनाओं के माध्यम से अभियक्त किया है । आपकी
कहानियों में मानव जीवन का संवेदन बहुत ही
मुखर रूप में देखने को मिलता है । आकाशदीप आपके द्वारा रचित एक ऐसी कहानी
है , जिसमें संघर्ष भी है ,प्रेम भी है और संवेदना भी है । मानव जीवन की विडम्बना
और उसकी नियत्ति का अंकन इस कहानी की विशेषता है । इस कहानी में प्रेम ,त्याग और
कर्तव्य के त्रिकोण का बहुत संवेदनशीलता के संयोजनदेखने को मिलता है । कहानी का
आरम्भ दो बंदियों के आपसी वार्तालाप से होता है-
“बन्दी !’’
“क्या है?सोने दो।”
“मुक्त होना चाहते हो?”
“अभी नहीं ,निद्रा खुलने पर ,चुप रहो।”
.......................................................................
समुद्र में हिलोरें उठने लगीं । दोनों बन्दी आपस में टकराने लगे।पहले ने अपने को स्वतंत्र
कर लिया ।दूसरे का बंधन खोलने का प्रयत्न करने लगा ।लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श से
पुलकित कर रहे थे।मुक्ति की आशा-स्नेह का असंभावित आलिंगन ।दोनों ही अन्धकार मुक्त
हो गये।दूसरे बन्दी ने हर्षातिरेक से उसको गले लगा लिया। सहसा उस बन्दी ने कहा – “यह क्या? तुम
स्त्री हो?”
“क्या स्त्री होना कोई पाप है?” अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।
“शास्त्र कहा है –तुम्हारा नाम?”
“चंपा।”3
चंपा और बुधगुप्त का यह मिलन ही कहानी का मूल
आधार है , यह क्षणिक संस्पर्श दोनों के मन में एक नए तरह का भाव निर्मित करता है। चंपा का ह्रदय अत्यंत उदार है ,जिसमें कोमलता का वास
देखने को मिलता है । उसके ह्रदय की कोमलता ने उसे बुधगुप्त के आकर्षित किया ,वह
अंतःकरण से उसके प्रति एक अलग तरह प्रेम में पद जाती है । एक दूसरे के प्रति
आकर्षण और अपने कर्तव्य के समर्पण की भावना इस कहानी की मूल संवेदना कही जा सकती
है । पिता और माता के संस्कार चंपा के व्यक्तित्व में व्याप्त हैं । बुधगुप्त चंपा
के साथ रहकर बदल जाता है ,वह दस्यु वृत्ति छोड़ देता है । लेकिन चंपा के ह्रदय में
उसके प्रति वह भाव नहीं है । बुधगुप्त के ह्रदय में प्रेमातिरेक है -
“तो चंपा ! अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर
सकते हैं ।तुम मेरी प्राणदात्री हो,मेरी सर्वस्व हो ।”
“नहीं तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दि ,परन्तु ह्रदय वैसा ही अकरुण
,सतृष्ण और ज्वलनशील है ।तुम भगवान के नाम पर हँसी उड़ाते हो । मेरे आकाशदीप पर
व्यंग्य कर रहे हो । नाविक ! उस प्रचंड आँधी में प्रकाश की एक-एक
किरण के लिए हम लोग कितने व्याकुल थे । मुझे स्मरण है , जब मैं छोटी थी,मेरे पिता
नौकरी पर समुद्र में जाते थे –मेरी माता , मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में
भागीरथी के तट पर बाँस के साथ ऊँचे टांग देती थी । उस समय वह प्रार्थना करती –“भगवान! मेरे पथ-भ्रष्ट नाविक को अन्धकार में
