अभिनव प्रेम और सहज का आख्यान :तीसरी कसमउर्फ मरे गये गुल्फाम

  हिन्दी के नई चाल में ढलने और आधुनिक काल के आगमन के साथ-साथ हिन्दी में गद्य लेखन का आरम्भ हुआ । गद्य लेखन के साथ ही गद्य की विविध विधाओं में भी रचनाकारों ने अपनी लेखनी चलाना भी आरम्भ किया । इन गद्य विधाओं में निबंध ,नाटक , उपन्यास और कहानी लेखन का विकास भारतेन्दु और द्विवेदी युग में आरम्भ हुआ और इस युग की पत्रिकाओं ने इनको जन-जन तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । गद्य लेखन और भाषा को प्रौढ़ता प्रदान करने की दिशा महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का विशेष योगदान है । उन्होंने हिन्दी भाषा के परिमार्जन का कार्य किया, जिससे हिन्दी की विविध विधाओं में प्रभावपूर्ण लेखन का मार्ग प्रशस्त हुआ ।

हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास में प्रेमचंद का विशेष महत्व है ,प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य के केन्द्र में समाज के बहुआयामी यथार्थ को बहुविध प्रस्तुत कर साहित्य और समाज के व्यापक संबंध की मजबूत नींव रखी ,जिसे उनके बाद के कथाकारों ने आगे बढ़ाने का कार्य किया । प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में जैनेन्द्र, अज्ञेय और रेणु का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इन कथाकारों हिन्दी कथा भाषा को वर्णनात्मकता के साधारण स्तर से ऊपर उठाया और कथा भाषा को नया आयाम दिया । जैनेन्द्र ने भाषा भंगिमा पर जोर दिया तो अज्ञेय ने शब्दों और भाव के साम्य को नए कलात्मक स्तर पर पहुँचाया ,रेणु ने कथा भाषा में लोक जीवन के रंगों को घोलकर ग्राम्यांचल को जीवन्त करने की एक अभिनव प्रयास किया। कथा भाषा और कथा संवेदन को व्यापकता प्रदान कर इन तीनों ने हिन्दी कहानी और उपन्यास का नया रंग प्रस्तुत किया ।  

हिन्दी कथा साहित्य के विकास में फणीश्वर नाथ रेणु का विशेष योगदान है । प्रेमचन्द और जैनेन्द्र के बाद हिन्दी कथा साहित्य को नया आयाम देने वालों में रेणु का नाम अग्रणी है । रेणु हिन्दी साहित्य के ऐसे कथाकारों में से हैं , जिनकी किस्सागोई का कोई जबाब नहीं है । कहानी कहने और संवेदन को जीवंत और सरस बनाने की कला में आप माहिर हैं । जीवन के समस्त राग-रंग को समग्रता में जीने और उसे अपने लेखन द्वारा जीवंत रूप में प्रस्तुत करने के कारण रेणु का कथा साहित्य में अत्यंत लोकप्रिय हैं । रेणु हिन्दी साहित्य के उन कथाकारों में से हैं ,जिनके कथा साहित्य में लोक और लोक जीवन के प्रति गहरी संवेदना देखने को मिलती है । यद्यपि रेणु को आंचलिक कथाकार के रूप में ज्यादा मान्यता मिली है, लेकिन उनके साहित्य को व्यापक स्तर पर स्वीकृति मिली है । ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन के सूक्ष्म रंगों को रेणु ने बचपन से ही अपने भीतर संचित करना आरम्भ कर दिया था, जिसकी रंग-विरंगी छटाएं उनके कथा साहित्य में यत्र-तत्र बिखरी हुईं हैं । किसी भी लेखक के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण होता है कि वह उस समाज को कितनी सजगता से जानता और समझता है , जिसमें वह जी रहा है , उसके निजी अनुभव और उसकी कल्पना और सर्वश्रेठ मिश्रण ही एक मुकम्मल और प्रभावी साहित्य के सृजन में सहायक होता है ।

