रसप्रिया : फणीश्वर नाथ रेणु





हिन्दी कथा साहित्य के विकास में फणीश्वर नाथ रेणु का विशेष योगदान है । प्रेमचन्द और जैनेन्द्र के बाद हिन्दी कथा साहित्य को नया आयाम देने वालों में रेणु का नाम अग्रणी है । रेणु हिन्दी साहित्य के ऐसे कथाकारों में से हैं , जिनकी किस्सागोई का कोई जबाब नहीं है । कहानी कहने और संवेदन को जीवंत और सरस बनाने की कला में आप माहिर हैं । जीवन के समस्त राग-रंग को समग्रता में जीने और उसे अपने लेखन द्वारा जीवंत रूप में प्रस्तुत करने के कारण रेणु का कथा साहित्य में अत्यंत लोकप्रिय हैं ।

रेणु ने ग्राम्यांचल को बहुत शिद्दत से देखा और भोग था । अंचल के कुशल चितेरे की तरह बोली/बानी /गीत/संगीत और लोक कलाओं को आपने बड़े ही सहज रूप में प्रस्तुत किया ।आपकी इसी विशेषता के कारण आप आंचलिक कथाकार के रूप में प्रसिद्द हैं । मैला आँचल आपके द्वारा रचित प्रसिद्द आंचलिक उपन्यास है, जिसे अधिकांश आलोचकों द्वारा पहला आंचलिक उपन्यास माना गया है । रेणु की अन्य कृतियाँ हैं – कितने चौराहे , जूलूस , दीर्घतपा . परती परिकथा , पलटू बाबू रोड (उपन्यास )अग्निखोर ,अच्छे आदमी ,ठुमरी (कहानी संग्रह ) । इसके अलावा आपने कुछ निबंध और संस्मरण भी लिखे हैं ।

रेणु के मैला आंचल उपन्यास के साथ-साथ उनकी कहानियों में भी अंचल की कथा को समग्रता में प्रस्तुत किया है ।आपकी प्रमुख कहानियाँ हैं – रसप्रिया, ठेस ,तिसरी कसम ,लाल पान  की बेगम संवदिया इत्यादि ।इन कहानियों में अंचल के चटख रंग के साथ-साथ अंचल की कलाओं, रीती-रिवाजों, भाषा, मान्यताओं  और परम्पराओं का भी अंकन बड़े ही सहज रूप में देखने को मिलता है ।

रसप्रिया रेणु की एक ऐसी कहानी है जिसमें प्रेम ,त्याग और समर्पण के साथ-साथ लोक कला की लुप्त होती परम्परा को कहानी के माध्यम से हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है ।कहानी की आरंभिक पंक्तियाँ हैं –

‘धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला -गई -अपरूप -रूप !

चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पंचकौड़ी मिरदंगिया के मुँह से निकल पड़ा अपरूप-रूप !

......खेतों,मैदानों ,बाग-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुन्दरता ! मिरदंगियाकी क्षीण-ज्योति ऑंखें सजल हो गई ।

मोहना ने मुस्कराकर पूछा –तुम्हारी उँगली तो रसपिरिया बजाते टेढ़ा हुई है ,है –न?’

       मोहना का मिरदंगिया से पूछना और उसके मन में सवालों का उठना इस कहानी की कथा-वस्तु की ओर संकेत करता है कि मोहना पंचकौड़ी मिरदंगिया के बारे में बहुत कुछ जनता है। बुढा मिरदंगिया चौंक जाता है और उससे पूछने लगता है कि तुमने कैसे जाना और उसे बेटा कहते-कहते रुक जाता है। बेटा ना कहने कारण है कि एक बार बेटा कहने पर ही उसे बहुत मार पड़ी थी –

"परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से बेटा कह दिया था ।सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेरकर मारपीट की तयारी की थी- बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा ?मारो साले बुड्ढे को घेरकर !.....मृदंग फोड़ दो ।"

उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से हमारे समाज में व्याप्त जातिगत भेद को रेखांकित किया है , इसके साथ ही साथ गाली का प्रयोग देखने को मिलाता है ,ये चीजें हमारे अंचल का अभिन्न अंग हैं । मिरदंगिया ने उसके बाद कभी किसी को बेटा नहीं कहा ,लेकिन आज मोहना के प्रति उसके मन में अगाध स्नेह भाव जागृत हो गया है और वह उसे बेटा कहना चाहता है ,और कह ही देता है – रसपिरिया की बात किसने बताई तुमसे ?.......बोलो बेटा !

मोहना और गाँव के आस-पास के लोग मिरदंगिया को अधपगला मानते हैं ,मोहना फिर भी उससे रसपिरिया गाने का निवेदन करता है और मिरदंगिया उससे फिर वही बात पूछता है कि किसने बताया । मोहना के प्रति मिरदंगिया के मन प्रेम उमड़ता है ,वह उसके सांवले रूप पर रीझ जाता है और मोहना अपने बैलों के पास भाग जाता है ।भागता भी है मार के डर से कि कहीं उसके बैल किसी के खेत में चले जाएँ । मोहना और मिरदंगिया का प्रेम और रसप्रिया का गायन इस कहानी की मूल संवेदना है । मोहना और मिरदंगिया का लगाव अकारण नहीं है ,जो कहानी के अगले हिस्से में स्पष्ट होता है ।

मोहना के जाने के बाद पंचकौड़ी मिरदंगिया अपने अतीत में खो जाता है ,वह लोक की उन  परम्पराओं को याद करता है , जो धीरे-धीरे लुप्त होतीं जा रहीं हैं । रेणु एक ऐसे कथाकार हैं जिन्हें लोक परम्पराओं के प्रति बहुत ही लगाव था ,और उनकी चिंता भी थी । इसके बारे में चिन्तन करते हुए मिरदंगिया सोचता है –