ठीक पथ पर ले चलना ।” और जब मेरे
पिता बरसों पर लौटते तो कहते –“साध्वी ! तेरी प्रार्थना से भगवान ने संकटों में रक्षा की है ।” वह गदगद हो जाती । मेरी माँ? आह ! यह उसी की पुण्य-स्मृति है ।मेरे पिता , वीर पिता की
मृत्यु के निष्ठुर कारण , जल-दस्यु ! हट जाओ – सहसा चंपा का मुख क्रोध से
भीषण होकर रंग बदलने लगा । महानाविक ने
कभी यह रूप न देखा था । वह ठठाकर हँस पड़ा ।
“यह क्या, चंपा? तुम अस्वस्थ हो जाओगी ,सो रहो ।”- कहता हुआ चला गया । चंपा मुठ्ठी बाँधे उन्मादिनी-सी घुमती रही ।4
यह चंपा का वह अन्तः संघर्ष है ,जिसने उसके पूरे जीवन को
प्रभावित किया । प्रेम,कर्तव्य और आक्रोश के बीच दोनों के अन्तःमन में संवेदन की
छुवन भी इस कहानी में देखने को मिलता है । यह जयशंकर प्रसाद की अन्यतम विशेषता है
की वह प्रेम को सन्दर्भों के अनुरूप ढालने में माहिर हैं । चंपा के मन की गाठें
खुलतीं हैं, नाविक के समर्पण भाव से । प्रसाद कथाकार होने के साथ-साथ सहृदय कवि भी
हैं ,भावपूर्ण लम्हों के अंकन में आपका कवि रूप कहानियों में भी दृष्टिगत होता है –
चंपा और जया धीरे-धीरे उस तट पर आकर खड़ी हो गई । तरंग से
उठते पवन ने उनके वसन को अस्त-व्यस्त कर दिया । जया के संकेत से एक छोटी-सी नौका
आई । दोनों के उस पर बैठते ही नाविक उतर आया । जया नाव खेने लगी । चंपा मुग्ध-सी
समुद्र के उदास वातावरण में अपने को मिश्रित कर देना चाहती थी ।
“इतना जल! इतनी शीतलता!
ह्रदय की प्यास न बुझी।पी सकूँगी
?नहीं! तो जैसे वेला में चोट खाकर सिंधु चिल्ला उठता है ,उसी के
समान रोदन करूँ ?
या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश्य अनंत जल में डूबकर बुझ
जाऊं?” –चंपा के देखते-देखते पीड़ा और ज्वलन से आरक्त बिंब
धीरे-धीरे सिंधु में चौथाई-आधा ,फिर सम्पूर्ण विलीन हो गया । एक दीर्घ निश्वास लेकर चंपा ने मुह फेर लिया । देखा, तो
महानाविक का बजरा उसके पास है । बुधगुप्त ने झुककर बढाया । चंपा उसके सहारे बजरे
पर चढ़ गई । दोनों पास-पास बैठ गये ।
“इतनी छोटी नाव पर इधर घूमना ठीक नहीं । पास ही जलमग्न
शैलखण्ड है । कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ़ जाती,चंपा?”
“अच्छा ही होता ,बुधगुप्त ! जल में बन्दी कठोर प्राचीरों से तो अच्छा है।”
“आह चंपा, तुम कितनी निर्दय हो! बुधगुप्त को आज्ञा देकर देखो तो ,वह क्या नहीं कर सकता ।
जो तुम्हारे लिए नए द्वीप की सृष्टि कर सकता है ,नई प्रजा खोज सकता है ,नए राज्य
बना सकता है ,उसकी परीक्षा लेकर देखो तो .....कहो,चंपा ! वह कृपाण से अपना ह्रदय-पिंड निकाल अपने हाथों अतल जल में
विसर्जन कर दे।”- महानाविक – जिसके नाम से बाली ,जावा और चंपा का आकाश गूँजता था, पवन
थर्राता था – घुटनों के बल चंपा के सामने छलछलाई आँखों से बैठा।5