 रेणु हिन्दी कथा साहित्य के उस परम्परा के कथाकार हैं ,जिन्होंने लोक के विविध रंगों को उसकी अंतिम सीमा तक गहकर एक नए सरोकार को निभाने का महनीय कार्य किया । रेणु ने ग्राम्यांचल को बहुत शिद्दत से देखा और भोग था । अंचल के कुशल चितेरे की तरह बोली/बानी /गीत/संगीत और लोक कलाओं को आपने बड़े ही सहज रूप में प्रस्तुत किया ।आपकी इसी विशेषता के कारण आप आंचलिक कथाकार के रूप में प्रसिद्द हैं । मैला आँचल आपके द्वारा रचित प्रसिद्द आंचलिक उपन्यास है, जिसे अधिकांश आलोचकों द्वारा पहला आंचलिक उपन्यास माना गया है । रेणु की अन्य कृतियाँ हैं कितने चौराहे , जूलूस , दीर्घतपा . परती परिकथा , पलटू बाबू रोड (उपन्यास )अग्निखोर ,अच्छे आदमी ,ठुमरी (कहानी संग्रह ) । इसके अलावा आपने कुछ निबंध और संस्मरण भी लिखे हैं । मैला आंचल की भूमिका में रेणु कहते हैं कि यह है मैला आंचल एक आंचलिक उपन्यास ..........इसमें फूल भी हैं ,शूल भी,धूल भी है ,गुलाब भी ,कीचड़ भी है, चन्दन भी ,सुन्दरता भी है, कुरूपता भी ,मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया ।

रेणु के मैला आंचल उपन्यास के साथ-साथ उनकी कहानियों में भी अंचल की कथा को समग्रता में प्रस्तुत किया है ।आपकी प्रमुख कहानियाँ हैं रसप्रिया, ठेस ,तिसरी कसम ,लाल पान  की बेगम संवदिया इत्यादि ।इन कहानियों में अंचल के चटख रंग के साथ-साथ अंचल की कलाओं, रीती-रिवाजों, भाषा, मान्यताओं  और परम्पराओं का भी अंकन बड़े ही सहज रूप में देखने को मिलता है । लोक कला , लोक गीत , लोक चेतना की भूमि पर रेणु की लेखनी ने जीवन के विविध रंगों को उकेरने की दिशा में विशेष प्रयास किया है । रेणु हिन्दी क्षेत्र के एक ऐसे कथाकार के रूप में जाने जाते हैं ,जिन्होंने ग्राम्यांचल के विविध रंगों को अपनी लेखनी के माध्यम कथा फलक पर उकेरने में अद्भूत सफलता प्राप्त की है । इसे रेखांकित करते हुए बच्चन सिंह ने लिखा है कि-ग्राम्यांचल की तह में घुसकर उसके शब्द, रूप,रस, गंध, स्पर्श को समग्रता में चित्रित करनेवाले अकेले और अद्वितीय कथाकार हैं फणीश्वर नाथ रेणु । उन्हें प्रेमचंद का सच्चा उत्तराधिकारी कहा जा सकता है ।अपनी समृद्ध कहानियों के बावजूद उन्हें उपेक्षित रखा गया है । प्रेमचंद के गाँव की कहानियाँ इकहरी हैं –दो-एक को छोड़कर । पर रेणु ने बदलते हुए गाँव को, उनके बनते-बिगड़ते मूल्यों को पूरी समग्रता और जटिलता में पूरी तन्मयता के साथ चित्रित किया है । ऐसी तन्मयी भावन योग्यता अन्यत्र नहीं दिखाई पड़ती । प्रेमचंद की कहानियों में किसानी लय है,तो रेणु की कहानियों में पूर्णिया और मिथिला के ग्रामगीतों के छन्द और ध्वनि । वह हर पेड़-पौधा ,फूल को जानते-पहचानते हैं, उसकी खशुबू से परिचित हैं, पक्षियों के रंग और आवाज को अलगा सकते हैं

तीसरी कसम रेणु द्वारा रचित एक ऐसी कहानी है ,जिसमें लोक विश्वास और लोक परम्परा का अंकन किया गया है । तीसरी कसम उर्फ़ मरे गये गुलफाम हिन्दी की बहुचर्चित कहानी है ,जिस पर हिन्दी में फिल्म भी बन चुकी है। हिरामन और हीराबाई की यह कहानी एक नए संवेदन जगत को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है । लोक जीवन में कसम और आस्था के महत्व को रेखांकित करने में इस का विशेष स्थान है । हिरामन के पीठ में होनेवाली गुदगुदी कब उसके जीवन की गुदगुदी बन जाती है ,यह पता ही नहीं चलता और यह गुदगुदी कहानी पढ़नेवाले और आस्वादक के मन देर तक बनी रहती है । रेणु अंचल को जीवन्त करने के साथ-साथ लोक जगत की सृष्टि बड़ी तन्मयता से करते हैं और अपनी कहानियों के माध्यम से हमें लोकानुभव से रूबरू कराते हैं । कहानी का आरम्भ भी बहुत ही रोचक है – हिरामन के पीठ में गुदगुदी लगती है .....

