ठेठ बनारसी भाषा की ठसक का आख्यान:काशी का अस्सी
ठेठ बनारसी भाषा की ठसक का आख्यान:काशी का अस्सी
हिंदी उपन्यासों
की परम्परा में यथार्थ और भाषा का बेहतरीन सामंजस्य देखने को मिलता है ।जीवन-जगत
के यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए औपन्यासिक भाषा
बहुआयामी होती गयी है, परीक्षागुरू में हिंदी भाषा जो स्वरूप देखने को मिलता है,वह
निरंतर यथार्थोन्मुख होते हुए निरंतर गतिमान है । यथार्थ को अभिव्यक्त करते हुए भाषा औपन्यासिक
भाषा निरंतर नए रूप में ढलती और बनती जा रही है । भाषा के इस नयेपन
में लोक और शिष्ट के साथ-साथ ठेठ देशीपन ने भाषा को अत्यंत प्रभावी और सम्प्रेषणीय
बना दिया है । हिंदी उपन्यासों की भाषा में अपने आरम्भिक समय से ही सहजता का पुट
देखने को मिलता है । भाषा अपने स्वरूप में
मूलतः चर है, भाषा का यह चर रूप हिंदी औपन्यासिकी में भी हम देख सकते हैं ।
परीक्षागुरू से लेकर अब तक हिंदी उपन्यासों की की भाषा में बहुस्तरीय परिवर्तन
देखने को मिलता है । औपन्यासिक भाषा की दृष्टि हिंदी उपन्यासों ने एक लम्बी यात्रा
तय कर लिया है । काशी का
अस्सी हिंदी औपन्यासिक भाषा की यात्रा में एक विशिष्ट उपन्यास है । काशी के
बहुआयामी रंग को बड़े चटक रूप में ठेठ भाषाई रंगत में औपन्यासिक फलक पर उभारने यह
उपन्यास बेजोड़ है ,एक बेपरवाह सी भाषा जो सिर्फ इस उपन्यास के विषय-वस्तु जीवंत
करने में है ।
उपन्यास के आरम्भ
में ही कथाकार ने लिखा है कि- ‘शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा
ऐतिहासिक मुहल्ला अस्सी । अस्सी चौराहे पर भिस-भाडवाली चाय की दुकान ।इस दुकान में
रात-दिन बहसों में उलझते ,लड़ते-झगड़ते, गाली-गलौज करते कुछ स्वनामधन्य अखाडिए
बैठकबाज । न कभी उनकी बहसें खत्म होती हैं , न सुबह-शाम । जिन्हें आना हो आएँ,
जाना हो जाएँ । इसी मुहल्ले और दुकान का ‘लाइव शो’ है यह कृत्ति – उपन्यास का
उपन्यास और कथाएँ की कथाएँ । खासा चर्चित ,विवादित और बदनाम । लेकिन बदनाम अभिजनों
में ,आम जनों में नहीं ! आम जन और आम पाठक ही इस उपन्यास की जमीन रहे हैं !’
उपरोक्त पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि काशी का
अस्सी नये कलेवर का उपन्यास है । भाषा
,विषय-वस्तु और शिल्प सभी दृष्टियों यह उपन्यास उन्मुक्त है । इसमें आम जन के संस्कृति और जीवन की झांकी देखने को मिलती
है ,एक ऐसा जीवन जो जीवन्तता और बेपरवाही से अटा पड़ा है । इसकी विषय-वस्तु वह जीवन
है जो काशी की गलियों और चौराहों पर देखने को मिल जायेगा । गलियों और चौराहों के
जीवन को उन्मुक्त भाव से प्रस्तुत करते हुए काशी नाथ जी ने एक उन्मुक्त औपन्यासिक
भाषा का प्रयोग कर ठेठ बनारसी गलियों की ठसक को मूर्त कर कर दिया है । उपन्यास के
शुरू ही में कथाकार ने अभिजनों को आगाह करते हुए लिखा है कि-
‘मित्रों यह
संस्करण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढों के लिए नहीं ;और उनके लिए भी नहीं जो
यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है !जो भाषा में गन्दगी
,गाली , अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें हमारे मुहल्ले के
भाषाविद परम कहते हैं ,वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएँ-’
भाषा को लेकर इस तरह का प्रयोग हिंदी उपन्यास में पहली बार देखने को मिलता है, लेखक स्वयं ही भाषा को आम जन की बात कहकर यह स्पष्ट कर देता है कि जिनका भाषा के प्रति संकुचित दृष्टिकोण वो इसे ना पढ़ें .....
क्रमशः ----
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