सबल से सबल व्यक्ति भी प्रेम में नितान्त निश्छल हो तो
कितना भावुक हो सकता है ,उपरोक्त पंक्तियों में हम देख सकते हैं । चंपा भी सहृदय
है, बुधगुप्त के इस निर्विकार समर्पण से भावुक हो जाती है ,सहृदयता से पूरा
वातावरण सिक्त हो जाता है ,जैसे मदिरा से सारा आकाश भर गया हो । सृष्टि विश्राम की
स्थिति में आ जाती है ,मन का मैल उसमें बह जाता है । उस सौरभ से पागल चंपा ने
बुधगुप्त के दोनों हाथ पकड लिए । वहाँ एक आलिंगन हुआ , जैसे क्षितिज में आकाश और
सिंधु का । किंतु उस परिरंभ में सहसा चंपा ने अपनी कुंचुकी से एक कृपाण निकल लिया
।
“बुधगुप्त ! आज मैं अपने प्रतिरोध का कृपाण अतल जल में डूबा देतीं हूँ । ह्रदय ने छल किया ,बार-बार धोखा दिया ।” – चमककर वह कृपाण समुद्र का ह्रदय बेधता हुआ समुद्र में
विलीन हो गया ।
“तो मैं विश्वास करूँ ,क्षमा कर दिया गया?” –आश्चर्य-कम्पित कंठ से महानाविक ने पूछा ।
“विश्वास ?कदापि नहीं ,बुधगुप्त ! जब मैं अपने ह्रदय पर विश्वास नहीं कर सकी
,उसी ने धोखा दिया ,तब मैं कैसे कहूँ ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ फिर भी तुम्हारे
लिए मर सकती हूँ ।अंधेर है जलदस्यु । तुम्हें प्यार
करती हूँ ।” चंपा रो पड़ी ।6
चंपा का इस तरह रो पड़ना प्रेम की उस पराकाष्ठा को प्रदर्शित
करता है ,जहाँ मन के सभी अंतर्द्वंद विलीन हो जाते हैं । वह जाने-अनजाने बुधगुप्त
से प्रेम करने लगती है, वह जलदस्यु से घृणा करती और बुधगुप्त के प्रति उसके मन में
समर्पण है । व्यक्तित्व को बाँट कर देखने की नई दृष्टि जयशंकर प्रसाद के इस कहानी
में देखने को मिलती है । मन का अंतर्द्वंद तब और मुखर हो जाता है ,जब चंपा
बुधगुप्त पर विश्वास ना करते हुए अपने प्रतिरोध को खत्म करती है ,और अपने कृपाण
फेक देती है । ह्रदय का छल और मन का बल दोनों को पास लाता है । जयशंकर प्रसाद मानव
मन के विविध परतों को बहुत गहनता से परखने वाले सर्जक हैं , चंपा के मन को पढ़कर
उन्होंने इस कहानी में बहुत ही संवेदनात्मक रूप में प्रस्तुत किया है । इस संवेदना
के साथ-साथ इस कहानी में एक विसंगति भी निरंतर गतिमान है ,वह यह कि चंपा बुधगुप्त
से प्रेम करते हुए भी उसे निर्दोष नहीं मानती है, जब बुधगुप्त चंपा से विवाह की
बात करता है तो वह कहती है कि –
“आज रानी का ब्याह है न?”- कहकर जया ने हँस दिया। ...................................................
..............“यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है ,चंपा ! कितने वर्षों से मैं ज्वालामुखी को अपनी छाती में दबाये हूँ
।”
“चुप रहो, महानाविक !
क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज सब प्रतिरोध लेना चाहा?”
मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूँ ,चंपा ! वह दुसरे दस्यु के शस्त्र से मरे!”