पिछले बीस साल से गाड़ी हांकता है हिरामन। बैलगाड़ी सीमा के उस पार । मोरंग राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है । कंट्रोल के ज़माने में चोरबाजारी का माल इस पार से उस पार पहुचाया है । लेकिन कभी तो ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में !

एक गाड़ीवान के साथ हीराबाई के प्रेम पर आधारित यह कहानी लोक विश्वास के साथ-साथ उदाक्त प्रेम के मर्यादित रूप को बहुत ही खूबसूरती से हमारे समक्ष रखते हुए रेणु लोक जीवन के विविध रंगों से रंगकर इस तरह प्रस्तुत किया है कि हम उसमें खो जाते हैं । जो गुदगुदी हिरामन और हीराबाई के मन में होती है वह गुदगुदी हमारे मन में भी हो उठती है । नायक-नायिका दोनों के बीच सहज प्रेम उत्त्पन्न होता है , और यह प्रेम मित्ता को तीसरी कसम खाने की स्थिति में ला देता है और उधर गुलफाम समाज के दबाव में मारी जाती है । मन के मन से मिलने और दोनों मित्ता की कहानी को समग्रता में प्रस्तुत करते हुए रेणु ने बहुत ही सरस और सहज रूप में आंचलिक और लोक रीतियों का समन्वय किया है । इस कहानी में लोक गीतों के साथ-साथ लोक कथाओं की सरसता ने कहानी में उस अंचल को जीवंत कर दिया है । लोक की सरसता इस कहानी के पोर-पोर में व्याप्त है। बोली-बानी और गालियों का अनायास प्रयोग इस कहानी को और भी समर्थ बनाया है ,जिसे निम्नलिखित पंक्तियों में देख सकते हैं  

महाजन का मुनीम उसी की गाड़ी पर गाठों के बीच चुक्की-मुक्की लगाकर छिपा हुआ था, दारोगा साहब की डेढ़ हाथ लंबी चोरबत्ती की रौशनी कितनी तेज होती है , हिरामन जनता है एक घंटे के लिए आदमी अंधा हो जाता है

महाजन का मुनीम उसी की गाड़ी पर गांठों के बीच चुक्की-मुक्की लगा कर छिपा हुआ था. दारोगा साहब की डेढ़ हाथ लंबी चोरबत्ती की रौशनी कितनी तेज़ होती है, हिरेणु रामन जानता है. एक घंटे के लिए आदमी अंधा हो जाता है, एक छटक भी पड़ जाए आंखों पर! रौशनी के साथ कड़कती हुई आवाजऐ-य! गाड़ी रोको!            साले,गोली मार   देंगे?’

इस समय कहानी का नायक एक कसम लेता है ,लोक जीवन में कसम को बहुत ही विश्वसनीयता के साथ स्वीकृति मिली हुई है इसी सन्दर्भ को यह कहानी हमारे समक्ष अपने सम्पूर्ण यथार्थ के साथ अभिव्यक्त करती है, रेणु की सबसे बड़ी विशेषता यही है की अंचल की वास्तविकता से रूबरू इस तरह हैं कि सब कुछ हमरे समक्ष उपस्थित हो जाता है,और हम उस लोक में खो जाते हैं

रेणु प्रेमचंद के बाद ग्रामीण जीवन के सबसे प्रमुख कथाकार हैं इनकी प्रमुखता का सबसे बड़ा कारण है – ग्रामीण जीवन को अपने कथा क्षेत्र का आधार बनाते हुए भी प्रेमचंद के कथा शिल्प से अपने को विलगाना प्रेमचंद और रेणु दोनों के पात्र निम्नवर्गीय हरिजन ,किसान, लोहार ,बढई,चर्मकार आदि हैं ।दोनों कथाकारों ने साधारण पात्रों की जीवन कथा की रचना की है पर दोनों के कथा विन्यास और रचनादृष्टि बहुत फर्क है । रेणु की रचना जगत प्रेमचंद से कहीं ज्यादा जीवन्त है ,इसके पीछे मुख्य कारण रेणु का अंचल के प्रति लगाव ही है । रेणु के समान लोक रंग और लोक जीवन की गमक शायद ही कहीं देखने को मिले । तिसरी कसम कहानी लोक रन रंग से सराबोर एक ऐसी प्रेमकथा है ,जिसमें मर्यादा के साथ-साथ सब कुछ त्याग देने की प्रबलता अपने उदाक्त रूप में मौजूद है ।