"......जेठ की चढ़ती दोपहरी में खेतों में काम करने वाले भी अब गीत नहीं गातें हैं ।.......... कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जाएगी क्या ?ऐसी दोपहरी में चुपचाप कैसे काम किया जाता है । पांच साल पहले तक लोगों के दिलों में हुलारस बाकी था ।....... पहली वर्षा में भीगी हुई धरती के हरे भरे पौधों से एक खास किस्म की गन्ध निकलती है ।तपती दोपहरी में माँ की तरह गल उठती थी –रस की डाली । वे गाने लगते थे –बिरहा ,चाँचर ,लगनी । .....खेतों में काम करते हुए गाने वाले गीत भी समय-असमय का ख्याल करके गए जाते हैं ।रिमझिम वर्षा में बारहमासा ,चिलचिलाती धुप में बिरहा ,चाँचर और लगनी –

हाँ ....रे ,हल जोते हलवाहा भैया रे ......खुरपी रे चलावे ......म-ज-दू-र !एहि पंथे ,धनि मोरा हे रुसली ।"

रेणु की संवेदना में लोक जीवन के श्रम गीत जीवंत हो उठे है, पंचकौड़ी के माध्यम से कथाकार ने उस कला को संरक्षित करने का कार्य किया है जो शायद आजकल हमें कहानियों में ही मिलेंगी । मिरदंगिया मोहना की प्रतीक्षा करते हुए अपने अत्तीत का प्रत्यावलोकन करता है और उसके सामने वह सब कुछ मूर्त हो जाता है ,जो वह जी चूका है और शायद उसी का पश्चाताप कर रहा है ,और मोहना की प्रतीक्षा । मोहना वापस आता है और मिरदंगिया उसे अपने पास बैठाता है ,उसे खाने को देता है और कहता है – आओ,एक मुट्ठी खालो । किन्तु मोहना की आँखों से रहरहकर कोई झांकता था ,मुढ़ी और आम को एक साथ निगल जाना चाहता था ।........भूखा ,बीमार भगवान् –आओ खा लो बेटा !........रसपिरिया नहीं सुनोगे ?

       मोहना को इस तरह का स्नेह भरा आमंत्रण खाने के लिए माँ के अलावा किसी से नहीं मिला था , लेकिन वह डर रहा था की अन्य चरवाहे माँ से ना कह दें और वह कहता है –मुझे भुख नहीं ।  

मोहना कहता है कि वह भीख का अन्न नहीं खायेगा और यह कहते हुए भाग जाता है कि डायन के कारण उसकी उँगली टेढ़ी हो गई है । मिरदंगिया को रामपतिया की याद आ जाती है ,और उसके सामने इतिहास का पूरा अध्याय घूम जाता है कि कैसे उसने रामपतिया के छल किया था ,लेकिन प्रेम का सूक्ष्म तार उससे जुड़ा हुआ है और उसी के कारण मोहना के प्रति उसके मन में स्नेह जाग रहा था ।

       मोहना कुछ देर बाद वहीँ झाड़ियों में बैठकर रसप्रिया गाने लगा ,उसकी आवाज़ सुनकर मिरदंगिया बजाने लगा और तन्मय हो गया । फिर मोहना मिरदंगिया के पास आये और उसके द्वारा दिए गये तीन आम खा गया । आगे दोनों में जो संवाद होता है ,उससे पंचकौड़ी मिरदंगिया को सब कुछ ज्ञात हो जाता है । और वह मोहना से कहता देखो मेरी उँगली सीधी हो रही है और मैं निर्गुण गाऊंगा । पंचकौड़ी मिरदंगिया चला जाता है और मोहना आकर अपनी माँ से बताता है जब वह पूछती है –

-मिरदंगिया और कुछ बोलता था, बेटा?(मोहना की माँ आगे कुछ न बोल सकी )

-कहता था ,तुम्हारे जैसा गुणवान बेटा पाकर तुम्हारी माँ महारानी है ,मैं तो दस-दुआरी हूँ ।  

 

रसप्रिया कहानी एक प्रेमकथा है ,जिसमें राग-द्वेष का देखने को मिलाता है । रेणु आंचलिक रंग के एक ऐसे चित्रकार हैं जो अपनी लेखनी के माध्यम से लोक जीवन को संजोने का कार्य अपने कहानियों और उपन्यासों में करने के जाने जाते हैं । रसप्रिया कहानी में लोक गीत और विद्यापति की परम्परा को महत्व को उभारा गया है । श्रम गीत कब कौन से गए जाते हैं ,इसके बारे में भी इस कहानी में बताया गया है ।यह कहानी अपने आप में विशिष्ट इस कारण भी है कि इसमें प्रेम का उदात्त रूप निरुपित हुआ है .

 



Comments

  1. बहुत सुंदर अवलोकन ।
    फणीश्वरनाथ रेणु ने ग्राम्य जीवन का वर्णन बहुत ही सुंदर ढंग से किया है ।

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  2. आभार आपका।आपके उत्साह वर्धन से हमें और प्रेरणा मिलेगी।

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  3. बहुत ही प्रभावशाली तरीके से समझाया हैं आपने 🙏🙏🙏

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  4. बहुत ही अच्छी कहानी रस प्रिया और रेणु जी की आंचलिक भाषाओं और उनकी कहानी की विशेषता का वर्णन ,मोहना और मिरदंगिया के बीच एक स्नेह...

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