“यदि मैं इसका विश्वास कर सकती । बुधगुप्त ,वह दिन कितना सुन्दर होता ,वह क्षण कितना स्पृहणीय ! आह ! तुम निष्ठुरता में भी कितने महान होते !”7
चंपा का व्यक्तित्व प्रेम और नफ़रत के बीच विकसित होता है
,वह अपने आप को समझाना चाहती है, लेकिन उसका अतीत उस पर हर बार हावी हो जाता है । यह चंपा के मन की व्यथा ही है कि वह चाहते हुए भी अपनी चाहत को प् नहीं सकती । मन में भर जाने वाली घृणा और अपने कर्तव्य बोध के तले दबी
हुई वह अपने प्रेम को न्यौच्छावर कर देती है । चंपा एक एक सहृदय प्रेमिका होने के
साथ-साथ एक उत्कृष्ट बेटी भी है ,जिसके ऊपर अपने माता-पिता की अमिट छाप पड़ी हुई है
। उसके मन में कहीं ना कहीं एक बेटी का दायित्व बोध उसे वह सब कुछ करने से रोकता
है जो वह करना चाहती है ।
प्रसाद जी मानवीय भावनाओं की विलक्षण सर्जक हैं , आपके
द्वारा रचित कामायनी को हमारी वृतियों का आईना कहा जा सकता है । हमारी वृत्तियों
के मर्म को समझने की दृष्टि से प्रसाद का साहित्य अद्भूत है ,आकाशदीप कहानी में
प्रसाद जी ने भाषा और भाव की दृष्टि से चंपा के अन्तः का संघर्ष और बुधगुप्त के मन
की निर्मलता को बहुत सहज रूप में प्रस्तुत किया है । जयशंकर प्रसाद मन के चतुर
चितेरे हैं ,आकाशदीप में भी आपने अपनी कुंची से जीवन के संघर्षों को रूपायित किया
है ।
भाषा के स्तर पर प्रसाद जी ने अपनी परम्परागत भाषा शिल्प का
ही प्रयोग किया है । जयशंकर प्रसाद की भाषा में काव्यात्मकता और लालित्यपूर्णमयी
सौन्दर्य सर्वत्र देखने को मिलता है । आकाशदीप कहानी इसका अपवाद नहीं है ,
काव्यात्मकता और परिवेश चित्रण की दृष्टि से यह कहानी बहुत ही सहज है ,भाषिक
प्रयोग कहीं भी खटकते नहीं । सहज प्रवाहमयी भाषा प्रयोग के साथ-साथ आपने अपनी
काव्यात्मकता को भी बनाये रखा है । विरुद्धों का सामंजस्यमयी चंपा के व्यक्तित्व
को बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रसाद ने इस कहानी के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए एक
अमर प्रेमकथा को जीवंत कर दिया है ।
वास्तव में आकाशदीप साहचर्य जनित प्रेम की एक ऐसी कथा है
,जिसमें कौतुहल भी है ,संवेदन भी और संघर्ष भी है । चंपा और बुधगुप्त दोनों के
आदर्श अलग-अलग हैं ,शायद इसी कारण वो दोनों अंत तक एक-दूसरे से प्रेम करते हुए भी
एक-दुसरे के हो नहीं पाते । कर्तव्य और जीवन के मूल्यों का निर्वहन इस कथा में
व्यापक रूप से देखने हो मिलता है । प्रेम, आलिंगन और साहचर्य के दोनों अपनी-अपनी
मर्यादा में रहते हैं ,और एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान भी करते है , यही इस
कहानी की मूल संवेदना है ।
आकाशदीप’ कहानी माया ममता और स्नेह-सेवा की देवी चम्पा की मार्मिक व्यथा-कथा है। भाव-प्रवण छायावादी कवि प्रसाद की इस कहानी में
चम्पा के पावन चरित्र का मनोहर चित्रण है। कथा का विकास तीव्र गति से हुआ है।
कौतूहल और रोचकता से परिपूर्ण सहज भाव से गतिशील होती हुई यह कहानी अन्त में हमारे
हृदय को बेध जाती है। नाटककार प्रसाद के अद्भूत संवाद सौष्ठव से परिपूर्ण इस कहानी में काव्यात्मक माधुर्य है, प्रकृति के मनोरम दृश्य है, भाषा-लालित्य है और एक मोहक सम्प्रेषणीयता है। कुल मिलाकर यह कहानी प्रसादजी
की कहानी-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। आकाशदीप एक ऐसी कहानी है ,जिसका अंत स्वयं कहानी के
नायक को ही नहीं पाठक और आस्वादक को भी आश्चर्य में डाल देता है ।यही
प्रसाद के कहानी कला की विशेषता है ,कि वो अंत समय में पाठक को चौका देते हैं ।
सन्दर्भ -
1.
प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2009, पृष्ठ-8
2.
विजय
मोहन सिंह , समय और साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2012, पृष्ठ-9.
3.
https://www.hindisamay.com/kahani/akashdeep.htm#top
4.
https://www.hindisamay.com/kahani/akashdeep.htm#top
5.
https://www.hindisamay.com/kahani/akashdeep.htm#top
6.
https://www.hindisamay.com/kahani/akashdeep.htm#top
7.
https://www.hindisamay.com/kahani/akashdeep.htm#top
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