भाषा और व्यक्तित्व


    
भाषा का संसार अपने आप में बहुत ही व्यापक और विस्तृत है । भाषा अपने व्यक्तित्व में बहुआयामी एवं वैविध्यपूर्ण है । भाषा के होने की सबसे बड़ी सार्थकता उसके चेतन होने में है । भाषा अपने स्वरूप में चर है, जो निरंतर समय और समाज के अनुरूप प्रवाहित होती रहती है । आज के तकनीकी और प्रचंड भौतिकता के दौर में भाषा बहुरूपी होती जा रही है ,क्योंकि भाषा एक साथ कई स्तरों पर सक्रिय रहती है । भाषा की यही सक्रियता उसे समय की यात्रा में आगे जाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है । समाज, संस्कृति, राजनीति और अर्थतंत्र के मोर्चों पर भाषा का नियोजन एक महत्वपूर्ण भाषा कार्य है । इन सभी आयामों के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए हिंदी भाषा निरंतर वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाये हुए है । हिंदी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह भाषा लोक जगत के अनुभवों का सामंजस्य ई-जगत के बड़ी आसानी से कर रही है । हिंदी वर्तमान में तेजी से विकसित हो रही है ,इसके पीछे सबसे बड़ा कारण हिंदी की उदारता है ।
भाषिक अधिग्रहण के कारण आज हिंदी में दुनिया भर की भाषाओँ के शब्द अटे पड़े हैं । भाषिक उदारता और निरंतर परिवर्तन की प्रकृति ने हिंदी को नई पहचान दी है ।

हिंदी भाषा के वर्तमान स्वरूप पर विचार करने से पूर्व हमें उस परम्परा को जानना होगा जिससे हिंदी भाषा का विकास हुआ है । हिंदी भाषा में उपलब्ध साहित्य की बात करें तो व्यवस्थित रूप से दसवीं शताब्दी से हिंदी साहित्य की परम्परा हमें देखने को मिलती है । हिंदी साहित्य अपने मूल रूप में हिंदी क्षेत्र में प्रचलित बोलियों का समुच्चय है,जिसमें अवधी, मैथिलि ,ब्रजी, भोजपुरी, राजस्थानी, मेवाती, डिंगल-पिंगल, खड़ी बोली आदि का देखा जा सकता है । इन्हीं भाषाओँ से आज की हिंदी निरंतर समृद्ध होती जा रही है । लोक के व्यापक आधार से हिंदी अपने आरंभिक काल से लेकर आज तक समृद्ध हो रही है । हिंदी का बहुत ही व्यापक और विस्तृत है और अपने भाषा के प्रति लगाव के कारण ही आज हिंदी वैश्विक स्तर क्षेत्र विस्तार की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है । हिंदी एक बहुत ही उदार और विकसनशील भाषा के रूप में जानी जाती है । एक भाषा होने के साथ-साथ हिंदी भारत एक बहुत बड़े समुदाय की चेतना का आधार भी है, इसी कारण हिंदी भाषा पर विचार करते हुए उस चेतना की विशालता और निरंतरता को सही संदर्भों में समझना चाहिए ।

किसी भी भाषा को उसकी चेतना और संस्कृति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भाषा में संस्कृतियों के संवहन की आपर क्षमता है, इन दोनों का सामंजस्य ही भाषा को परिपूर्ण बनाता है । आइये हम भाषा के संसार को जानते हैं, और भाषा के सूक्ष्म अवयवों की पड़ताल करते हैं ।  

भाषा के सन्दर्भ में बहुत सी बातें प्रचलित हैं , लोग अलग-अलग ढंग से भाषा को जानते समझते हैं . लोग जितने ढंग से भाषा बोलते और समझते हैं ,भाषा अपने रूप में उतनी ही विषम रुपी है . भाषा हमारे मनोजगत पर पड़ने वाले प्रभावों से प्रभावित और परिवर्धित होती रहती है . भाषा के कुछ तत्व जिन्हें हम जानते ही नहीं हैं ,लेकिन उनका प्रयोग हम करते रहते हैं ,आइये हम भाषा के कुछ ऐसे तत्वों को जानते हैं जो हमें प्रभावी ढंग से अपनी बात प्रस्तुत करने में सहायक होंगे -

 

-हमारी भाषा में अनेकों भाषाओँ के शब्दों का होना

-अशाब्दिक सम्प्रेषण पर जोर 

-ध्यान से सुनने की क्षमता 

-वार्तालाप के समय में सोशल मिडिया का प्रयोग ना करना 

-सहज एवं भावपूर्ण शब्दों का प्रयोग 

-भाषा व्यवहार में आँखों का विशेष योगदान है

-बातचीत करते हुए सामने वाले से नजर मिलाकर ही संवाद करना चाहिए

-भाषा हमारे व्यक्तित्व का प्रतिबिम्बन करती है ,इसलिए वार्तालाप में सहजता हमेशा बनाये रखनी चाहिए

-भाषाबोध का होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ,उस समय भाषा वैविध्य से बचना चाहिए जब बहुत से लोग हों और अनेक भाषा भाषी हों , ऐसे समय में उसी भाषा के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जिसे वहां उपस्थित सभी लोग जानते समझते हों .  

 

 

वार्तालाप के इन तथ्यों के साथ-साथ व्यक्तित्व सम्प्रेषण में आपके वेश-भूषा भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है , समय और परिवेश के अनुरूप परिधान धारण कर आप सामने वाले पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकने में सक्षम होंगे . हमारे यहाँ एक कहावत अत्यंत महत्वपूर्ण है – भेष से ही भीख मिलेला . इस तरह प्रभावी ढंग से अपने आप को प्रस्तुत करने में सफल होंगे .

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