हिरामन और हीराबाई दोनों प्रेम सहज और स्वाभाविक है ,इस प्रेम में त्याग और समर्पण के साथ-साथ जीवन और समाज की परम्पराओं का निर्वहन देखने को मिलता है । हिरामन का हीरे जैसा चमकदार चरित्र और हीराबाई के मन की कोमलता पाठक के मन को भावुक कर देती है ।   

 

  रेणु एक ऐसे कथाकार के रूप में जाने जाते हैं ,जिन्होंने लोक मन को खूब ढंग से जांचा और परखा है और उसे हुबहू अपनी कहानियों और उपन्यासों में उभरा भी है , यह सब करते हुए रेणु ने भाषा के उस सूत्र को पकड़ा है जो विरले ही देखने को मिलती है । तीसरीरी कसम कहानी में रेणु ने जो भाषा रची है वह सर्वथा नई और विषय वस्तु के अनुरूप है । रेणु एक ऐसे किस्स्गो हैं ,जो लोक में  डूबकर कथा रचते हैं ,और पाठक को भाव-विभोर कर देते हैं । इस भाव-विभोर करने की कला रेणु की भाषा के और भी सक्षम हुई है , भाषा जीवन के सभी रंगों को हमारे समक्ष इस तरह उभारती है कि हम उस रंग में रेंज बिना रह ही नहीं सकते । हिरामन और हीराबाई के संवाद मन में उतरने वाले तो हैं ही साथ ही हमें हमारे मन मित्त के लिए प्रगाढ़ भाव भर देते हैं -,

साला! क्या समझता है, बोरे की लदनी है क्या?’
अहा! मारो मत!
अनदेखी औरत की आवाज़ ने हिरामन को अचरज में डाल दिया. बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनूगिलासी बोली!


हिरामन की गाली और हीराबाई की बच्चों जैसी फेनूगिलासी बोली भाषाई यथार्थ से ज्यादा भाषाई रंगत को हमरे समक्ष प्रस्तुत करता है।दोनों के बीच के संवाद में जो आत्नीय भाव है वह देखते ही बनता है । हिरामन का मन किस तरह हीराबाई के रूप और गंध में डूबता ही जाता है इसका चित्र रेणु ने इस तरह खिंचा है कि सब कुछ सामने घटित सा होता हुआ जन पड़ता है –

 

हिरामन की सवारी ने करवट ली. चांदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया,‘अरे बाप! ई तो परी है!
परी की आंखें खुल गईं. हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुंह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी. वह जीभ को तालू से सटा कर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है. हिरामन की जीभ न जाने कब से सूख कर लकड़ी-जैसी हो गई थी!
भैया, तुम्हारा नाम क्या है?’
हू-ब-हू फेनूगिलास! ...हिरामन के रोम-रोम बज उठे. मुंह से बोली नहीं निकली. उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं.
मेरा नाम! ...नाम मेरा है हिरामन!
उसकी सवारी मुस्कराती है. ...मुस्कराहट में ख़ुशबू है.
तब तो मीता कहूंगी, भैया नहीं. मेरा नाम भी हीरा है.
इस्स!हिरामन को परतीत नहीं. मर्द और औरत के नाम में फ़र्क़ होता है.
हां जी, मेरा नाम भी हीराबाई है.
कहां हिरामन और कहां हीराबाई, बहुत फ़र्क़ है!

 

रेणु ही ऐसे किस्सागो हैं जो मुस्कराहट में खुशबू और शब्दों में टि-टि-टि-टि ध्वन्यात्मकता के साथ साथ हिरामन चीखते-चीखते रुक गया,‘अरे बाप! ई तो परी है! कहते कहते रुकने की सर्जना में समर्थ हैं भाषा पर पूर्ण अधिकार के साथ कहानी कहने की क्षमता के कारण ही रेणु की ख्याति आंचलिक कथाकार के रूप है , हिन्दी ही क्या?शायद ही किसी भाषा में रेणु के समक्ष कोई कथाकर जो इस तरह आँचल की को मूर्तमान कर उसमें हमें डूबा सके तीसरी कसम फिल्म और कहानी दोनों सहृदयों के लिए समान है , जो प्रभाव फ़िल्मकार तमाम फ़िल्मी उपकरणों और अभिनेता एवं अभिनेत्री के अभिनय से निर्मित करता है ,वह रेणु शब्दों के माध्यम से निर्मित्त कर देते हैं

लोक भाषा के साथ-साथ लोक विश्वास का मूर्तन भी इस कहानी में देखने को मिलाता है , हिरामन का कसम और हिरामन का पहले हीराबाई को खाने को कहना यह हमारे लोक का अभिन्न हिस्सा है हिरामन जब गाड़ी रोकता है और जाकर दहीचुडा और चीनी लाता है तो पहले हीराबाई को खाने के लिए ही कहता है –

उठिए, नींद तोड़िए! दो मुट्ठी जलपान कर लीजिए!
हीराबाई आंख खोल कर अचरज में पड़ गई. एक हाथ में मिट्टी के नए बरतन में दही, केले के पत्ते. दूसरे हाथ में बालटी-भर पानी. आंखों में आत्मीयतापूर्ण अनुरोध!
इतनी चीज़ें कहां से ले आए!
इस गांव का दही नामी है. ...चाह तो फारबिसगंज जा कर ही पाइएगा.
हिरामन की देह की गुदगुदी मिट गई. हीराबाई ने कहा,‘तुम भी पत्तल बिछाओ. ...क्यों? तुम नहीं खाओगे तो समेट कर रख लो अपनी झोली में. मैं भी नहीं खाऊंगी.
इस्स!हिरामन लजा कर बोला,‘अच्छी बात! आप खा लीजिए पहले!
पहले-पीछे क्या? तुम भी बैठो.
हिरामन का जी जुड़ा गया. हीराबाई ने अपने हाथ से उसका पत्तल बिछा दिया, पानी छींट दिया, चूड़ा निकाल कर दिया. इस्स! धन्न है, धन्न है! हिरामन ने देखा, भगवती मैया भोग लगा रही है. लाल होंठों पर गोरस का परस! ...पहाड़ी तोते को दूध-भात खाते देखा है?



हिरामन और हीराबाई का क्षणिक स्नेह और एक-दुसरे के लिए सम्मान देखते ही बनता है ,इस्स कहना और हिरामन का लज्जित होना और दोनों का साहचर्य जनित प्रेम का विकसित होना देखते ही बनता है हीराबाई की तरह जिद करती है और कहती है कि तुम नहीं खाओगे तो समेत कर रख लो अपनी झोली में यह प्रसंग हमारे में को सहृदयता से भर देता है । ,हिरामन के जी जुड़ा जाना  लोक जीवन का वह रंग है जो आज भी लोक में देखने को मिल जायेगा

इस कहानी की एक और विशेषता यह है की इसमें लोक भाषा के लोक रंग के साथ-साथ लोक जीवन में दुल्हनिया को कैसे बच्चे देखने के लिए उत्सुक रहते हैं यह प्रसंग भी मूर्तमान हुआ है । बच्चे किस तरह दुल्हन के पीछे-पीछे जाते हैं और किस तरह का व्यवहार करते हैं यह निम्नलिखित पंक्तियों के माध्यम से रेणु हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है –

गांव के बच्चों ने परदेवाली गाड़ी देखी और तालियां बजा-बजा कर रटी हुई पंक्तियां दुहराने लगे-
लाली-लाली डोलिया में
लाली रे दुलहिनिया
पान खाए...!


 

कहानी और इसके कथ्य के माध्यम से रेणु ने उस जीवन को सदियों के संजोने का कार्य किया ,जो आज तो विलुप्त हो चला है और हम इस कहानी को पढ़कर अपने अतीत को एक बार फिर से जी लेते हैं । यह कहानी प्रेमचंद और गुलेरी जी की उस भाषा परम्परा को आगे बढ़ने का कार्य किया जिसमें आमजन की भाषा को को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का कार्य आरम्भ हुआ था । तीसरी कसम एक ऐसी प्रेम कथा है ,जिसमें हिरामन और हीराबाई का मन तो मिला जाता है ,लेकिन वो नहीं मिल पाते , कुछ उसी तरह जैसे उसने कहा था में लहना सिंह और गुंडा कहानी में नन्हकू सिंह। शायद यथार्थ यही है कि सच्चे प्रेम करनेवाले एक-दूसरे लिए अपना सब कुछ समर्पित कर देते हैं । रेणु की ही कहानी रसप्रिया में भी प्रेम का यही रूप देखने को मिलाता है ।

 

 

 

 

 

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